महात्मा गांधी आज भी निशाने पर हैं! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2019
अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ एक विचारोत्तेजक फिल्म थी। फिल्म में दिखाया गया है कि एक पिता अपनी पुत्री के साथ बच्चों द्वारा खेले जाने वाला डार्ट मारने का मासूम-सा खेल खेल रहा था। इस खेल में एक बोर्ड पर प्लास्टिक का तीर नुमा डार्ट निशाने पर लगाया जाता है। बोर्ड पर रंगों के घेरे हैं और बीच में एक बिंदु पर डार्ट मारने वाला विजयी माना जाता है। इस स्थान को बुल्स आई कहा जाता है। सारी निशानेबाजियों में पशु या मछली की आंख को निशाना माना जाता है। यह संभव है कि मानव के शिकार युग से ही मवेशी या मछली की आंख पर निशाना साधना तीरंदाजी कला का श्रेष्ठतम माना जाता रहा है। ज्ञातव्य है कि महाभारत में द्रौपदी के विवाह के लिए आयोजित प्रतिस्पर्धा में मछली की आंख को प्रतििबंब में देखकर तीर मारना है। लक्ष्यभेदने की क्षमता केवल अर्जुन और कर्ण के पास थी। कर्ण को सूतपुत्र कहकर बाहर रखा
गया। हमारी सामाजिक संरचना का वैचारिक केंद्र विभाजन है। धर्म, जाति, उपजाति, गोत्र इत्यादि अनगिनत विभाजन है। रंगभेद भी जस का तस कायम है। एकता कभी केंद्रीय विचार नहीं रहा। याद आती है निदा फाज़ली की पंक्तियां-
‘हर मुट्ठी में उलझा रेशम, डोरे भीतर डोरा है/ बाहर सौ गांठों के ताले, भीतर कागज कोरा है।’
आय के आधार पर भी विभाजन किया गया है। समानता के आदर्श को हमने जमकर रौंदा है। उस फिल्म में अनुपम खेर अभिनीत पिता का पात्र डार्ट का मासूम खेल खेल रहा है। उसके द्वारा फेंका गया डार्ट इत्तेफाक से महात्मा गांधी की तस्वीर पर लगता है और ठीक उसी समय रेडियो पर नाथूराम गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या का समाचार आता है। उस मनुष्य के मस्तिष्क में एक केमिकल लोचा पैदा हो जाता है। वह चीखकर कहता है कि उसने महात्मा गांधी को नहीं मारा। वह सारे समय यही बात दोहराता है। पास-पड़ोस के लोग उसे समझाते हैं परंतु वह यही कहता रहता है कि उसने गांधी को नहीं मारा।
फिल्म में उर्मिला मातोंडकर अभिनीत पुत्री एक युवा से प्रेम करती है। अपने पिता के केमिकल लोचे के कारण उसके लिए यह जरूरी है कि वह सारा जीवन अपने पिता की सेवा करे और जब पिता सो रहा होता है तब भी पुत्री उनकी निगरानी करते हुए जागती रहती है। कभी इस तरह किसी प्रेम कथा में अटका रोड़ा हमने नहीं देखा। इस तरह पुत्री का सोते हुए पिता पर निगाह रखना मंगलेश डबराल की कविता की याद दिलाता है,
‘मां कहती हैं जब हम रात के विचित्र पशुओं से घिरे सो रहे होते हैं/ दादा इस तस्वीर में जागते रहते हैं/ वे जागते रहते हैं हमारी खातिर/ हमारे सपने, हमारे सुखों के लिए’।
इस फिल्म में मामला उलटा है कि पुत्री जाग रही है। इस समय समाज के समुद्र में उतुंग लहरे हैं और अपनी नौका को केवल कविता के सहारे डूबने से बचाया जा सकता है। डॉक्टर कहते हैं कि एक सेवफल प्रतिदिन खाने से बीमारी दूर रहती है। ठीक इसी तरह वर्तमान समय में दिन में कम से कम एक कविता पढ़ने से हम स्वयं को अनजान केमिकल लोचे से बचाए रख सकते हैं। बहरहाल, अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर के अभिनय ने इस फिल्म को बहुत ही यादगार बना दिया है। हाल ही में अनुपम खेर अभिनीत भूतपूर्व प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह पर बनी बायोपिक को दर्शकों ने अस्वीकार कर दिया। फिल्म का पाकिस्तान में प्रदर्शन हुआ तो अनुपम खेर ने इसको प्रचारित किया, जिसकी प्रतिक्रिया उन्हें महंगी पड़ गई। इस समय खेर महोदय परेशान व पशेमां से नज़र आ रहे हैं। ज्ञातव्य है कि एक विदेशी फिल्मकार ने नाथूराम गोडसे को गरिमा प्रदान करने वाली फिल्म ‘नाइन अवर्सटू रामा’ बनाई थी। यह फूहड़ता भी दर्शक ने अस्वीकार कर दी। यह भी तथ्य है कि कुछ समय पूर्व गोडसे का स्मारक बनाने की बचकानी कोशिश की गई थी। इसी वर्ष महात्मा गांधी के निर्वाण दिवस पर उनकी तस्वीर पर गोलियां दागने वाले मीडिया के दबाव के कारण एक सप्ताह बाद गिरफ्तार किए गए हैं। उन्हें सजा मिले या न मिले परंतु चिंता का कारण तो यह है कि इस तरह के दूषित विचार मौजूद हैं।
महात्मा गांधी ने ही अहिंसा का प्रयोग एक शस्त्र की तरह किया। यह उन्हें हमारी संस्कृति से नहीं मिला था जैसा कि प्रोफेसर उपिंदर सिंह की किताब ‘पॉलिटिकल वायलेन्स इन एनशन्ट इंडिया’ में प्रतिपादित किया गया है। अगर भारत को एक फिल्म मान लें तो महात्मा गांधी का प्रभाव वाला कालखंड उस फिल्म का दिल लुभाने वाला स्वप्न दृश्य माना जा सकता है। भविष्य में हमारे इस वर्तमान को भयावह दुस्वप्न की तरह माना जा सकता है और इस कालखंड के हर आम आदमी को एक योद्धा माना जाएगा।