महात्मा गांधी और सिनेमा / सुनील मिश्र

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पुस्तक चर्चा : महात्मा गांधी और सिनेमा
--सुनील मिश्र

वरिष्ठ फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे की नयी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा, हिन्दी सिनेमा के परिदृश्य पर महात्मा गांधी के प्रभाव का गम्भीर आकलन करती है। जयप्रकाश चौकसे की आधी सदी बराबर सिने-सर्जना इन्दौर में हुई है और वे अब कुछ वर्षों से मुम्बई में रहते हैं, इन्दौर उनकी आवाजाही निरन्तर है क्योंकि जड़ें वहीं हैं मगर सिनेमा के हिन्द महासागर को वे अपने सुदीर्घ अनुभव और दृष्टि से अधिक नजदीक से देखते हैं इन दिनों। इस किताब का विचार वहीं से पनपा, यह बात और है कि इस किताब ने उनकी मुम्बई और इन्दौर की परस्पर निरन्तर यात्रा में अपना स्वरूप गढ़ा।

महात्मा गांधी के जीवनकाल में सिनेमा पैंतीस वर्ष की उम्र का ही हो पाया था। आरम्भ मूक सिनेमा से हुआ था। राजा हरिश्चन्द्र पहली फिल्म थी, हिन्दुस्तान के सिने इतिहास की। फिर सिनेमा को ध्वनि मिली और अपनी परम्परा तथा चेतना से अपनी क्षमताओं को मजबूत करने में लगे सिनेमा में एक पौराणिक फिल्म रामराज्य के बारे में कहा जाता है कि गांधी जी ने वह फिल्म देखी थी। विजय भट्ट की इस फिल्म को उन्होंने सराहा था। एक तथ्य यह भी है कि गांधी जी की भेंट विश्व के महान कलाकार और सहज करुणा तथा हास्य के जनक चार्ली चेपलिन से भी एक मुलाकात 1931 में हुई थी। यही साल सिनेमा में ध्वनि के आगमन का भी था और पहली बोलती फिल्म आलमआरा इसी साल रिलीज हुई थी। एक तरफ वह विलक्षण कलाकार था जो दुनिया में अपनी लोकप्रियता का परचम फहरा रहा था तो दूसरा हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता का एक विनम्र मगर जीवट से ओतप्रोत स्वप्रद्रष्टा था। गांधी जी मशीनीकरण के समय से मजदूर हाथों और उनके जीवन को होने वाली हानि से व्यथित थे, यह बात उन्होंने चार्ली चेपलिन से कही भी थी कि एक मशीन पन्द्रह मजदूरों के हाथ काम छीन रही है। यही बात आगे चलकर चार्ली की एक फिल्म मॉडर्न टाइम्स में मूल विषय बनी कि इन्सान मशीनों का गुलाम हो गया है और अपने ही हाथ गवाँ बैठा है।

यह बात सच है कि महात्मा गांधी सिने-प्रेमी नहीं थे। उनके पास इतना समय या अवकाश नहीं था कि वे उसका सदुपयोग फिल्म देखने में करते। उनके पास फिल्म देखने से ज्यादा ज्वलन्त और जरूरी काम थे जिनमें वे व्यस्त रहते थे, शेष समय उनके अपने पुरुषार्थ का था जिसमें बहुत सारे काम मसलन चरखा, अध्ययन, विचार, बातचीत और आत्मचिन्तन शामिल थे। इसके बावजूद, सिनेमा से निरन्तर निरपेक्ष रहते हुए भी कैसे सिनेमा ने महात्मा से किस तरह का विचार लिया, किस तरह की फिल्में बनीं जो कहीं न कहीं गांधी जी की विचारधारा, स्वप्र और आचरण से प्रेरित थीं, यह देखने की कोशिश अपनी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा में जयप्रकाश चौकसे ने की है। उन्होंने यह काम उतनी ही बेलागी और साफगोई से किया है जिसके लिए वे और उनका लेखन जाना जाता है। उन्होंने किताब में सर रिचर्ड एटिनबरो का उदाहरण भी दिया कि उन्होंने चार्ली चेपलिन और गांधी दोनों पर सिनेमा बनाया।

महात्मा गांधी और सिनेमा के बारह अध्यायों में विस्तार से इस बात का विवेचन किया गया है कि सिनेमा के जन्म और विकास के साथ-साथ महात्मा गांधी का देशव्यापी अनुष्ठान और जनजाग्रति का उपक्रम किस तरह परवान चढ़ा। कैसे अपने समय की यादगार फिल्मों के किरदारों की छवि और वेशभूषा महात्मा गांधी की छबि और वेशभूषा से मेल खाती रहीं। किस तरह सत्य का आग्रही नायक हमारे सिनेमा में हुआ, किस तरह हिंसा के विरुद्ध आत्मबल और जीवट काम आया। किस तरह सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को आइना दिखाने का काम सिनेमा में हुआ और किस तरह जागरुकता के लिए महात्मा गांधी ने देशव्यापी यात्राएँ कीं, गाँव-गाँव जाकर एक-एक आदमी से संवाद स्थापित करने का प्रयत्न किया और उनके दुख-सुख को नजदीक से जाना। यही दुख-सुख सिनेमा का विषय भी बने, उत्कृष्ट कथाएँ लिखी गयीं जिनके चरित्रों को बड़े-बड़े अभिनेताओं ने परदे पर साकार किया। जीवन का गीत-संगीत अर्थवान हुआ और मनुष्य के यथार्थ के विहँगम बिम्ब हमने सिनेमा के परदे पर देखे।

अध्याय दो में जयप्रकाश चौकसे ने महात्मा गांधी की इन्दौर यात्रा का जिक्र किया है। महात्मा गांधी 1918 में इन्दौर आये थे। वे वहाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने पहुँचे थे। उस समय पहला विश्वयुद्ध समाप्त ही हुआ था। चौकसे लिखते हैं कि भारतीय सिनेमा को कवि हृदय, लेखक और फिल्मकार देवकी बोस गांधी जी की कृपा से ही मिला। जिस समय गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन की अलख जगा रखी थी उसी समय देवकी बोस ने चण्डीदास और विद्यापति जैसी फिल्में बनाकर इस आन्दोलन को रचनात्मक बल देने का काम किया। देवकी बोस पहले गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुड़े थे। जयप्रकाश चौकसे, व्ही. शान्ताराम को भी कहीं न कहीं गांधी जी की दृष्टि का समर्थक मानते हैं और अपनी किताब में उल्लेख करते हैं कि शान्ताराम ने अपनी लम्बी सार्थक पारी में अनेक गांधीवादी फिल्मों का निर्माण किया।

महात्मा गांधी और सिनेमा उन अर्थों में एक पठनीय किताब बनती है जिसको केन्द्र में रखकर लेखक ने सौ साल के सिनेमा से बहुत महत्वपूर्ण कुछ पक्ष सोदाहरण उठाये हैं और बड़ी सार्थकता के साथ उन्हें व्यक्त किया है। लेखक ने तर्कशास्त्र से परे व्यवहारिक समानता को अपने लेखन का आधार बनाते हुए इस विधा में निरन्तर लेखन के अपने लम्बे अनुभवों का बेहतर प्रस्तुत करने का सफल जतन किया है। यह किताब इस विशेष समय में, जब हम सिनेमा की सदी मना रहे हैं, एक उल्लेखनीय विश्लेषणात्मक कृति के रूप में सामने आती है, जिसे पढऩा उस बोध से अपने आपको प्रत्यक्ष करना है, जिस पर हम अमूमन विचार नहीं करते। पुस्तक का आवरण प्रसिद्ध चित्रकार प्रभु जोशी ने तैयार किया है।