महात्मा गांधी का हत्यारा कौन? / जयप्रकाश चौकसे

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महात्मा गांधी का हत्यारा कौन?
प्रकाशन तिथि :27 फरवरी 2018


फिल्मकार नसीम सिद्‌‌दीकी अपनी पहली फिल्म 'हमने गांधी को मार दिया' इस वर्ष 2 अक्टूबर को प्रदर्शित करने जा रहे हैं। पूरा विश्व ही 2 अक्टूबर को 'अहिंसा दिवस' मनाता है। ज्ञातव्य है कि कुछ वर्ष पूर्व अनुपम खेर और उर्मिला मातोंडकर अभिनीत 'मैंने गांधी को नहीं मारा' प्रदर्शित हुई थी। गांधी के आदर्श को समर्पित एक उम्रदराज व्यक्ति अपने घर में डार्ट मारने का खेल खेल रहा है। एक बोर्ड पर नुकीले तीरनुमा डार्ट मारने का यह खेल है। इत्तेफाक से एक डार्ट गांधीजी की तस्वीर को लग जाता है और उसी समय रेडियो पर महात्मा गांधी की हत्या का समाचार मिलता है अौर उस उम्रदराज व्यक्ति को भ्रम होता है कि गांधीजी की तस्वीर को डार्ट लगने के अपशकुन के कारण उनकी हत्या हो गई। वह दिमागी संतुलन खो देता है और बार-बार यह कहता है कि उसने गांधी को नहीं मारा। इस फिल्म में अनुपम खेर अभिनीत पात्र की सुपुत्री की भूमिका उर्मिला मातोंडकर ने अत्यंत विश्वसनीयता से निभाई थी। कैंसर इत्यादि रोग पर शोध-कार्य चल रहा है और करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं परंतु मानव मस्तिष्क में पड़े 'केमिकल लोचे' (राजकुमार हिरानी को धन्यवाद) के बारे में विशेष शोध नहीं हो पा रहा है।

मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा रहस्य उसका मस्तिष्क ही है। आत्मा एक आकल्पन है। वह कोई ठोस या तरल वस्तु नहीं है। मानवीय विचार के भावना पक्ष को हम आत्मा कहकर संबोधित करते हैं। मरते हुए व्यक्ति को एक मजबूत बुलेट प्रूफ शीशे के कमरे में रखकर भी देखा गया है कि क्या आत्मा वहां से बाहर जाती है। शीशे के कक्ष में हल्की-सी दरार भी नहीं पाई गई। इससे सिद्ध हुआ कि आत्मा विचार प्रक्रिया का ही गरिमामय नाम है और आत्मा की आवाज के नाम पर मनमानी की जाती है। मन की बात एक ढकोसला है। यथेष्ठ धन नहीं होने पर भी अव्यावहारिक घोषणाएं करना हुक्मरानों का शगल है।

अहिंसा को एक राजनीतिक स्वरूप देकर उसे हथियार बना देने वाले महात्मा गांधी के जीवन पर सर रिचर्ड एटनबरो एक क्लासिक फिल्म बना चुके हैं और 'मैंने गांधी को नहीं मारा' जैसी फिल्में बन चुकी हैं। केतन मेहता महान नेता वल्लभभाई पटेल का बायोपिक 'सरदार' के नाम से बना चुके हैं। श्याम बेनेगल भी सहारा कॉर्पोरेट के धन से सुभाषचंद्र बोस पर चार घंटे की फिल्म बना चुके हैं।

गौरतलब है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू पर कोई बायोपिक नहीं बना है। यहां तक कि राजीव गांधी की हत्या पर भी एक अत्यंत रोचक फिल्म 'मद्रास कैफे' बन चुकी है। यह दुखद है कि यह फिल्म कम दर्शक देख पाए हैं, जबकि यह राजीव गांधी की हत्या पर शोधपरक दस्तावेज की तरह है। आज के हुक्मरान प्राय: नेहरू की आलोचना करते हैं परंतु गांधीजी पर आक्रमण नहीं करते, क्योंकि गांधीजी की छवि एक महान संत की है अौर उन पर आक्रमण से हिंदुत्व नारेबाजी को क्षति पहुंच सकती है। नेहरू की छवि एक विद्वान व्यक्ति की है और विद्वता पर आक्रमण करना हमने लोकप्रिय बना दिया है।

फिल्मकार नसीम महसूस करते हैं कि गांधीजी की हत्या के समय समाज में जिस तरह का वैचारिक शून्य एवं हड़बड़ी मची थी, आज भी कुछ उसी तरह की दुविधा व संशय बने हुए हैं। इसलिए यह फिल्म भी प्रासंगिक सिद्ध होगी। डर जनित हिंसा आज भी फिज़ाओं में मौजूद है गोयाकि 'इक रिदाएतीरगी है और ख्बाब-ए-कायनात,़ डूबते जाते हैं तारे और भीगती जाती है रात।' 2 अक्टूबर गांधीजी के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है परंतु उन्हें लगभग भुला दिया गया है और उनके दौर के प्रतिनिधि फिल्मकार मनोज कुमार भी अपने जीवनकाल में ही 'आउटडेटेड' से हो गए हैं। यह तो ऐसा दौर है कि गांधीजी की तस्वीर जिन करेंसी नोट पर छपी है, उसकी खरीदने की ताकत भी घट गई है।