महात्मा गांधी की स्मृति / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :30 जनवरी 2015
आर के लक्ष्मणके एक कार्टून में रिचर्ड एटनबरो की "गांधी' देखकर बाहर निकलते एक कांग्रेस नेता अपने मित्र से पूछते हैं कि क्या यह यथार्थ जीवन से प्रेरित फिल्म है। उस नेता के अल्पज्ञान में ही एक या दो सदी बाद के जनमानस का संकेत मिलता है कि उस दौर में किसी को यकीन नहीं आएगा कि उस "नंगे फकीर' ने अंग्रेजी साम्राज्यवाद का सफाया किया था। कुछ लाेग उन्हें असंभव अवतार मानेंगे या कपोल कल्पना क्योंकि तब तक मायथोलॉजी इतिहास की तरह पढ़ी और पढ़ाई जाएगी। इसी तरह उनकी मृत्यु के एक दशक बाद बनी अमेरिकन थ्रिलर "नाइन अवर्स टू गॉड' जिसे भारत, दक्षिण अफ्रीका में प्रतिबंधित किया था क्योंकि गोडसे को वह फिल्म नायक की तरह प्रस्तुत करती थी। अत: जिस दौर में उन्हें अवतार या कपोल कल्पित पात्र माना जाएगा, उस दौर में "नाइन अवर्स टू गॉड' मानवतावादी फिल्म की तरह पुन: प्रदर्शित होगी और फिल्म प्रिंट की पूजा गोडसे मंदिर में की जाएगी जो आज मात्र प्रस्तावित है। कभी-कभी इतिहास के आकलन मखौल उड़ाने तक सीमित होते हैं। आज भी यूरोप के कुछ कट्टरवादी किसी सुनसान जगह पर हिटलर वंदना करते हैं तो कुछ ज्यू जाति के संगठन आज भी नाजी अफसरों की संतानों को खोजकर मारते हैं।
बहरहाल गांधी ने अपने दौर में समाज, साहित्य, सिनेमा और सारी कला विधाओं को भी प्रभावित किया था। सरला मेहता ने 'हरिजन' में प्रकाशित एक सत्यकथा पर पध नाटक लिखा था जिसमें एक अमीर परन्तु अपंग विधवा के मन में चार तीर्थ यात्रा का स्वप्न है परन्तु गांधीजी के प्रभाव प्रेरणा से वह तीर्थ यात्रा के लिए संचित धन से अपने गांव में हरिजनों के उपयोग के लिए एक भव्य और गहरा कुंआ बनवाती है तथा उस जल में उसे गंगा के साथ चारों लोक के देवताओं के दर्शन होते हैं। राजा रामाराव के उपन्यास 'कांथापुरम' में एक ऐसे गांव का चित्रण है जहां रेल या बस नहीं जाती और रेडियो भी नहीं है, फिर भी जाने कैसे गांधी के संदेश से वह गांव प्रेरित है। उनकी 'काऊ ऑफर बैटीकेड' भी कुछ इसी आशय की रचना है। यह भी गौरतलब है कि इसी लेखक ने 'भारत छोड़ो' आंदोलन स्वरूप कांग्रेस नेताओं के हिरासत में लिए जाने के बाद अभिनेता मोतीलाल के वाल्केश्वर स्थित बंगले की तल मंजिल में एक ट्रान्समीटर द्वारा जनमानस बने रहने की अपील का कार्य भी किया था। सारांश यह है कि उनके प्रभाव से कोई क्षेत्र अछूता नहीं था।
आज गांधी के आदर्श कोई मानता नहीं, फिर भी सारे राजनैतिक दल उन्हें अपना कहते हैं क्योंकि आज भी गांधी के नाम पर मत प्राप्त होते हैं। यह दुर्भाग्य है कि उनकी प्रासंगिकता वोट तक सीमित हो गई है। भारत में नेहरू का विरोध फैशनेबल है, क्योंकि वे महान बुद्धिजीवी थे परन्तु गांधी जी की छवि एक संत की है, अत: उनका विरोध संभव नहीं है। अब तो संत पद्म विभूषण से भी सम्मानित हो रहे हैं और जो नहीं हो पाए उनके खिलाफ अपराधिक मुकदमे दर्ज होने की कानूनी मजबूरी है। इसी से याद आता है कि उनकी मृत्यु के दो दशक बाद 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है' जैसे अर्थहीन वाक्य रोज के जीवन में कहे जोने लगे। स्वयं गांधी ने कभी मजबूर होकर कोई काम नहीं किया।
हाल ही में ओबामा की यात्रा सुर्खियों में रही है। एक अमेरिकन छात्र के प्रश्न के उत्तर में बराक हुसैन ओबामा ने कहा था कि अगर उन्हें रात्रि भोजन के लिए किसी महान व्यक्ति की साध है तो काश वे गांधी के साथ भोजन कर पाते। क्या रोमांचक दृश्य होता कि ओबामा की प्लेट स्नैक से भरी है और सामने बैठकर गांधी खिचड़ी और दही खा रहे हैं। ओबामा की प्लेट उनके देश की अधिक खाने और अपच का प्रतीक होती और गांधी की प्लेट एक भूखे देश का प्रतीक होती। बहरहाल इस तरह की कानाफूसी सत्ता से जुड़े अंधेरे गलियारों में सुनाई पड़ती है कि करेन्सी नोट से उनकी छवि हटाई जाए। क्या ऐसा करने से डॉलर के लिए रुपयों को मूल्य बढ़ेगा? यह भी गौरतलब है कि एक अध्यात्मिक देश की छवि छपी होती है। नियति का व्यंग्य देखिए कि गांधी तस्वीर वाले नोट ही रिश्वत में लिए-दिए जाते हैं और वोट भी इसी से खरीदे जाते हैं। गांधी ही काला धन, गांध की सफेद धन है। सच तो यह है कि अगर गांधीजी का बस चलता तो वे करेन्सी से कब का भाग जाते।