महादेवी जी के गद्य साहित्य में मानवीय संवेदनाएँ / सुशील जैन

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संस्कृत में उक्ति है - "गद्यम कवीनाम निकष: वदन्ति "। विद्वानों की ऐसी मान्यता का संभवत: यही कारण रहा होगा कि काव्य की अपनी सीमाएं होती हैं, बंधन होते हैं। काव्य सृजन के लिए कई प्रकार के अनुशासन अपेक्षित होते हैं और अनुशासन के बंधनों को मान कर रचना करना अधिक सहज होता है अपेक्षाकृत बंधनमुक्त होकर रचना करने के। उपरोक्त उक्ति महादेवी जी पर अनायास ही चरितार्थ होती है।

काव्य सृजन की प्रक्रिया में कोई भाव अपनी संपूर्ण तीव्रता के साथ किसी क्षण विशेष में कवि के संवेदनशील ह्रदय को स्पर्श करता है और फिर स्वत: ही शब्दों में अपनी अभिव्यक्ति का मार्ग भी खोज लेता है। एक क्षण विशेष में ही बाण-बिद्ध क्रौंच के करुण चीत्कार ने आदि कवि के संवेदनशील ह्रदय को किसी चरम बिंदु पर स्पर्श किया होगा तभी वह गा उठा था "मा निषाद प्रतिष्ठाम त्वम्..."। परन्तु गद्य में स्थिति कुछ भिन्न होती है। भाव के विपरीत विचार, जो कि गद्य साहित्य का आधार है, बार- बार प्रतिध्वनित और प्रत्यावर्तित होने की क्षमता रखता है, और हर बार कुछ नवीनता लेकर रचनाकार के मानस-पटल पर प्रतिबिंबित होता है। इन विविध और स्फुट विचारों के सार्थक संयोजन में ही गद्यकार के वास्तविक कला कौशल की परीक्षा होती है।

एक तरफ गद्य की प्रचलित विधाओं - कहानी, नाटक और उपन्यास आदि में गल्प तत्व का प्राधान्य मिलता है। यहाँ रचनाकार काल्पनिक पात्रों,घटनाओं, और जीवन स्थितियों की रचना के माध्यम से अपने चिंतन और द्रष्टिकोण को पाठक तक पहुंचाता है और पाठक इस प्रक्रिया को आगे बढाता है। अत: इस प्रकार के साहित्य को मस्तिष्क से मस्तिष्क के बीच की एक यात्रा के रूप में निरुपित किया जा सकता है। "परन्तु मस्तिष्क और ह्रदय एक दूसरे के पूरक होते हुए भी एक ही पथ से नहीं चलते। बुद्धि में समानांतर पर चलने वाली भिन्न-भिन्न श्रेणियां हैं और अनुभूति में एकतारता लिए गहराई। अनुभूति अपनी सीमा में जितनी सबल है उतनी बुद्धि नहीं। हमारे स्वयं जलने की हल्की सी अनुभूति भी दूसरे के राख हो जाने के ज्ञान से अधिक स्थायी रहती है"। इसी लिए कल्पनाश्रित रूपों से दूर गद्य की संस्मरण और रेखाचित्र जैसी विधाएं है जहां सहजता, आत्मीयता और निश्छलता की ही प्रधानता होती है। "जो कथाएं ह्रदय का बाँध तोड़ कर दूसरों को अपना परिचय देने के लिए बह निकलती हैं वे प्राय: करुण होती हैं और करूणा की की भाषा शब्दहीन रह कर भी बोलने में समर्थ है"। इस प्रकार का साहित्य रचनाकार के ह्रदय से नि:सृत होता है और सुधी पाठक का ह्रदय उस साहित्य-सरिता में अवगाहन करता है। गद्य की एक अन्य प्रमुख विधा 'निबंध' में हमें वैचारिक मंथन और चिंतन का प्राधान्य देखने को मिलता है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का यह एक अत्यंत प्रीतिकर अध्याय है की छायावादी कवि चतुष्टय की प्रख्यात कवियत्री महादेवी वर्मा बिना नाटक, कहानी या उपन्यास लिखे गद्य की राजकुमारी के पद पर अभिषिक्त होती है।

प्रस्तुत लेख के सन्दर्भ में इस बात की विवेचना कर लेना भी उचित होगा कि संवेदना से हमारा अभिप्राय क्या है। सामान्यत: हमारा मन संवेदना का सम्बन्ध दू:ख और करुणा के साथ सहज ही जोड़ लेता है। परन्तु यदि व्यापक परिद्रश्य में देखें तो संवेदना का साम्य

अनुभूति से है दू:ख या करुणा के साथ उसका कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं। स्वयं महादेवी जी भी संवेदना के आधारों की विविधता का परिचय इस प्रकार देती हैं - "फूलों के बोझ से झुक-झुक पड़ने वाली लता कोमल है पर शून्य नीलिमा की ओर विस्मित बालक सा ताकने वाला ठूंठ भी कम सुकुमार नहीं। अविरत जलदान से प्रथ्वी को कंपा देने बादल ऊंचा है, पर एक बूँद आंसू के भार से नत और कम्पियत त्रण भी कम उन्नत नहीं। गुलाब के रंग और नवनीत की कोमलता में कंकाल छिपाए रूपसी कमनीय है, पर झुर्रियों में जीवन का विज्ञान लिखे वृद्ध भी कम आकर्षक नहीं।” प्रख्यात दार्नाशिक आचार्य जे। कृष्णमूर्ति भी संवेदना शब्द का प्रयोग इसी व्यापक अर्थ में करते हैं। सारांश यह कि किसी द्रश्य, तथ्य, विचार, घटना, या चरित्र का मन के अंतरतम को छूकर उसे अस्थिर कर देने का गुण ही संवेदना है।

महादेवी जी के गद्य में आत्मीयता प्राय: शब्दों के अनुपम चयन और शैलीगत वैशिष्ट्य से अनायास ही आती है। "घीसा" का अनाम परिचय द्रष्टव्य है- "वर्तमान की कौन सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को सम्पूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है, यह जान लेना यदि सहज होता तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहमे नन्हे से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती, जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन तट को अपनी संपूर्ण आर्द्रता से छूकर अनंत जलराशि में विलीन हो गया है।"

"चीनी भाई" का परिचय वे इन शब्दों में देती हैं- "आज मुखों की एकरूप समष्टि में मुझे एक मुख आर्द्र नीलिममायी आँखों के साथ स्मरण आता है जिसकी मौन भंगिमा कहती है - हम कार्बन की कापियां नहीं हैं। हमारी भी एक कथा है। जीवन की वर्णमाला के सम्बन्ध में तुम्हारी आँखें निरक्षर नहीं तो तुम पढ़ कर देखो न।”

"गार्गी, घोष, अपाला, और लोपामुद्रा के के देश में वर्तमान में नारी के प्रति हो रहे सामाजिक अन्याय की विडम्बना ने महादेवी जी के ह्रदय को किस सीमा तक व्यथित किया है यह उनके गद्य साहित्य में स्पष्ट प्रतिध्वनित होता है। "श्रंखला की कड़ियाँ में नारी विषयक निबंध संग्रहीत हैं। जिनमें से एक"नारीत्व का अभिशाप" में नारी समस्याओं का विशद विवेचन हुआ है। सदियों से घर और समाज से ही जुडी नारी की स्थिति दोनों ही स्थानों में अत्यंत करुण है। अपनी अभागी जन्मभूमि पित्रग्रह में उसकी स्थिति भिक्षुक से अधिक नहीं जहाँ उसे जीवित रहने के अतिरिक्त और कोई अधिकार नहीं। पतिगृह में स्थिति और भी गंभीर है, वहां उसकी स्थिति एक दासी से अधिक की नही, और यह दासी का पद भी छिन जाने की आशंका भी प्रतिपल बनी ही रहती है। दुर्भाग्य से यदि मस्तक का सिंदूर धुल गया तो इस अपराध के लिए म्रत्युदंड से भी अधिक मर्मान्तक पीड़ादायक दंड का विधान समाज के शास्त्र में है। आज नारी को हांक कर पशुओं की श्रेणी में बिठा दिया गया है, ज्ञानशून्य कर्म के अतिरिक्त उसे और किसी चीज़ का बोध नहीं। नारी अपहरण की विकट समस्या के चलते नारी भी पशु-पक्षियों की भांति आज हाट-- बाज़ार में ह। पाषाणों तक को श्रद्धा और सहानुभूति बांटने वाले मनुष्य के पास नारी के लिए कुछ नहीं।

साहित्यकारों के एक वर्ग की नारी के प्रति रुग्ण द्रष्टि से उत्पन्न महादेवी जी की व्यथा हमारे सामने इन शब्दों में आती है- "सौंदर्य के तारों से सत्य की झंकार उत्पन्न करने वाले कवि उस सामंतवादी वर्ग के लिए विलास का खाद्य प्रस्तुत करने लगे, जो अजीर्ण से पीड़ित था। इसी से स्त्री नाम के व्यंजन को अनेक-अनेक रूपों में उपस्थित करना अनिवार्य हो उठा।"

एक ओर नारी के प्रति सामाजिक अन्याय उन्हें अस्थिर कर देता है तो दूसरी ओर तथाकथित आधुनिक नारी द्वारा भ्रान्तिवश अपनी प्रकृतिदत्त विशेषताओं को अपना दोष समझ स्वयं ही उन्हें नष्ट कर देने का आत्मघाती उन्माद भी उन्हें समान रूप से पीड़ित करता है- "उस (नारी) ने सामजिक अंतर का कारण खोजने के लिए नारीत्व को क्षत-विक्षत कर डाला। उसने निश्चय किया कि वह उस भावुकता को आमूल नष्ट कर डालेगी, जिसका आश्रय लेकर पुरुष उसे रमणी समझता है, उस गृह बंधन को छिन्न-भिन्न कर देगी जिसकी सीमा ने उसे पुरुष की भार्या बना दिया है।” एक अन्य उद्धरण द्रष्टव्य है- "आधुनिक स्त्री ने अपने जीवन को इतने परिश्रम और यत्न से जो रूप दिया है वह कितना स्वाभाविक हो सकता है यह कहना अभी संभव नहीं। हाँ इतना कह सकते हैं कि वह बहुत सुन्दर भविष्य का परिचायक नहीं जान पड़ता। स्त्री के लिए यदि उसे किसी प्रकार उपयोगी मान भी लिया जाए तो भी भावी नगारिकों के लिए उसकी उपयोगिता समझ सकना कठिन ही है।"

आज पुरुष के निकट स्त्री प्रसाधित श्रंगारित स्त्रीत्व मात्र लेकर खड़ी है यह वह मानना नहीं चाहेगी परन्तु वास्तव में यही सत्य है। पहले की नारी जाति केवल रूप और वय का पाथेय लेकर संसार यात्रा के लिए नहीं निकली थी। उसने संसार को वह दिया जो पुरुष नहीं दे सकता था, अत: उसके अक्षय वरदान का पुरुष आज तक कृतज्ञ है।" पश्चिम में "स्त्री यदि रंगीन खिलौने के समान आकर्षक है तो वह (पुरुष) विस्मय विमुग्ध हो उठेगा, यदि नहीं तो वह उसे उपेक्षा की द्रष्टि से देखेगा, कहने की आवश्यकता नहीं कि दोनों ही स्थितियां स्त्री के लिए अपमानजनक हैं।"

समाज में आज नारी और पुरुष के बीच जो एक प्रकार की प्रतिद्वन्दता पाई जाती है, वह समाज के स्वास्थय के लिए किसी भी रूप में हितकर नहीं है। अच्छा होता यदि नारी अपनी उपयोगिता के बल पर ही स्वत्वो की मांग सामने रखती। यह मांग ही नारी और समाज दोनों के लिए हितकर है।

"जो नारी माता, भगिनी,पत्नी, और पुत्री आदि के अनेक संबंधों से वात्सल्य,ममता और स्नेह आदि असंख्य भावनाओं से तथा कोमल कठोर साधनाओं की विविधता से, पुरुष को भूमिष्ठ होने से चितारोहण तक घेरे रहती है, और म्रत्यु के उपरांत भी उसे स्मृति में जीवित रखने के लिए उग्रतम तपस्या से नहीं हिचकती उससे सत्य, यथार्थ और उससे सजीव आदर्श पुरुष को और कहाँ मिलेगा? परन्तु यथार्थ में तो "आज पुरुष का पुरुषार्थ विलाप है। जितने प्रकार से, जितनी भाव-भंगिमाओं के साथ, जितने स्वरों में वह अपने निराश जीवन का मर्सिया गा सके, अपनी असमर्थता का स्यापा कर सके, उतना ही वह स्तुत्य है और उतना ही अधिक पुरुष नाम के उपयुक्त है।" अकर्मण्यता और ह्रदयहीनता की प्रतिमूर्ति मैकू, रमई, झनकू, भीखन और हथई आदि इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। परन्तु भारतीय नारी तो घर से अपने व्यक्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में जुडी है। "उस (पुरुष) के लिए गृह का उजड़ जाना एक सुख के साधन का बिगड़ जाना हो सकता है, परन्तु स्त्री के लिए वही जीवन का उजड़ जाना है।" घर के प्रति यह ममत्व और जन्मजात कर्त्तव्यपरायणता ही है जो, नारी को पुरुष के सारे अवगुणों को अनदेखा कर स्वयं अगणित कष्टों को सहकर भी पुरुष को सब प्रकार से सुखी और निश्चिन्त रखने को प्राण-पण से प्रयत्न करने पर बाध्य कर देती है। सबिया, बिबिया और मुन्नू की माई इसी नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। दूसरी और अकर्मण्य पुरुष को मानो उपालंभ देता हुआ जन्मांध अलोपी है जिसका संवेदनशील ह्रदय माँ को परिश्रम करते 'देख' आत्म ग्लानि से व्याकुल हो उठता है और अपनी शारीरिक अक्षमता पर आत्मबल से विजय पा वह स्वयं कर्मक्षेत्र में प्रवृत्त होता है।

महादेवी जी के रेखाचित्रों में सबिया, बिबिया, रधिया, गुंगिया, लछमा और भक्तिन जैसे अनेक चरित्र हैं, जिनके संपर्क में रहकर उन्होंने नारी के अंतर्मन की पीड़ा को समझा है और उनके ह्रदय की विशालता का आभास भी वे पाठकों को सहज ही दे जाती हैं। इनमे से कुछ चरित्र ऐसे भी हैं जिनके नाम का उल्लेख भी पूरे रेखाचित्र में कहीं नहीं है, और सच तो यह है कि ऐसे चरित्रों को जिनका सम्पूर्ण जीवन ही पीड़ा की मूर्तिमत्ता पा गया हो किसी व्यक्तिवाचक संज्ञा की आवश्यकता ही कहाँ रह जाती है। उनके रेखाचित्रों की नायिकाओं में कोई सपत्नी के अस्तित्व से पीडित है, तो कोई वैधव्य के अभिशाप से, किसी को दारुण दरिद्रता ने ग्रस रखा है तो कोई किसी कापुरुष कृत अपराध का दंड झेलने को विवश है। किसी को परदेश गए एक मात्र पुत्र की स्मृति व्यग्र करती है तो कोई पतिगृह में किसी कल्पित अपराध के लिए कठोर दंड पाती है। सारांश यह कि अगणित रूप हैं नारी की पीड़ा के।

सबिया एक दीन-हीन निरीह नारी है जिसकी सहनशीलता की चरम परिणति सपत्नी के अस्तित्व को भी सहज ही स्वीकृति दे देने में होती है। भक्तिन वह स्वाभिमानी और उद्योगशील नारी है जिसे परिस्थितिवश जीवन के उत्तरार्ध में लेखिका की परिचर्या में अपनी आजीविका खोज लेने को विवश हो जाना पड़ा है। बिबिया एक निश्छल परन्तु स्वाभिमानी रजक बालिका है जिसका प्रारब्ध ही मानो निरंतर पुरुष प्रधान समाज द्वारा छला जाना था, नारी जीवन की तमाम विषमतायें जिसे पराभूत न कर सकीं उस बिबिया का करुण अंत संवेदनशील पाठक के हृदय को सहज ही द्रवित कर देता है। "भाभी" क बाल विधवा है, समाज के निष्प्राण हो चुके संविधान ने जिसे घर के बंदीगृह से बाहर के संसार से प्रथम परिचय का अधिकार भी नहीं दिया। श्वसुर के देहावसान के पश्चात् उस निर्मम रहस्यमयी संसार ने उसका कैसा स्वागत किया होगा, अज्ञात आशंकाओं को अपने गर्भ में लिए यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है। लछमा एक पीड़ित परन्तु निश्छल और उन्मुक्त हास्य बिखेरती पहाड़ी युवती है, जो अपने आश्रित परिजनों की सेवा-सुश्रुषा में निष्ठां पूर्वक अहर्निश व्यस्त रहती है और तमाम विषम परिस्थितियों का सामना करते हुए मनो चट्टानों को वेध कर ही अपना पाथेय और जिजीविषा प्राप्त करती है। गुंगिया की कथा पुत्र के प्रति माँ के शाश्वत और निस्वार्थ प्रेम की पराकाष्ठा है। भ्रान्तिवश अकारण ही उसे त्याग कर चले जाने वाले निर्मोही पालित पुत्र के प्रति प्रेम से उपजी व्यथा को उसकी प्राकृतिक अक्षमता और भ्रान्ति का मूल; वाणी का अभाव और भी मार्मिक बना देता है।

शब्दों की समष्टि में "बचपन" एक एसा शब्द है जिसके बारे में सोचने मात्र से हम में से अधिकाँश को असंख्य मधुर स्म्रतियां चारों ओर से घेर लेती हैं और हमारा मन पुलकित हो उठता है। परन्तु जीवन के उपवन में विविध पुष्पों की सुरभि से ही सनातन परिचय रखने वाले को भी काँटों की वैविध्यपूर्ण उपस्थिति से अनभिज्ञ या विरक्त नही रहना चाहिए, अन्यथा उसका जीवन पूर्णता को प्राप्त न करके एकांगी ही रह जायेगा। घीसा, मुन्नू,दुखिया, रामा, चीनी भाई-बहिन, बचिया, और बिंदा अदि जैसे अनेक बाल चरित्र महादेवी जी के रेखाचित्रों में मिलते है, होश संभालते ही जिन्हें जीवन की तमाम कष्टकर परिस्थितियों का परिचय सहज ही प्राप्त हो गया था। घीसा एक पित्रहीन निर्धन ग्रामीण बालक है जो असामान्य रूप से मेधावी तो है ही परन्तु पाठक को अपनी और सर्वाधिक आकर्षित करती है उसकी अतिशय भाव-प्रवणता जिसका परिचय रेखाचित्र में वर्णित एकाधिक प्रसंगों में मिलता है। एसा लगता है मानो इस पूरे रेखाचित्र को रचनाकार ने स्मृति की लेखनी को ह्रदय की आर्द्रता में भिगोकर ही लिखा है। एक करुण आत्मीयता संस्मरण में आद्यान्त प्रवाहित रहती है। महादेवी जी की ये काव्य पंक्तियाँ सहसा ही याद आ जाती हैं-

सब आँखों के आंसू उजले,
सबके सपनों में सत्य पला

घीसा के साथ काफी कुछ साम्य रखने वाला एक अन्य बाल चरित्र है 'मुन्नू', ऐसे उपेक्षित चरित्रों के सम्बन्ध में संवेदनीयता का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी रहता है कि इनके समग्र विकास के लिए अनुकूल परिवेश न दे पाने और उनकी प्रतिभा का राष्ट्र-हित में समुचित उपयोग न कर पाने के लिए समाज का कौन सा अंग उत्तरदायी है। 'मुन्नू' के सन्दर्भ में ही कथन है- "उसका पांच वर्ष का जीवन, उसकी बुद्धि और उत्तर देने की कुशलता से मेल नहीं खाता, पर भविष्य में इस विशेषता को अपने विकास के लिए अपराध के अतिरिक्त और क्षेत्र मिलना कठिन होगा यह सोच कर मन व्यथा से भर जाता है।"

"संभवत: माँ ही ऐसा प्राणी है जिसे कभी न देख पाने पर भी मनुष्य ऐसे स्मरण करता है जैसे उसके सम्बन्ध में कुछ भी जानना शेष नहीं।" परन्तु माँ के ममता भरे आँचल की छाया का अभाव संतान के जीवन में कैसे भयावह शून्य की रचना कर देता है, इसका परिचय भी हमें महादेवी जी के रेखाचित्रों में मिलता है। हमारे पौराणिक और लोक साहित्य में विमाता नाम के जिस जीव का उल्लेख प्राय: ही मिलता है, वह आज भी विलुप्त नहीं हुआ है। रामा, चीनी भाई-बहिन और बिंदा उसी के द्वारा पीड़ित हैं। चीनी बालिका को उसकी विमाता स्वयं प्रताड़ित कर पतन के गर्त में उतरने को विवश करती है और अंतत: वह भाग्यहीन बालिका उस अथाह गर्त में विलीन हो जाती है और विक्षिप्त प्राय: भाई के लिए उसे खोज पाना असंभव सा हो जाता है। बिंदा के अपनी आकाश-वासिनी अम्मा से जा मिलने के साथ ही उसकी करुण कथा का अंत इन शब्दों के साथ होता है- "तब से कितना समय बीत चुका है, बिंदा और उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है।"

महादेवी जी के रेखाचित्रों में दारुण दरिद्रता का मर्मस्पर्शी चित्रण भी देखने को मिलता है। यूँ तो ग्रामीण साधारण-जन का दरिद्रता से सनातन परिचय होता ही है। पर जंगिया - धनिया कुली बंधु और बदलू-रधिया कुम्भकर दम्पति के चरित्र पाठक के संवेदनशील ह्रदय पर सहज ही एक विशिष्ट और गहरी छाप छोड़ते हैं। दुबरी की बहू के सम्बन्ध में वे कहती हैं कि दरिद्र और असंख्य अभावों से भरे ग्रामों में चिडचिडे स्वाभाव की स्थिति स्वाभाविक ही रहती है। परन्तु ये चरित्र जिस सरलता, सहनशीलता, सह्रदयता, सौम्यता, शिष्टता, और ईमानदारी का परिचय देते हैं, वह पाठक को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। दरिद्रता की चरम सीमा पर अत्यंत कष्ट से जीवन यापन करने के बावजूद, जंग बहादुर बिना परिश्रम किये मात्र प्रतीक्षा करने की मजदूरी लेने के लिए माँ जी (महादेवी जी) के बहुत आग्रह करने पर भी किसी तरह प्रस्तुत नहीं होता। रधिया का एक शब्द- चित्र दर्शनीय है- "उसकी आँखें, उसके ओंठ और उसके हाथ-पैर सब मानो अपनी-अपनी कथा कहने को आतुर थे। इसी से शब्दों में उसे थोडा ही कहना पड़ता था, पर वह थोडा भी इतना मार्मिक रहता कि सुनने वाला शीघ्र ही अपने को प्रकृतिस्थ नहीं कर पाता ।" प्रसूता रधिया को दाई को नाल काटने का एक रूपया देना अपव्यय लगता है सो वह स्वयं ही लेटे-लेटे दरांती से यह कार्य संपन्न कर लेती है। गुड देख कर उसे उबकाई आती है, घी खाने से उसके पेट में शूल उठाता है, इसी से वह सिर्फ बाजरे की रोटी ही खाती है। ऐसे ही झूठ बोलने पर रधिया को एक बार महादेवी जी से सारगर्भित उपदेश सुनना पड़ता है। "पर उसने अपने मैले फटे आँचल से आँखें पोंछते हुए जो सफाई दी वह भी कम सारगर्भित न थी। उसका आदमी बहुत भोला है, उसका ह्रदय इतना कोमल है कि छोटी-छोटी बातों से धीरज खो बैठता है। घर की दशा ऐसी नहीं कि उतने जीवों को दोनों समय का भोजन भी मिल सके। इसी से वह अपने और बच्चों के छोटे-मोटे दु:ख को छिपा जाती है। अब भगवान परलोक में उसे जो चाहे दंड दें, पर किसी का कुछ छीन लेने के लिए वह झूठ नहीं बोलती।" आगे वे लिखती हैं - "रधिया का उत्तर ही मेरे लिए प्रश्न बन गया। उसके असत्य को असत्य भी कैसे कहा जाए, और न कहें तो उसे दूसरा नाम ही क्या दिया जाए।"

साधारणत: हमारी यह प्रवृत्ति रहती है कि किसी धन-संपन्न उच्च कुल में जन्म ले लेने मात्र से या अपने ही अध्यवसाय से समाज में थोड़ी-बहुत प्रतिष्ठा अर्जित कर लेने से हम स्वयं को जन-साधारण से अलग कर के देखने लगते हैं। अपने आभिजात्य का मिथ्याभिमान हमें ग्रस लेता है, साथ ही अपने परिवेश में दरिद्र, मलिन और अशिक्षित जन को हेय द्रष्टि से देखना भी हमारे लिए स्वाभाविक ही रहता है। एक पतिता नारी की उद्योगशील, स्वाभिमानिनी सुलक्षणा पुत्री को निर्मम समाज के बीच अपनी अस्मिता की अनथक खोज करते देख वे स्वयम से प्रश्न करती हैं-" क्या तुझे आज भी अपने आभिजात्य का गर्व है? क्या तुझे आज भी समाज द्वारा दिए गए भलाई-बुरे के प्रमाण-पत्रों पर विश्वास है?" आज जब संभ्रांत घरों में औरंगजेब, दारा, शुजा और मुराद के प्रतिरूप मिलते हैं, इसे में दैन्य की चरम सीमा पर जी रहे जंगिया-धनिया कुली बंधुओं का अप्रतिम पारस्परिक स्नेह और सौहार्द्र और ऐसे पुत्रों की माँ का पद पाने को महादेवी जी द्वारा सम्मान मानना बरबस ही मन को छू जाता है। 'ठकुरी' का चरित्र उस ग्रामीण वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो रसिया या बिरहा गाने या आल्हा का आलाप लेने अथवा नौटंकी या स्वांग में भाग लेने के कारण नागरिक समाज के निकट असंस्कृत समझा जाता है। परन्तु महादेवी जी को उनका यही सहज और निश्छल रूप मोहित करता है। अपनी विद्वता और वाग्विदग्धता से अभिभूत और एक -दुसरे की टांग खींचने में व्यस्त कवियों से सुसज्जित कवि सम्मेलनों और भव्य प्रेक्षागारों में नाटकों आदि के व्ययसाध्य आयोजनों और उनमें उपस्थित नव-धनाढ्य और अमर्मग्य दर्शकों की भीड़ के परिप्रेक्ष्य में इन प्रथ्वी-पुत्रों की सहज स्वाभाविक प्रस्तुति ही उन्हें आकर्षित करती है। ग्रामीणजन को मिटटी से जुड़े होने के कारण एक विशिष्ट प्रकार की संवेदनशीलता परम्परा से ही मिलाता आया है, उसी की पराकाष्ठ है कि ग्रामीण वृद्धा देर रात्रि तक जलते दीपक को देख सहज ही उसकी प्रतीक्षा-रत माँ की कल्पना भी कर लेती है, और आँचल की हवा से बुझा कर माँ की गोद में सोने के लिए भेज देती है। आज के कृतज्ञता-हीन संसार में मिटटी के एक क्षुद्र दीप के क्षीण प्रकाश के लिए इसी कृतज्ञता का कोई प्रतिमान अन्यत्र दुर्लभ है। ग्रामीण समाज में वर्ण-व्यवस्था के दीर्घ-काल से चले आ रहे कठोर बंधनों के होते हुए भी "वहां कोई छोटे से छोटा काम करने वाला भी इतना अभागा नहीं होता की बड़े काम करने वालों से पारिवारिक संबोधन न पा सके।" 'बिबिया' के कथा सन्दर्भ में यह मार्मिक सत्य वे पाठकों के समक्ष रखती हैं।

वर्तमान समय में साहित्य के तथाकथित पुरोधाओं के बीच ईर्ष्या और विद्वेष का पाया जाना सामान्य सी बात है, इसके ठीक विपरीत महादेवी जी का अपने समकालीन साहित्यकारों के साथ सख्य और सम्मान के भाव का अद्भुत सामंजस्य आज के पाठक के लिए सुखद विस्मय का कारण हो सकता है। "पथ के साथी" उनके ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

"अतीत के चलचित्र" में महादेवी जी स्वयं "अपनी बात" कहती हैं। एक परिचित परिवार की गृहस्वामिनी द्वारा किसी तुच्छ से अपराध पर निर्वासन का दंड पाने वाला भृत्य और उनका बालसखा पारिवारिक नौकर 'रामा' दोनों ही उनकी स्मृति में समान रूप से आजीवन बसे रहे। "वह दरिद्र पर स्नेह में सम्रद्ध बूढ़ा कभी गेंदे के दो मुरझाये फूल, कभी हथेली की गर्मी से पसीजे चार बताशे और कभी मिटटी का एक रंगहीन खिलौना लेकर अपने नन्हे प्रभुओं की प्रतीक्षा में पुल पर बैठा रहता था। नए नौकर के साथ घूमने जाते बालकों को अपने तुच्छ उपहार देकर जब वह लौटता तब उसकी आँखे गीली हो जाती थीं।" राम और बिंदा की कथा के साथ ही महादेवी जी के बाल्य-काल और और उनके पारिवारिक परिवेश का उल्लेख अनायास हो आता है। यहाँ संस्कारशील, स्नेहमयी और करुणा की प्रतिमूर्ति माँ को देख पाठक सहज ही महादेवी जी की संस्कारशीलता के उत्स को पा जाता है। 'अलोपी' को देख उन्हें माँ का सारगर्भित उपदेश स्मरण हो आता है- "हमारी शिष्टता की परीक्षा तब नहीं होती जब कोई बड़ा अतिथि हमें अपनी कृपा का दान देने घर में आता है, अपितु उस समय होती है जब कोई भुला-भटका भिखारी द्वार पर खड़ा हो हमारी दया के कण के लिए हाथ फैला देता है।"

आज के संसार में मानवेतर प्राणियों को मानव जीवन में उनकी 'उपयोगिता' के आधार पर ही जाना-पहचाना जाता है, पर गिल्लू, सोना, राधा, नीलकंठ, फ्लोरा, गोधूलि, हेमंत , वसंत, चित्रा, आदि जैसे अगणित पशु-पक्षियों को भी अपनी करुणा का दान देकर, महादेवी जी उनकी प्राण-रक्षा को प्रस्तुत होती हैं तो मात्र इस लिए कि प्रश्न उन लघु गातों की प्राण-रक्षा का ही नहीं मानवीय मूल्यों की रक्षा का भी है।

साधारणत: सामान्य पाठक साहित्यिक रचनाओं, विशेषत: काव्य की बौद्धिकता जनित दुरुहता के कारण प्राय: उनसे दूर ही रहता है, परन्तु साहित्य के क्षेत्र में बहुत कुछ एसा भी है जिसके अध्ययन में बुद्धि को अधिक श्रम दिए बिना ही अनुपम आनंद प्राप्त किया जा सकता है। बस पाठक का एक संवेदनशील ह्रदय से सामंजस्य रखना ही यथेष्ट है। महादेवी जी का सम्पूर्ण गद्य साहित्य ऐसी ही मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत है।