महानगरीय बीहड़ मेें फंसा परिंदा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :17 मार्च 2017
रिलायंस एंटरटेनमेंट की आदित्य मोटवानी निर्देशित हिंदुस्तानी भाषा में बनी फिल्म का नाम 'ट्रैप्ड' अर्थात 'फंसा हुअा' है। महानगर की पूरी बनी हुई परंतु खाली इमारत की 35वीं मंजिल में एक आदमी फंस गया है और चाबी बंद दरवाजे के बाहरी हिस्से में रह गई है। वह एक खरीददार है और फ्लैट का मुअायना करने आया है। उसकी छोटी-सी भूल यह है कि चाबी दरवाजे के ताले में रह गई और दरवाजे का ताला जाम हो गया व हवा के चलने से दरवाजा बंद हो गया है। हवा का रुख तो विद्वान और नेता भी भांप नहीं पाते तो आम आदमी से क्या उम्मीद करें कि वह सदैव सावधान रहेगा। दशकों पूर्व हॉलीवुड की फिल्म का नाम था, 'द विंड केन नॉट रीड' अर्थात हवा पढ़ नहीं सकती और हवा के रुख का अंदाजा हम नहीं लगा पाते। बहरहाल, महानगर में अनेक इमारतें पूरी तरह से बन गईं परंतु सरकार से आक्युपेशन सर्टिफिकेट लेना होता है, जिसका अर्थ है यह इमारत रहने के लिए निरापद है। पहले रिश्वत दर पंद्रह प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर पैंतीस प्रतिशत हो गई है। जिस कारण मुकम्मल इमारतें खाली पड़ी रहती हैं। भवन बनाने वाले रिश्वत की राशि को निर्माण मूल्य में जोड़ देते हैं गोयाकि भार खरीददार पर ही आता है। हर विकास की कीमत आम आदमी ही चुकाता है। दशकों पूर्व फिल्मकार रमेश सहगल की राज कपूर अभिनीत फिल्म के गीत साहिर लुधियानवी ने और संगीत महान खय्याम साहब ने दिया था, जिसके एक गीत के बोल थे, 'चीनो अरब हमारा, सारा जहां हमारा, जेबें हैं अपनी खाली क्यों देता वरना गाली, वह पासबां हमारा, वह संतरी हमारा।' इस तरह गीत में व्यंग्य साधना आसान नहीं होता। हमारे इंदौरी सरोज कुमार 'स्वात: दुखाय' के तहत लंबे समय तक रचनाएं लिखते रहे हैं।
बहरहाल, ट्रैप्ड दर्शक को बांधे रखती है, क्योंकि सूने फ्लैट में साधनहीन व्यक्ति किसी तरह साधनों का जुगाड़ करता है और बाहरी दुनिया को अपने फंसे होने की सूचना देता है। यह पूरा उपक्रम रोचक है। संपर्क के उसके प्रयास पड़ोसी इमारत की एक महिला तक जाते हैं और वह उस माले तक पहुंच जाती है और आवाज भी देती है परंतु तब तक निढाल नायक की आवाज ही रूंध जाती है जैसे आज अवाम के जागरूक लोगों ने आवाज उठाना बंद कर दिया है। इस त्रासद अवस्था से दुष्यंत कुमार याद आते हैं, 'वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिए।' इंदौर में आनंद मोहन माथुर अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ आवाज उठाने का प्रयास करते हैं। 'मधुमति' के लिए शैलेंद्र रचित एक गीत के अंतरे का आशय है कि पत्थरों से टकराकर आवाज वापस आ जाती है। संभवत: ऐसी ही वापस आने वाली बूमरेंग आवाजों से कई लोग घायल हैं।
'ट्रैप्ड' को हम भारत के वर्तमान का प्रतिनिधत्व करने वाली फिल्म भी मान सकते हैं, क्योंकि अनेक व्यक्ति स्वयं को व्यवस्था द्वारा ट्रैप्ड ही मानते हैं। अदृश्य जंजीरों से बंधा है आम आदमी। इस संदर्भ से जुड़ी निदा फाज़ली की पंक्तियां हैं, 'यह जीवन शोरभरा सन्नाटा, जंजीरों की लंबाई तक है तेरा सारा सैर सपाटा।' यह फिल्मकार का कमाल है कि उसने सारा घटनाक्रम महानगर की गगनचुंबी इमारत के एक प्लैट में रचा है परंतु इसी तरह तो मनुष्य सघन जंगल में फंसता है, जब उसे बाहर जाने की पगडंडी नहीं मिलती। स्पष्ट है कि फिल्मकार जंगल रूपी महानगर को संबोधित कर रहा है। अगर युद्ध हो तो गगनचुंबी इमारतें आसान निशान साबित होंगी।
फिल्म निर्देशक का माध्यम है। इस फिल्म में एक अघोषित जंग निर्देशक व नायक राजकुमार राव के बीच हो रही है और दर्शक का सरोकार मात्र परदे पर नज़र आने वाले से है। राजकुमार राव इस अदृश्य जंग में भारी पड़ रहे हैं। उन्होंने इतना स्वाभाविक अभिनय किया है मानो यह उनका 'भोगा हुआ यथार्थ' है और यह इस अर्थ में सही भी है कि फिल्मी जंगल में उसका होना कोई बड़ा फिल्मकार स्वीकार ही नहीं कर रहा है। मास्टर फिल्मकार कक्षा में पीछे की बेंच पर बैठे राजकुमार राव का 'यस सर' सुन ही नहीं पा रहे हैं। जिस तरह 'गंगा जमना' दिलीप कुमार की फिल्म है, उसी तरह 'ट्रैप्ड' राजकुमार राव की फिल्म है। इस प्रकरण में आदित्य मोटवानी के लिए सात्वंना का भाव न में आता है। इसी तरह यह भी कचोटता है कि उसकी प्रेमिका उसका इंतजार कर लेती तो उसके संघर्ष का पुरस्कार सिद्ध होती परंतु 'जोड़ियां तो आसमान' में बनती है और महानगर की बहुमंजिला टूट जाती है। यह फिल्म मनुष्य के साहस और विपरीत परिस्थितियों में टिके रहने वाले मिट्टीपकड़ पहलवान की फिल्म है।