महानगर का मासूम खलनायक.../ जयप्रकाश चौकसे

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महानगर का मासूम खलनायक..
प्रकाशन तिथि : 29 जुलाई 2013


अनुराग कश्यप की 'बॉम्बे वेलवेट' की शूटिंग प्रारंभ हो गई है। इसमें रणबीर कपूर नायक हैं और खलनायक की भूमिका करण जौहर कर रहे हैं। करण ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' और 'लक बाय चांस' में अत्यंत छोटी भूमिकाएं की थीं, जो वैसी ही थीं, जैसे सुभाष घई ने अपनी फिल्मों में की हैं। सुभाष ने यह प्रेरणा अल्फे्रड हिचकॉक से ली थी। अल्फ्रेड अपनी असाधारण रहस्य-रोमांच की फिल्मों के लिए इतने लोकप्रिय थे कि सस्पेंस फिल्मों में उनका अत्यंत छोटा-सा दृश्य दर्शकों को आनंद देता था, गोयाकि मास्टर फिल्मकार अपने दृश्य को गंभीर फिल्म में 'कॉमिक रिलीफ' का दृश्य बना देते थे।

बहरहाल, 'बॉम्बे वेलवेट' में उस दशक की कथा है, जब मुंबई में अनेक कपड़ा मिलें थीं, पन्नालाल की एक सिल्क मिल भी थी। लाखों कामगार की रोजी-रोटी थी ये मिलें और उनसे जुड़ा था मजदूर संगठन तथा उसकी राजनीति। कुछ संगठन कांग्रेस के रचे थे और कुछ कम्युनिस्ट पार्टी के, परंतु बाला साहब ठाकरे भी इस क्षेत्र में आ गए और गहरी प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ हुई तथा सत्ता-संघर्ष के कारण कामगार हित हाशिए में चले गए। इस क्षेत्र में दत्ता सामंत का उदय धूमकेतु की तरह हुआ। घिनौने राजनीतिक दंगल के कारण मिल मालिकों को बहुत हानि सहनी पड़ी। कुछ का विश्वास है कि पोलिएस्टर के अन्वेषण के बाद नई मशीनों की आवश्यकता थी। दुर्भाग्यवश मिल मालिकों ने पुरानी मशीनों को बदलने के बदले कामगार यूनियन के नेताओं से गुप्त सौदा किया और इनकी मिलीभगत से एक लंबी हड़ताल प्रारंभ हुई। कुछ माह बाद मजदूरों की भूखों मरने की नौबत आने पर अन्य प्रांतों से आए कामगार अपने घर लौट गए और मुंबई के रहवासियों को मुआवजा देकर मालिकों ने मिलें हमेशा के लिए बंद कर दीं। पुरानी मशीनें बेगार के भाव बिक गईं। मिलों की बड़ी जमीन पर गगनचुंबी अट्टालिकाएं बन गईं। मालिकों को अरबों का लाभ हुआ। यह तथाकथित विकास का एक क्रूर उदाहरण है।

इस विषय पर अनेक फिल्में बनी हैं। ऋषिकेश मुखर्जी ने किंग हैनरी और बेकेट की मित्रता एवं दुश्मनी पर बनी महान अंग्रेजी फिल्म 'द बेकेट'(पीटर ओ टूल और रिचर्ड बर्टन अभिनीत) की हिंदुस्तानी संस्करण 'नमक हराम' बनाई। हैनरी और बेकेट के रिश्तों पर अंग्रेजी कवि टीएस इलियट ने पद्य में 'मर्डर इन द कैथेड्रल' नाटक लिखा और उस पर भी फिल्म बनी है। बिमल रॉय तो इस थीम पर आजादी के पहले एक फिल्म बना चुके थे। अनुराग की फिल्म का आधार ज्ञानप्रकाश की 'मुंबई फैबल्स' है, जो एक शहर के महानगर बनने की निर्मम प्रक्रिया पर प्रकाश डालती है। इस प्रक्रिया में शहर के मूल निवासी हाशिए में फेंक दिए जाते हैं और इसी त्रासदी का लाभ लेकर नेता क्षेत्रवाद रचते हैं। अनुराग की फिल्म में करण जौहर एक निर्मम मिल मालिक हैं। ज्ञातव्य है कि करण जौहर जन्म से जवानी तक दक्षिण मुंबई में रहे थे और इसी क्षेत्र में मुंबई का श्रेष्ठी वर्ग रहता है। अत: उन्हें इस तरह के लोगों के जीवन के विषय में जानकारी है।

हमारे यहां पहले शॉट में ही दर्शक समझ जाता है कि यह खलनायक है। करण इस तरह नहीं दिखाई देते और सच तो यह है कि यथार्थ जीवन में प्राय: दुष्ट लोग सामान्यजन की तरह ही दिखाई देते हैं। याद कीजिए, प्रकाश झा की 'राजनीति' में रणबीर कपूर कितने भोले दिखाई देते हैं, परंतु कितने कत्ल करते हैं और अंतिम दृश्य में निहत्थे अजय देवगन को गोलियों से भून देते हैं। गालिब ने कुछ इसी अंदाज की बात कही थी कि सब आदमी पैदा होते हैं, परंतु विरले मनुष्य बन पाते हैं। अत: इस बात में कोई दम नहीं कि मैं फलां धर्म में पैदा हुआ हूं, अत: उस धर्म का राष्ट्रवादी हूं।

अनुराग कश्यप ने केवल सनसनीखेज कास्टिंग के लिए करण जौहर को नहीं लिया है। उनके मन में अपने खलनायक की छवि मासूम दिखने वाले आदमी की हो सकती है। करण जौहर ने अवश्य ही सघन तैयारी की होगी, क्योंकि यह भूमिका उनके लिए नया मार्ग प्रशस्त कर सकती है। करण जौहर को जमकर उजागर होने का बहुत शौक है और टेलीविजन पर भी वे विभिन्न शो करते हैं। अत: उनके लिए यह एक स्वर्ण अवसर है। उन्होंने स्वं ऋषि कपूर जैसे नायक की छवि बनाने के लिए अपनी 'अग्निपथ' में खलनायक की भूमिका दी है और अब यही काम अनुराग कश्यप ने किया है। बहरहाल, करण की चाल-ढाल एवं भंगिमाएं विशेष प्रकार की हैं और अगर भूमिका वैसी नहीं है तो यह बाधा हो सकती है। इतिहास गवाह है कि तानाशाह प्राय: सौम्य दिखाई पड़ते हैं, उनके भीतर का मनुष्यभक्षी शेर नजर नहीं आता।