महानगर / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा

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वे दोनों एक ही शहर में रहते थे। एक का नाम था - पित्रोफ़, जो एक व्यवसायिक कॉमर्शियल बैंक में अफ़सर था और दूसरे के नाम-काम का कुछ अता-पता नहीं था।

वे दोनों साल में, बस, एक ही बार, ईस्टर पर वसील्येव्स्कि साहब के बँगले पर मिला करते थे। पित्रोफ़ क्रिसमस पर भी वसील्येव्स्कि के घर जाया करता था। वैसे जाता तो वह दूसरा भी था, पर वे लोग शायद अलग-अलग समय पर जाते थे, इसलिए उनकी एक-दूसरे के साथ मुलाक़ात नहीं हो पाती थी। वसील्येव्स्कि जी के घर में इतने अधिक मेहमान होते थे कि पहले तीन साल तो पित्रोफ़ का उस दूसरे शख़्स पर कभी ध्यान ही नहीं गया। चौथे वर्ष पित्रोफ़ को उसका चेहरा थोड़ा जाना-पहचाना-सा लगा, लेकिन तब भी वे लोग, बस, एक-दूसरे को देखकर महज़ मुस्कुराकर ही रह गए थे। और अगली दफ़ा यानी पाँचवे साल पित्रोफ़ ने उसे जाम से जाम टकराने के लिए आमंत्रित किया। उसने दारू वाला गिलास आगे बढ़ाते हुए मुस्कुराकर कहा :

— यह जाम आपकी सेहत के नाम !

उसने भी हाथ में पकड़ा शराब का गिलास आगे बढ़ाते हुए कहा :

— चलिए, मैं भी ये जाम आपके लिए पी रहा हूँ।

जब वे दोनों पीते हुए बतिया रहे थे, तब पित्रोफ़ के दिमाग़ में उसका नाम पूछने का ख़याल तक नहीं आया । उस बँगले से बाहर निकलकर तो वह उसके अस्तित्व के बारे में ही भूल गया था। इतना ही नहीं, उसने पूरे साल उसे याद तक नहीं किया। वह रोज़ाना बैंक जाता, जहाँ वह पिछले दस वर्षों से काम कर रहा था। सर्दियों में वह दो-चार बार थियेटर देखने गया था। गर्मियों में अपने दोस्तों की गाँव वाली हवेलियों में कई बार गया था। दो बार उसे भारी नज़ला हुआ था। दूसरी बार तो ईस्टर के एकदम पहले ही हुआ था। ईस्टर वाले दिन तक वह पूरा ठीक हो चुका था और ईस्टर मनाने वसील्येव्स्कि जी के घर जा रहा था। उसने पार्टी वाला लम्बा कोट पहन रखा था और बग़ल में लम्बा वाला हैट दबाये वह सीढ़ियों पर चढ़ रहा था। तब अचानक उसे उस दूसरे आदमी का ख़याल आया। उसने सोचा कि आज फिर उससे मिलना होगा। जब पित्रोफ़ ने उसका चेहरा याद करने की कोशिश की तो उसे यह जानकर बड़ा ताज्जुब हुआ कि उसे उसकी कद-काठी, चेहरा-मोहरा कुछ भी याद नहीं आ रहा था। ख़ुद पित्रोफ़ नाटे क़द का था और उसके कंधे थोड़े सामने की ओर झुके हुए थे, इसलिए कई लोग उसे कुबड़ा समझते थे। आँखें उसकी थोड़ा पीलापन लिए बड़ी और काली थीं। वसील्येव्स्कि साहब के बँगले में हर वर्ष ईस्टर और क्रिसमस मनाने के लिए जो लोग आया करते थे, उनमें और पित्रोफ़ में कोई ख़ास फ़र्क नहीं था। बस, पित्रोफ़ अपने कूबड़ की वजह से थोड़ा अलग दिखता था। जब उन सज्जनों को पित्रोफ़ का नाम याद नहीं आता था, तो वे लोग आपस में उसे ‘कुबड़ा’ कहकर बुलाया करते थे।

उस दिन ईस्टर पार्टी में दूसरा आदमी पित्रोफ़ से काफ़ी पहले पहुँच गया था। जब पित्रोफ़ वहाँ पहुँचा, तब वह वहाँ से वापस अपने घर जाने की तैयारी कर रहा था, लेकिन पित्रोफ़ को आता देखकर वह उसकी तरफ़ देखकर आत्मीयता से मुस्कुराया और बाहर निकलता-निकलता वहीं रुक गया। उस दिन पित्रोफ़ वहाँ पहुँचते ही खाने-पीने और दूसरे लोगों से मिलने-जुलने में व्यस्त हो गया । वह, बस, इतना ही देख पाया था कि दूसरे आदमी ने भी पित्रोफ़ की तरह पार्टी कोट और लम्बा हैट पहन रखा था। दूसरा आदमी पित्रोफ़ को देखकर पार्टी में रुक तो गया, लेकिन तब भी उन दोनों के बीच कोई बात नहीं हुई । परन्तु वे दोनों वहाँ से अपने-अपने घर जाने के लिए एक साथ बाहर निकले । सर्दी का भारी ओवरकोट पहनते समय गुलबंद, दस्ताने और दूसरे छोटे-मोटे सामान का बैग़ पकड़कर रखने में उन्होंने दो पुराने दोस्तों की तरह एक दूसरे की मदद भी की । बाहर निकलते समय लखनऊ के नवाबों की तरह पहले आप, पहले आप करते हुए एक दूसरे को रास्ता भी दिखाया। दोनों ने दरबान को पचास-पचास कोपेक बख़्शीश में दिए। बाहर निकलने के बाद दोनों थोड़ा रुके फिर दूसरे वाले ने कहा :

— दरबान को बख़्शीश तो देनी पड़ती है।

— बिलकुल देनी होती है। इसका तो कुछ नहीं कर सकते।

चूँकि उनके बीच बात करने के लिए और कुछ नहीं था, इसलिए वे एक-दूसरे की तरफ़ देखकर मुस्कुराए। फिर पित्रोफ़ ने पूछा :

— आपको किधर जाना है ?

— मुझे बाएँ जाना है। और आपको ?

— मुझे दाएँ ।

घोड़ागाड़ी के चल पड़ने के बाद पित्रोफ़ को याद आया कि उसने न तो उस इनसान का नाम पूछा और न ही उसका हुलिया ध्यान से देखा। उसने गाड़ी में बैठे-बैठे ही पीछे मुड़कर उसे देखने की कोशिश की, लेकिन सड़क के दोनों तरफ़ फ़ुटपाथ पर लोग ही लोग थे। उस भीड़ में उस दूसरे शख़्स को ढूँढ़ना उतना ही मुश्किल था जितना रेत के अन्य कणों के बीच किसी एक कण को ढूँढ़ना। पित्रोफ़ फिर से उसके बारे में भूल गया और पूरे साल वह उसे याद तक नहीं आया।

पित्रोफ़ कई साल से एक होटल में रह रहा था। स्वभाव से वह खिन्नचित्त और चिड़चिड़ा-सा था, इसलिए आस-पास के लोग उसे ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। उसके पड़ोसी भी उसे पीठ पीछे वैसे ही ‘कुबड़ा’ कहकर बुलाते थे, जैसे वसील्येव्स्कि के दूसरे मेहमान। पित्रोफ़ अपने कमरे में अकेला ही समय बिताता था। न तो उसके पास कभी किसी की कोई चिट्ठी-पत्री ही आती थी और न ही उसे कोई साहित्य-पत्रिका । भगवान जाने वह पूरे-पूरे दिन अपने कमरे में अकेला बैठा क्या करता होगा ! टहलने के लिए भी वह कभी-कभी और वो भी, बस, रात में निकला करता था। होटल का दरबान इवान उसके बारे में सोचता था कि यह पित्रोफ़ रात में न तो कहीं नाइट-क्लब जैसी जगह जाता है और न ही लड़कीबाजी करने के लिए किसी को अपने साथ घर लाता है। फिर यह घूमने के लिए, बस, रात में ही क्यों निकलता है ! लेकिन पित्रोफ़ की परेशानी यह थी कि उसे उस बड़े शहर से और दिन में सड़कों पर लोगों की भीड़ से बहुत डर लगता था। केवल एक इसी वजह से वह दिनभर घर में दुबका रहता था और रात में कभी-कभार बाहर निकला करता था।

जिस शहर में पित्रोफ़ रहता था, वह बहुत बड़ा और बहुत भीड़भाड़ वाला था। जैसा कि आमतौर पर बड़े शहरों में होता है वहाँ के लोग अपने में मस्त थे। उन्हें दूसरों से कुछ लेने-देना नहीं था। कुछ तो देखने में ही अजीब-से दिखते थे। जिस जगह पर वह नगर बसा हुआ था, उसके भारी-भरकम मकानों के वज़न से वहाँ की धरती धँसी-सी जा रही रही थी। घरों के बीच के रास्ते ऐसे दिखते थे मानो चट्टानों के बीच-बीच में टेढ़ी-मेढ़ी, पतली-गहरी दरारें पड़ गई हों। वहाँ के लोगों को देखकर ऐसा लगता था कि वे सभी बहुत हैरान-परेशान हैं। वे लोग शहर के केंद्र की भीड़ से दूर खुले मैदान की ओर भागने की कोशिश करते-करते रास्ता भटक गए हैं। साँपों की भाँति वे सब आपस में उलझे हुए हैं और एक दूसरे के साथ मार-काट कर रहे हैं। उन्हें मैदान की तरफ़ जाने का कोई रास्ता न मिलने से हताश होकर सब वापस अपने मकानों में लौट आते हैं। उस शहर में इतनी अधिक इमारतें थीं कि सड़क पर घंटों चलते रहने के बाद भी मकानों की कतारें ख़तम होती नहीं लगती थीं ।

सड़कों के दोनों तरफ़ जो मकान खड़े थे, उनमें कोई दुमंज़िला था तो कोई चार मंज़िला यानी वे ऊँचे-नीचे थे। रंग भी सबका एक जैसा नहीं था। किसी पर चटक रंग था तो किसी पर गहरा और कुछ तो ईंट के रंग के थे। पर उन घरों के आगे-पीछे लोगों का जो समुद्र था उसकी वजह से सारे घर अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे से मिलते-जुलते लगते थे। भीड़ के उस समुद्र को देखकर तो रास्ते चलता-चलता कोई भी डर जाए। हर किसी को लगने लगे कि वह एक जगह पर स्थिर खड़ा है और डरावने घर उसके पास से एक-एक करके लगातार गुज़रते जा रहे हैं।

एक दिन की बात है कि पित्रोफ़ सड़क पर टहल रहा था। चलते-चलते उसे खुले-खुले मैदानों और खेतों का ख़याल आया। वह सोचने लगा कि वह जगह यहाँ से कितनी दूर होगी, जहाँ सूरज के नीचे धरती आराम से साँस ले सकती हो और मनुष्य की निग़ाहें दूर-दूर तक जा सकती हों। उसे लगने लगा कि यहाँ उसका दम घुट रहा है और जल्दी ही वह अंधा हो जाएगा। उसका दिल हुआ कि वह दौड़कर कहीं खुली जगह पहुँच जाए, पर उसे यह सोचकर डर लगने लगा कि वह चाहे कितनी भी तेज़ क्यों न दौड़े, उसे दोनों तरफ़ मकान ही मकान दिखते रहेंगे और उस जगह तक पहुँचने से पहले ही उसका दम टूट जाएगा। जान जाने की कल्पना से वह इतना डर गया कि अपने सामने आए पहले ही रेस्तरां में घुस गया। परन्तु वहाँ भी काफ़ी देर तक उसे लगता रहा कि उसका दम घुट रहा है। रेस्तरां में वह पूरे समय ठण्डा पानी पीता रहा और रुमाल से अपनी आँखें पोंछता रहा।

पित्रोफ़ की सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि उन सभी घरों में लोग रहते थे और वे सब के सब उसके लिए अजनबी थे। उनकी सबकी अपनी निज़ी ज़िन्दगी थी। उन घरों में बच्चे पैदा होते थे और बड़े होकर, बीमार होकर या बूढ़े होकर ही मरते थे। जीवन-मृत्यु के इस चक्र की न तो कोई शुरुआत थी और न ही अंत। पित्रोफ़ जब अपने घर से बाहर काम पर जाने या टहलने के लिए निकलता था तो रास्ते में उसे वे ही घर दिखते थे, जो वह पहले बहुत दफ़ा देख चुका था। इस प्रकार उसके लिए वे सारे घर परिचित होते थे, इसलिए उसके लिए कोई परेशानी वाली बात नहीं थी।

मगर जब वह एक पल के लिए भी किसी चेहरे पर निगाह रोकता तो उसके लिए सब कुछ बदल जाता। उसे बहुत डर लगता और उसकी सारी ताक़त न जाने कहाँ चली जाती थी। वह डरता-डरता सबके चेहरे देखता और उसे यह लगता कि वह ये सारे चेहरे पहली बार देख रहा है। कल जो शक़्लें उसने देखी थीं, वे दूसरे लोगों की थीं। और कल जिन्हें देखेगा, वे चेहरें जुदा होंगे। और हमेशा ऐसे ही होता है। हर दिन और हर मिनट नए और अजनबी लोग दिखते हैं। वो देखो ! वो मोटे सज्जन, जिन्हें पित्रोफ़ देख रहा था, कोने से ग़ायब हो गए। पित्रोफ़ उन्हें और कभी नहीं देख पाएगा ! कभी भी नहीं ! यदि पित्रोफ़ उन्हें खोजना चाहे, तो जीवन भर ढूँढ़ते रहने से भी वह उस मोटू को कभी नहीं ढूँढ़ पाएगा।

बहुत डरता था पित्रोफ़ लोगों की भीड़ से। इस वर्ष उसे फिर से बहुत तेज़ सर्दी-जुक़ाम हुआ था। नाक उसकी अक्सर बहती रहती थी। इसके अलावा जाँच के दौरान मालूम चला कि उसे तो गैस की बीमारी भी है। हर वर्ष की तरह इस साल ईस्टर पर पित्रोफ़ फिर से वसील्येव्स्कि की कोठी पर गया। जब वह वहाँ जा रहा था, तो रास्ते भर यह सोचता रहा कि वह वहाँ कौन-कौनसी चीज़ें खाएगा। वसील्येव्स्कि के घर में उस दूसरे बन्दे से मिलकर पित्रोफ़ बड़ा प्रसन्न हुआ और उसने उसे अपनी बीमारी के बारे में बताया।

— भाई जान, अब मेरे पेट में भी गैस बनने लगी है।

दूसरे वाले ने सहानुभूति जताते हुए सर हिलाया और कहा :

— अब उम्र बढ़ी है तो ये सब होगा ही !

2

पित्रोफ़ ने फिर से उस दूसरे आदमी का नाम मालूम नहीं किया, मगर वह उसे अपना अच्छा दोस्त मानता था और उसे याद करके ख़ुश होता था। पित्रोफ़ उसे ‘वह’ कहके याद करने लगा, मगर जब वह उसकी सूरत याद करना चाहता था तो याद नहीं आती थी। सूरत की जगह, बस, उसका कोट, छोटी सफ़ेद जैकेट और मुस्कुराहट ही याद आती थी। चूँकि चेहरा बिलकुल याद नहीं आता था तो ऐसा लगता था जैसे, बस, कोट और जैकेट मुस्कुरा रहे हों।

गर्मियों में शहर की गर्मी से बचने और आराम करने के लिए पित्रोफ़ अक्सर अपने एक दोस्त के पास उसके गाँव जाया करता था। गाँव जाने से पहले वह अपनी मूँछें रंगता और लाल टाई लगाता। वह अपने दोस्त फ़्योदर से कहता कि पतझड़ के मौसम में वह घर बदलेगा। पर कुछ ऐसा हुआ कि उसने फ़्योदर के पास जाना छोड़ दिया और पूरा एक महीन वोदका पीता रहा। बड़े बेहूदा ढंग से पीता था वह और पीकर लड़ाई-झगड़ा भी कर बैठता था। एक बार तो उसने अपने ही कमरे की खिड़की का काँच तोड़ दिया था और एक बार एक औरत को डरा दिया था। शाम को वह उस औरत के कमरे में गया और घुटनों के बल खड़े होकर उसने उस औरत से अपन बीवी बनाने की पेशकश की। वह अनजान औरत तवायफ़ निकली। पहले तो वह मज़े लेते हुए उसे ध्यान से सुनती रही, परन्तु जब वह उसे अपनी तन्हाई का दुखड़ा सुनाते-सुनाते रोने लगा, तब वह मारे डर के चिल्लाने लगी। उसे लगा यह तो कोई सिर फिरा है। उसकी चीख़ सुनकर उसका नौकर दौड़ा-दौड़ा आया और उसने पित्रोफ़ को खींच-खींचकर, ज़बरदस्ती वहाँ से बाहर निकाला। पित्रोफ़ ने नौकर के साथ हाथापाई भी की और उसके बाल खींचता हुआ ज़ोर से बोला :

— हम सब लोग भाई-भाई हैं !

होटल के मालिक ने पित्रोफ़ को वहाँ से निकाल देने का फ़ैसला कर लिया था, लेकिन उसे निकाला नहीं, क्योंकि उसने पीना छोड़ दिया था। वह रातों में फिर से घूमने लगा। उसके लिए दरवाज़ा खोलते और बंद करते वक़्त फिर से दरबान उसपर ग़ुस्सा होने लगा। नए साल से पित्रोफ़ की सालाना तनख़्वाह सौ रूबल बढ़ने वाली थी, इसलिए उसने अपना कमरा बदल लिया । अब जो कमरा उसने लिया था, उसका किराया पहले वाले से पाँच रूबल अधिक था। उसकी खिड़कियाँ अहाते की तरफ़ खुलती थीं। पित्रोफ़ ने कमरा यह सोचकर बदला था कि यहाँ उसे बाहर की गाड़ियों का शोरगुल नहीं सुनाई देगा और उसके दिल में बार-बार यह ख़याल भी नहीं आएगा कि उसके आसपास कितने अजनबी लोग हैं और उन सबकी अपनी ज़िन्दगी है।

सर्दियों में जब तक रास्तों पर बर्फ़ जमी हुई थी, तब तक तो नए कमरे में शांति थी लेकिन जैसे ही सडकों पर से बर्फ़ साफ़ हो गई यानी बसंत आ गया, तो उसे गाड़ियों की गड़गड़ाहट फिर से सुनाई देने लगी। कमरा बदलने से भी कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ा। बाहर से आवाज़ें पूरे दिन आती रहती थीं, परन्तु दिन में उनपर ध्यान नहीं जाता था। ख़ुद पित्रोफ़ सुबह से लेकर देर शाम तक कोई न कोई ऐसा काम करता रहता था, जिससे शोर होता था, लेकिन ख़ुद की आवाज़ों की ओर उसका ध्यान कभी नहीं गया। पित्रोफ़ का दिन तो कट जाता था, परन्तु जैसे ही अँधेरा होने लगता उसे ऐसा लगता जैसे सड़क का सारा कोलाहल उसी के अँधेरे कमरे में घुस आया हो। और उस शोर से पित्रोफ़ की शान्ति भंग हो जाती । बाहर से गाड़ियों की घर्र-घर्र तो पीं-पीं लगी रहती थी। कहीं दूर से किसी गाड़ी की आवाज़ शुरू होती थी, गाड़ी जितना पास आती थी, आवाज़ उतनी ही तेज़ होती जाती थी और गाड़ी के दूर जाते-जाते आवाज़ धीमी होते हुए ग़ायब हो जाती थी। फिर उसकी जगह दूसरी आवाज़ शुरू हो जाती और दूसरी के बाद तीसरी। एक के बाद एक गाड़ियों की आवाज़ों का यह सिलसिला चलता ही रहता था। बहुत बार ऐसा भी होता था कि घोड़ों के खुरों की टप-टप एक ताल में सुनाई देती थी। उन घोड़ागाड़ियों के पहियों के चलने की आवाज़ इसलिए नहीं होती थी क्योंकि उन पर रबर का घेरा लगा होता था। जब एक साथ ऐसी कई घोड़ागाड़ियाँ सड़क पर चलतीं, तो उनके घोड़ों की टप-टप मिलकर गरजन का रूप ले लेती, जिससे पत्थर की दीवारें तक थरथराने लगती थीं और अलमारी में रखे काँच के गिलास खनखनाने लगते थे।

वे मोटरगाड़ियाँ और घोड़ागाड़ियाँ, जो सड़कों पर चल रही होती थीं, उन सभी में लोग बैठे होते थे। वे सब न जाने कहाँ से निकलकर कहाँ पहुँचकर उस बड़े शहर में कहीं खो-से जाते थे। उनके चले जाने के बाद दूसरे लोग कहीं आ-जा रहे होते थे। इस तरह लोगों के आने-जाने का ताँता लगातार बना रहता था। उसका कोई अंत न था।

हर आदमी की अपनी अलग दुनिया थी। उन सबके जीने के नियम-कानून और मक़सद भी जुदा होते थे। सबके सुख-दुख भी एक जैसे नहीं थे। पित्रोफ़ के लिए हर आदमी एक भूत की तरह था, जो एक पल के लिए उसके घर के सामने प्रकट होता और ग़ायब हो जाता। उसे उन लोगों के बारे में कुछ भी मालून नहीं हो पाता था। आपस में एक-दूसरे को न जानने वाले लोग जितने अधिक होते, उन सबका अकेलापन उतना ही अधिक भयानक होता जाता। उन अँधेरी-काली और डरावनी रातों में पित्रोफ़ को इतना ज़्यादा डर लगता कि वह डर के मारे चीखना-चिल्लाना चाहता था और कहीं गहरे से गहरे तहखाने में छिपकर एकदम अकेला रह जाना चाहता था। उसका यह मानना कि जब वह बिलकुल अकेला होगा तो, बस, उन्हीं के बारे में सोचेगा, जिन्हें वह जानता है और अनगिनत अजनबियों के बीच ख़ुद को तनहा महसूस नहीं करेगा।

हर साल की तरह इस साल ईस्टर पर पित्रोफ़ को वसील्येव्स्कि के बँगले में वह दूसरा वाला आदमी नहीं मिला, जो उसे हमेशा मिला करता था। उसे यह बात तब मालूम चली, जब पार्टी के अंत में विदा होने के लिए उसने उसे ढूँढ़ना शुरू किया। जब पित्रोफ़ को यह मालूम चला कि वे महाशय नहीं आए हैं तो उसका मन उसे अपनी वीरानगी और ख़ौफ़नाक रातों के बारे में बताने के लिए मचल उठा। और यह सब बताने के लिए पित्रोफ़ उसे ढूँढ़ने लगा और लोगों से उसके बारे में पूछने लगा।

उसके सामने दिक़्क़त यह थी कि वह उसे ढूँढ़े तो ढूँढ़े कैसे ! न तो उसे उसका नाम ही मालूम था और न ही उसकी शक़्ल-सूरत याद थी। उसे, बस, इतना ध्यान था कि वह अधेड़ उम्र का था, बाल उसके सुनहरी थे और ईस्टर पर पार्टी कोट पहनकर आता था। जिस आदमी को पित्रोफ़ ढूँढ़ रहा था, उसके बारे में महज इतना-सा बताने पर तो मेज़बान वसील्येव्स्कि और उसके घर वालों के लिए यह अंदाज़ लगाना मुश्किल था कि पित्रोफ़ किन सज्जन की बात कर रहा है।

मेज़बान वसील्येव्स्कि ने कुछ सोचते हुए पित्रोफ़ से कहा — त्योहारों की पार्टियों में हमारे यहाँ इतने अधिक मेहमान होते हैं कि हम उन सबके नाम भी ठीक से नहीं जानते हैं।

जब वसील्येव्स्कि की बीवी को यह पता चला कि एक सज्जन किसी दूसरे सज्जन के बारे में कुछ जानना चाहता हैं तो उसने पित्रोफ़ के पास आकर उससे कहा — क्या आप स्मिरनोफ़ के बारे में पूछ रहे हैं ?

उसके बाद पहले तो उसने कुछ और नाम अपनी उँगलियों पर गिनाए और उसके बाद कुछ लोगों की विशेष पहचान बता-बताकर पूछा। जैसे - क्या वे, जिनके सर पर बहुत कम बाल हैं और लगता है कि वे डाकघर में काम करते हैं ? क्या वे बहुत गोरे हैं ? क्या उनके बाल पूरे पक गए हैं ? वसील्येव्स्कि की बीवी ने पित्रोफ़ की मदद करने की काफ़ी कोशिश की, मगर उस आदमी का पता नहीं चला जिसे पित्रोफ़ ढूँढ़ रहा था। उन सब में वह आदमी नहीं था, जिसे पित्रोफ़ ढूँढ़ रहा था। वैसे किसे पता, हो भी सकता था।

उस वर्ष पित्रोफ़ के जीवन में, होटल में कमरा बदलने के अलावा और कुछ ख़ास बदलाव नहीं हुआ था। हालाँकि उसकी नज़र कमज़ोर हो गई थी, इसलिए वह ऐनक पहनने लगा था। रात के समय अगर मौसम बढ़िया होता तो वह पहले की तरह घूमने जाया करता था। ढूँढ़-ढूँढ़कर वह ऐसी गलियों में जाता, जहाँ न तो लोग होते और न ही किसी तरह का शोर ही होता था। पर घर तो वहाँ पर भी थे और उन घरों में लोग रहते थे, जो पित्रोफ़ के लिए अनजान थे। उन घरों में लोग बातें करते थे, उनके बीच झगड़ा भी होता था। कभी किसी घर में किसी की मौत होती थी तो किसी का जन्म होता था। जिसका जन्म होता था, वह इस दुनिया की भीड़ में मिल जाता था और अंततः मर जाता था।

पित्रोफ़ ने ख़ुद को दिलासा देने के लिए मन ही मन अपने परिचितों और क़रीब के लोगों की एक फ़ेहरिस्त बनानी शुरू की। उसने अपने परिचितों से लेकर दरबानों, दुकानदारों, कोचवानों यानी सभी को याद करने की कोशिश की। उस समय वह उन्हें भी नहीं भूला, जो कभी, कहीं आते-जाते उससे टकराए और उसे याद रह गए थे। फ़ेहरिस्त बनाने के लिए जब उसने लोगों को याद करना शुरू ही किया था, तब उसे लगा था कि वह बहुत सारे लोगों को जानता है, पर जब उसने गिनना शुरू किया तो पता चला कि ऐसे लोग बहुत कम हैं। मालूम हुआ कि अपने पूरे जीवन में वह केवल ढाई सौ लोगों को जानता था। उन ढाई सौ में वसील्येव्स्कि के घर में मिला वह दूसरा शख़्स भी शामिल था। पूरी दुनिया में वह, बस, इन्हीं लोगों को जानता था और इन्हीं लोगों से उसकी पूरी दुनिया बनी थी। हो सकता है इनके अलावा वह कुछ और भी लोगों को जानता हो, लेकिन उन्हें भूल गया हो, इसलिए पित्रोफ़ के जीवन में उनका कोई महत्त्व नहीं था।

वह दूसरा शख़्स अगले वर्ष ईस्टर पर पित्रोफ़ से मिलकर बहुत ख़ुश हुआ। उसने नया पार्टी कोट और सर्दियों के नए जूते पहन रखे थे। उसने पित्रोफ़ से हाथ मिलाते हुए कहा — आप जानते हैं, मैं मरते-मरते बचा हूँ। मुझे निमोनिया हो गया था। और अब लग रहा है कि मेरी बग़ल में थोड़ा-सा दर्द है। यहाँ कुछ है, जो मुझे ठीक नहीं लग रहा है।

उस शख़्स का हाल सुनकर पित्रोफ़ को सच में बहुत ख़राब लगा। उसने कहा— अरे ! यह क्या हुआ आपको।

उन दोनों ने तरह-तरह की बीमारियों के बारे में बहुत सी बातें कीं । दोनों ही अपने-अपने मर्ज़ के बारे में एक दूसरे को बता रहे थे। जब विदा होने का समय आया तो दोनों बहुत देर तक एक दूसरे का हाथ कसकर पकड़े रहे और फिर अपने-अपने रास्ते आगे बढ़ गए। दोनों ही एक दूसरे का नाम पूछना फिर भूल गए थे। पित्रोफ़ अगले ईस्टर पर वसील्येव्स्कि के घर नहीं गया। दूसरा आदमी यह जानकर परेशान हुआ और उसने वसील्येव्स्कि की श्रीमती जी से पूछा कि वह कुबड़ा कौन है, जो उनके यहाँ ईस्टर पर हमेशा आता है।

श्रीमती जी ने बताया — मैं उन्हें जानती हूँ। उनका नाम पित्रोफ़ है।

— और उनका पूरा नाम क्या है ?

मैडम नाम बताना चाहती थीं, पर उन्हें उसका नाम याद ही नहीं आया और यह जानकर उन्हें बेहद हैरानी भी हुई कि वे तो उसे बहुत अच्छी तरह से जानती हैं। अब उसका नाम उन्हें याद क्यों नहीं आ रहा है ! उन्हें यह भी नहीं पता था कि पित्रोफ़ कहाँ काम करता है। शायद डाकघर में या फिर बैंक में ।

अगले वर्ष वसील्येव्स्कि के घर पित्रोफ़ तो आया था पर दूसरा शख़्स नहीं आया था। और उसके अगले वर्ष वे दोनों आए तो थे, परन्तु अलग-अलग समय पर आए थे इसलिए मिल नहीं पाए थे। और उसके बाद वे दोनों ही वसील्येव्स्कि के यहाँ फिर कभी नहीं दिखे। उन लोगों ने इनके बारे में कभी कुछ सोचा भी नहीं, क्योंकि उनके यहाँ तो वैसे ही बहुत लोग आते थे और वे सबको याद थोड़े ही रख सकते थे।

जिस बड़े शहर में पित्रोफ़ रहता था वो और बड़ा होता गया। बढ़ते-बढ़ते वह इतना फैल गया कि शहर के किनारे वाले हिस्से शहर के बीच में आ गए थे। नई-नई सड़के बन गई थीं और उनके किनारे-किनारे नई पक्की इमारते खड़ी थीं। उस महानगर में पहले से मौजूद सात क़ब्रिस्तानों में एक और आठवाँ क़ब्रिस्तान शामिल हो गया। फ़िलहाल इस नए क़ब्रिस्तान में सिर्फ़ ग़रीबों को ही दफ़नाया जाता है।

रूस में कई महीनों तक चलने वाली सर्दियों की लम्बी रातों में इस क़ब्रिस्तान में एकदम शांति रहती है, बस, दूर वाली सड़क से गाड़ियों के आने-जाने की आवाज़ लगातार आती रहती है।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’गोरद’ (Леонид Андреев — Город)