महानिर्वाण / विमल चंद्र पांडेय
ऐसा नहीं कि हमेशा आगे देखना ही आसान होता है। कभी-कभी पीछे देखने का विकल्प बहुत आसान और सुरक्षित होता है। पीछे देखते हुए भी इस कठोर दुनिया में सुरक्षित चला जा सकता है। मैं एक ऐसा जहाज हूँ जो इस विशाल समंदर में रास्ता भटक गया है। मैं आगे जा रहा हूँ या पीछे, कहना मुश्किल है। यहाँ एक सवाल उठना यह भी लाजिमी है कि क्या मैं कहीं जा रहा हूँ और इसका उप सवाल यह है कि मैं आखिर कर क्या रहा हूँ? फिर कहीं दूर जाकर एक वाहियात सवाल भी जरूर सिर उठाएगा जो आगे किसी सवाल के लिए गुंजाइश नहीं छोड़ेगा। आखिरकार मैं हूँ कौन?
सागर/दिसंबर 2007
इसके बाद बाबू जीवनलाल, जो +5.5 का चश्मा पहनते हैं, एक संस्थान में काल पढ़ाते हैं और हिंदी कविता के धूमकेतु कहे जाते हैं, रुक जाते हैं। पिछले कई दिनों से उनकी डायरी इसी तरह के फिजूल के सवालों पर खत्म हो जा रही है। वह हमेशा की तरह अपनी आर्थिक और साहित्यिक गतिविधियों को ब्यौरा लिखना चाह रहे हैं। वह लिखना चाह रहे हैं कि आज उन्होंने एक नई चप्पल खरीदी है जिसने घर से संस्थान आने-जाने भर में (जबकि पैदल सिर्फ 100 मीटर ही चलना पड़ता है) दाहिने पैर में तीन जगह और बाएँ पैर में दो जगह काट खाया है। वह लिखना चाह रहे हैं कि संस्थान में दो कक्षाओं के बीच के अंतराल के दौरान अचानक उन्हें कोई सुंदर बिंब सूझा हे जिसके इर्द-गिर्द एक बहुत लाजवाब कविता रची जा सकती है। कि कल रात वह पेटसफा चूर्ण खाना भूल गए थे और सुबह शौच के समय आँखों से जो आँसू निकले थे वह न खुशी के थे न दुख के। कि आज एक नए मगर प्रतिभाशाली कवि ने अखबारी साक्षात्कार में उन्हें अपना गुरु माना है।
पर वह ऐसी बहुत-सी बातों में से कोई भी बात नहीं लिख पाते। यह उनकी सेवानिवृत्ति का दिन नजदीक आने के कारण है या वे सठिया गए हैं, वे समझ नहीं पाते। उन्हें एक आशावादी कवि की तरह साठ में जाने का एक अलग तरह का उत्साह आकर्षित कर रहा था और इसके लिए उनके पास एक से बढ़कर एक सौम्य योजनाएँ थीं। मगर इधर कुछ दिनों से उन्हें इस अनजान समस्या ने ऐसा जकड़ा है कि बीता पूरा जीवन कचरा लगने लगा है। कवि कर्म के लिए मिले ढेरों पुरस्कार जो पहले देखने पर गर्व से सिर उठाए दिखते थे, अब ऐसे दिखाई देते हैं मानो कोई आलमारी का कोना पकड़ कर बरसों से अपनी निरर्थकता पर बिना नहाए विलाप कर रहा हो।
सब कुछ विस्तार से समझने के लिए कवि जीवनलाल जो गठियाग्रस्त घुटनों की वजह से लंबे समय तक खड़े नहीं रह सकते और पुरवा चलने पर बाप-बाप चिल्लाते हैं, की डायरी के पिछले पन्नों पर नजर मारते हुए थोड़ा पीछे की मन:स्थिति समझनी होगी। भला हो उन समझदार विद्यार्थियों का, जब से जीवनलाल गठिया के रोगी हुए हैं, किसी दैवीय कृपा से उन्हें हर बैच में इतने समझदार बच्चे मिले हैं जिन्हें खड़े होकर पढ़ाना नहीं पड़ता, सिर्फ इशारा कर देना ही काफी रहा है।
पीछे नजर डालने पर पता चलता है कि जब जीवन लाल नहीं थे तब वह हरे थे। उनमें जीवन का खूब पर्णहरित था और वह हरदम झूमते रहते थे। उन दिनों कवि जीवनलाल ने कविताएँ लिखनी शुरू ही की थीं और इसे इतनी गंभीरता से लिया करते मानो इससे वह सरकार गिराने की ताकत रखते हैं।
वे उनके निर्माण के दिन थे। वह स्नातक हो रहे थे, बालिग हो रहे थे, कवि हो रहे थे और दुनिया की नजरों में कुछ नहीं हो रहे थे। ये वे दिन थे जिनके बारे में आज के कुछ गुमराह लोग यह अफवाहें उड़ाते हैं कि उन दिनों नौकरियाँ बड़ी आसान थीं। जीवनलाल ने स्नातक होने के बाद जो खजाना जुटाया था वह लंबे मोटे कागज पर छपे उनके प्रमाणपत्रों के अलावा कुछ पोस्टकार्ड और लिफाफों में बिखरा हुआ था। ये अब तक की उनकी कविताई पर मिले प्रशंसा और प्रोत्साहन पत्र थे जिनमें कुछ अति-उत्साहित पाठिकाओं के लगभग प्रेममत्र भी शामिल थे। नौकरी के लिए जब वह मयमित्रमंडली संघर्ष करने लगे तो कुछ समय के लिए सारी कविताई छूट गई। उन्हीं दिनों वे और उनके मित्र सिगरेट से परिचित हुए और जल्दी ही घनिष्ठ हो गए।
बहरहाल, स्नातक के बाद परास्नातक और फिर केंद्र सरकार की योजना के तहत काल पढ़ाने की नौकरी मिलने की तह में जाना एक अवांतर प्रसंग होगा। यहाँ कहानी का नायक कुछ देर के लिए सिगरेट है। उनके मित्रों की कम, उनकी ज्यादा। नौकरी न मिलने के कठिन दिनों में हमराही बनी सिगरेट नौकरी मिलने के बाद और आत्मीय हो गई। कुछ समय बाद एक-एक करके मित्रों के बैंड बजने लगे। कुछ वर्षों बाद जीवनलाल की भी शादी हुई। जीवन लाल के साथ बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी भी हो गया। एक अमहत्वाकांक्षी प्रशिक्षक के दिन जितने मजे से गुजर सकते हैं, उनके भी गुजरने लगे। इसी बीच उन्हें अपनी अस्त-व्यस्त जीवन शैली का बोध हुआ। पत्नी के साथ पेश आ रही कुछ मुश्किलों से या सिर्फ तीन मंजिल चढ़कर हाँफ जाने के भय से जीवनलाल ने अपने जीवन को व्यवस्थित करने के लिए कुछ कठिन संकल्प लिए।
सिगरेट छोड़ देना उनमें सबसे ऊपर था।
हालाँकि कवि के जीवन में और महत्वपूर्ण संकल्प भी साथ चलते रहे हैं। जब उन्होंने अपने इस संकल्प के बारे में अपने मित्रों ईश्वरी, चंद्रप्रकाश और ओंकारनाथ को सुनाया तो उन्होंने इसे ऐसा सुना जैसे रोज सुनते हों। किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी और निर्विकार भाव से धुआँ उड़ाते रहे।
फिर उनके और सिगरेट के बीच एक आँखमिचौली शुरू हुई जो आज तक जारी है। सिगरेट ही नहीं, इस सूची में धीरे-धीरे चीजें बढ़ीं भी जो उनका अधिकांश समय और ऊर्जा खाती रही हैं।
जिंदगी की गाड़ी इसी तरह रुकती चलती पटरी पर दौ़ड़ रही थी। जीवनलाल गाड़ी के भीतर आराम से बैठे थे और समझ रहे थे कि यह गाड़ी वही चला रहे हैं। गाड़ी उनके भोलपन पर मुस्कराती जब-जब वह ट्रैक बदलने की कोशिश करते।
उनकी डायरी का अवलोकन करें तो पाएँगे कि उन्होंने कुछ चीजों से जिंदगी भर लड़ाई लड़ी है। इसी में से समय निकालकर वह कैसे कविता को भी अपना कीमती समय देते गए और कैसे राष्ट्रीय स्तर के कवि बनते चले गए। उनकी पूरी जिंदगी की माला गूँथने चलें तो शर्तिया कुछ मोती इधर-उधर बिखरे गिरे रह ही जाएँगे। यह भी संभव है कि आपको अपने घर, अपने जीवन, अपने क्षेत्र में कुछ मनके बिखरे मिल जाएँ, थोड़ा सा ध्यान देंगे तो पाएँगे कि यह ईंट उसी महान कवि की जिंदगी की हवेली से निकल कर छिटक गई है। उस हवेली के निर्माण की बाबत तफसील में सुनने से बेहतर होगा उनकी डायरी की कुछ सतरों से वाबस्ता हों, अनियमित अंतराल पर।
सन 1967 के कुछ पन्ने -
- आज मेरा बीसवाँ जन्मदिन था। जेब में पैसे नहीं थे इसलिए ओंकार ने सबको कहवा पिलाया। चंदू ने अपने पैसों से जन्मदिन की खुशी में सबको लड्डू खिलाया। हम सबने इसके बाद आभा उद्यान में हमारे प्रिय कवि श्रीकांत वर्मा की कुछ कविताओं का पाठ किया। उनके नए संग्रह ‘मायादर्पण’ की कविताएँ अद्भुत हैं। मैंने दिनमान में दो कविताएँ भेजी थीं पर श्रीकांत जी ने लौटा दी हैं। अब अगले सोमवार से यह नियम रखूँगा कि कि हर हफ्ते किसी अच्छे कवि का कविता संग्रह पढ़कर समाप्त करूँगा।
- आज बहुत दिनों बाद डायरी लिख रहा हूँ। किसी काम को करने का उत्साह ही नहीं रहा। कविताएँ लिखना तो दूर पढ़ भी नहीं पा रहा हूँ। पिताजी पुलिस या सेना में भर्ती होने के लिए जोर दे रहे हैं।
- बंगाल के एक छोटे से गाँव से शुरू हुआ एक तूफान बढ़ता ही जा रहा है और जिस तरह इसे समर्थन मिल रहा है, मेरा अंदाजा है यह जल्द ही एक आंदोलन का रूप ले सकता है। मैं और मेरे दोस्त नैतिक रूप से इसका समर्थन करते हैं और मैं इस आंदोलन में भाग लेकर अपने जीवन को सार्थकता देना चाहता हूँ। नौकरी के लिए घर से दबाव बढ़ता जा रहा है।
- मेरे रुझान को देखते हुए मुझ अपने लिए पढ़ने लिखनेवाली नौकरी बेहतर लगती है। हालाँकि साहित्य को अपना मुख्य कर्म मानने के बाद अब जो भी नौकरी करूँगा उसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ जीविकोपार्जन ही होगा। पर अध्यापक की नौकरी से ज्यादा सुकून पता नहीं क्यों पत्रकारिता में मिलता है। गणेश शंकर विद्यार्थी के सामने सिर्फ एक उद्देश्य था, देश की आजादी। मेरे सामने तो आज इस बदहाल देश को लेकर अनेक उद्देश्य हैं। कविता और पत्रकारिता दोनों का काम तो एक ही है बस फॉर्मेट अलग-अलग हैं।
- किसी बड़े अखबार में मौका न मिल पाने के कारण एक स्थानीय साप्ताहिक में काम करने लगा हूँ जो यहीं सागर से निकलता है। कहने को स्थानीय है पर संपादक ही अपने पैसों से छापता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ जमकर लिखता है और हर उस विज्ञापन को मना कर देता है जिस पर उसे शक होता है। जीवट का आदमी है। पत्रकारिता का क ख ग सीख रहा हूँ और आजकल बहुत उत्साह में रहता हूँ, भले तनख्वाह के नाम पर सिर्फ चाय मिलती है। सोचता हूँ एम.ए. में पंजीकरण करा लूँ। एक खबर लिखने के दौरान कुछ गुरिल्लों से परिचय हुआ जिन्होंने मुझे कानू दा से मिलाने का वायदा किया है।
सन 1969 की कुछ सतरें -
- इच्छाशक्ति इधर बहुत क्षीण हो गई है। आज रविवार है। सुबह देर से सोकर उठा हूँ। ऐसा लगता है रातवाला कमरे का धुआँ मेरे अंदर भी घुलता रहा है रात भर। सिर भारी सा है। रात को नशे की हालत में ईश्वरी की कोई बात सुनकर कुछ पंक्तियाँ कौंधी थीं जो सिगरेट की डिब्बी पर लिख ली थी। पंक्तियाँ सामने हैं पर अब न वह संदर्भ याद आ रहा है न वह बात...
समुद्र की लहर भाग रही है आगे
जो भाग रहा है आगे
उस लहर में है पानी
या पानी है उसमें जो छूट रहा है पीछे
और किस में है जीवन...
अब कल यानी सोमवार से अपनी कमजोरियों पर लगाम कसनी है। सब कुछ नया होगा। सुबह जल्दी उठना और दिन भर में सिर्फ चार सिगरेट।
- जीवन बिना मतलब का बीतता जा रहा है। हम नौकरी के लिए प्रयास करते-करते परास्नातक भी हो गए पर नौकरी की अब तक पूँछ भी दिखाई नहीं दी। ओंकार ढेर सारे पैसे कमाने के पक्ष में है इसलिए वह कोई धंधा करने के पक्ष में है। ईश्वरी नाम के विपरीत कम्युनिस्टों के दफ्तर में दिन भर बैठा रहता है। कुछ समय तक हम भी सम्मोहन में बँधे नारे, लगाते रहे पर जल्दी ही उकता गए। वह अक्सर मजदूरों के साथ लाल झंडा लेकर नारे, प्रदर्शन, पुतलाफूँक करता रहता है। कानू दा से कई मुलाकातें हुईं। उन्होंने कहा कि लेखक या कवि को एक्टिविस्ट होना ही चाहिए। मैंने कहा कि लेखन में हम ज्यादा बड़े प्रश्नों से टकराते हैं। चंदू और मैं आजकल दिन भर सिगरेटें पीते हैं और भविष्य का खाका खींचते हैं पर वह तो पूरा अँधेरे में है। चंदू के साथ ही कल मोहन राकेश की कहानी पर बनी फि़ल्म ‘उसकी रोटी’ देखी। मुझे फि़ल्म अच्छी लगी और इसके लिए मैंने निर्देशक मणि कौल को बहुत बधाई दी। ऐसी फि़ल्मों को देखने के लिए हमें पैसे जुटाने पड़ जा रहे हैं, इससे बुरी बात क्या होगी। पत्रकारिता का सहारा है कि जिंदा हूँ। शब्दों में जान फूँकना और उनसे लोगों को जागने में सहायता करना एक विलक्षण काम है पर आजीविका...? काश कि कहीं से ढेर सारे पैसे मिल जाते तो अपना एक अखबार शुरू कर देता। एक और चिंताजनक बात यह है कि इन दिनों सिगरेट का सेवन हदें पार कर रहा हैं। इस पर लगाम लगानी होगी।
- इतनी निराशाओं के बीच एक आशा। आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। मेरी कविता श्रीकांत जी ने ‘दिनमान’ में प्रकाशित की है। आज से मैं एक राष्ट्रीय स्तर का कवि बन गया हूँ। आप वही होते हैं पर एक घटना अचानक आपको कितना महत्वपूर्ण या अमहत्वपूर्ण बना देती है। मुझे फूटी आँख देखना न पसंद करनेवाले विभागाध्यक्ष ने मुझे अपने कमरे में बुला कर बधाई दी और अपनी घड़ी उतारकर मुझे दे दी। मुझे अब भी विश्वास नहीं हो रहा।
सन 1973 के कुछ अंश -
- देश अस्थिरता की स्थिति से गुजर रहा है। ऐसा लगता है हर ओर एक असंतोष सा घुलता जा रहा है जो अचानक फूटेगा। आकांक्षा मायके गई हुई है। उसकी बहुत याद आ रही है। अभी उसकी यादों को समर्पित एक कविता लिखी है, वह आएगी तो सुनाऊँगा। आकांक्षा तुम कब आओगी? तुम्हारे बिना जीवन बेरंग है।
अभी-अभी एक पंजाबी पत्रिका का संपादक आकर गया है। वह मेरी उस कविता का अनुवाद छापना चाहता है जिसे पिछले महीने पुरस्कार मिला है। आजकल श्रीकांत जी की ‘जलसाघर’ पढ़ रहा हूँ। उन्हें जितना पढ़ो, अंदर की आग भड़कती जाती है। उन्हें तुलसी पुरस्कार प्राप्त होने पर एक गुलदस्ता, एक बड़ा सा पत्र और एक दीवार घड़ी भेजी है। वे कहते हैं, मुझमें वे एक बड़ा कवि देख रहे हैं। आपका स्नेह है श्रीकांत जी, मैं किस लायक हूँ।
- कल से संस्थान खुल रहा है। पढ़ाना अब आदत में शुमार हो चुका है। काल पढ़ाना वाकई बहुत चुनौतीपूर्ण काम है। अपनी तरह के सरकार के इस एकमात्र अनूठे संस्थान में हम युवाओं को उनके समय के बारे में जानकारी देते हैं। जीविका की समस्या तो हल हो गई पर पत्रकारिता के दिनों की बहुत याद आती है। काश मैं एक समय पर दो जगह हो सकता तो पढ़ाने के साथ-साथ पत्रकारिता भी करता रहता। कल चंदू के यहाँ रात भर शराब पी गई। झोंक में सिगरेट कुछ ज्यादा ही हो गई। आकांक्षा के लिए सोने के कंगन बनवाने हैं। सिगरेट न सिर्फ अपने स्वास्थ्य के लिए बल्कि फिजूलखर्ची रोकने के लिए भी छोड़नी जरूरी है।
सन 1975 के कुछ हिस्से -
(नोट - सन 1975 से सन 1977 तक के पन्ने फटे हुए थे और कुछ पन्ने इतनी मजबूती से आपस में चिपका दिए गए थे कि उन्हें पढ़ पाना मुश्किल था।)
सन 1980 के कुछ वाक्यांश -
- आज मैं और श्रीकांत जी एक मंच पर थे। उन्हें शिखर सम्मान दिया जाना था और मुझे उन पर कुछ बोलना था। मेरे लिए एक बड़ा सौभाग्य था। मैं कुछ लिखकर ले गया था पर जब बोलने लगा तो उसकी जरूरत ही नहीं पड़ी। मैं काफी भावुक हो गया था। आकांक्षा भी मेरा व्याख्यान सुनकर विह्वल हो गई थी और माँ को रोता देखकर प्रभाव भी रो पड़ा था।
- हर चीज हर किसी के बस में नहीं होती। रात को मेरा और आकांक्षा का एक छोटी सी बात को लेकर झगड़ा हो गया। मानता हूँ गलती मेरी ही थी। सामंजस्य इनसान का सर्वश्रेष्ठ गुण है जो मुझमें शायद अनुपस्थित है। संस्थान और उसकी राजनीति, लिखना, पढ़ना, खराब स्वास्थ्य, आकांक्षा और प्रभाव की बढ़ती उम्मीदें, सबका सामंजस्य मुश्किल है। खैर जो प्रयास कर सकता था वह तो करूँगा ही। आज मैं अपने आप से एक वादा करता हूँ कि इस महीने की एक तारीख से मैं एक नई जिंदगी शुरू करूँगा अपनी सारी कमजोरियों पर एक साथ धावा बोलूँगा और वह जीवन शुरू करूँगा जिसके स्वप्न देखता हूँ। घड़ियाँ मेरी पसंदीदा वस्तु हैं और विडंबना की मैं उनके हिसाब से खुद को व्यवस्थित नहीं कर पा रहा। अब करूँगा।
- आज सीने में कुछ आराम हुआ तो श्रीकांत जी से मिलने गया था। इधर तबियत काफी खराब होने पर डॉक्टर को दिखाया तो एक्सरे से पता चला कि फेफड़े में सीवियर कंजेक्शन हैं। कहता है अभी से यह हाल है तो चालीस के बाद क्या होगा। सिगरेट एकदम से छोड़ने को कहा है। इस महीने से छोड़ दूँगा सिगरेट। परसों यानी एक तारीख से सिगरेट कम वम नहीं, एकदम बंद। श्रीकांत जी को भी बता दिया कि कम से कम उनके लिहाज से ही छूट जाय। उन्होंने भी अपना उदाहरण देते हुए धूम्रपान से तौबा कर लेने की सलाह दी। वे आजकल हस्तिनापुर, मगध और कोसल वगैरह पर कुछ लिख रहे हैं। उनके सामने तो कुछ नहीं कहा पर कविताएँ मुझे कोई खास पसंद नहीं आईं। ...या शायद समझ न आई हों। हॉल के लिए एक बड़ी और भव्य दीवार घड़ी बनाने के लिए कहा है घड़ीसाज को जो अगले महीने देगा। आकांक्षा के लिए बनारसी साड़ी लेनी है और प्रभाव के लिए कोट बनवाना है। वह भारतीय टीम के ओलंपिक में स्वर्ण जीतने पर बहुत खुश है और इस मौके पर बाहर घूमने जाना चहता है।
सन 1990 के कुछ उद्गार -
- कल यानी 25 मई को शुक्रवार होने के कारण एमपी हॉल खाली मिल गया और श्रीकांत जी की चौथी पुण्यतिथि श्रद्धा और नम आँखों के साथ मनाई गई। मुझे भी इस महीने साहित्य भूषण पुरस्कार मिला है। कल श्रद्धांजलि सभा में श्रीकांत जी के कालजयी संग्रह मगध की कविताओं का पाठ किया गया। पत्रकार मित्रों के आ जाने के बावजूद प्रेस वक्तव्य मैंने खुद तैयार किया। पत्रकारिता जो एक जमाने में ध्येय थी, इतनी तो भीतर बची ही रहे।
अब चूँकि बहुत से साहित्यकार मित्र जुट गए थे, सो रात को मजबूरन सिगरेट और शराब पीनी पड़ी। पिछले 12 दिनों का नियम टूट गया वरना इस बार तो सिगरेट से पीछा छुड़ा ही लिया था। कल जो पी लिया, पी लिया, अब नहीं। इधर दो चार दिन भले ही सिगरेटें पी लूँ पर इस 1 जून से अपने भीतर एक ऐसा परिवर्तन लाने वाला हूँ कि जो मित्र इस बात को लेकर मजाक उड़ाते रहते हैं, उनकी आँखें खुली रह जाएँगीं। प्रभाव काफी समय से मोपेड लेने की जिद कर रहा है। कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं। रंगीन टीवी लेने के बाद से थोड़ी दिक्कत में हूँ।
सन 1995 -
- फेफड़ों में लगता है जान ही नहीं है। दस सीढ़ियाँ चढ़ने से पहले ही साँस फूलने लगती है। आज कमरे में पहुँचने से पहले ही चक्कर आ गया। अब अगर कमजोरियों पर काबू नहीं कर पाया तो कहीं का नहीं रहूँगा। बी.पी. भी इधर हाई रहता है। अब बस बहुत हुआ। आज तक जो भी सोचता था, उसे करने का सबसे उपयुक्त समय अब आ गया है। इस महीने की एक तारीख को जब मैं आँखें खोलूँगा तो एक नया जीवनलाल जन्म लेगा।
प्रभाव के विवाह के लिए बहुत सारे रिश्ते आ रहे हैं। राजभाशा विभाग में अनुवादक की नौकरी कराने में मुश्किलें तो थोड़ी जरूर आईं पर अच्छी बात यह है कि नौकरी लग जाने के बाद प्रभाव विवाह के लिए मान गया है। कोई अच्छी लड़की देखकर उसका विवाह करना है। मस्जिद टूटने के बाद से जिस कविता संग्रह में लगा था, जल्दी ही तैयार होनेवाला है। इधर मोरार जी देसाई की अंत्येष्टि के अवसर पर प्रसिद्ध आलोचक वीरेंद्र बरनवाल से भी मित्रता हो गई। वह मेरी कविताओं पर लंबी श्रृंखला लिखने के लिए राजी हो गए हैं।
सन 1997 -
- आज मित्रों ने मेरा पचासवाँ जन्मदिन धूमधाम से मनाया। समीक्षा के पिता प्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामजनम पांडेय ने आज ही यह खुशखबरी सुनाई कि मेरे कविता संग्रह ‘टूटी हुई इमारत’ पर मुझे अकादमी पुरस्कार मिलनेवाला है। देवगौड़ा के हटाए जाने और गुजराल को लाए जाने की उहापोह में मेरा एक और पुरस्कार अटका हुआ है जिसकी अब उम्मीद कर सकता हूँ। अकादमी पुरस्कार की औपचारिक घोशणा एक-दो दिन बाद होगी। पांडेय जी ने ‘साहित्य दर्पण’ में मेरी कृति की वृहद् आलोचना लिखी है और बधाई संदेश अब तक आ रहे हैं।
समीक्षा को घर की बहू बनाने से जैसे कोई शुभ नक्षत्र सक्रिय हो उठा है। वह बहुत गुणी है। प्रभाव भी बहुत खुश है। साहित्यिक बिरादरी में मेरा नाम और सम्मान दिनों दिन बढ़ रहा हैं हाँ जन्मदिन की खुशी में कुछ नियम टूट गए जिन्हें फिर से लागू करना है।
सन 2007 -
- नंदीग्राम में हिंसा की खबरें रह रहकर सुनाई दे रही हैं। आज ‘हिंदुस्तान’ में महाश्वेता देवी का उद्वेलित कर देनेवाला लेख पढ़ा। मैं भी सरकार की नीतियों के विरुद्ध और नंदीग्राम की जनता के पक्ष में एक कालजयी कविता लिखने का मन बना रहा हूँ जिसमें मैं सुहार्तो का भी जिक्र करूँगा। डॉ सिंह ने भी कहा है कि मैं लिखूँ तो सबका ध्यान खींच सकता हूँ क्योंकि इस पर कुछ खास कविताएँ नहीं लिखी जा रही हैं।
- जल्दी ही साठ का हो जाऊँगा और सेवानिवृत्त भी। अब बाकी का खाली समय मनमाफि़क काम करने में लगाऊँगा। अखबारों के लिए लिखूँगा, समाचार चैनलों में जहाँ जाने से मना कर देता था, काव्य समीक्षा व चर्चाओं में जाया करूँगा। संभव हुआ तो पत्रकारिता को फिर से शुरू करूँगा, एक अखबार निकालूँगा और अपने जान से प्यारे यश के साथ समय बिताऊँगा। सेवानिवृत्त होने से पहले-पहले यश के लिए इलेक्ट्रॉनिक सिंथेसाइजर खरीद दूँगा और सिगरेट हमेशा के लिए छोड़ ध्यान व योग में मन लगाऊँगा।
ये अंश कोई राज नहीं थे जिसे सिर्फ जीवनलाल जानते हों। उनके सभी करीबी मित्र उनकी डायरी को बिना पढ़े इसकी एक-एक कसम से परिचित थे। हर महीने अगली एक से अपनी कमजोरियों को जीत लेने का सपना उनकी आँखों में लहराया करता। मित्र अक्सर आँखों में झाँकते रहते थे। शुरुआती कुछ सालों के बाद से तो उनकी यह प्रतिज्ञा मित्रों का सबसे पसंदीदा चुटकुला बन गई थी। ‘इस एक तारीख से जीवनलाल फिर अपना नाटक शुरू करेगा’ कहते मित्र पचीस तारीख से ही व्यग्र हो उठते। एक तारीख को जीवनलाल का नया अवतार होता। वे एकदम से अलहदे इनसान हो उठते। मित्र पास बैठे धुआँ उड़ाते, बोतलें खोलते और वे सिर्फ बातों के साझीदार रहते। कभी-कभी जब अचक्के ही कह बैठते, ‘अरे भाई, धुआँ उधर छोड़ो न’ तो पूरी मंडली में हँसी का एक फव्वारा छूट पड़ता जिसके दो-चार छींटे उनके कपड़ों पर भी पड़ते।
ये सब बमुश्किल एक हफ्ता चलता और जीवनलाल अचानक भयानक कब्ज या असहनीय सिरदर्द का शिकार हो जाते। इलाज के विकल्प के रूप में उन्होंने जब भी सिगरेट को आजमाया, दर्द जाता रहा।
इधर बहुत दिनों बाद इत्तफाकन सभी दोस्त एक साथ मिल गए। ईश्वरीप्रसाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े ओहदेदार हो गए थे। जब वह अपनी कार से उतरे तो दो बंदूकधारियों ने चंद्रप्रकाश की बेटी की शादी में चार चाँद लगा दिए। ओंकारनाथ का गंजा सिर आईने की तरह चमक रहा था। वैभव चाँद और तोंद दोनों से बाहर झाँक रहा था। वह एक प्रतिष्ठित समाजसेवक हो गए थे और अपने कई पंजीकृत संगठनों से दिन रात जनता की सेवा कर रहे थे।
विश्वास करनेवाली बात नहीं, पर उस भीड़-भड़क्केवाले माहौल में भी सभी दोस्त आधे घंटे के लिए ही सही, अंदरवाले कमरे में कमरा बंद करके मिले। एक बोतल खुली और सिगरेटें जलीं।
‘तुम भी...?’ ओंकारनाथ ने जीवनलाल को सिगरेट सुलगाते देख आश्चर्य प्रकट किया। हँसी का एक दरिया बहा और सबको भिगो गया।
‘अरे एक तारीख से फिर से एक प्रयास होगा भई, समझा करो।’ चंद्रप्रकाश ने कहा और जल्दी-जल्दी पैग बनाने लगे। सभी मित्र जीवनलाल की तरफ देखकर मुस्करा रहे थे।
तीन-चार पैग बने और जल्दी-जल्दी खत्म किए गए। अंतिम पैग में जीवनलाल ने यूँ ही ईश्वरी से पूछ लिया, ‘ यह नंदीग्राम में क्या हो रहा है ईश्वरी?’
ईश्वरी के चेहरे का रंग बदल गया। पैग एक साँस में खत्म करते हुए बोले, ‘कुछ नहीं, हमारी पार्टी को बदनाम करने की साजिश है।’
‘अरे भाई हमारे सामने तो सच बोलो। यहाँ कौन मीडिया बैठा है?’ चंद्रपकाश मुस्कराए।
‘यही सच है। जो मैंने कहा।’ ईश्वरी कश खींचते हुए उठने लगे।
‘सबसे बड़ा सच तो यही है न मित्र कि गरीब मरे तो हैं जिम्मेदार चाहे जो भी हों...?’ जीवनलाल आश्चर्य में थे।
‘वे लोग गरीब जनता नहीं उपद्रवी थे और वैसे भी विकास में कुछ लोग बलि देते ही हैं।’ ईश्वरी तेजी से एक कश लेकर सिगरेट ऐश ट्रे में रगड़ रहे थे।
‘तुम लोगों का दावा रहता है कि तुम लोग वंचितों को हक दिलाना चाहते हो और आज विकास के लिए जान लेना इतनी छोटी बात हो गई...? या इंडोनेशिया के तुम्हारे बैंक खातों में जमा की गई रकम यह बुलवा रही है? क्या नाटक है ये?’ जीवलाल न जाने क्यों अचानक ही उत्तेजित हो उठे।
‘भई तुम्हारे चालीस साल के नाटक से तो कम ही नाटकीय है सब।’ कहते हुए ईश्वरी खड़े हुए और हो-हो कर हँसते हुए अपना पाजामा ठीक करने लगे जिसका अर्थ था कि हमारा वक्त बहुत कीमती है, अब हम चलेंगे।
यह घटना, निहायत ही नामालूम और नामाकूल सी घटना एक प्रस्तावना थी जिसका अध्याय जीवनलाल के जीवन में कब-कब और किस-किस रंग की स्याही से लिखा गया, उन्हें पता नहीं चला। इस घटना के बाद कहीं कुछ बदला या नहीं, यह सोचने का विषय नहीं पर ऐसी ही एक रात को जब वह मित्रों के साथ महफि़ल जमाकर लौटे तो उनके जीवन में एक हल्की-सी दुर्घटना हुई जिनका उनके पास कोई प्रमाण नहीं है।
वह अपने कमरे में पहुँचे तो काफी सुरूर बाकी था। पत्नी शयनकक्ष में सो चुकी थी इसलिए वह सीधा स्टडी में चले आए। अंदाजा लगाते हुए लड़खड़ाते कदमों से चलकर जब उन्होंने बत्ती जलाई तो पहले चौंके, फिर डरे और आखिर में काँपने लगे। उनके पढ़ने की मेज के पास वह शख्स खड़ा था जिसे देखे उन्हें पूरे 21 साल हो गए थे। वही क्रीम लगाकर पीछे सँवरे बाल और आँखों में आग।
‘आप...? मेरे प्रिय कवि...?’ डर एक भावुक डर में बदलने लगा।
‘खबरदार ! मुझे कवि मत कहो।
मैं बकता नहीं हूँ कविताएँ
ईजाद करता हूँ
गाली
फिर उसे बुदबुदाता हूँ।’
कहता हुआ वह शख्स आगे बढ़ा और जीवनलाल के मुँह में एक सिगरेट लगा दी। फिर उसे तीली दिखाते हुए बोला,
‘काशी में
शवों का हिसाब हो रहा है
किसी को
जीवितों के लिए फुर्सत नहीं
जिन्हें है
उन्हें जीवितों और मृत की पहचान नहीं।’
उस रात जीवनलाल की स्टडी में तिलिस्म का बाजार लगा था। वह इन आरोपों के जवाब में बहुत कुछ कहना चाह रहे थे जो वह लंबे समय से सोचते आ रहे थे। उन्हें पता था कि एक दिन कहीं कोई पूछ बैठेगा मगर अपनी पूरी शक्ति लगाने के बाद भी उनका मुँह नहीं खुला। तभी एक चमत्कार हुआ। उनके शरीर के भीतर से एक रहस्यमयी आकृति निकली और उस शख्स के बराबर में जाकर खड़ी हो गई। आकृति ने परछाईं की आँखों में सीधी आँखें डालीं और घूरने लगा। जीवनलाल अब भी कुछ नहीं बोल पा रहे थे।
आकृति के अंदाज से यह अंदाज लगाना मुश्किल था कि आखिर वह चाहती क्या थी। उन्होंने सवाल की तरह खड़ी आकृति को नजरअंदाज किया और अपनी कमजोरियों और मक्कारियों को मन ही मन स्वीकार करते उस परछाईं के पैरों पर गिर पड़े।
‘मुझे माफ कर दीजिए। मैं जिंदगी भर अपने में व्यस्त रहा। मैं कविताएँ लिखता रहा और मेरा सम्मान होता रहा। प्रतिष्ठा बढ़ती रही और मैं उन सम्मानों में ऐसा खोया कि गाली नहीं लिख पाया। मैं गाली लिखना चाहता था पर पता नहीं क्यों कभी गाली लिख नहीं पाया। मैंने कभी जिंदों और मुर्दों का हिसाब नहीं किया... क्यों मुझे नहीं पता। ...मुझे नहीं पता।’
पता नहीं उस रहस्यमयी शख्स ने कुछ सुना या नहीं। वह थके कदमों से जाकर पास की आराम कुर्सी पर बैठ गया। उसकी आवाज बरसों बोझ उठाने से थकी और टूटी हुई थी।
‘द्रोणाचार्य! इन्हें मत सिखाओ
धनुर्विद्या,
ये सत्य के लिए नहीं,
सत्ता के लिए लड़ रहे हैं।’
जीवनलाल जमीन पर घिसटते फटी आँखों से सारा अविश्वसनीय दृश्य समझने की कोशिश कर रहे थे। परछाईं उस रहस्यमयी शख्स के पीछे ऐसे लगी थी मानो कोई सवाल आज पूछ कर ही रहेगी। ऐसा ही रवैया उस शख्स का जीवनलाल के प्रति था। कुर्सी से आवाज आती रही।
‘जलने दो पुस्तकालयों को, ढहने दो लेनिन की मूर्तियाँ
गिरने दो
सीढ़ी पर गोली खा लिंकन को।’
‘मुझे माफ कर दो मेरे प्रिय कवि। मैं अपनी बेइमानी का दंड भुगतने को तैयार हूँ।’ जीवनलाल फिर से उसके पैरों पर थे। उन्होंने उससे क्षमा माँगी।
‘मेरे पास कहने के लिए
केवल दो शब्द हैं,
लौट जाओ।’
‘नहीं...। मुझे क्षमा करो... मुझे एक मौका दो...।’जीवनलाल उसके पैरों पर सिर रखकर चिल्लाए पर उस पर कोई असर नहीं पड़ा। वह उठ खड़ा हुआ।
‘निर्णय करना होगा।’ कहता है ज्दानोव
कविता या मृत्यु?’
और वह भारी कदमों से दरवाजे के पार हो गया। सवालिया भाव लिए वह परछाईं भी उनके पीछे लग गई। जीवनलाल भी उठ कर दरवाजे पर झपटे और बंद दरवाजे से उनका सिर जोर से टकराया। पूरा कमरा गोल-गोल घूमने लगा और चेतना लुप्त होने से पहले उन्होंने माथे पर हाथ फिराया तो पाया कि कुछ गाढ़ा-गाढ़ा वहाँ से स्रावित हो रहा है।
जब जीवनलाल ने आँखें खोलीं तो पूरा परिवार उन्हें घेरकर बैठा था। उनकी पत्नी आकांक्षा, बेटा प्रभाव, बहू समीक्षा और पोता यश।
‘दादू, आप अँधेरे में दीवार से टकरा गए थे।’ उनका हाथ माथे पर गया। ‘दीवार नहीं, वहाँ दरवाजा था।’ उन्होंने सोचा।
‘क्या जरूरत थी इस उमर में बाहर से इतना पीकर आने की?’ पत्नी भुनभुनाई।
‘आप भी पिताजी। रिटायरमेंट में हफ्ता भर बचा है और आप चोट लगा बैठे?’ बेटा यह सोच-सोच कर हलकान हो रहा था कि अगर पिता इस बीमारी में निकल गया होता तो रिटायरमेंट के बाद मिलने वाले पैसों के लिए कितनी भागदौड़ करनी पड़ती।
‘अब आप दो-तीन दिन यहीं आराम करिए। इस कमरे से बाहर मत निकलिए। टीवी देखिए, मैं नाश्ता भिजवाती हूँ। लीजिए ये दवाइयाँ पहले खा लीजिए।’ बहू ने अधिकार भाव से कहा। वह मुस्कराए। बहू की ही वजह से उनकी घर में इज्जत है।
उन्होंने अपना मुआयना किया तो पाया कि उन्हें सचमुच बुखार है। वह अचानक कुछ पलों के लिए कहीं खो गए।
‘कई साल से
क्षमाप्रार्थी हूँ मैं काल से
मैं जिसके सामने निहत्था हूँ
निसंग हूँ
मुझे न किसी ने प्रस्तावित
किया है
न पेश।
मंच पर खड़े होकर
कुछ बेवकूफ चीख रहे हैं
कवि से
आशा करता है
सारा देश।
बहू उठकर नाश्ता बनाने चली गई और बेटा ऑफि़स। पोता क्रिकेट खेलने बाहर चला गया तो पत्नी ने टीवी चला दिया। उन्होंने पत्नी की तरफ प्रेम भरी नजरों से देखा और बोले,
‘जानती हो मेरे अंदर एक बड़ा भारी बदलाव हुआ है...?’
‘क्या?’
‘मैं जाग गया हूँ और जान गया हूँ अपने जीवन का उद्देश्य।’
‘आज...? मगर आज तो बीस ही तारीख है। अभी तो तुम्हारे जागने में समय है।’ पत्नी ने हैरानी भरे भाव से कहा।
‘अरे वह सब बेवकूफि़याँ नहीं। बहुत बड़ी बात है। जानती हो कल रात मैंने किए देखा ?’
‘किसे...?’ पत्नी ने कोरम पूरा करते हुए पूछा। एक तो उसका मनपसंद चैनल नहीं मिल रहा था, ऊपर से जीवनलाल उसे बोर कर रहे थे।
‘श्रीकांत वर्मा को...।’ उन्होंने आवाज को भरसक दबाते हुए रहस्य भरी बात कही।
‘कौन श्रीकांत वर्मा?’ पत्नी ने एक पल के लिए दूधवाले के नाम पर विचार किया और उसका नाम श्रीराम वर्मा याद आने पर फिर से टीवी में खो गई।
‘अरे महान कवि श्रीकांत वर्मा। वह हमारे घर भी तो आते थे। तुम्हें कितना तो मानते थे। मगधवाले...।’ वह हतप्रभ थे। आकांक्षा ऐसा क्यों बोल रही है?
‘मुझे याद नहीं आ रहा। अच्छा सचमुच? और यह मगध एम.पी. में ही है क्या?’ वह अपना पसंदीदा चैनल देखती हुई बोली।
‘तुम्हें श्रीकांत वर्मा एकदम याद नहीं? उन्होंने डरते-डरते पूछा मानो पत्नी पागल हो गई है और अभी तोड़फोड़ मचाने लगेगी।
‘और रघुबीर सहाय...?’
‘अब ये कौन है...?’
‘और मुक्तिबोध...?’
‘किसके-किसके नाम ले रहे हो तुम? मैंने कभी नहीं सुने ये नाम। अब मुझे जरा चैन लेने दो।’ वह टीवी स्क्रीन में डूब गई।
‘तुमने कभी नहीं सुने? जब मुक्तिबोध आई.सी.यू. में भर्ती थे तो तुम्हारी जिद पर तुम्हें भी तो ले गया था। तुम बाहर से उन्हें देखकर रोने लगी थी। श्रीकांत जी की दी हुई साड़ी को तुमने अभी तक सँभाल कर रखा है या नहीं? कितना रोई थी उनकी मौत पर... दो दिन लगातार आँसू बहाती रही थी और अमेरिका जाने की भी जिद कर रही थी।’ जीवनलाल भावुक हो गए और उनकी आँखों से आँसू निकल आए। जब उन्होंने देखा कि पत्नी की आँखें भी छलछला आई हैं तो उन्हें अपनी भूल का एहसास हुआ। कोई बात भला ऐसे याद दिलाई जाती है। बेकार में उसे भावुक कर दिया।
‘चुप हो जाओं आकांक्षा, रो क्यों रही हो? अभी कह रही थी कि इन्हें नहीं जानती और उनकी मौत की खबर सुनकर रोने लगी? चुप हो जाओ आकांक्षा, चुप हो जाओ।’
‘तुम भी जरा चुप हो जाओ और चैन से बैठो।’ पत्नी ने ऊँची आवाज में कहा और फिर टीवी की ओर देखकर धीरे-धीरे सुबकने लगी। ‘हे भगवान, ये मालिनी की सास इतनी दुष्ट है। कहीं जहरवाला दूध मालिनी को न दे दे। हे प्रभु, मालिनी को कुछ न हो।’
जीवनलाल ने एक नजर टीवी पर डाली और उनके दिमाग में कई दृश्य एक साथ चलने लगे। कौन पहले के हैं और कौन बाद के, वे व्यवस्थित नहीं कर पा रहे थे। हालाँकि इसके कुछ पहले से ही उनकी दशा कुछ ऐसी थी लेकिन अब वह ऐसी मानसिक दशा में पहुँच गए थे जहाँ उन्हें इस बात पर संदेह हो रहा था कि पत्नी की याद्दाश्त खराब है या उनका अपना दिमाग किसी भ्रम का शिकार है।
ऐसी ही भ्रामक अवस्था में एक दिन कुछ खोजते हुए उन्होंने रेडियो चला दिया जिसे उनका पोता एफ.एम. कहता है। एक लड़की उत्तेजक आवाज में उनसे मुखातिब थी -
‘हम्म्म्म्म्म... आप जीत सकते हैं ढे...रों ईनाम
बताइए एक आसान सवाल का जवाब...
सैफ अली खान ने सलाम नमस्ते के टाइटल सांग में किस कलर का अंडरवीयर पहना है?
ए लाल, बी काला, सी नीला या डी सफेद?
टाइप कीजिए ए बी सी या डी ओर भेज दीजिए 887246 पर
आपको मिलेंगे दस लाख के ईनाम
हो... सलाम नमस्ते...।’
उन्होंने अपनी मनचाही चीज खोजते हुए स्टेशन बदला। वहाँ एक लड़की ऐसी आवाज में उपस्थित थी मानो सहवास करते हुए बोल रही हो।
‘आपके जेनरल नॉलेज को परखने का मौका सिर्फ हमारा स्टेशन देता है, मनोरंजन के साथ जानकारी भी। बताइए लालू प्रसाद यादव कौन से मंत्री हैं? ए रेल मंत्री, बी खेल मंत्री, सी जेल मंत्री या डी तेल मंत्री। अपने जवाब भेजिए 884672 पर और जीतिए रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव के साथ डिनर का मौका।’
उन्होंने फिर से रेडियो को कान घुमाया। एक लड़की जिसकी आवाज उसकी किशोरावस्था बयान कर रही थी, धीमे सुबकते स्वर में कुछ कह रही थी। रेडियो पर यह क्या... वह ध्यान से सुनने लगे।
‘फिर एक दिन वह मुझे अपने घर ले गया। उसके मॉम डैड वॉज आउट ऑव स्टेशन। ही स्टार्टेड टु किस मी एंड वी हैड सेक्स ट्वाइस। तब से मैं बहुत डर गई हूँ लवगुरू बिकज ही डिडंट यूज कंडोम्स ऐट दैट टाइम। अगले महीने मेरे दसवीं के बोर्ड एक्जाम्स हैं लवगुरू एंड आयम नॉट एबल टु कॉसंट्रेट। व्हाट शुड आई डू...?’
‘आपको उसे कंडोम यूज करने को बोलना चाहिए था। कंडोम न सिर्फ आपको बीमारियों से बचाता है बल्कि अनचाहे गर्भ से दूर रख पूरा मजा देता है। आपका सच्चा वेलविशर होने के नाते लवगुरू आपको एडवाइस करते हैं कि आगे आप किसी से भी संबंध बनाएँ, कंडोम्स का प्रयोग जरूर करें। एक दो कंडोम्स बल्कि हमेशा अपने बैग में रखें तो बेहतर। फिलहाल आप किसी लेडी डॉक्टर से...।’
जीवनलाल ने इसके पहले क्या-क्या हरकतें की थीं या इसके बाद क्या-क्या तूफान मचाए, वह फिर कभी। मगर उस समय जब उनकी चीख सुनकर उनकी पत्नी दौड़ती हुई ड्राइंगरूम में पहुंचीं, वह एकबारगी डर गईं। जीवनलाल के मुँह से गुर्राहट बाहर निकल रही थी और आँखें एकदम लाल थीं।
‘न मेरी कविताएँ हैं न मेरे पाठक हैं
न मेरा अधिकार है
यहाँ तक कि मेरी सिगरेटें भी मेरी नहीं हैं
मैं गलत समय की कविताएँ लिखता हुआ
नकली सिगरेट पी रहा हूँ।’
उनकी गुर्राहट कविता में बाहर आ रही थी या कविता गुर्राहट में, कहना मुश्किल था। ‘नकली’ शब्द पर उन्होंने जोर दिया और अचानक चिल्लाए ‘नकली, नकली... एकदम नकली।’ फिर अचानक शांत होकर अपनी कुर्सी पर बैठ कर कुछ बुदबुदाने लगे। उनकी पत्नी अवाक खड़ी रह गईं। वह जीवनलाल को शांत कराना चाह रही थीं, उनके चीखने का सबब जानना चाह रही थीं पर मूर्तिवत खड़ी रहीं।
सबसे सहज कारण जो है, उस पर पहुँचने के बाद किसी और कारण की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह है साठ के सूचकांक के बहुत पास पहुँच चुकी उनकी उम्र। आखिर बूढ़ों को सठियाने के लिए कोई कारण थोड़ी चाहिए।
तो बाबू जीवनलाल, जो अगले सप्ताह साठ के हो रहे हैं, देश की आजादी को अपना जुड़वा भाई बताते पाए जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद पत्रकारिता करने के आकांक्षी हैं, अचानक एक तरह के उन्माद का शिकार हो जाते हैं। कारण...? फिर कारण? कारणों पर कोई कहाँ-कहाँ तक गौर करे? बड़े से बड़ झटकों को लोग खुद पर से यूँ ही गुजर जाने देते हैं और टस से मस तक नहीं होते तो छोटे से छोटा आघात भी कभी पूरी इमारत को दहला देता है। ...तो कारण का क्या करें। कारण तो उनके पोते यश का दोस्त अवाम भी हो सकता है पर इतना बेहूदा और बेकार कारण विश्वास करने योग्य नहीं।
जब कुछ दिन पहले अवाम हाथ में नोटबुक और कलम पकड़े आया तो महान कवि जीवनलाल बरामदे में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। अचानक गेंहूँ का दाना खाती एक गिलहरी के ऊपर रोशनदान से छन कर आती धूप ने उन्हें मुग्ध कर दिया। अनायास ही उन्हें एक सुंदर बिंब मिल गया। वह ममता भरी नजरों से गिलहरी को देखने लगे और मन में एक कविता चलने लगी।
अवाम आया और उनके पास खड़ा हो गया। यश पास बैठा अखबार का बाल परिशिष्ट पढ़ रहा था और उसमें छपी ब्रिटनी स्पीयर्स की अर्धनग्न तस्वीर के साथ उसके बालक की नग्न तस्वीर देख रहा था। चूँकि वह बालक है और बाल परिशिष्ट पढ़ रहा है, निश्चित ही ब्रिटनी की तस्वीर न देखकर बालक को देख रहा है, ऐसा एक नजर देख कर जीवनलाल ने सोचा था।
‘मुझे कुछ लिखाना है दादाजी।’ अवाम ने उनसे कहा और सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गया।
‘क्या पोयम?’ उनके बोलने से पहले ही यश बोल पड़ा। जीवनलाल अक्सर उसके लिए कविताएँ लिख दिया करते थे।
‘नहीं पोयम नहीं, एक एस्से लिखवाना है।’ अवाम बोला।
‘किस पर बेटा?’ उन्होंने प्रेम भरे स्वर में पूछा और गिलहरी की त्वचा पर छन कर आती धूप का खिलवाड़ देखते रहे।
‘दादाजी, नंदीग्राम में जो वायलेंस हो रहा है उसके फेवर या अगेंस्ट में एक एस्से लिखना है। सीनियर में ट्वेल्थवाले पार्टिसिपेट कर रहे हैं और जूनियर में टेंथवाले। बहुत प्रे करने पर मैम ने मुझे आउट ऑव रूल इसलिए पार्टिसिपेट करने दिया क्योंकि लास्ट टाइम मैंने एस्से कॉंप में प्राइज जीता था। आप ऐसा कुछ...।’ अवाम उत्साह में बोलता जा रहा था कि यश ने उसकी बात काट दी।
‘दादू पोयम्स लिखते हैं यार। इन्हें नंदीग्राम से क्या मतलब? यू आर टू मच अवाम।’
‘चुप रहो यश...। अवाम, बेटा ये नोटबुक छोड़ जाओ। शाम को आना। मैं एस्से में तुम्हें ऐसे-ऐसे प्वाइंट्स लिखवाऊँगा कि प्राइज तुम्हीं को मिलेगा।’ उन्होंने गिलहरी से नजर हटाकर यश और अवाम की ओर देखा।
अवाम के चले जाने पर उन्होंने यश की तरफ देखा। दिन-ब-दिन बदतमीज होता जा रहा है। ‘दादू पोयम्स लिखते हैं, इन्हें नंदीग्राम से क्या मतलब...?’ यश की बातें दिमाग में गूँजने लगीं तो वह अखबार और गिलहरी छोड़कर उठ गए। तो क्या उन्हें सचमुच नंदीग्राम से कोई मतलब नहीं? उन्होंने याद करने की कोशिश की कि क्या उन्होंने इस पर कोई कविता लिखी है। याद नहीं आया। कोई वक्तव्य, कोई भाषण...? याद नहीं आया। उन्हें यह तक याद नहीं आया कि चंद्रप्रकाश की बेटी के शादी के दिन उन्होंने ईश्वरी से क्या पूछा था और बदले में उसने क्या उत्तर दिया था। तो क्या यह कोई बीमारी है? क्या यही आकांक्षा को भी हुई है?
उन्होंने अवाम की नोटबुक उठाई और लिखना शुरू कर दिया। नंदीग्राम में हिंसा... इतना लिखकर उनकी कलम ने चलने से इनकार कर दिया। उन्होंने दिमाग को खरोंचने की बहुत कोशिशें की पर नतीजा सिफर रहा। नंदीग्राम में हिंसा-रक्तरंजित इतिहास। ये ठीक रहेगा? मगर इतिहास? उन्होंने शीर्षक काट दिया। नंदीग्राम में हिंसा - एक सुनियोजित त्रासदी? पर त्रासदी...? यह भी काटा गया।
इस तरह के बहुत से बेसिर पैर के शीर्षक सोचते-सोचते वह अचानक शून्य हो गए। वह आखिर क्या लिखनेवाले हैं? पक्ष में या विपक्ष में? वह किस ओर खड़े हैं? उनकी साँसें तेज चलने लगीं और माथे पर पसीना आ गया। वह पहले किस ओर खड़े थे? आखिरकार नंदीग्राम में ऐसा क्या हो रहा है जो उनकी स्मृति से उतर गया है?
वह उद्वेलित होकर पुराने अखबार छाँटने लगे। ढेर सारे अखबार बिछाकर +5.5 का चश्मा लगाकर जीवनलाल यूँ दिखाई पड़ रहे थे मानो कोई छोटा बच्चा अपने चारों तरफ खिलौने बिछा कर अपना मनपसंद खिलौना ढूँढ़ रहा हो। उनकी इच्छित हेडिंग अखबारों से गायब थी, पूरी तरह गायब। उसकी जगह जो हेडिंग्स थीं, उनसे जीवनलाल की दुविधा और बढ़ गई। कहीं एक फिल्मी सितारे का विवाह धूमधाम से संपन्न हो जाने की खबर मुख्य शीर्षक थी तो कहीं एक बल्लेबाज के शतक बनाने की खबर देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण थी। एक ने प्रधानमंत्री के उस बयान को प्रमुखता से छापा था जिसमें उन्होंने जल्दी ही विकास दर 10 प्रतिशत हो जाने की आकांक्षा जताई थी। एक ने तो एक गलाफाड़ गायक द्वारा एक चलताउ हीरोइन के लिए गए चुंबन को अपने मुखपृष्ठ पर छापा था। बहुत सारी खबरें थीं पर नंदीग्राम के विषय में कुछ नहीं था, कहीं कुछ नहीं।
वह परेशान हो उठे। उनका जरूर एक स्पष्ट विचार था इस घटना को लेकर... मगर अचानक से ये स्मृतिलोप?
उन्होंने टीवी चलाया। यहाँ जरूर कोई जानकारी मिलेगी। वह तड़ातड़ खबरों के चैनल बदलने लगे। खबरें ढेर सारी थीं।
‘आज हम आपको एक ऐसा गाँव दिखाएँगे जिस पर एक खतरनाक प्रेत का साया है। इस गाँव में हर साल किसी न किसी परिवार में एक मौत होती है। पेश है हमारे संवाददाता बेताल शर्मा की रिपोर्ट।’ क्लिक
‘शोले का रीमेक सफल होगा या असफल, इस पर चर्चा करने के लिए आज हमारे स्टूडियो में मेहमान हैं प्रसिद्ध फि़ल्म निर्देशक अलाँ, फलाँ अखबार के संपादक चिलाँ और प्रसिद्ध आइटम गर्ल अभिनेत्री...।’ क्लिक
‘क्या अमुक खिलाड़ी को भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी सौंप देनी चाहिए? इस विषय पर बात करेंगे प्रसिद्ध कमेंट्रेटर तमुक से मगर इस छोटे से कमर्शियल ब्रेक के बाद।’ क्लिक
‘ब्रेक के बाद आपका स्वागत है आपके पसंदीदा प्रोग्राम ‘मुर्दों का शहर’ में। आज हम देखेंगे कि कैसे एक आदमी ने पूरे दो साल तक अपनी ही बेटियों का बलात्कार किया। प्रस्तुत है इस घटना का नाट्य रूपांतरण जिसके प्रायोजक हैं हार्लिक्स पॉवर ड्रिंक, ताकत ऐसी कि कुछ भी असंभव नहीं। कार्यक्रम के बाद आप यस और नो में अपने जवाब एसएमएस करें कि इस बाप को क्या मौत के घाट उतार देना चाहिए। आप जीत सकते हैं फेयर एंड लवली का ब्यूटी ट्रीटमेंट पैक जिससे कोई भी किसी को कर दे दीवाना।’ क्लिक
अगर बेतरतीब जीवनलाल के जीवन की घटनाओं को एक साथ रखें तो हर तथ्य ‘संभवत:’ के रूप में मिलनेवाले इस कवि के जीवन में इन घटनाओं के बाद संभवत: वह ‘नकली-नकली’वाली घटना हुई और उनके दिमाग को चला हुआ मान लिया गया।
और भी घटनाएँ हो रही होंगीं पर एक घटना ऐसी हुई जिसने सबको ढक लिया और शीर्ष पर जा बैठी। हालाँकि जीवनलाल हिंदी के महत्वपूर्ण कवि थे जो अकादमी पुरस्कार पा जाने के बाद से और महत्वपूर्ण माने जाने लगे थे फिर भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हिंदी के किसी कवि में किसी भी प्रकार की रुचि रख सकता है, यह सुनने में सबको अविश्वसनीय लगा। शायद यह कुछ दिन पहले घोषित ‘साहित्य शलाकाश्री सम्मान’ के कारण हो। उनके घरवाले खु़श हुए।
जीवनलाल की प्रतिक्रिया का पता नहीं चल पाया क्योंकि वह उस समय घर पर मौजूद नहीं थे। किसी ने बताया शायद लाइब्रेरी गए हों। यह भी संभावना थी कि किसी कबाड़ी के यहाँ बैठकर कबाड़ छँटवा रहे हों।
बड़ी मुश्किल से जीवनलाल को इंटरव्यू में बैठाया जा सका। इंटरव्यू एक घंटे तक चला। कई-कई रीटेक्स हुए। जब आधे घंटे का एपिसोड टीवी पर प्रसारित हुआ तो घर में हंगामा मच गया। घरवालों का आरोप था कि चैनलवालों ने अपने मन से काट-छाँट कर अर्थ का अनर्थ बना दिया है। उनका आरोप था कि जीवनलाल की खराब मानसिक अवस्था में कई जवाब उनसे जबरदस्ती बुलवाए गए हैं। इंटरव्यू का मतलब इस छोटे से अंश से समझने की कोशिश करते हैं :
प्रश्नकर्ता - नमस्कार, मैं मोनिंदर आप सब दर्शकों का स्वागत करता हूँ आपके प्रिय कार्यक्रम ‘हमारे मेहमान’ में। आज हमारे मेहमान हैं बहुत बड़े कवि जीवनलाल। आइए उनसे पूछते हैं उनकी सफलता का राज।
जीवनलाल जी, सबसे पहले आपको पुरस्कार मिलने की हमारे चैनल की ओर से बधाई। आज आपका जन्मदिन भी है। इस दोहरी खुशी पर क्या कहना चाहेंगे?
जीवनलाल -
खुशकिस्मत हैं वे, जो खुशी-खुशी जी रहे हैं
मुबारक हो उन्हें उनका जन्मदिन
जिन तक उन लोगों की सूचना नहीं पहुँची
जो पैदा होते ही
स्पेन में, कांगो में अथवा वियतनाम में
मार दिए गए।
प्रश्न - जी, बहुत खूब। आपको यह पुरस्कार मिलने पर कैसा महसूस हो रहा है?
जी -
मैं उठता हूँ और उठकर
खिड़कियाँ, दरवाजे़
और कमीज के बटन
बंद कर लेता हूँ
और फुर्ती के साथ
एक कागज पर लिखता हूँ
‘मैं अपनी विफलताओं का
प्रणेता हूँ।’
प्रश्न - हमारे दर्शक जानना चाहेंगे कि इसका श्रेय किसको जाता है?
जी -
न यह शहादत थी
न यह उत्सर्ग था
न यह आत्मपीड़न था
न यह सजा थी
तब
क्या था यह
किसी के मत्थे मढ़ सकता था
मगर कैसे मढ़ सकता था
जो मढ़ेगा कैसे गढ़ेगा।
प्रश्न - आजकल आप नया क्या लिख रहे हैं जीवनलाल जी?
जी -
इस भयानक समय में कैसे लिखूँ
और कैसे नहीं लिखूँ
सैकड़ों वर्षों से सुनता आ रहा हूँ
घृणा नहीं प्रेम करो
किससे करूँ प्रेम? मेरे
चारों ओर हत्यारे हैं।
प्रश्न - जैसा कि आप देख रहे हैं कवि जीवनलाल जी कुछ बेचैन से नजर आ रहे हैं। आप बताएँगे जीवनलाल जी आपकी बेचैनी का कारण क्या है?
जी -
हे ईश्वर ! मुझसे बरदाश्त नहीं होगा
यह मनीप्लांट।
सहन नहीं होगा
यह
गमले का कैक्ट्स
पिकनिक के चुटकुले
ऑफि़स का ब्यौरा
और देशभक्त कवियों की कविताएँ।
प्रश्न - जी जीवनलाल जी, क्षमा करें मगर दर्शक आपकी बेचैनी का कारण जानना चाह रहे हैं।
जी -
मैं हो गया हूँ निढाल
अर्थहीन कार्यों में नष्ट कर दिए
मैंने
साल-दर-साल
न जाने कितने साल!
प्रश्न - तो क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि जो कविताएँ आपने अब तक लिखीं वो अर्थहीन यानी फालतू का काम थीं?
जी -
मैं एक बिल्ली की शक्ल में छिपा हुआ चूहा हूँ
औरों को टोहता हुआ
अपनों से डरा बैठा हूँ
मैं अपने को टटोल कह सकता हूँ दावे के साथ
मैं गलत समय की कविताएँ लिखता हुआ
एक बासी दुनिया में
मर गया था।
प्रश्न - जैसा कि आप देख रहे हैं जनता के प्रिय कवि जीवनलाल थोड़े असंतुलित और बेचैन होकर अवसादभरी बातें कर रहे हैं। आज के मुश्किल और असुरक्षित माहौल ने इन्हें इस हाल में पहुँचाया है कि यह मरने तक की इच्छा व्यक्त कर रहे हैं। सर, दर्शक जानना चाहेंगे कि मरने के लिए आप कौन सा तरीका अपनाना चाह रहे हैं?
जी -
युद्ध हो या न हो
एक दिन
चलते-चलते भी
मेरी धड़कन हो
सकती है बंद
मैं बिना
शहीद हुए भी
मर सकता हूँ
बल्कि
उत्तर है :
मैं क्या कर सकता हूँ।
प्रश्न - आप कई तरीके अपना सकते हैं सर। आजकल सबसे अच्छा है तेल छि़ड़ककर आत्मदाह करना। आप इस पर सोचें, आपको यह तरीका पसंद आएगा। ...सुरिंदर, इसे एडिट करवा देना।
जी -
तुमने देखी है काशी?
जहाँ, जिस रास्ते
जाता है शव -
उसी रास्ते
आता है शव।
प्रश्न - तो ठीक है जीवनलाल जी। आप परसों शाम छह बजे आत्मदाह करेंगे, प्राइम टाइम के ऐन पहले। हम कल परसों दिन भर अपने चैनल पर इसका प्रचार करेंगे और यह भी कि आप मरने के बाद काशी जाना चाहते हैं। आपको वास्तविक आत्मदाह नहीं करना है। प्रशासन ऐन वक्त पर आपको रोक देगा। हमने कई लोगों से आत्मदाह का प्रयास करवाया है। इससे सरकार पर दबाव पड़ता है। सुरिंदर, टीसीआर लॉक करो, इसे पूरा एडिट करवा देना।
- तो जीवनलाल जी, शासन इस कदम से आपकी माँगों पर विचार करेगा। आपकी माँगे क्या हैं ?
जी -
मुझे अपने हत्यारे की तलाश है,
मैं ढूँढ़ रहा हूँ अदालत,
मैं ढूँढ़ रहा हूँ वकील।
प्रश्न - जीवनलाल जी, अपने घर में बुलाकर अपना कीमती समय देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
जी -
शवों का क्या!
शव आएँगे।
शव जाएँगे।
...तो आपने देखा कि जनता के प्रिय कवि कहे जानेवाले, तमाम पुरस्कारों से सम्मानित महान कवि जीवनलाल...।
साक्षात्कार की चर्चा पहले जबलपुर, फिर भोपाल, फिर दिल्ली और फिर पूरे देश में फैल गई। वहाँ से न जाने कहाँ-कहाँ तक। जीवनलाल के घर का फोन घनघनाने लगा और घरवाले यह बता-बता कर हलकान होने लगे कि यह चैनलवालों की कारस्तानी है। कई कवियों के फोन आए कि जीवनलाल ने यह बहुत अच्छा कदम उठाया है। सरकार को झटका देने के लिए ऐसे क्रांतिकारी कदम बहुत जरूरी हैं। यदि इस पर भी सरकार न चेती तो इस आंदोलन को बहुत दूर तक ले जाया जाएगा। कुछ ने कहा कि जीवनलाल जैसे बड़े कवि को मीडिया के इन हथकंडों से दूर रहना चाहिए था। इससे उनके कवि व्यक्तित्व की साख गिरेगी और विश्वसनीयता में कमी आएगी। इन बयानों के विरोधाभासी वातावरण में किसी ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर वह कौन सी समस्या है जो जीवनलाल को आत्मदाह करने पर मजबूर कर रही है। और अगर कोई जानना चाहता भी तो पूछता किससे? जीवनलाल तो अपने कमरे के अँधेरे में गुम अपने अँधेरे को टटोलने की कोशिश कर रहे थे।
उन दिनों वे रोज पीने लगे थे। शराब भी, सिगरेट भी। पीने के पहले उनके मन में एक बार भी इन्हें छोड़ने का ख्याल मन में नहीं उठता था। उन्हें विस्मय होता कि अब उन्हें इन चीजों का पूरा स्वाद मिल रहा है। पूरे समय वह एक तंद्रा में रहते थे। जिस दिन उनका आत्मदाह सजीव प्रसारित किया जाना था उसके एक रात पहले, जब पूरा साहित्य समुदाय उन्हें लेकर तरह-तरह की बातें कर रहा था, वह अपने कमरे में इन सब दंद फंदों से विरक्त आदमकद शीशे में अपना मुँह देखकर सिगरेट पी रहे थे। सिगरेट पीकर शीशे में अपना अक्स देखने में उन्हें अपूर्व सुख मिल रहा था। वह उस समय नग्न थे। ...अकारण ही। उनका मन हुआ कि वह सारे आवरण उतार कर सिगरेट पिएँ और अपना मुआयना करें। कुछ पैग बाद जब वह सर्वथा नग्न खड़े सिगरेट का धुआँ उगल रहे थे और ‘मौत का एक दिन मुअय्यन है...’ गजल सुन रहे थे, शीशे में उनके अक्स की जगह एक दूसरी परछाईं उभरने लगी। वह डरे नहीं, सम्मान से पीछे हट गए। परछाईं अपने चिर पिरचित बेबाक अंदाज में थी। उन्होंने नशे की हालत में पूरी बात तफसील से कह सुनाई। फिर एक अबोध बालक की तरह पूछा, ‘कहीं कोई खबर क्यों नहीं? न अखबार में, न टीवी पर, न रेडियो में। आखिर क्यों...?’
‘क्योंकि तुम्हें लिखना था इस पर। कविताएँ लिखनी थीं, नाटक खेलने थे, लेख लिखने थे और गालियाँ बकनी थीं। तुमने कुछ नहीं किया इसलिए कहीं कुछ नहीं मिला तुम्हें।’ परछाईं गुस्से में बोली।
‘अपने सारे कपड़े उतारने और सारे अंगों की नाप लेने के बावजूद कभी-कभी लगा कि इस नाम की कोई जगह ही नहीं है और हर जगह सुख शांति है।’ उन्होंने सिगरेट जलाते हुए पूछा।
बदले में परछाईं ने उनके सीने पर हाथ रखा और हृदय को मुट्ठी में जकड़ लिया। उन्हें अपनी धड़कनें रुकती हुई महसूस हुईं।
‘आँखें वही दिखाती हैं जो दिल देखना चाहता है। सच है, वाकई कहीं कोई बेचैनी नहीं, अगर यहाँ बेचैनी नहीं।’
वह असहनीय दर्द से कराहते हुए सीने पर हाथ रखकर बैठ गए। परछाई गायब हो गई और चीखते चिल्लाते फर्श पर दोहरे हो गए। घरवाले दरवाजा पीटने लगे और बहुत मशक्कत के बाद पूरे परिवार ने मिलकर दरवाजा तोड़ डाला। इसके बाद से जैसे हर इनसान के दो पहलू होते हैं, पहला वह जैसा वह होता है और दूसरा वह जो वह दिखाना चाहता है, कवि जीवनलाल की कहानी के भी दो पहलू सामने आते हैं (तीसरे पहलू, जैसा कि कुछ विद्वान मानते हैं कि वह होता है जो इनसान खुद को मानता है, की चर्चा करने की जरूरत नहीं क्योंकि सच यह है कि इनसान जैसा होता है, उसे उससे अच्छा कोई नहीं जानता)
जीवनलाल की पत्नी और उनके पोते यश की बात मानें तो जब दरवाजा तोड़ा गया तो भीतर कोई नहीं था सिवाय एक रहस्यमयी चुप्पी के। जीवनलाल के कपड़े वहीं पड़े थे और साथ में एक कागज पर कुछ कविताएँ लिखी हुई थीं। उन कविताओं में किसी कि दिलचस्पी नहीं थी इसलिए उसे किसी ने हाथ नहीं लगाया। सारी रात यह सोचने में गुजर गई कि इस घटना की सूचना पुलिस में दे दी जाय। आकांक्षा जी रात भर सो नहीं पाई और सुबह के चार बजे जब बेचैन होकर बेटे को जगाया तो उसने उन्हें झिड़क दिया। उसने कहा कि पिताजी अपने कमरे में सो रहे हैं और आप कोई बुरा सपना देख कर उठी हैं, जाइए जाकर आराम से सो जाइए। कल यह मीडियावाला बवाल खत्म हो फिर देखी जाएगी। वापस आते वक्त उन्होंने बहू की फुसफुसाहट भी सुनी, ‘टीवी सीरियल्स देख कर तुम्हारी माँ का दिमाग वैसे ही खराब हो गया है जैसे तुम्हारे बाप का वाहियात कविताएँ लिख-पढ़कर।’
उस पूरा दिन चैनलों पर यही खबर छाई रही थी। हिंदी का एक कवि अचानक बकवास फैशन परेडों, प्लास्टिक की अभिनेत्रियों और जरखरीद खिलाड़ियों को पीछे धकेल कर हर घर में पहुँच रहा था। वहाँ भी, जहाँ उसकी कविताएँ कभी नहीं पहुँच पातीं। जिस चैनल ने इंटरव्यू लिया था, वह सम्राट की हैसियत में था और खबर के साथ इंटरव्यू के टुकड़े भी प्रसारित कर रहा था। बाकी चैनलों ने भी इसे हड़प लिया था और एक भी विजुअल न होने के बावजूद जीवनलाल की फाइल विजुअल्स के साथ खबर को पूरी निर्लज्जता से अपनी ब्रेकिंग कह कर चला रहे थे। कुछ चैनल कवि के अवसाद का कारण जानने के लिए अपने स्टूडियो में चर्चाएँ आयोजित कर रहे थे। एक चैनल पर एक ज्योतिशी इसका कारण सूर्य का कमजोर होना और शुक्र में केतु की अंतर्दशा बता रहा था। इसके समाधान के लिए वह जीवनलाल को लहसुनिया पहन कर घर पर केसरिया ध्वज लगाने का सुझाव दे रहा था। एक चैनल ने जीवनलाल के पिछले जीवन में झाँकने के लिए कुछ ऐसे कवियों को बुला लिया था जो पुरस्कार न मिलने के कारण खिसियाए हुए थे। सभी मिलकर जीवनलाल के पिछले जीवन में एक असफल प्रेम की संभावना तलाश करने में अपनी मेधा जाया कर रहे थे।
आत्मदाह का समय पहले चैनल ने शाम का घोषित किया था पर बाद में एक चैनल ने खबर प्रसारित की थी कि आत्मदाह दोपहर में होगा। इन दोनों से अलग एक चैनल ने खबर चलाई कि आत्मदाह सुबह चाय और नाश्ते के बाद होगा और अब सुबह दोपहर शाम का कोई महत्व नहीं रह गया था।
अगली सुबह जब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का हुजूम उनके दरवाजे पर खड़ा था और पूरे मुहल्ले में हाहाकार मचा हुआ था, बेटे ने अचानक पिताजी के गायब हो जाने की खबर सुनाई। आकांक्षा जी ने कहा कि उन्होंने रात में ही कहा था कि ऐसा हुआ है पर किसी ने उनकी बात नहीं सुनी। बेटे ने उन्हें घूर कर देखा और कहा कि उसे शक है कि उन्होंने ही अपने पति को कहीं भेज दिया है ताकि मीडिया की सारी मगजमारी उसे झेलनी पड़े।
बेटे ने बाहर निकलकर अपने बैग में मिट्टी के तेल की बोतल और तौलिया लेकर आए मेहनती पत्रकारों को यह दुखभरी खबर सुना दी कि उसके पिता आज सुबह बिना बताए कहीं घूमने चले गए हैं और बेहतर होगा आप लोग भी यहाँ से तशरीफ ले जाएँ।
आकांक्षा जी जीवनलाल जी के कमरे में गई जहाँ उनके कपड़े और कागज पर लिखीं कुछ कविताएँ पड़ी थीं। उन्होंने कपड़ों और कागजों को सुरक्षित रख लिया।
मैं अच्छी तरह जानता हूँ
किसी के न होने से कुछ भी नहीं होता
मेरे न होने से कुछ भी नहीं हिलेगा
मेरे पास कुर्सी भी नहीं जो खाली हो
मनुष्य वकील हो, नेता हो, संत हो, मवाली हो
किसी के न होने से
कुछ भी नहीं होता।
उनको उनके बेटे और बहू ने घर से बाहर निकलने नहीं दिया वरना वह जाकर बतातीं कि उनके पति कल रात से रहस्यमय ढंग से गायब हैं और वह कहीं घूमने नहीं गए हैं।
सभी मेहनती पत्रकार सुबह से शाम तक वहाँ खड़े रहे और पूरी दुनिया में फोन लगाते रहे। कुछ ने कैमरों के लेंस जीवनलाल के कमरे तक भी फोकस किया लेकिन वहाँ से भी उन्हें कुछ नहीं मिला। कुछ ने जीवनलाल के घर के पिछले दरवाजे पर पैरों के कुछ निशान देखे और वहाँ से आगे बढ़ते जब वे गली में पहुँचे तो उनके आश्चर्य की सीमा न रही। गलियों में दीवार पर चॉक और कोयले से मोटे-मोटे हर्फों में लिखा था –‘एक तारीख से जीवन फिर शुरू होगा।’ यह इबारत कुछेक जगह सड़क पर भी लिखी थी। पत्रकार देर तक वहीं जड़वत खड़े रहे। फिर हताश होकर दीवार पर लिखी इबारतों से ही कोई कहानी बनाने की कोशिश करने लगे। हालाँकि वे जानते थे कि इस कहानी पर कोई यकीन नहीं करेगा। और तो और जो लोग इस समय रोज क्रिकेट, क्राइम और सिनेमा में खोए रहते हैं, थोड़ी देर बाद ऊबकर पूछने लगेंगे कि आखिर यह जीवनलाल है कौन और उसे इतना भाव क्यों दिया जा रहा है।
एक अखबार के पत्रकार, जिसकी वहाँ कोई पूछ नहीं थी, ने अचानक खबर उड़ाई कि सुबह-सुबह जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकार वहाँ पहुचे भी नहीं थे, उस कर्मठ पत्रकार ने जीवनलाल को देखा है। वह एक कंबल ओढ़कर निकले हैं और नदी की तरफ गए है। कंबल के नीचे उनके हाथ में लोटा है या नहीं, यह उसने नहीं देखा था। जाते समय वह कुछ लाइनें बुदबुदा रहे थे जो पत्रकार ने नोट कर ली थीं।
‘हस्तिनापुर के निवासियो! होशियार !
हस्तिनापुर में
तुम्हारा एक शत्रु पल रहा है, विचार -
और याद रखो
आजकल महामारी की तरह फैल जाता है,
विचार।’
उसने कवि का साक्षात्कार लेने की बहुत कोशिश की लेकिन शायद वह बहुत जल्दी में थे इसलिए सिर्फ चंद पंक्तियाँ ही वह नोट कर पाया था।
धुआँ उठा रहा है कई
माह से
दिन चला जाता है
मारकर छलाँग एक खरगोश सा
बंद होनेवाली
दुकानों के दिल में
रह जाता है
कुछ-कुछ अफसोस सा।
इस अफवाह पर किसी टीवी पत्रकार ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन इसका असर यह हुआ कि शाम तक इतनी कहानियाँ फैल गई थीं कि वास्तविकता और मिथ्या का अंतर कर पाना असंभव था।
शाम को, जब पीने की तलब शुरू हो जाती है और धंधा समेटने का वक्त होता है, कुछ पत्रकारों ने अपेक्षाकृत अधिक विश्वसनीय रास्ता अपनाया। वे जीवनलाल के घर में घुसे और उनके परिवारजनों को हतप्रभ करते हुए अंतिम स्पर्श की गई वस्तु के रूप में उनकी डायरी के पन्नों का विश्लेशण करने लगे।
‘आइए हम नजर डालते हैं महान कवि जीवनलाल की डायरी पर। इन पन्नों में शायद उस महान शख्शियत के अचानक गायब हो जाने का रहस्य छिपा हो...।’
‘कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता,
कोसल में विचारों की कमी है।’
डायरी में कई फि़जूल की कविताएँ लिखी थीं जिसमें न दर्शकों की कोई रुचि थी न पत्रकारों को और न बेहतरीन शॉट्स लेने के आदती कैमरापर्सन्स को। ...फिर भी जीवनलाल की कहानी कई चैनलों पर कुछ देर तक चलती रही।
घटना से सभी पत्रकार, जो एक से बढ़कर एक रहस्यमयी घटनाओं को रोज कवर करते थे, बुरी तरह आतंकित थे। जीवनलाल के घरवाले अभी यह नहीं समझ पा रहे थे कि उन्हें किस तरह की प्रत्रिक्रिया देनी है।
उहापोह और असमंजस की स्थिति में आखिरकार चैनलों ने थोड़ी देर बाद इस बकवास स्टोरी को दिखाना बंद कर दिया। कोई कितनी देर वाहियात कविताएँ सुनेगा।
कहानी का अंतिम भाग जो कहीं नहीं घटा
जीवनलाल जब जंगल के बीचोंबीच पहुँच गए तब उन्होंने अपनी आँखें खोलीं और सोचा कि कौन सा जंगल ज्यादा सुरक्षित है। जिसमें वह आज तक रहते आए हैं या यह जिसमें चारों ओर साँप और भेड़िए खुलेआम अपनी पहचान के साथ घूम रहे हैं। उन्होंने अपनी जेब में पड़ी एकमात्र सिगरेट अपनी आँखों की आग से जलाई और जंगल के और घने हिस्से की तरफ बढ़ने लगे।
अभी वह कुछ ही दूर गए होंगे कि कुछ लोगों ने उनके नंगे शरीर पर चादर डालकर उन्हें जकड़ लिया। जब उनकी आँख खुली तो वह हतप्रभ रह गए। जंगल के बीचोंबीच एक अदालत लगी थी और वह कटघरे में खड़े थे। न्यायधीश की कुर्सी खाली थी और कुर्सी के पीछे उनके ड्राइंगरूम में टँगी रहनेवाली विशालकाय घड़ी डरावनी आवाज में टिक-टिक कर रही थी। सामने सैकड़ों कुसिर्यों पर लोग बैठे इस मुकदमे के शुरू होने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें वकील-ए-सफाई ने बताया कि दर्शकों के रूप में कुर्सियों पर बैठे लोग ही मुकदमे का फैसला करेंगे।
जीवनलाल ने अपने ऊपर लगे सभी आरोपों का खंडन किया। उनके ऊपर ऐसे-ऐसे इल्जाम लगाए गए जिसके बारे में उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वह थकने लगे। एक वक्त आया जब वह थक कर कटघरे में ही बैठ गए। इल्जाम लगते जा रहे थे और उन्होंने अर्धतंद्रा में सुना कि उन्हें उम्रकै़द की सजा सुनाई गई है। उन्हें लगा जैसे वह कोई स्वप्न देख रहे हों। उन्होंने पूरी ताकत से अपने शरीर को हिलाया ताकि यह डरावना स्वप्न टूट जाय जैसे कि कभी-कभी उनके साथ होता था। उन्हें याद नहीं आया कि आखिरकार आत्मदाहवाली घटना की रात को सोए वह अचानक यहाँ क्यों और कैसे आ गए। यह कोई जादुई यथार्थवादवाला मामला तो नहीं जो उनकी जिंदगी के भीतर तक आ गया हो। उन्होंने अपने हाथ पर जोर से चिकोटी काटी पर जब स्वप्न नहीं टूटा तो उन्होंने थककर अपनी आँखें खोलीं। उन्होंने देखा दो लंबे नौजवान उन्हें उठा कर उन्हें कारागार की ओर ले जा रहे हैं।
‘मैं सुप्रीम कोर्ट में अपील करना चाहता हूँ।’ उन्होंने एक नौजवान की ओर सिर उठाकर ऊँची आवाज में कहा।
नौजवान ऐसे मुस्कराया मानो उन्होंने कोई बहुत बचकानी बात कह दी हो। जब दोनों नौजवान उन्हें लेकर मुड़ने ही वाले थे कि हलचल होने पर उन्होंने सिर उठा कर कटघरे की ओर देखा और आश्चर्य से उनकी आँखें गोल हो गईं। उन्हें अपनी आँखों पर एकदम भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने दोनों नौजवानों से चिल्लाकर इसके बारे में जानना चाहा लेकिन वे फिर मुस्कराकर रह गए। उन्होंने जो देखा था, उसे सच मानने को कतई तैयार नहीं थे।
उन्होंने देखा उनके प्रिय कवि को कटघरे में खड़ा किया जा चुका था और अदालत की कार्रवाई बदस्तूर जारी थी। कई बड़े बुद्धिजीवी, कवि, लेखक और समाज-सेवकों का नंबर उनके बाद आने वाला था और वे पंक्तिबद्ध रूप से अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। मोड़ पर मुड़ते समय उन्हें भ्रम हुआ कि एक कवि ने चेहरे पर भय का भाव लिए धीरे से उन्हें अभिवादनस्वरूप हाथ भी मिलाया है। उन्होंने आँखें बंद कर लीं।
नाटक की समाप्ति पर
आँसू मत बहाओ
ट्रेन की खिड़की से
हाथ मत हिलाओ
(प्रिय कवि श्रीकांत वर्मा को सवालों सहित सादर समर्पित)