महान लेखक से मुलाकात / सुभाष चन्दर
उन्हें दूर से देखकर ही मैं समझ गया कि उनके मुंह में पान और जुबान पर शेर जुगाली कर रहा है। मुझे पास आते देखकर उन्होंने पान और शेर दोनों को सुपात्र हाथों में सौंप दिया। पान की पीक सड़क के हिस्से में और शेर मेरे हिस्से में आया। अब मैं और सड़क दोनों ही रंगीन हो चले थे। वे निश्चित हो जाएं, इसलिए रंगीनत्व की पावती के रूप् में मेरे मुख से ‘वाह’ और सड़क की छाती पर पीक से बना पाकिस्तान का नक्शा उभरा। उन्होंने पहले सड़क और फिर मेरा मुआयना किया। फिर दोनों तरफ से निश्चिंत होकर वे पान से खाली हुए मुंह में मुस्कान जैसा कुछ चबाने लगे। जैसे दुहने से पहले गाय की पीठ थपथपायी जाती है, उसी प्रकार उन्होंने मेरे कंधों पर थपकी दी। मैं समझ गया कि जब वे कहेंगे ‘यार’। बहुत बढ़िया चीज लिखी है, आत्मा प्रसन्न हो जाएगी।’ इतना कहकर वे झोले से डायरी निकालेंगे और मेरी आत्मा प्रसन्न करने के शुभ कार्य में जुट जाएंगे। उन्हें शायद पता नहीं था कि मेरी आत्मा अब प्रसन्न होते-होते थक गयी है। जैसे पति-पत्नी जब साथ रहते-रहते ऊबने लगते हैं तो दो-चार दिन के लिए झगड़े का शगुन कर लेते हैं। कुछ ऐसा ही शगुन मेरी आत्मा उनसे चाहती थी, लेकिन मैं जानता हूं कि मेरे भाग्य में मन तरसत हरि दर्शन को आज गाने का सुख पाना संभव नहीं है। इसलिए मेरी आत्मा थकी रहती है और थककर सो जाती है।
खैर मैं उनके व्यक्तित्व और कृतिव से आपका परिचय कराना भूल गया। वे नामी शायर हैं। बड़ा मजेदार-सा तखल्लुस है उनका शांति प्यासा। लोग कहते हैं कि प्याऊ पर पानी पिलाने वाली एक सुकन्या का नाम शांति था। उसकी आंखों के कुंए में वे अपने पुरखों की दौलत के साथ बिना तैरना जाने कूद गए थे और जेा कि अक्सर होता है कुंए में गिरने पर भारी चीज अंदर और हल्की चीज सतह पर आ जाती है। उसी प्रकार उनका माल-मत्ता शांति की आंखों के कुंए की गहराई में और वे खुद सतह पर पाए गए थे। उनकी बूढ़ी अम्मा ने खानदान की इज्जत की रस्सी फेंककर उन्हें बमुश्किल बाहर निकाला था।
इसके बाद की कहानी में सिर्फ इतना जुड़ा था कि शांति ने पानी पिलाने का काम छोड़कर कुंए में डूबी उनकी कमाई का सदुपयोग करके ढाबा खोल लिया था, जिसमें रोटियां बनाने के लिए एक पति नियुक्त कर लिया था। पति की मदद से और पति की मदद के लिए कुछेक बच्चों की भी मालकिन बन गयी थी। इतना सब हो जाने के बाद भी उनकी शांति-प्यास बुझी नहीं थी। उन्होंने अपना नाम ही शांति प्यासा रख लिया था। जबकि शांति के ढाबे की स्थिति देखते हुए उन्हें अपना नाम शांति भूखा रखना चाहिए था।
खैर! डनके बारे में ऐसी अनेक किंवदंत्तियां प्रचलित थीं। लेकिन मेरा ख्याल थोड़ा साहित्यिक किस्म का है। मेरे विचार से चूंकि वे सदैव शांति की प्यास रखते हैं। इस मामले में उनका कोई पूर्वाग्रह नहीं है, वे अपनी एवं दूसरों की शांति के सदैव प्यासे रहते हैं और मौका मिलते ही दूसरों की शांति चट कर जाने में नहीं चूकते। इसीलिए उनका यह नाम पड़ा होगा।
खैर। यह तो रही उनकी महान व्यक्तित्व की एक छोटी-सी झलक। अब जरा एक नजर उनके कृतित्व यानी रचना संसार के तापमान पर भी मार लेते हैं। वे बहुत अच्छे शायर हैं, कवि हैं, कहानीकार हैं और जितनी भी साहित्य की विधाएं हैं अथवा हो सकती हैं, वे उन सबके अनन्य लेखक हैं। वे चमत्कारिक लेखन करते हैं। चमत्कारिक इसलिए कि वे उस विषय तक पर लिख डालते हैं, जिस विषय के बारे में उन्हें ए.बी.सी.डी. भी नहीं मालूम होती और उससे भी अनोखी उनकी शैली में है। अंतरिक्ष विज्ञान के लेखों में उनकी शैली व्यंग्यात्मक भी हो सकती है तो कविता लिखते समय वैज्ञानिक भाषा का प्रयोग कर सकते हैं। यानी कुल मिलाकर उन्हें कठिनतम यानी असंभव के निकट के साहित्य का सृजन कहा जा सकता है। उनकी रचनाएं सुनाने की शैली भी कम अनोखी नहीं। छंदों को जहां वह कहानी की भांति सुनाकर श्रोताओं को दोनों रसों से परिचित कराते हैं, तो कहीं-कहीं हास्य कविता सुनाते-सुनाते रोने लगते हैं। ऐसी हास्य रचना जिसे सुनते-सुनते श्रोता रोने लगे, उनकी दृष्टि में करुण हास्य रचना होती है। यानी उनका साहित्य सृजन बेहद अनूठा और लाजवाब है, वह सारे विश्व साहित्य को अपना मानते हैं। इस मामले में वसुधैव कुटुम्बकम की उक्ति के अनुयायी हैं।
इसलिए टॉलस्टाय या गोर्की की रचनाओं के हिन्दी अनुवादों को आप अगर उनकी रचना न समझते हों तो ये आपकी बदनसीबी है। ऐसा ही हाल उनकी शायरी का भी है। एक बार वे किसी गोष्ठी में रचनाएं सुना रहे थे, तो हमारे एक अनन्य मित्र ने उन्हें टोक दिया कि ‘ये रचनाएं तो गालिब की हैं, आप इन्हें अपनी बताकर कैसे सुना रहे हो।’ बस फिर क्या था वे बमक पड़े ‘तुम्हें मैं चोरी करने वाला शायर दिखता हूं। गालिब क्या मुझसे बड़ा शायर है। जरूर उसने ही मेरी रचना चुराई होगी। मैं उस पर मुकदमा दायर करूंगा।’ बड़ी मुश्किल से यार-दोस्तों ने मिलकर चुप कराया तब जाकर उन्होंने गालिब को इस गलती के लिए माफ किया। वह भी गालिब से क्षमा याचना कराने की प्रार्थना के साथ, वर्ना मुकदमा दायर करने के लिए उन्हें तो स्वर्ग जाना ही पड़ता, साथ में दोस्तों को भी गवाही देने के लिए वहां हाजिरी लगानी पड़ती।
तो यह है मेरे मित्रवर ‘शांति प्यासा जी’ का संक्षिप्त परिचय। मैं अभी मन ही मन में आपसे उनका परिचय करा ही रहा था कि उन्होंने मुझे टहोका लगाया ‘क्यों कविता पसंद आयी ना।’ मैंने मरता क्या न करता वाले स्टाइल में हामी भरी। बस वे खुश हो गये और मेरे कंधे पर हाथ मारकर कहने लगे, ‘फिर तो हो जाए चाय’। और बात पूरी होते ही उन्होंने चाय वाले को मेरी ओर से दो स्पेशल चाय का आर्डर दे दिया। फिर बिना सांस लिये ही मेरी तरफ मुखातिब हुए- ‘देख लेना। एक दिन तुम याद रखोगे कि इतने महान् साहित्यकार को तुमने रूबरू होकर सुना था। वाकई बहुत खुशकिस्मत हो तुम। अच्छा समोसे और मंगा लो, फिर तुम्हें एक और बढ़िया कविता सुनाऊंगा। तुम भी क्या याद रखोगे।’ इतना कहकर वे मेरी ओर से वे समोसे का आर्डर देने गये और मैं खड़ा-खड़ा इसी उधेड़बुन में रहा कि जेब में पड़े इस दस के नोट से मैं कितनी देर तक खुशकिस्मत बना रह सकता हूं।