महापात्र / राजेन्द्र वर्मा

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सेठजी को तगड़ा हार्ट अटैक पड़ा था। ... तुरन्त ही नज़दीक के नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया। तीन दिन की दौड़-धूप और पैसा पानी की तरह बहाने के बावजू़द उन्हें बचाया नहीं जा सका। वेंटिलेटर पर रखी लाश उठाने के लिए डेढ़ लाख का बिल चुकाना पड़ा!

दाह-संस्कार के लिए घाट पर परिवार के सभी पुरुष सदस्य, रिश्तेदार और दोस्त इकट्ठे थे। सभी लोग सेठजी के अच्छे व्यवहार और अच्छे सामाजिक कार्यों की सराहना की रस्म-अदायगी कर रहे थे। एकाध दबी ज़ुबान से अपने हक़ या पैसे मारे जाने की भी बात कर रहे थे, पर साथ-ही उसका पटाक्षेप भी स्वयं कर रहे थे-जब आदमी ही नहीं रहा, तो अब क्या गिला? सारी दुनियादारी तक ही है-अब क्या उसकी चर्चा की जाए?

महापात्र और उसके-उसके सहायक ने क्रिया-कर्म सम्पन्न कराया। सेठ के बेटे ने उसे पाँच सौ का नोट दिया। महापात्र ने नोट वापस करते हुए हज़ार रुपये की माँग की, लेकिन सेठ-पुत्र ने एक भी रुपया और देने से इन्कार करते हुए महापात्र की हथेली पर नोट ज़बरदस्ती रख दिया। ... महापात्र के स्वर में नरमी आयी-अच्छा, आठ सौ तो दो!

सेठ का बेटा क्रुद्ध हो उठा—जो मिल रहा है, रख लो, वरना यह भी नहीं मिलेगा! एकदम लूट मचा रखी है! ...

रिश्तेदारों और दोस्तों में भी अधिकांश की तनी हुई भृकुटियाँ बेटे का समर्थन कर रही थीं। महापात्र बिफर पड़ा—हाँ, लूट मचा रखी है, भीख समझकर दे रहे हो न! ...जाओ, जाओ, मुफ़्त में काम कराने वालो! तुम क्या दोगे? लाश ठिकाने लगाने आये थे, लग गयी; अब जाओ! ...जब डाक्टर ने लाखों ले लिये होंगे, तो लूट नहीं दिखायी पड़ी। अभी लकड़ी वाले ने दोगुने दाम ले लिए, तो भी नहीं लूट दिखायी दी! ... और हमने जो किया, वह मु्फ़्त का है, क्यों? चले हैं हमको लूट की गणित समझाने!

रिश्तेदारों में एक ने अपनी ज़ेब से दो सौ रुपये देकर महापात्र को शांत किया, परन्तु सेठ-पुत्र अभी भी अशांत था।