महाभारत: ज्ञान का मानसरोवर / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 सितम्बर 2013
सोलह सितंबर से रात साढ़े आठ बजे स्टार प्लस पर स्वस्तिक फिल्म कंपनी के सिद्धार्थ तिवारी के 'महाभारत' सीरियल का प्रदर्शन होने जा रहा है। ज्ञातव्य है कि लगभग तीस वर्ष पूर्व बलदेवराज चोपड़ा की 'महाभारत' दूरदर्शन पर दिखाई गई थी, जिसे राही मासूम रजा ने लिखा था। यह भी सुना है कि एक बड़े औद्योगिक घराने के टेलीविजन विंग ने भी एक 'महाभारत' बना लिया है, जिसमें युद्ध के पश्चात सारे महत्वपूर्ण पात्रों को आरोपों के घेरे में लिया जाता है और वे अपनी भूमिका का स्पष्टीकरण देते हैं। कथा-प्रस्तुति का यह ढंग न्यूरमबर्ग ट्रायल से प्रेरित हो सकता है। ज्ञातव्य है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जर्मन अफसरों और हिटलर के निकट लोगों पर मुकदमा चला था, जिस पर अनेक कथाएं लिखी गई हैं, अनेक फिल्में बनी हैं और अंदाजे बयां की श्रेणी में लियोन यूरिस की पुस्तक 'क्यू. बी. सात' लाजवाब है। 'महाभारत' पर एकता कपूर फिर हाथ आजमाने वाली हैं। एक बार इसी 'होम' में उनके हाथ झुलस चुके हैं।
इस समय समाज में चल रही हिंदुत्व की लहर, जिसे राजनीतिक स्वार्थ से चलाया गया है, का लाभ धर्म प्रेरित सीरियलों को मिल रहा है और इस सीरियल-गंगा में सभी हाथ धोने के लिए आतुर हैं। अगर सारे चैनल अपनी-अपनी लेखन टीम को मिलकर नीति तय करने दें तो सभी चैनल 'महाभारत' प्रस्तुत कर सकते हैं और सारे संस्करण एक-दूसरे से अलग होकर भी 'महाभारत' ही कहलाएंगे। वेदव्यास के आठ हजार श्लोक के मूल पाठ में अनेक कल्पनाशील लोगों ने अपना योगदान दिया है और आज 27 हजार से लेकर एक लाख श्लोक तक के संस्करण उपलब्ध हैं। इसकी उपकथाओं के डोरे के भीतर डोरा है और कोई भी विलक्षण व्यक्ति इसकी कथाओं के चक्रव्यूह को भेद नहीं सकता।
वेदव्यास ने अत्यंत रोचक कथा गढ़ी है और अर्थ की अनेक सतहें इसमें हैं, जैसी हर महाकाव्य में होती हैं। यह अपने पूर्ववर्ती ग्रंथों से इस मायने में अलग है कि इसमें सारी सार बातें मानवीय रिश्तों के माध्यम से उजागर होती हैं। इसकी व्यापकता का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि मृत्यु शैया पर मकर संक्रांति की प्रतीक्षा करने वाले भीष्म पितामह युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर देते हैं और कथाओं के साथ सार प्रस्तुत करते हैं। स्वयं युधिष्ठिर ने अनेक परिस्थितियों में अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। सारांश यह है कि मनुष्य के रिश्तों और विचारों की विविधता की तरह ही इस कथा का सार भी अनेक सतहों पर सक्रिय है।
इसकी एक बानगी प्रस्तुत है। द्रुपद और द्रोणाचार्य मित्र रहे हैं और वे दुश्मन भी हुए हैं। द्रुपद का अपमान हुआ है, पराजय हुई और वह इसके बदले की कामना से यज्ञ करता है। पुत्र धृष्टद्युम्न के जन्म के समय आकाशवाणी होती है कि इसके हाथों द्रोणाचार्य की पराजय एवं मृत्यु होगी। द्रोणाचार्य को आकाशवाणी पर कोई शंका नहीं है, परंतु वे स्वयं धृष्टद्युम्न को शस्त्र एवं युद्धकौशल की शिक्षा देते हैं, क्योंकि यही उनका धर्म है और अंत में उनकी मृत्यु भी धृष्टद्युम्न के हाथ ही होती है। इस कथा की व्याख्या यह है कि आम जीवन में भी व्यक्ति अपनी मृत्यु को स्वयं ही पालता-पोसता है। क्या मनुष्य धूम्रपान या मद्यपान एवं अन्य व्यसनों की हानि से परिचित होते हुए भी उनसे बचने का कोई यत्न नहीं कर पाता। जीवन के प्रारंभ से ही मौत का पौधा भी मनुष्य में ही रोपित है और उसी के कार्य इस पौधे को पनपाते हैं।
दरअसल, महाभारत ऐसे सघन वन की तरह है जिसमें व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुरूप दूर तक जा सकता है। ऐसा कोई मानवीय रिश्ता नहीं, जो इसमें वर्णित नहीं हो। आजकल टेक्नोलॉजी के विशेष प्रभाव का लाभ उठाकर इस महान कथा को कौतुकों से भर दिया जाता है, क्योंकि वही दर्शक भी देखना चाहता है। कौतुकताविहीन महाभारत भी एक दार्शनिक दस्तावेज की तरह बनाई जा सकती है। स्वस्तिक कंपनी ने इस पर खूब खर्च किया है।