महाभारत का अभियुक्त / अंक 1 / राजेंद्र त्यागी
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दृश्य-एक
( हस्तिनापुर राजमहल का सूना-सा सभाकक्ष जिसमें केवल धृतराष्ट्र व संजय उपस्थित हैं। धृतराष्ट्र के केश व वस्त्र अस्तव्यस्त हैं। कुरुक्षेत्र युद्ध में पराजय व सभी सौ पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुन वे विक्षिप्त-से हो जाते हैं।)
धृतराष्ट्र (विक्षिप्त भाव से): धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समावेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।
संजय : (..) मौन।
धृतराष्ट्र (खिन्न भाव से) : तुम कुछ बोलते क्यों नहीं, संजय? ..(अल्प विराम के उपरान्त)... संजय! तुम बताते क्यों नहीं, कुरुक्षेत्र युद्ध में क्या हो रहा है?
संजय : (..) पुन: मौन।
धृतराष्ट्र (क्रोध भाव से) : संजय! ..तुम मौन क्यों हो? ..क्या तुम्हारी दिव्यदृष्टि ..?
संजय (सहज भाव से) : ..बताने के लिए अब शेष ही क्या रह गया है, राजन! ...(क्षणिक अन्तराल के उपरान्त, क्षुब्ध भाव से)... धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में अब केवल शेष रह गए हैं! ..हाथी, अश्व और योद्धओं के केवल क्षत-विक्षत शव! ..राजाओं के मस्तक सुशोभित करने वाले रत्न जड़ित मुकुट, भग्न रथ, दीर्घ-नाद से चारों दिशाओं में कंपन उत्पन्न करने वाले शंखों के अवशेष! ..और, मृतवत् धनुष-बाण, तूणीर, तलवार व गदाएं! ..शवों की कैसी व्याख्या, राजन...!
धृतराष्ट्र (आश्चर्य भाव से) : ...तो क्या ..युद्ध समाप्त हो चुका है, संजय!
संजय : (क्षुब्ध भाव से) : हाँ, राजन..!
धृतराष्ट्र (आश्चर्य भाव से) : युद्ध समाप्त हो चुका है! ...किंतु, विजयश्री का उपहार लेकर मेरे पुत्र अभी तक मेरे पास क्यों नहीं आए, संजय?
संजय (शीश झुका कर पूर्व भाव से)
- राजन! ...तुम्हारे सभी सौ पुत्र..! (भावुकतावश वाक्य संजय के कण्ठ में ही अटक रह जाता है और वह वाक्य पूरा करने में स्वयं को असमर्थ पाता है।)
धृतराष्ट्र (व्यग्रता के साथ उच्च स्वर में)
- हाँ, हाँ! ..रुक क्यों गए? ..बताते क्यों नहीं? ..क्या हुआ मेरे पुत्रों को? ...कहाँ हैं, वे? ...( अचानक ही मुख मंडल पर प्रसन्नता के भाव व्याप्त हो जाते हैं)...अच्छा-अच्छा! ..अवश्य ही अपनी माता गाँधारी का आशीर्वाद लेने गए होंगे! ..इसमें
संजय (शीश झुका कर पुन: क्षुब्ध भाव से)
- नहीं, नहीं! राजमाता का आशीर्वाद प्राप्त करने नहीं..! ..(क्षणिक मौन के पश्चात, पूर्व भाव से) .. .सभी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं! ...विजयश्री ने पाण्डु-पुत्रों का वरण किया है!
धृतराष्ट्र (आश्चर्य भाव से) : नहीं-नहीं! ..यह संभव नहीं! ..मेरे पुत्रों के पक्ष में ग्यारह अक्षौहिणी सेना और पाण्डु-पुत्रों के पक्ष में केवल सात अक्षौहिणी! ..और, विजयश्री मेरे पुत्रों का वरण न करे? ..असंभव! ..नितांत असंभव! ..(क्रोध व्यक्त करते हुए)..तुम अवश्य ही मेरे साथ छल कर रहे हो, संजय।
संजय (सहज भाव से) : नहीं, महाराज! वही सत्य है!
धृतराष्ट्र (जिज्ञासा भाव से) : पुत्र दुर्योधन इस समय कहाँ है?
संजय (पूर्व भाव से) : वह भी वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं, महाराज!
धृतराष्ट्र (चीत्कार करते हुए) : असंभव! ..नितांत असंभव!
( धृतराष्ट्र मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाते है। संजय उनके मुँह पर पानी के छींटे देकर ताड़-पत्र से हवा कर उन्हें चेतनावस्था में लाने का प्रयास करते हैं। चेतनावस्था में लौट आने के पश्चात धृतराष्ट्र वस्त्र संवारते हुए पुन: खड़े हो जाते हैं।)
धृतराष्ट्र (कानों पर हाथ रख कर) : यह हिंसक जीवों का चीत्कार कैसा, संजय?
संजय (सुनने का प्रयास करने के उपरांत , शीश झुका कर पूर्व भाव से) : आपको भ्रम हुआ है, राजन! ..राजमहल के प्रागंण में न तो कोई हिंसक जीव है और न ही चीत्कार जैसे कोई स्वर, महाराज!
धृतराष्ट्र (अपनी शंका पर बल देते हुए)
- तुम्हें क्या हो गया है, संजय! ..सुनो यह सुनो! ..गधे, गीदड़, गिद्ध, कौए किस प्रकार रुदन-सा कर रहे हैं! ..(क्षणिक अंतराल के उपरांत,हर्ष भाव के साथ) ...अरे, देखो-देखो! ...मुझे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है! ..जेष्ठ पुत्र..! ..(ऐसा कहने के उपरांत धृतराष्ट्र शीश पकड़ कर पृथ्वी पर बैठ जाते हैं) ...ओह, पुत्र दुर्योधन! (धृतराष्ट्र की नेत्रों से अयास ही अश्रु बहने लगते हैं)
संजय (सांत्वना देते हुए) : राजन! अब शोक करने का कोई औचित्य नहीं है! दुर्योधन-जन्म के समय ही यदि महात्मा विदुर का परामर्श स्वीकार कर लेते तो, हिंसक जीवों का क्रंदन सुनने के लिए आज पुन: विवश न होना पड़ता! ..और न ही वह कुल-विनाश का कारण बनता!
धृतराष्ट्र (खिन्न भाव से) : तो क्या विदुर के परामर्श पर मैं अपने नवजात पुत्र का त्याग कर देता?
संजय (समझाने की मुद्रा में ) : वही उचित था, राजन! ..नीति कहती है कि राजा को केवल राज्य और प्रजा के प्रति मोह होना ही श्रेयस्कर है! ..प्रजा और राज्य के हित में शेष सभी मोह-त्याग ही उचित है! ...महात्मा विदुर के परामर्श का अनुसरण करते हुए यदि उस समय राज्य हित में पुत्र त्याग कर दिया होता तो आज यह दारुण कष्ट वहन न करना पड़ता!
धृतराष्ट्र (प्रायश्चित भाव से) : धिक्कार है, मुझे! ...मेरे जीवन को ...(धृतराष्ट्र घुटनों के बल बैठ जाते हैं और मुख को दोनों हाथों से छुपा कर पुन: रोने लगते हैं।)
संजय (सांत्वना प्रदान करते हुए) : राजन! ...अब शोक का औचित्य क्या है? ..यदि कोई पुरुष स्वयं ही अपने वस्त्रों में अग्नि प्रज्ज्वलित करे और जब अग्नि-ताप से परिदहन होने लगे तो पश्चाताप करने बैठ जाए! ..उसे बुद्धिमानी नहीं कहा जाता! ...समय पश्चाताप का नहीं प्रायश्चित्त करने का है! ...शीतल जल से अग्नि शान्त करने का है!
धृतराष्ट्र (अश्रु पोंछते हुए आवेश में) : तो क्या युद्ध की ज्वाला मैंने प्रज्ज्वलित की थी, संजय?
संजय (शान्त भाव से) : जी, महाराज! ...स्वयं आपने और आपके पुत्रों ने ही अपने व्यवहार की वायु से पाण्डु-पुत्रों के हृदय में अग्नि उत्पन्न की थी। ...तदुपरान्त उसमें स्वार्थ रूपी घृत की आहूति देकर उसे प्रज्ज्वलित किया! ...(धृतराष्ट्र के मुख मंडल पर उतरते-चढ़ते भावों का अवलोकन करने के उपरान्त पुन:) ...अत: उस ज्वाला में आपके पुत्रों का भस्म होना तो स्वाभाविक ही था।
धृतराष्ट्र (क्रोध भाव से) : मुझ पर व मेरे पुत्र पर अनर्गल आरोप लगा रहे हो, संजय! ...परिणाम जानते हो... ?
संजय (शान्त भाव से) : जानता हूँ, राजन! ..किंतु सत्य निवेदन करते समय परिणाम से भयभीत नहीं होना चाहिए! ...परिणाम-दुष्परिणाम का विचार करने पर, सत्य उद्घाटित करने की शक्ति का क्षय हो जाता है! ...इसका भी बोध है मुझे , महाराज!
धृतराष्ट्र (उद्विग्न भाव से) : तो, क्या दोष मेरा..!
संजय (मध्य ही में पूर्व भाव से) : ...अवश्य! ..यही सत्य है, राजन! ...आप चाटुकारों से घिर चुके थे! और, स्व-प्रशंसा से मन की क्षुदा शान्त करने वाला पुरुष विवेकहीन हो जाता हैं!
धृतराष्ट्र (उपेक्षा भाव से) : चाटुकार ..!
संजय (बल देते हुए) : .. हाँ, राजन! ...चाटुकार! ...विवेकवान पुरुष चाटुकार और निष्ठावान में भेद कर निर्णय करते हैं! ...निष्ठा और चाटुकारिता में भेद न करने का परिणाम सर्वनाश ही होता है! अत: आपका शोक करना व्यर्थ का विलाप है!
( शोक-संताप से दग्ध धृतराष्ट्र पुन: मुर्छित होकर पृथ्वी पर गिर जाते हैं। पुन: शीतल जल के छींटे और ताड़पत्र से हवा कर संजय उन्हें मूर्छा से बाहर लाने का प्रयास करता है। चेतनावस्था में लौट आने के उपरांत धृतराष्ट्र सिँहासन के निकट घुटनों के बल बैठकर विलाप करने लगते हैं।)
-दृश्य-दो-
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( सभाकक्ष में शोकाकुल हस्तिनापुर सम्राट धृतराष्ट्र सिँहासन के समीप घुटनों के बल जमीन पर बैठे हैं। उन्हीं के समीप निरीह भाव से खड़ा संजय उन्हें निहार रहा है। सभाकक्ष में सहसा ही महर्षि व्यास का प्रवेश होता है। महर्षि के आगमन से धृतराष्ट्र अननुभूत हैं। किन्तु , संजय महर्षि का अभिवादन करते हुए उनके चरण-स्पर्श करता है।)
महर्षि व्यास (क्रोधित स्वर में) : यह कैसा शोक, धृतराष्ट्र! ...जिसमें शिष्टाचार की औपचारिकताओं को भी तिलांजलि दे दी गई!
( महर्षि व्यास के मुख से निकले शब्द कानों में पड़ते ही धृतराष्ट्र लड़खड़ाते-लड़खड़ाते खड़े होने का प्रयास करते हैं। संजय उन्हें सहारा देकर खड़ा करता है।)
धृतराष्ट्र (निर्जीव-सी वाणी में) : प्रणाम, महर्षि!
महर्षि व्यास (अभिवादन स्वीकारने के उपरांत न कोई संत्वना न कोई भूमिका तीक्ष्ण वाणी में) : तुम्हारे पुत्र स्व-अपराध के कारण ही मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, पुत्र धृतराष्ट्र! ...उनके लिए व्यर्थ ही अश्रु-पात क्यों करते हो, पुत्र! ...(क्षणिक विराम के उपरांत) ...पाण्डु-पुत्र निरपराध हैं! ...तुम्हारे पुत्र ही दुष्ट थे! ...हस्तिनापुर का सर्वनाश उन्हीं के कारण हुआ है! ...अत: ऐसी दुष्टात्माओं के लिए शोक कैसा!
धृतराष्ट्र (निरीह भाव से) : अब मुझे क्या करना चाहिए, महर्षि?
महर्षि व्यास (पूर्व भाव के साथ) : अविवेक के कारण तुमने जिस अग्नि को प्रज्ज्वलित किया था और जिस अग्नि में तुम्हारे सभी पुत्र भस्म हो गए हैं! ...विचारों के शीतल जल से उसे शान्त करना ही श्रेयष्कर होगा, हस्तिनापुर सम्राट!
( जिस गति के साथ महर्षि व्यास ने सभाकक्ष में प्रवेश किया था। उसी गति के साथ सभाकक्ष से गमन कर जाते हैं। इसके साथ ही धृतराष्ट्र पुन: शीश पकड़ कर बैठ जाते हैं और संजय विचारों के अरण्य में विचरण करने लगते हैं। सभाकक्ष में मौन व्याप्त हो जाता है।)
दृश्य-तीन
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( महर्षि व्यास के सत्य किन्तु कटु वचनों से आहत धृतराष्ट्र के संताप में वृद्धि हो जाती है। वह विक्षिप्त-सी अवस्था में जमीन पर पसरे हुए-से हैं। समीप ही खड़े संजय उन्हें सांत्वना प्रदान करने का प्रयास कर रहा है। तभी सभकक्ष में द्वारपाल का प्रवेश होता है।)
द्वारपाल (औपचारिक अभिवादन के साथ) : महाराज की जय हो! ..एक वृद्ध ब्राह्मण दर्शन की इच्छा रखता है, महाराज!
धृतराष्ट्र (अस्त-व्यस्त वस्त्र व केश संवारते हुए) : ब्राह्मण का परिचय?
द्वारपाल : हस्तिनापुर राज्य का नागरिक है और स्वयं को जन्म से ब्राह्मण बताता है, महाराज!
धृतराष्ट्र (क्षुब्ध भाव से) : विस्तृत परिचय?
द्वारपाल (निरीह भाव के साथ) : विस्तृत परिचय पूछने पर ब्राह्मण ने क्रोध भाव के साथ प्रति-प्रश्न किया, महाराज! ..क्या इतना परिचय पर्याप्त नहीं है, द्वारपाल?
(द्वारपाल के मुख से ब्राह्मण के हावभाव का वर्णन सुनकर धृतराष्ट्र व संजय के मुख मंडल पर अनपेक्षित विचार-रेखाएं उभर आती हैं।)
संजय (विचार मुद्रा से बाहर आकर) : उचित! ...ब्राह्मण को ससम्मान कक्ष में ले आओ।
( द्वारपाल के साथ सभाकक्ष में प्रवेश करते ही वृद्ध ब्राह्मण हस्तिनापुर सम्राट का अभिवादन करता है। अभिवादन पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त न कर उपेक्षा भाव से धृतराष्ट्र मुख आकाश की ओर कर लेते हैं। धृतराष्ट्र के उपेक्षा भाव का अनुभव कर संजय ब्राह्मण का अभिवादन स्वीकारता है)
संजय (ब्राह्मण की ओर संकेत करते हुए विनीत भाव से) : आदेश करें, आदरणीय!
ब्राह्मण (कुपित भाव के साथ) : हस्तिनापुर सम्राट से न्याय की अपेक्षा रखता हूँ!
संजय (सहज भाव से) : संकोच का त्याग कर कष्ट वर्णन करें, श्रद्धेय!
ब्राह्मण (पूर्व भाव के साथ) : एक परिवार के हितार्थ आयोजित युद्ध में मेरा इकलौता पुत्र वीरगति को प्राप्त हो गया है, महाराज! ...मैं निराश्रित हो गया हूँ!
संजय (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : युद्ध! ...किस युद्ध की बात कर रहे हो, श्रद्धेय!
ब्राह्मण (व्यंग्य भाव के साथ वाणी को बल प्रदान करते हुए) : कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध...!
धृतराष्ट्र (मध्य ही में क्रोध भाव से) : एक परिवार के हितार्थ नहीं! ...हस्तिनापुर की सुरक्षा के लिए युद्ध कहो, वृद्ध! ...(उपेक्षा भाव से) ...मुझसे क्या इच्छा रखते हैं?
ब्राह्मण (विनीत भाव से) : न्याय...!
धृतराष्ट्र (पुन: मध्य ही में पूर्व भाव से) : ...न्याय! ...(क्षणिक विराम के पश्चात) ...किन्तु मेरे भी तो सभी सौ पुत्र वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं! ...मुझे कौन न्याय प्रदान करेगा?
ब्राह्मण (दीर्घ श्वांस लेते हुए) : न्याय की इच्छा लेकर मैं सौ पुत्रों के पिता के पास नहीं! ...हस्तिनापुर-सम्राट के पास आया हूँ!
संजय (दया भाव से) : राजन! वह निराश्रित हो गए हैं! ...इस वृद्ध अवस्था में अब कोई आश्रय भी नहीं हैं!
धृतराष्ट्र (आह भरते हुए) : ओह, मेरे ही समान...!
संजय (शांत भाव से प्रतिवाद करते हुए) : नहीं, राजन! ...आपके प्रिय पाण्डु-पुत्र आपका सम्मान करते हैं, आप से प्रेम करते हैं..!
धृतराष्ट्र (उपेक्ष भाव से) : अनुग्रह राशि के रूप में ब्राह्मण को एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्रा दे दी जाएं!
ब्राह्मण (आश्चर्य व व्यंग्य के मिश्रित भाव से)
- एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं! ...(मौन! ...तदुपरान्त) ...पुत्र के बलिदान का मूल्य ! ...( जोरदार ठहाका लगाने के पश्चात) ...अनुग्रह! ...प्रजा का धन प्रजा को ही! ...और, सम्राट का अनुग्रह भी! ...(पुन: मौन, और) ...ऐसा करो धृतराष्ट्र! ...नगर से एक चित्रकार बुलवालो! ...और, अनुग्रह राशि प्रदान करते हुए चित्र बनवाकर संपूर्ण हस्तिनापुर राज्य में
धृतराष्ट्र (क्षुब्ध भाव से) : संजय! ...राजकोष से इन्हें दो सहस्त्र मुद्राएं दे दी जाएं!
ब्राह्मण (अट्टहास के साथ)
- धृतराष्ट्र ...! …(जिज्ञासा, आश्चर्य व क्रोध भाव के साथ संजय ब्राह्मण की ओर देखने लगता है। अल्प विराम के पश्चात ब्राह्मण आगे कहता है) ...न्याय प्राप्त हो गया,
संजय (मध्य ही में आश्चर्य एवं क्रोध के मिश्रित भाव से) : विराम लगाओ! ..अपने व्यर्थ के आलाप पर, वृद्ध सुदीर्घ ! ...संपूर्ण हस्तिनापुर राज्य आपका सम्मान करता है। ...(अल्प विराम के पश्चात)... राजा और राज्यसभा की गरिम का कुछ तो सम्मान करो! …वरन...!
सुदीर्घ (व्यंग्य भाव से) : अरे! ...तुमने मुझे पहचान लिया, पुत्र! ...(खेद व्यक्त करते हुए)... किन्तु खेद! ...धृतराष्ट्र के साथ रहते-रहते तुम भी विवेक शून्य हो गए हो, पुत्र! ...सत्य को व्यर्थ का आलाप कहते हो! ...(विराम के पश्चात)... दया का पात्र! ...धृतराष्ट्र अब राजा है ही कहाँ? ...और, राज्य सभा वहाँ होती है, जहाँ राजा होता है! ...(पुन: विराम और)..राज्यसभा नहीं! ...यह तो एक पराजित सम्राट! ...निरीह मनुष्य का विलाप कक्ष है और साधारण मनुष्य व उसके कक्ष की गरिमा के अनुकूल मैं आचरण कर ही रहा हूँ, पुत्र संजय!
धृतराष्ट्र (क्रोध में दांत पीसते हुए) : पराजित सम्राट! ...निरीह मनुष्य..!
सुदीर्घ (शान्त भाव से) : यही सत्य है, धृतराष्ट्र! ...सत्य तो यह भी है कि तुम हस्तिनापुर के सम्राट कभी रहे ही नहीं! ...भ्राता पाण्डु की मृत्यु से पूर्व तुम उसके केवल प्रतिनिधि थे! ...संपूर्ण अधिकार प्राप्त सम्राट नहीं! ...पाण्डु की मृत्यु के उपरांत विवशतावश तुम्हें सिँहासन मिला भी तो तुमने कभी सम्राटोचित व्यवहार ही नहीं किया! ..राज्य धर्म का पालन कब किया? ...एक साधारण मनुष्य की भांति ही माया-मोह से ग्रसित पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते रहे और हस्तिनापुर को भीषण युद्ध की अग्नि में झोंक दिया! ...तुम सम्राट कभी रहे ही नहीं, धृतराष्ट्र!
धृततराष्ट्र (क्रोध व्यक्त करते हुए) : अखिर मुझ से चाहते क्या हो, सुदीर्घ ?
सुदीर्घ (उपेक्षा भाव से) : एक निरीह व्यक्ति से क्या आशा की जा सकती है, धृतराष्ट्र? ...मैं केवल देखने आया था कि हस्तिनापुर का विनाश करने और अपने पुत्रों की आहुति देने के उपरांत तो तुम्हारे ज्ञान-चक्षु ज्योतिमय हो गए होंगे! ...तुम्हारा विवेक जागृत हुआ होगा! ...किंतु नहीं!
धृतराष्ट्र (अश्रुपूर्ण नेत्रों के साथ विनीत भाव से) : तुम चले जाओ सुदीर्घ ! ...यहां से चले जाओ। ...मुझे अकेला छोड़ दो!
सुदीर्घ (चेतावनी के स्वर में)
- मैं अपने पुत्र का बलिदान विक्रय करने यहां नहीं आया था! ...हस्तिनापुर के जीवित शेष पुत्रों के भविष्य का आकलन करने आया था! ... (क्षणिक विराम के उपरांत) ...देखने आया था कि क्या किसी दूसरे महायुद्ध के लिए तो बीज तो शेष नहीं है! ...किन्तु,खेद! ...बीज अभी शेष हैं!
(आवेश में लंबे-लंबे पग रखते हुए सभकक्ष से सुदीर्घ प्रस्थान कर जाते हैं)
धृतराष्ट्र (चिंतित भाव से) : सन्त सुदीर्घ की चेतावनी का अर्थ, संजय?
संजय (सहज भाव से) : सुदीर्घ दृढ़ संकल्प के व्यक्ति हैं, राजन! ...हस्तिनापुर की प्रजा उनका सम्मान भी करती है...!
धृतराष्ट्र (मुख पर अपराध बोध के भाव के साथ मध्य ही में) : ...तो क्या मैं ही कुरूक्षेत्र युद्ध के लिए उत्तरदायी हूँ, संजय?
संजय (पूर्व भाव से) : नहीं, केवल आप ही नहीं, राजन! ...महायुद्ध तो अपनी-अपनी शपथ और स्वप्रतिष्ठा की सुरक्षा की चिन्ता का परिणाम था! ...स्वप्रतिष्ठ और शपथ की सुरक्षा कुरुवंश की प्राथमिकता बन गई थी! ...फलस्वरूप हस्तिनापुर की सुरक्षा कहीं नेपथ्य में चली गई! ...और, हस्तिनापुर की सुरक्षा की उपेक्षा का ही परिणाम था यह महायुद्ध!
धृतराष्ट्र (पूर्व भाव से) : मुझे क्या करना चाहिए, संजय?
संजय (पूर्व भाव से) : प्रथम शोक का त्याग करो, राजन! ...क्योंकि, शोक का अब कोई औचित्य नहीं है! ...(विराम के उपरांत)... युद्ध में भाग लेने आए देश-देश के राजा अपने पुत्रों के साथ पितृलोक प्रस्थान कर गए हैं! ...इसलिए अब उनका और वीरगति प्राप्त पुत्र-पौत्र व अन्य परिजनों का प्रेत-कर्म संपन्न करना ही शेष रह गया है, महाराज!
धृतराष्ट्र (जिज्ञासा भाव से) : प्रेत-कर्म करने के उपरांत क्या हस्तिनापुर सिँहासन पर...?
संजय (मध्य ही में ) : नहीं, नहीं महाराज! ..हस्तिनापुर सिँहासन के अधिकारी अब पाण्डु पुत्र हैं ! ...सिँहासन का मोह त्याग कर अब कुल की विधवाओं के साथ वन के लिए प्रस्थान करना ही श्रेयस्कर होगा!
धृतराष्ट्र (आह भरते हुए) : हाँ ! ...अब यही उचित होगा, संजय!
संजय (हाथ जोड़ कर) : अब मुझे आज्ञा दीजिए, राजन! ...युद्ध समाप्ति के साथ ही मेरा कर्तव्य समाप्त हो गया है देवर्षि व्यास द्वारा प्रदत्त दिव्यदृष्टि भी अब लुप्त हो गई है!
(अभिवादन के साथ सभाकक्ष से संजय का प्रस्थान)