महाभारत के समय का भारत / बालकृष्ण भट्ट
महाराज रामचंद्र के समय से जब हम धर्मराज युधिष्ठिर के समय को मिलाते हैं तो देश की हर एक बातों में बड़ा अंतर पाते हैं। यद्यपि युधिष्ठिर धर्म के अवतार माने गए हैं सत्य और साधुता आदि सद्गुणों का चित्र उनके चरित्र में व्यासदेव ने भरपूर उतारा है पर महाराज रामचंद्र के अकृत्रिम सौहार्द आदि गुणों का लेश भी उस चित्र में न आ सका। श्रीरामचंद्र का समय आर्यों की पुरानी सभ्यता और उनके समस्त सद्गुणों का सूर्योदय था किंतु पांडवों का समय उस सभ्यता का मध्याह्न था। श्रीरामचंद्र के समय आर्यों के उदय देश में पंजाब, अवध या ब्रह्मावर्त और कुछ प्रांत बिहार या तिरहुत तक हुआ था। पांडवों के समय संपूर्ण भारतवर्ष में आर्य लोग फैल गए थे। अनार्य दस्यु या राक्षस रामचंद्र के समय समस्त विन्ध्य के दक्षिण के देशों में बसे हुए थे। तथा बहुत बड़ा हिस्सा विन्ध्याचल के उत्तर का उन्हीं राक्षस और असुरों के अधिकार में था। मथुरा जो पांडवों के समय यादव वंशी क्षत्रियों की राजधानी थी जिसका वर्णन कवियों ने बड़े धूमधाम के साथ किया है। लवण असुर के अधिकार में थी और मथुरा के आस-पास का भू-भाग सब उजाड़ पड़ा था। लवण भी विराध और रावण आदि राक्षसों की भाँति आदमखोर था। आदमियों को मार कर खा जाता था और जंगली मनुष्य था। शत्रुघ्न ने उसे मार कर मथुरा बसाया था। बक और हिडंब आदि राक्षस भी जिन्हें भीमसेन ने मारा है। उनके आख्यानों से मालूम होता है कि बहुत से ऐसे मनुष्य मांस भक्षक पांडवों के समय तक कहीं-कहीं बच रहे थे। बाल्मीकि के लेख से प्रकट है कि भरत जब चित्रकूट में श्रीरामचंद्र से मिलने को चले हैं तब रास्ता साफ करने वाले बहुत से लोग कुदारी और फरुसा साथ लिए रास्ता साफ करने को उनके आगे चले हैं। पांडवों के समय श्रीकृष्ण रथ पर हस्तिनापुर से द्वारिका को गए हैं। जिन-जिन देशों से गुजरे हैं उनके नाम दिए गए हैं। इससे सिद्ध है कि महाभारत के समय में इतनी सभ्यता लोगों में आ गई थी कि सड़क आदि का प्रबंध और टिकने की सराय इत्यादि के क्रम पर कुछ बनावें। रामचंद्र चित्रकूट से रामेश्वर तक सीता को खोजते हुए गए हैं। संपूर्ण देश का देश सिंह बाघ आदि भयंकर शिकारी जानवरों से भरा था। सैकड़ों कोस की दूरी पर अगस्त और सुतीक्ष्ण ऐसे दो एक ऋषियों का स्थान उन्हें मिला है। पांडवों के समय दक्षिण के ये सब देश आबाद हो गए थे अच्छे-अच्छे नगर और राजधानियाँ उनमें बन गई थी। भोजकट ऐसे दक्षिण के कई नगरों के नाम भारत में पाए जाते हैं और दक्षिण के कई राजे महाभारत के युद्ध में कौरव और पांडवों की कुमक को आए हैं। युद्ध शिक्षा भी पहले पूर्णता को नहीं पहुँची थी रामायण में अधिकतर पर्वत की शिला और पेड़ों की डालियों से युद्ध कहा है महाभारत के युद्ध में कैसी-कैसी ब्यूह रचना व्यासजी ने लिखा है। रामचंद्र के समय देश का देश उजाड़ पड़ा था केवल अयोध्या, मिथिला आदि दो एक नगर थे महाभारत के समय सौ-सौ पचास-पचास कोस की दूरी पर एक-एक स्वच्छन्द राज्य और राजधानियाँ हो गई थीं। जिनमें बड़े-बड़े प्रबल शक्तिशाली अस्त्र-शस्त्र विद्या कुशल राजा राज करते थे। कृषि और वाणिज्य की भरपूर तरक्की थी। लोग सब भाँति मुदित प्रसन्न हृष्ट और पुष्ट थे धन संपत्ति से देश खचाखच भरा था। बौद्धों का जोर भी उस समय तक नहीं होने पाया था। ऋषियों का चलाया हुआ शुद्ध वैदिक धर्म पर लोग चल रहे थे। चारों वेद और धनुर्वेद आदि उपवेद तथा आर्य ग्रंथ का पठन-पाठन तीनों वर्ण के लोग करते थे, अब के समान तब कोई विदेशी भाषा देश में प्रचलित नहीं हुई थी। सब लोग बड़े ही पवित्र चरित्र के थे इससे Litigation कानूनों में इस कदर हिंदी की चिंदी नहीं होने पाई। रामचंद्र का समय सभ्यता का सूर्योदय अर्थात आदिम काल था। इससे मालूम होता है कि सभ्यता के बढ़ने से बहुत तरह की बुराइयों का अंकुर भी उस समय तक नहीं जमा था। सभ्यता के बढ़ने से सब भलाई ही हो सो नहीं बहुत सी बुराइयाँ भी फैल जाती हैं। लोगों में दमन तब विशेष था। लोभ, मोह, मद, मात्सर्य को प्रजा में फैलने का अवकाश ही तब न था। इसी से रामचंद्र भरत को राज देते थे पर उसे स्वीकार न किया। युधिष्ठिर के समय सभ्यता का मध्य दिन था और सभ्यता अपनी अंतिम सीमा तक पहुँच चुकी थी इसी से लोभ आत्म सुख अभिलाषा और आपस की स्पर्द्धा इतनी बढ़ गई कि राज के लिए भाई-भाई कट मरे। पर उद्यम, साहस, धैर्य, बल, वीर्य, स्थिर अध्यवास आदि पौरुषेय गुणों में अंतर नहीं पड़ा था। बल्कि वे गुण बराबर बढ़ाते ही गए। बहुत तरह की नई-नई विद्या और कितने तरह के नए-नए अस्त्र-शस्त्र तथा शिल्प विज्ञान भी इस समय सभ्यता के बढ़ने के साथ ही साथ बढ़ते गए और बराबर बढ़ते जाते। पर होनहार अमिट है। महाभारत का युद्ध ऐसा सर्वनाशकारी हुआ कि भारत के पुनरुत्थान का सितारा क्रमश: डूबता ही गया। आस-पास के देश जो यहाँ चक्रवर्ती राजाओं के बाहुबल से सदा दबे रहते थे और कभी उभड़ने का मन भी न करते थे पीछे वे ही प्रांत वर्ती देश के लोग और वहाँ के सम्राट राजा जैसा सिकंदर इत्यादि प्रबल पड़ हिंदुस्तान पर चढ़ाई करने लगे और उलटा भारत ही को दबाने तथा यहाँ के लोगों को अपन वंशवद करने में कृताकर्य हुए।
महाभारत के युद्ध का धक्का यद्यपि आस-पास के देशों को भी कुछ न कुछ लगा पर वे प्रबलता में सब भाँति हम से आगे बढ़ते ही गए। टर्की, ईरान, परशिया, तुर्किस्तान, तातार आदि देश महाभारत के युद्ध के उपरांत बौद्धों के समय तक भारत के अधीन थे। क्योंकि क्षेमेंद्र ने अवदान कल्पलता में बहुत से ऐसे नाम दिए हैं, जहाँ बुद्धदेव ने जाकर अपना मत फैलाया और बुद्ध धर्म की दीक्षा लोगों को दी बहुधा वे नाम उन्हीं देश के नगरों से मिलते हैं। ऐसा मालूम होता होता है कि इरान से सिंधु नदी के तट तक आर्यों के निवास की मुख्य भूमि थी। आतश परस्त पारसियों में जैसा आर्यों का रक्त संचालित देख पड़ता है वैसा हम हिंदुओं में नहीं है। या, यों समझिये एक ही बाप के जैसे दो पुत्र अलग-अलग दो ठौर का बसें वैसा ही ये पारसी अपनी धर्म पुस्तक जिंदावस्ता ले सर्वथा अलग हो गए यहाँ तक कि वैदिक धर्मावलंबी आर्यों ने उनसे कोई सरोकार न रखा। वेद के अनुसार चलने वाले आर्यों का दस्यु और असुरों के साथ घिस्ट-पिस्ट होने से उनके चेहरे का रंग और देह के प्रत्यंगों के संगठन में कुछ थोड़ा अंतर पड़ गया। पर मस्तिष्क की लोकोत्तर शक्ति उनमें जैसी की तैसी बनी रही। पीछे इन्हीं वैदिक आर्यों ने इन दस्यु असुरों को भी आर्य बना लिया अब इस समस्त्ा हिंदू जाति अपने को आर्य वंशी कहनी है। अस्तु इन अप्रासंगिक बातों का जिक्र यहाँ इस समय छेड़ना व्यर्थ है अत: प्रकृतमनुसराम -
इन आर्यों में मस्तिष्क की शक्ति प्रबल है सो इससे सिद्ध है कि ये जहाँ कहीं एक दो भी होंगे वहाँ समस्त जन समूह के शिक्षक नेता या प्रधान बन बैठेंगे। दंडक का बड़ा हिस्सा जनस्थान जो किसी समय इन्हीं दस्यु असुर और राक्षसों की वास भूमि थी वहाँ आर्यों में एक अगस्त जा बसे थे पर अगस्त संपूर्ण दाक्षिणात्य दस्यु और राक्षसों के पूजय हुए रामचंद्र को भी रावण को जीतने में अगस्त से बहुत सहायता मिली। ऐसा ही सुग्रीव, जामवंत और हनुमान आदि जिन को बाल्मीकि ने रीछ और बंदर लिखा है सब के सब उन्हीं दस्युओं के फिरके के रहे होंगे रावण से और इनमें फर्क केवल इतना ही था कि ये आदमखोर न थे। दक्षिण के देशों में धरती पहाड़ी होने से अंत कम पैदा होता था फल और कंदमूल विशेष। सुग्रीव और जामवंत आदि कंदमूल तथा फल खाकर अपनी जिंदगी काटते थे इसी से ये रीछ और बंदरों की कोटि में शामिल कर लिए गए। रामचंद्र महाराज शुद्ध आर्यवंशी थे उन्होंने इन रीछ और बंदरों को अपना अनुयायी बनाया उनसे अपना काम निकाला। रावण को जीतने में और सीता को रावण के कैद से निकाल लाने में श्रीरामचंद्र को इन्हीं रीछ और बंदरों से बड़ी सहायता मिली। ऐसा ही पांडवों ने भी घटोत्कच आदि कई राक्षसों को अपने में मिलाय उन्हें आर्य बना लिया। विराट राजा के यहाँ कीचक जिसे भीमसेन ने मारा था उन्हीं दस्युओं में था। इतिहासों को खूब टटोलो तो पता लग जाएगा कि अभी हाल के जमाने तक यह बात प्रचलित रही कि आर्य जातिवाले इन दस्यु वंशियों को बराबर अपने में मिलाते उन्हें दस्यु और किरात के आर्य करते गए। मुसलमानों के हमलों के उपरांत जित जाति Conquered Nation हो जाने से वह जोश और गरमी इनमें से निकल गई। दूसरी जातिवालों को अपने में क्या मिलाएँगे। ये खुद दूसरों का मजहब कबूल कर अन्य जातिवाले होते जाते हैं। हजारों, लाखों हिंदू मुसलमान हो गए और अब क्रिस्तान होते जाते हैं। इसी से बराबर हम इस बात को कह रहे हैं कि जब तक Life पौरुषेय गुण विशिष्ट जीवन और जोश तथा Nationality जातीयता का भाव किसी कौम में कायम है उस समय जो कुछ उसके मस्तिष्क से निकलेगा या जो कुछ काम वह करेगा सबों में उत्तेजना रहेगी दास हो जाने पर जो बात कोसों दूर हट जाती है। मुसलमानों के राजत्व काल में जो ग्रंथ बने अथवा जो रीति या क्रम अपने लोगों में प्रचलित किया गया सब त्याज्य हैं। उन ग्रंथों को मानने या उन रीति या क्रम के अनुसार चलने से हम स्वराज्य के योग्य कभी नहीं होंगे।
अस्तु तो निश्चय हो गया कि महाभारत के युद्ध का समय भारत तथा आर्यों के बल और वीर्य; समृद्धि और वैभव, बुद्धितत्व, या सद्विचार प्रणाली, तथा स्थिर अध्यवसाय आदि की प्रौढ़ता का था। यदि वही हालत हिंदुस्तान की अब तक कायम रहती तो तमाम दुनियाँ का एकाधिपत्य इस समय इसे प्राप्त हो जाता किंतु अफसोस देश में संपत्ति और वैभव बढ़ने के साथ ही साथ परस्पर की स्पर्द्धा द्वेष और आत्म सुखाभिलाष उस समय इतना अधिक बढ़ गया कि जिससे हमारे अधपतन के बीज का बोना बहुत सहज हो गया। जिस समय यह युद्ध हुआ है उस समय हिंदुस्तान का कोई कोना या प्रदेश नहीं बचा था जहाँ सब तरह की पूर्ण जागृति न रही हो। इस युद्ध की हेतु भूत या प्रधान कारण कृष्ण महाराज की कुटिल पालिसी थी। भारत का कोई भाग न बच रहा था जहाँ इनकी पालिसी दुरभिसंधि का असर न पड़ा हो। कौरव और पांडव दो इस युद्ध के प्रधान नेता तो थे ही किंतु उस समय के समस्त छोटे-बड़े राजेमहाराजे इस युद्ध के किसी न किसी दल में आ शरीक हुए थे। न केवल हिंदुस्तान ही तिब्बत तातार बलख बुखारा और चीन तक के नरपाल युद्ध में कट मरे। जो भूपाल स्वयं न आए उन्होंने अपनी बहुत सी सेना और युद्धोत्साही वीरों को लड़ने के लिए भेजा। कुछ ऐसा भी मालूम होता है कि इस समय वीरता का दर्प इतना लोगों में आ समाया था कि वे अपने भुजा का बल दिखाने का मौका ढ़ँढ़ रहे थे।
यद्यपि कंस काशिराज चेदी का राजा शिशुपाल और शाल्व आदि बहुत से राजाओं का संहार कर उस समय के युद्धोत्साही वीर क्षत्रियों में कृष्ण महाराज महा मान्य हो चुके थे। इनके लिए सबसे बड़ी बात यह हो चुकी थी कि जरासंध जो उस समय एक तिहाई हिंदुस्तान अपने अधिकार में किए था और जो कई बार इन्हें हरा चुका था उसका राजनीति के द्वारा भीम से वध कराय मगध की बड़ी भारी सल्तनत तोड़ चुके थे फिर भी महाभारत के युद्ध में वीरता और युद्धोत्साह का समुद्र उमड़ रहा था। ऐसा मालूम होता है उस समय के राजा लोग और क्षत्रियों का दो दल था। एक वे थे जो स्वयं कुलीन होकर कृष्ण महाराज को सर्वश्रेष्ठ मान बैठे थे। दूसरे दलों के वे थे जो सब भाँत इनके विपक्षी थे। इनको अपने से किसी बात में उत्कृष्ट नहीं मानते थे। उन्हीं को असुर और दैत्य की पदवी दी गई। कृष्ण को क्षत्रियों के संक्षय के कलंक से बचाने को पृथ्वी का भार उतारने का प्रतिष्ठा पत्र उन्हें दिया जाता था। किंतु ऐसे भार उतारने को कौन सराहेगा जिससे ऐसा भारी धक्का लगा कि देश फिर आज तक न पनपा। वे ही अलबत्ता सराहेंगे जिनको दुर्गति की चोट का असर बिलकुल नहीं पहुँचा जो स्वार्थी और आत्म-सुख रत हैं। इसमें संदेह नहीं श्रीकृष्ण भगवान अपनी धारणा लोकोत्तर बुद्धि से इस घोर संग्राम का जो कुछ परिणाम हुआ उसे समझे हुए थे। चाहते तो कौरव और पांडवों में मेल कराय भारत को इस महान संक्षय से बचा देते पर न जानिए क्यों उनकी यह त्रिकालदर्शिता हमारे लिए सर्व नाशकारी हुई। यदि यह कहा जाय कि कृष्णचंद्र ने यह सब निज वंश यदुकुल की प्रतिष्ठा बढ़ाने को किया सो भी नहीं हुआ। अंत में सब के सब यादवकुल वाले आपस में लड़ कट मरे। इससे सिद्ध होता है कि त्रिकालज्ञ भगवान श्रीकृष्ण ने यह सब स्वार्थ बुद्धि से नहीं किया अपिच यह दुर्शाया कि प्रत्येक देश और जाति के हास और वृद्धि में Law of Compensation क्षति या हानिपूरक एक प्राकृतिक नियम सब ओर संसार भर में व्याप रहा है। जो कभी इस धरातल के एक ही भूभाग या एक ही जातिवालों को चाहे वे कैसे ही गोरे से गोरे या काले से काले क्यों न हों बराबर उन्नति या अवनति की दशा में नहीं रहने देता वरन चक्र नेमिक्रम रथ की पहिया या ऊँचा नीचा हुआ करता है।
'नीचैर्गच्छत्युपरिच दशा चक्रनेमिक्रमेण'। औ भी 'संयोग
विप्रयोगांता: पतनांता: समुच्छूया:।'
संयोग के साथ वियोग लगा रहता है। मनुष्य ऊँचा तभी तक होता जाता है जब तक गिरता नहीं। तो किसी को अपनी तरक्की का घमंड नितांत व्यर्थ है। महाभारत का युद्ध मानो इस तरह के दर्पांधों को शिक्षा दे रहा है कि तुम चार दिन की चाँदनी के समान अपनी वर्तमान बढ़ती का घमंड न करो तुम भी एक दिन गिरोगे।