महाराज कनिष्क का स्तूप / रामचन्द्र शुक्ल
काश्मीराधिपति शकवंशीय महाराज कनिष्क ने महात्मा गौतम बुद्ध के कुछ चिन्हो को बड़ी धूम-धाम के साथ बड़ा भारी स्तूप बनवा कर रखा था। चीनी यात्रियों ने उस स्तूप को भारतवर्ष में सबसे वृहत और भव्य लिखा है और उसकी विशालता और सुन्दर रचना का बड़े विस्तार के साथ वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है कि फाटक के दोनों ओर छोटे-छोटे आकार के बहुत से स्तूप बने हुए हैं जिनकी कारीगरी बहुत ही उत्तम है। फाटक से थोड़ा पश्चिम हटकर राजा कनिष्क ही का बनवाया हुआ भारी मठ है जिसमें हजारों बौद्ध संन्यासी दूर-दूर देशों से आकर पड़े रहते हैं। यह मठ उस काल में भारतवर्ष में अत्यंत प्रसिद्ध था।
काल पाकर इस विशाल स्तूप और मठ के सब चिन्ह लुप्त हो गए और लोग उसको बिलकुल भूल से गए, यहाँ तक कि यह भी पता न रह गया कि वह स्तूप किस स्थान पर बना था। इन यात्रियों के लेखों से इतना तो अवश्य मालूम हो सकता था कि वह कनिष्क की राजधानी पुष्पपुर व पेशावर ही के पास कहीं पर था। पर उसका कोई चिन्ह तब तक न मिला जब तक कि फरासीसी पुरातत्ववेत्ता फ़ाउचर ने पेशावर के आसपास के स्थानों का निरीक्षण नहीं किया। कुछ वर्ष हुए कि इस विद्वान ने घुमते घामते पेशावर नगर से पूर्व की ओर खेतों में दो बड़े-बड़े टीले देखे। विचार करने पर उन्होंने यही निश्चय किया कि हो न हो कनिष्क के प्रसिद्ध स्तूप ये ही हैं जो अब बिलकुल जमीन में बैठ गए हैं। दो वर्ष हुए कि सरकारी पुरातत्व विभाग ने डॉक्टर स्पूनर के निरीक्षण में उस स्थान को खोदकर जाँच करना आरम्भ किया। प्रथम वर्ष तो इस खोज का कोई आशाजनक फल न दिखाई पड़ा (Archiological Survey Frontier circle for 1907-08) पर काम बराबर जारी रहा और अगले साल जाड़े में इस परिश्रम का पूरा फल ऑंखों के सामने अकस्मात उमड़ पड़ा।
इन दोनों टीलों में जो छोटा था उसके भीतर जाकर स्पूनर को वह पूरा दबा हुआ स्तूप मिल गया जिसे महाराज कनिष्क ने निर्माण कराया था। यह सम-चतुर्भुज आकार का है और लम्बाई चौड़ाई में 285 फीट है। और पूर्व की ओर फाटक पर उन बहुत से छोटे-छोटे स्तूपों का समूह निकला है जिनका वर्णन चीनी यात्रियों ने किया है। स्तूप की दीवारें अनगढ़े पत्थरों की बनी हुई हैं जिनके बीच-बीच में ईंटें भी दी गई हैं। यह बात भी नई ही है। क्योंकि इस प्रदेश में जो और नई इमारतें मिली हैं वे स्लेट पत्थर की दीवार की हैं। इन दीवारों के ऊपर की पच्चीकारी से स्पष्ट प्रकट होता है कि सारा स्तूप बुद्ध की छोटी-छोटी प्रतिमाओं से मंडित था। पर सबसे अधिक ध्यान देने योग्य स्तूप के चारों कोनों पर के बड़े-बड़े बुर्ज हैं जो अब तक इस प्रकार की इमारतों में देखने में नहीं आए थे। हुएनसांग ने लिखा है कि जब यह स्तूप बनकर तैयार हुआ तब वह इतना ऊँचा था कि उसके ऊपर छत्र या कलश अच्छी तरह से नहीं बैठाया जा सकता था। इसीलिए चार बुर्ज बना दिए गए जिसपर से पाइंट बाँधकर छत्र बैठाया गया।
स्तूप के मध्य भाग में खोदते-खोदते बहुत नीचे वह कोठरी मिली जिसमें बुद्ध के पवित्र चिन्ह रखे गए थे। उस कोठरी के भीतर एक धातु का डिब्बा मिला जिसके भीतर वह स्फटिक की डिबिया मिली जिसमें बुद्ध का पवित्र चिन्ह रखा हुआ था। डिब्बा बेलन के आकार का है जिसकी ऊँचाई सात इंच और व्यास लगभग पाँच इंच है। डिब्बे का ढक्कन के सिरे पर कुछ उठा हुआ है। इस पर एक खिला हुआ कमल बना है जिस पर तीन मूर्तियाँ, बीच में भगवान बुद्ध की और उनके दोनों पार्श्व में माला लिए हुए हंसों की पंक्ति बनी है। डिब्बे के मध्य भाग के चारों ओर बुद्ध की आसीन मूर्तियाँ खंचित हैं और माला लिए हुए कामदेव बने हैं। बीच में महाराज कनिष्क का एक खड़ा चित्र भी है जो उन चित्रो से मेल खा जाता है जो इस राजा के सिक्कों पर पहले मिल चुके हैं। डिब्बे पर कुछ लेख भी हैं जो उस चित्र को कनिष्क का प्रमाणित करते हैं। ये लेख चार हैं और खरोष्ठी लिपि में लिखे हुए हैं। इनमें से एक में उस डिब्बे के बनाने वाले कारीगर का हस्ताक्षर है। यह अजिसिलस नामक किसी व्यक्ति का हस्ताक्षर है जो अपने को “निरीक्षक शिल्पकार” लिखता है। यह व्यक्ति यूनानी समझा गया है। एक बात तो इन वस्तुओं से निर्विवाद सिद्ध होती है कि गांधार की शिल्प विद्या कनिष्क से पहले ही उन्नति को पहुँची हुई थी।
डिबिया जो डिब्बे में है वह यथार्थ में स्फटिक का एक बड़ा खंड है जिसका एक सिरा खोदकर गहरा कर दिया गया है। इसमें तीन हड्डी के छोटे छोटे टुकड़े परस्पर दृढ़ता से बँधे हुए मिले हैं। इन हड्डीयों पर पहले एक मिट्टी की मुहर चढ़ी हुई थी जिसपर राजचिन्ह स्वरूप एक हाथी अंकित है। यह मुहर अब काल पाकर हड्डीयों के ऊपर से अलग हो गई है। कोठरी के पास ही कनिष्क का एक सिक्का भी मिला है। ये हड्डीयाँ गौतमबुद्ध की हैं यह बात हुएनसांग ने स्पष्ट लिखी है।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, सितम्बर, 1909 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]