महारोदन साकी (अज्ञात) / कथा संस्कृति / कमलेश्वर
साकी (हेक्टर ह्यू मूनरो - 1870-1916) अँग्रेजी के उन कथाकारों में से एक हैं, जिन्होंने कहानी को लोकप्रियता दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। अँग्रेजी मानसिकता को वह कितनी गहराई से पहचानता था, इसका एक उदाहरण है यह छोटी-सी कहानी।
बीसवीं सदी के दूसरे दशक की बात है, यानी तब की, जब प्लेग ने इंग्लैण्ड को तबाह कर दिया था, कि हरमन ‘क्रोधी’ - जिसे ‘बुद्धिमान’ भी कहा जाता है - ब्रिटेन की गद्दी पर बैठा। उस घातक बीमारी ने पूरे शाही खानदान का सफाया कर डाला था। इतना ही नहीं, उसकी कई पीढ़ियाँ एक साथ मिट गयी थीं। और अब हुआ यह कि सेक्से-ड्राशेन-वाशटेल्स्टीन का हरमन चौदहवाँ, जोकि उत्तराधिकारी के क्रम में तीसवाँ था, अचानक ही पूरे ब्रितानी साम्राज्य का स्वामी बन गया। वह राजनीति में अनपेक्षित रूप से ‘होने’वाली चीजों में से एक था - और वह पूरी सम्पूर्णता के साथ हुआ। कई दृष्टियों से वह किसी महत्त्वपूर्ण सिंहासन पर बैठने वाले राजाओं में सबसे ज्यादा प्रगतिवादी था : इससे पहले कि लोगों को पता चलता कि वे कहाँ हैं, वे कहीं और थे।
“सच तो यह है,” प्रधानमन्त्री ने स्वीकार किया, “कि ये महिलाओं के लिए मताधिकार माँगनेवाले जीव ही हमारी राह के रोड़े हैं। वे पूरे देश में हमारी सभाओं में खलल डालते हैं, और डाउनिंग स्ट्रीट को तो उन्होंने पिकनिक का स्थान ही बना डाला है!”
“तो उन्हें इसकी सजा मिलनी चाहिए!” हरमन ने कहा।
“सजा?” प्रधानमन्त्री ने कहा, “हाँ, मगर कैसे?”
“मैं आपके लिए एक बिल बनाऊँगा,” राजा ने कहा, और वह अपने टंकन-यन्त्र पर जा बैठा, “उसके अनुसार सभी औरतों को भविष्य में मतदान करना पड़ेगा। करना पड़ेगा - शब्दों पर ध्यान दीजिए। सीधे ढंग से कहें, तो मतदान करना अनिवार्य होगा। पुरुष मतदाताओं के लिए मतदान का अधिकार पहले की ही तरह ऐच्छिक रहेगा। लेकिन 21 और 70 के बीच की सभी औरतों के लिए मतदान अनिवार्य होगा -और वह भी संसद, काउण्टी विधान सभाओं, जिला मण्डलों, चर्च कौंसिलों और म्युनिसिपैलिटी के चुनावों के लिए ही नहीं, स्कूल-इंस्पेक्टरों, चर्च के वार्डनों, अजायबघरों के निदेशकों, सफाई अधिकारियों, पुलिस-अदालत के व्याख्यायकों, स्नान-तैराकी के शिक्षकों, ठेकेदारों, प्रार्थना-शिक्षकों, बाजार प्रबन्धकों, कलाविद्यालय के अध्यापकों, और अन्य स्थानीय अधिकारियों के चुनावों के लिए भी। इन सभी कार्यों के लिए भविष्य में चुनाव द्वारा व्यक्तियों का चयन हुआ करेगा, और यदि कोई महिला मतदाता अपने क्षेत्र के किसी चुनाव में मतदान नहीं करेगी, तो उस पर दस पौण्ड जुर्माना किया जाएगा। इस बिल को संसद के दोनों सदनों में पास करवाइए और परसों इसे मेरे दस्तखत के लिए मेरे पास ले आइए।”
अनिवार्य महिला मताधिकार से उन लोगों को भी कोई खुशी नहीं हुई, जो चिल्ला-चिल्लाकर आज तक इसकी माँग करते रहे थे। दरअसल ज्यादातर औरतें मताधिकार आन्दोलन के प्रति या तो उदासीन रही थीं, या उन्होंने उसका विरोध किया था, और अब तो चुनावों का कोई अन्त ही नजर नहीं आता था। धोबिनों और दर्जिनों को काम से भागना पड़ता, और वह भी किसी ऐसे आदमी को वोट देने के लिए, जिसका नाम उन्होंने जिन्दगी में कभी सुना ही न होता, महिला क्लर्कों और वेटरों को आदेश देकर अपने काम पर सही वक्त पर पहुँचने के लिए जल्दी ही से उठ जाना पड़ता। ‘सामाजिक’ महिलाओं के लिए चुनाव सरदर्द बन गये - उनके सभी कार्यक्रम ध्वस्त होकर रह गये।
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि ‘महिला मताधिकार वापस लो’ आन्दोलन काफी सशक्त सिद्ध हुआ। उनका समूह गान ‘हम मतदान नहीं कर सकते’ काफी लोकप्रिय हो गया। जब शान्तिमय आन्दोलनों से सरकार पर कोई असर पड़ता नजर नहीं आया, तो हिंसात्मक आन्दोलन होने लगे। सभाओं में खलल डाला गया, मन्त्रियों का घेराव किया गया, पुलिस पर हमले किये गये और जब ट्राफलगर का वार्षिक समारोह आया, तो औरतों ने अपने आपको एक-दूसरे से बाँधकर पूरे नेलसन कालम पर बिखेर दिया। परिणाम यह हुआ कि उसकी पारम्परिक पुष्प-सज्जा को छोड़ देना पड़ा।
फिर, आखिरी कदम के रूप में, किसी महिला को एक तरीका सूझ गया, और यह हैरानी की बात थी कि पहले इसकी तरफ किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। महारोदन का आयोजन किया गया। औरतों की दस-दस हजारों की टोलियाँ महानगर के सार्वजनिक स्थानों पर खड़ी होकर लगातार रोने लगीं। वे रेलवे स्टेशनों पर रोयीं, ट्यूबों और ओमनीबसों में रोयीं, नेशनल गैलरी में रोयीं, थल और जल सेना के स्टोरों में रोयीं, सेण्ट जेम्सेज पार्क में रोयीं, बैले-प्रदर्शनों में रोयीं, गलियों में रोयीं, बाजारों में रोयीं। ‘हैनरीज रैबिट’ नाम की एक कॉमेडी पिछले कई बरसों से अद्वितीय सफलता पा रही थी, पर अब थियेटर के एक भाग में, और गैलरी में भयंकर रूप से रोती हुई औरतों के कारण उसकी सफलता खतरे में पड़ गयी।
“अब हम क्या करें?” प्रधानमन्त्री ने पूछा, जिसकी महरी नाश्ते की सभी प्लेटों में आँसू गिरा चुकी थी और जिसकी सेविका रोते-सुबकते हुए, बच्चों को पार्क में घुमाने के लिए ले गयी थी।
“हर चीज का अपना वक्त होता है,” राजा ने कहा, “समर्पण का भी वक्त होता है। अब दोनों सदनों से एक नियम बनवा दीजिए और औरतों से मताधिकार छीन लीजिए। परसों इसे शाही स्वीकृति के लिए मेरे पास ले आइए।”
प्रधानमन्त्री के जाते ही, हरमन, ‘क्रोधी’, जिसे लोग बुद्धिमान भी कहते थे, बुरी तरह हँस दिया।
“बिल्ली को मारना ही है, तो क्रीम से उसका मुँह भर देने के अलावा भी कई रास्ते हैं।” वह बोला, “लेकिन मैं नहीं जानता,” उसने आगे जोड़ा, “कि इससे अच्छा भी कोई तरीका हो सकता है!”