महावटों की एक रात / अहमद अली

Gadya Kosh से
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ग ड़-गड़-गड़-ड़...इलाही खैर। मालूम होता है आसमान टूट पड़ेगा। कहीं छत तो नहीं गिर रही है? गड़-ड़-ड़

इसके साथ ही टूटे हुए किवाड़ों की झिर्रियां एक तड़पती हुई रौशनी से चमक उठीं। हवा के एक तेज झोंके ने सारी इमारत को हिला डाला। सू-सू-सू...ऊ...क्या सर्दी है। यख जमी जाती है, बर्फ जमी जाती है। कंपकंपी है कि सारे जिस्म को तोड़े डालती है। एक छोटा सा मकान चौबीस से चौबीस फिट और उसमें भी आधे से ज्यादा में संकरा दालान, पीछे एक पतला सा कमरा, नीचे और ज्यादा अंधेरा। कोई फर्श तक नहीं। कुछ फटे-पुराने बोरिए और टाट जमीन पर बिछे हैं, जो गर्द और सील से चिप-चिप कर रहे हैं। कोनों में छोटे बक्सों-बक्सियों और गूदड़ का ढेर है। एक अकेला लकड़ी का टूटा हुआ संदूक, उस पर भी मिट्टी के बर्तन, जो सालों-साल के इस्तेमाल से काले हो गए हैं और टूटते-टूटते आधे-पौने रह गए हैं। इनमें एक ताँबे की पतीली भी है, किनारे झड़ चुके हैं, सालों से कलई तक नहीं हुई, घिसते-घिसते पेंदा जवाब देने के करीब है। छत है कि कड़ियां रह गई हैं और उस पर बारिश अल्लाह-क्या महावटें (जाड़े की वर्षा) अबके ऐसी बरसेंगी कि गोया उनको फिर बरसना ही नहीं? अब तो रोक दो। कहां जाऊं? क्या करूं? इससे तो अच्छा मौत ही आ जाए। तूने गरीब ही क्यों बनाया? या अच्छे दिन ही न दिखाए होते। या यह हालत है लेटने को जगह नहीं। छत छलनी की तरह टपकी जाती है। बिल्ली के बच्चों की तरह सब कोने झाँक लिए। लेकिन चैन कहां? मेरा तो खैर कुछ नहीं, बच्चों निगोड़े मारों की मुसीबत है। न मालूम सो भी कैसे गए हैं। सर्दी है कि उफ़...बोटी-बोटी कांपी जाती है और उस पर एक लिहाफ़ और चार जानें। ऐ मेरे अल्लाह...जरा रहम कर।

या वो जमाना था कि महल थे, नौकर थे, फर्श और पलंग थे। आह वह मेरा कमरा, एक खपरखट सुनहरी, पर्दों से सजी-संवरी, मखमल की चादरें और सेंबल के तकिए। क्या नर्म-नर्म तोशक थी कि लेटे से नींद आ जाए। और लेहाफ़, आह...रेशमी छींट का और उसपर सच्चे ठप्पे की गोट। अन्नाएं, मामाएं खड़ी हैं, बीबी सर दबाऊं, बीबी पैर दबाऊं? कोई तेल डाल रही है, कोई हाथ मल रही है। गुदगुदा-गुदगुदा बिस्तर, ऊपर से सब चोंचले। नींद है कि सितारों का लिबास पहने सामने खड़ी है। सब्ज़ (हरे) शीशों पर नीले और सुर्ख और नारंगी अक्स, बड़े-बड़े हिश्त पहल जवाहरात के साबुत डले जगमग-जगमग कर रहे हैं...दस्तरख्वान पर चांदी की तश्तरियां, एक झिलमिलाहट। कोरमा, पुलाव, बिरयानी, मुतंजन, बाक़रखानियां, मीठे टुकड़े...एक बाग़ दरख्तों से घिरा हुआ जिनकी पत्तियों पर तारों की चमक शबनम में और रौशनी भर रही है। वाह-वाह क्या-क्या खुशनुमा फल हैं। आम, मुंहलाल कलेजा बाल मां का बग़द बच्चा, सेब कैसे खूबसूरत हैं, अंधेरे-अंधेरे दरख्‍तों पर सुर्ख और गुलाबी और पिस्ते लटके हुए हैं, डालियों समेत झुके हुए हैं। अरे, बेर तो देखो तो देखो कैसे मोटे-मोटे और लाल हैं। शेखूपुरे के से। एक नहर, अंधेरी रात में चांदी की चादर बिछी हुई है। शायद दूध है। कहीं जन्नत तो नहीं? एक कश्ती बड़ी शाइस्तगी से, बत्तखों की नज़ाकत से बहती हुई। जल्दी आओ, जल्दी बैठ जाओ, जन्नत की सैर कराएं। क्या बीवियां हैं, पाक साफ, बिल्लौर (एक सफेद पत्थर) जैसी गोरी? उजले बुर्राक कपड़े, नज़ाकत ऐसी जैसी हवा की। कश्ती, बढ़ते हुए चिराग़ की तरह पानी पर चल रही है। दोनों तरह खुले-खुले मैदान जो हरी-हरी दूब से ढके हुए हैं। बीच-बीच में फूलों के रंगीन तख्ते और फलों के दरख्त दिखाई देते हैं। जानवर चहचहा रहे हैं, और शोर मचा रहे हैं। तो क्या ये जन्नत है? क्या हम जन्नत में हैं? हां, 'बहिश्त', खुदा के नेक और प्यारे बन्दों की जगह। कश्ती कुछ छोटे सीप की मानिंद चमकदार और गुंबदों की तरह गोल मकानों के सामने से गुजरी। क्या खूबसूरती और क्या चमक? निगाह तक नहीं ठहरती। टपकते तो न होंगे? क्या इनमें मुझको भी जगह मिलेगी? खुदा के नेक और सच्चे बन्दों के लिए है, पाक बन्दों के लिए।

पेट में एक खुर्चन, कलेजे में एक खिंचाव, अंतड़ियां बल का रही हैं। ऐसा मालूम हुआ कि गोद में किसी ने कुछ रख दिया। यह एक मोती की तरह सफेद और सेब की तरह बड़ा फल था। डंडी में दो हरे-हरे पत्ते भी लगे हुए थे। ऐसा मालूम होता था कि डाल से अभी-अभी तोड़ा गया हो। आहा...क्या मज़ा है। काश कि और होते। गोद भरी हुई थी। कश्ती दो पहाड़ों के बीच से गुजर रही थी। एक मोड़ था। थोड़ी देर में जब मोड़ खत्म हुआ तो यकायक दूर एक ऊंचे पहाड़ से बिजली से ज्यादा तेज रौशनी की लपटें आग की तरह उठती हुई दिखाई देने लगीं। आंखें चकाचौंध होकर बन्द हो गईं। अंधेरा घुप था। एक शोर की आवाज़ गरज से भी ज्यादा तेज आने लगी। सूर (क़यामत की घोषणा का साइरन) फुंक रहा था। कान पड़ी आवाज़ सुनाई न देती थी। कश्ती वाली बीवियां इधर-उधर दौड़ रही थीं। इतने में फिर एक तेज रौशनी हुई। सूरज गिर रहा था। यकायक करीब से ही एक ऐसी आवाज आई, जैसे कोई ज्वालामुखी फट रहा हो। एक ज़लज़ला (भकम्प) आ गया। कश्ती लौट गई और सब दरिया में डूब रहे थे...

गड़-गड़, टप-टप की आवाज़ चारों तरफ से आ रही थी। अम्मां...अभी कानों में सनसनाहट बाकी थी। दिल गजों उछल रहा था। क्या है बेटा? क्या? डर लग रहा है। यह आवाज़ काहे की थी? कुछ नहीं बेटा गरज है। तीनों बच्चे चिमटे हुए एक कोने में पड़े हुए थे। टपका उनके लेहाफ़ तक पहुंच चुका था। मरियम की तरफ का कोना खूब भीग गया था। बेचारी ने उठ कर बच्चों को और परे सरकाया। अब वह बिल्कुल दीवार के बराबर पहुंच गए थे। या अल्लाह, अगर टपका यों ही बढ़ता रहा तो अबके भीगना ही पड़ेगा। अम्मां, सर्दी लग रही है। सिद्दीका उसके बराबर लेटी हुई थी। उसने चिपटा के लिटा लिया। रूई नहीं तो दुई ही सही। उधर दोनों लड़के चिमटे पड़े थे, लिपटे हुए, जैसे सांप दरख्त से लिपट जाता है।

या अल्लाह, रहम कर, खुदा गरीबों के साथ होता है, उनकी मदद करता है, उनकी आह सुन लेता है। क्या मैं गरीब नहीं? खुदा सुनता क्यों नहीं? है भी या नहीं? आखिर है क्या? जो कुछ भी है बड़ा जल्लाद है और फिर बड़ा बेइंसाफ है। कोई अमीर क्यों? कोई गरीब क्यों? उसकी हिक़मत है, अच्छी हिक़मत है, कोई जाड़े में ऐंठे, लेटने को पलंग तक न हो, ओढ़ने को कपड़े तक न हों। सर्दी खाए, बारिशें सहें, फाकें करें और मौत भी न आए। कोई है कि लाखों वाले हैं, हर किस्म का सामान है, किसी बात की तकलीफ नहीं। अगर वो थोड़ा-सा हमीं को दे दें तो उनका क्या जाएगा? ग़रीबों की जानें पल जाएंगी। लेकिन उनको क्या पड़ी। किसकी बकरी और कौन डाले घास। हमको बनाया किसने? अल्लाह ने? तो फिर हमारी परवाह क्यों नहीं करता है? किसलिए बनाया? रंज सहने और मुसीबत उठाने के लिए? अरे क्या इन्साफ है? वह क्यों अमीर है? हम क्यों नहीं? मरने के बाद इसका बदला मिलेगा, मौलवी तो यही कहते हैं। आखिरत किसकी? भाड़ में जाए यमलोक। तकलीफ़ तो अब है, ज़रूरत तो अभी है, बुखार तो इस वक्त चढ़ा हुआ है, और दवा दस बरस बाद मिलेगी? खुदा बचाए ऐसे आखिरत से। जब की जब भुगत लेते, अब तो कुछ हो, खुदा महज़ एक धोखा है। गुर्बत में गरीब रहने की तसल्ली, मासूसी में मायूस उम्मीद, मुसीबत में तकलीफ़ से संतुष्ट रहने का जरिया, खुदा सिर्फ धोखे की एक टट्टी। और मजहब कि वह भी वही दिखाता है, यही पढ़ाता है। फिर कहते हैं कि इल्म का खजाना है और फिर इफ्लास का बहाना है। बेवकूफों की अकल है। आगे बढ़ते हुओं, ऊपर चढ़ते हुओं की पीछे खींचता है। तरक्की के रास्ते में एक रुकावट है। गरीब रहो, गुर्बत ही में खुदा मिलता है। हमने तो पाया नहीं। अमीरों से क्यों नहीं रुपया दिलवा देता? दौलत का क्या होगा? सिर्फ उतना ही चाहिए कि वक्त बसर हो जाए। आखिर अमीर ही दौलत का क्या करते हैं? तहखानों में प़ड़ी जंग खाती रहती है। किसी खर्च का भी ठीक नहीं। जो है, बेतुकेपन से उठता है, लुटता है। सरकार ही कुछ क्यों नहीं करती? और नहीं तो सबको बराबर रुपया दिलवा दे और अगर इतना नहीं तो हमको सिर्फ आधा ही मिल जाए। लेकिन सरकार की जूती को क्या गरज पड़ी है कि अपनी जान को हलकान करे। उसके तो खजाने पूरे हैं। बैठे-बिठाए रुपया मिल जाता है। उसको क्या? मौत तो हमारी है। जब पड़े तो जाने, ऊंट जब पहाड़ के नीचे आता है तो बिलबिलाता है। अभी तो...

अम्मां...हाँ बेटा क्या है? अम्मां भूख लगी है, भूख? मरियम के जिस्म में सनसनी दौड़ गई। या इलाही, क्या करूं? ओह, बेचारे बच्चे। मियां यह भी कोई भूख का वक्त है? भूख न हो गई, दीवानी हो गई। सो जा, सुबह हो तो खाना। नहीं अम्मां, मैं अभी खाऊंगा, बड़े जोर की भूख लगी है। नहीं बेटा, यह कोई वक्त नहीं, लेट जाओ। वह देखो कड़क हुई। बच्चा बेचारा कड़क की आवाज सुनते ही सहम कर लेट गया। कहां से लाऊं? क्या करूं? बारिश ने तो दिन भर निकलने भी न दिया कि किसी के यहां जाती और थोड़ा-बहुत जो कुछ भी मिलता लाकर सीती। बेचारी फ़य्याज़ बेगम के यहां भी जाना नहीं हुआ, वही बेचारी बचा-खुचा जो कुछ होता है, बराबर दे देती हैं। अब जो अगर कल भी कहीं से काम न मिला तो क्या होगा? आखिर कहां तक मांग-मांग कर लाऊं। देते-देते भी लोग उकता जाते होंगे।

अम्मां, भूख लगी है, देखो तो पेट खाली पड़ा है। कल दिन से कुछ नहीं खाया। नींद बिल्कुल नहीं आती। कलेजा मुंह को आ रहा था। बेचारी आखिर को उठी और दिए की मद्धिम रौशनी में टटोलती हुई सन्दूक की तरफ गई कि अगर कुछ मिल जाए तो बच्चे को दें। आखिर तो सिर्फ पांच बरस की जान है। काश, मैंने इन बच्चों को जना ही न होता। मैं तो मर-गिर काट ही लेती। लेकिन उनकी तकलीफ तो देखी नहीं जाती। एक सूखी रोटी एक हड़िया में पड़ी पा गई, उसको तोड़कर पानी में भिगोया और बच्चे की सामने ला रखी। पेट बड़ी बुरी बला है। बेचारा कुत्ते की तरह चिमट गया। थोड़ी खाने के बाद बोला, अम्मां जरा गुड़ हो तो दे दो। मरियम भी खड़ी हो गई कि शायद गुड़ की डली भी मिल जाए। इत्तफाक से एक छोटी से डली पा गई। बच्चे ने जो हो सका, खाया। दो-चार निवाले जो बचे थे, मरियम अपने को रोक न सकी, और थोड़ा-थोड़ करके खा गई...

कड़क और चमक रुक चुकी थी। बारिश भी कम हो गई थी, फिर सिद्दीका से चिमट कर लेट गई और अकेली थी। आह...काश कि वह होते, आह...वह होते। वह, वह, वह...रात को आते। कुछ न कुछ लिए चले आते हैं, क्या लाए हो? हलवा सोहन है। वही निगोड़ा पपड़ी का होगा। तुम जानते हो कि मुझे हब्शी पसंद है। लो फिर चीखने लगी, देखा तो होता। आह, वह झगड़े और मिलाप। सावन और भादों के मिलाप। क्या दिन थे? अब तो एक ख्वाब है। फिर चांदनी रातों में फूल वालों की सैर। आह...वह सेजें। क्या महक थी...दिमाग फटा जाता था। और अब तो बासी फूल भी नहीं। ऐ काश, वह होते। वो टांगें, हरा-भरा दरख्त, गोश्त, हड्डी और गूदे का। उसका रस खून से ज्यादा गर्म और उसकी खाल गोश्त से ज्यादा नर्म। एक तना हल्का और मजबूत दो डालें। दो डालें और एक तना। एक-दूसरे में पैबन्द, एक-दूसरे में चिमटी हुई, एक-दूसरे में एक दूसरे की रूह, जुड़ी हुई, बल खाई हुई। एक दूसरे की जान और एक दूसरे में, एक तीसरी रूह की उम्मीद, एक पूरी ज़िन्दगी का खजाना, एक लम्हे का सरमाया (सम्पत्ति) परनेस्ती (विनाश) में हस्ती की ताकत। आह...वो टांगें...दो नाग बल खाए हुए, ओस से भीगी घास में मस्त पड़े हैं। एक सुई के छेद में तागा और उंगलियां, तेज़-तेज़ चलती हुई, सपाटे भरती हुई, नर्म-नर्म रोएंदार मखमल पर गुलकारियां करती हुईं। एक मकड़ी अपनी जगह स्थिर जाला बुन रही है, ऊपर-नीचे हिल रही है, कुछ खबर नहीं कि मक्खी जाल में फंस चुकी है और लाआब है कि तार बना जाता है। जाल बना जाता है। एक डोल कुएं की गहराई में लटका हुआ उसकी मुलायम रेत की गर्मी महसूस कर रहा है। पानी की सतह पर छोटे-छोटे दायरे, बढ़ते-बढ़ते सारे में फैल गए, दीवारों से टकराने लगे, बाहर जाने लगे, एक सनसनी और हरारत सारे में फैला रहे हैं। दो जुड़वा दरख्त, एक पीपल और एक आम, एक ही जड़ में उगे हुए, एक ही तने से पैदा, एक ही ज़िन्दगी के हमराज थे कि उग रहे थे एक दूसरे का सहारा, एक दूसरे की तसल्ली, एक ही हवा में सांस लेते, एक ही सूत के पानी में जीते थे। आह...वह जिस्म, और अब तो पीपल को बिजली ने जला डाला। जड़ से मसल डाला। मगर आम है कि किस्मत का मारा अभी तक खड़ा है। काश...उस पर भी बिजली गिरी होती...लुंजा अकेला मुरझाया हुआ। चिथड़ी की जान अभी तक ठोकरें खाने को जिन्दा है। अगर वह होते...

लेहाफ़ में एक हरकत, सिद्दीका ने करवट ली। आह...ज़माना किसके बहलावे में नहीं आता, किसके फुसलावे में नहीं आता और मैं एक अकेली हूं, आह...मैं अकेली हूं। इससे तो ज़िन्दगी का लुत्फ़ देखा ही न होता तो आज यह तन्हाई महसूस नहीं होती। मेरे दिल में कोई जगह खाली न होती, मोहब्बत की जगह। उम्मीद भी क्या झूले झुलाती है। कभी पास आती है, कभी दूर जाती है। लेकिन उम्मीद काहे की। अब तो एक मायूसी है, सारे में फैली हुई है। बादलों की तरह उमड़ी हुई है। वह सूत की रस्सी का झूला, चार हमजोलियां, पटरे एक-एक, किनारे पर दो-दो, और पैंगे हैं कि दरख्त को हिलाए डालते हैं, घनघोर घटाओं में घुस आते हैं। झूला किन ने डाला रे आमोरियां...वह अनवर और किश्वर, बस इतने ही पेंग ले सकती हो? देखो मैं और कुबरा कितनी बढ़ाते हैं...चक्कर न आ जाए जभी कहना...फिर एक हंसी का शोर और कहकहों की आवाज़...अब तो ज़िन्दगी एक हव्वा है। बागेइरम (जन्नत) और सूरों की अटखेलियां, फूलों के हार और ओस की झूमर ने वह बेर डाली, कहां मेरा आशियाना? फिर एक तपती हुई चट्टान, बंजर और उसके पहलू से ज़िन्दगी, लेकिन फिर एक नई हस्ती, फिर एक नई आन, मन व सलवा के मजे़। दूध की मीठी नहरों में नहाना और उनमें खेलना। फिर दिन ईद, रात शबेरात। लेकिन आह...ज़माने की एक करवट-इब्लीस, अरे-आदम--न फिर तकलीफ़, मुसीबत, मलामत, बलाएं। फिर वही खुशी और खुर्मी। एक क़यामत बर्पा है। नफ़सी-नफ़सी का आलम, इसराफ़ील (क़यामत के उद्घोषक) का शोर, दज्जाल (इस्लामी मान्यता के अनुसार क़यामत से पहले खुद को खुदा घोषित करके लोगों को बहकाने वाला) है कि सबको फुसला रहा है। मैं तो उसी के पास जाऊंगी। उम्मीद तो है। आह...यह तन्हाई कोई सर पर हाथ रखने वाला भी नहीं। न तसल्ली, न तशफ्फी, न दिलासा। तन्हाई-तन्हाई। रात अंधेरी और भयानक रात। अरे, ला दो कोई जंगल मुझे...जंगल मुझे...बाज...या...बाजार भोऊ...ओझ....रात।