महावीर प्रसाद द्विवेदी / परिचय
1864 में दौलतपुर, रायबरेली, उत्तरप्रदेश में जन्मे महावीर प्रसाद द्विवेदी एक ऐसे साहित्यकार थे, जो बहुभाषाविद् होने के साथ ही साहित्य के इतर विषयों में भी समान रूचि रखते थे। उन्होंने ‘सरस्वती’ का अठारह वर्षों तक संपादन कर हिन्दी पत्रकारिता में एक महान् कीर्तिमान स्थापित किया था। वे हिन्दी के पहले व्यवस्थित समालोचक थे, जिन्होंने समालोचना की कई पुस्तकें लिखी थीं। वे खड़ी बोली हिन्दी की कविता के प्रारंभिक और महत्त्वपूर्ण कवि थे। आधुनिक हिन्दी कहानी उन्हीं के प्रयत्नों से एक साहित्यिक विधा के रूप में मान्यता प्राप्त कर सकी थी। वे भाषाशास्त्री थे, अनुवादक थे, वैय्याकरणिक थे, इतिहासज्ञ थे, अर्थशास्त्री थे तथा विज्ञान में भी गहरी रूचि रखने वाले थे। अन्ततः वे युगान्तर लाने वाले साहित्यकार थे या दूसरे शब्दों में कहें, युग निर्माता थे। वे अपने चिंतन और लेखन के द्वारा हिन्दी प्रदेश में नव जागरण पैदा करने वाले साहित्यकार थे।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैट्रिक तक की पढ़ाई की थी। तत्पश्चात् वे रेलवे में नौकरी करने लगे थे। उसी समय इन्होंने अपने लिए चार सिद्धांत निश्चित किये - वक्त की पाबंदी करना, रिश्वत न लेना, अपना काम ईमानदारी से करना और ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना। द्विवेदीजी ने लिखा है - “पहले तीन सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था; पर औथे के अनुकूल सचेत रहना कठिन था। तथापि सतत् अभ्यास से उसमें भी सफलता होती गई। तारबाबू होकर भी, टिकट बाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, यहाँ तक कि रेल पटरियाँ बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी करने वाले प्लेट-लेयर तक का भी काम मैंने सीख लिया। फल अच्छा ही हुआ। अफसरों की नजर मुझ पर पड़ी। मेरी तरक्की होती गई। वह इस तरह कि एक दफे छोड़कर मुझे तरक्की के लिए दरख्वास्त नहीं देनी पड़ी।“ द्विवेदी जी 15 रु॰ मासिक पर रेलवे में बहाल हुए थे और जब उन्होंने 1904 ई॰ में नौकरी छोड़ी उस वक्त उन्हें 150 रु॰ मूल वेतन एवं 50 रु॰ भत्ता मिलता था, यानी कुल 200 रु॰। उस जमाने में यह एक बहुत बड़ी राशि थी। वे 18 वर्ष की उम्र में रेलवे में बहाल हुए थे। उनका जन्म 6 मई, 1864 ई॰ में हुआ था और 1882 ई॰ से उन्होंने नौकरी प्रारम्भ की थी। नौकरी करते हुए वे अजमेर, बम्बई, नागपुर, होशंगाबाद, इटारसी, जबलपुर एवं झाँसी शहरों में रहे। इसी दौरान उन्होंने संस्कृत एवं ब्रजभाषा पर अधिकार प्राप्त करते हुए पिंगल अर्थात् छंदशास्त्र का अम्यास किया। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 1885 ई॰ में ‘श्रीमहिम्नस्तोत्र’ की रचना की, जो पुष्पदंत के संस्कृत काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपांतर है। इसका प्रकाशन 1889 में हुआ। 1889 से 1892 ई॰ तक द्विवेदी जी की इस प्रकार की कई पुस्तकें प्रकाशित हुई - विनय-विनोद, विहार-वाटिका, स्नेहमाला, ऋतु तरंगिनी, देवी स्तुति शतक, श्री गंगालहरी आदि। 1896 ई॰ में इन्होंने लाॅर्ड बेकन के निबन्धों का हिन्दी में भावार्थमूलक रूपान्तर किया, जो ‘बेकन-विचार-रत्नावली’ पुस्तक में संकलित हैं। 1898 ई॰ में इन्होंने ‘हिन्दी कालिदास की आलोचना’ लिखी, जो हिन्दी की पहली आलोचनात्मक पुस्तक है। 1899 ई॰ में श्रीहर्ष के नैषधीयचरितम पर इन्होंने ‘नैषष-चरित-चर्चा’ नामक आलोचनात्मक एवं गवेषणात्मक पुस्तक लिखी। यह सिलसिला जो शुरू हुआ, वह 1930-31 ई॰ तक चला और द्विवेदी जी की कुल पचासी पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
जनवरी, 1903 ई॰ से दिसम्बर, 1920 ई॰ तक इन्होंने ‘सरस्वती’ नामक मासिक पत्रिका का सम्पादन कर एक कीर्तिमान स्थापित किया था, इसीलिए इस काल को हिन्दी साहित्येतिहास में ‘द्विवेदी-युग’ के नाम से जाना जाता है। अपने प्रकाण्ड पांडित्य के कारण इन्हें ‘आचार्य’ कहा जाने लगा।
सन् 1933 ई॰ में आचार्य द्विवेदी को नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया गया। इसकी प्रस्तावना श्यामसुन्दर दास एवं राय कृष्णदास के नाम से प्रकाशित हुई, किन्तु यह लिखा गया था नन्ददुलारे वाजपेयी के द्वारा। इसलिए यह 1940 ई॰ में प्रकाशित वाजपेयी जी की पुस्तक ‘हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी’ में संकलित है।
1952 ई॰ में हजारीप्रसाद द्विवेदी की ‘हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’ नामक पुस्तक छपी।
अपका निधन 21 दिसम्बर 1938 को हुआ।