महिमा मण्डित / सुषमा मुनीन्द्र
इस पांच सात हजार की आबादी वाले नितान्त अविकसितगाँव में वैसे तो प्रगति के नाम पर विद्युत के अतिरिक्त नल, पक्की सडक़, चिकित्सालय का अभाव है पर गाँवचर्चित है, प्रतापी है। इस गाँव का भूगोल धार्मिक है, मिट्टी विभूति है, निवासी पुण्यात्मा हैं, विचारधारा धार्मिक है।निष्कर्ष यह अवतारों, चमत्कारों का गाँव है। पहले-पहल येगाँव तब चर्चित हुआ था जब वर्षों पहले एक ब्राह्मण परिवार की बहू सती हुई थी। गाँव श्रध्दालुओं का कुंभ हो गया था और चढोत्री से सती का चौरा और ब्राह्मण परिवार का पक्का मकान बन गया था जो कि आज भी गाँव के दो चार अच्छे मकानों में गिना जाता है। फिर गाँव तब चर्चित हुआ था जब राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद संघर्ष में यहाँके समूह भर पुरुषों ने शिरकत की थी। उनमें से कुछ साबुत लौटे थे, कुछ घायल और कुछ स्वर्गारूढ हुए थे।मंदिर निर्माण के लिये राम नाम की र्इंट लेकर कपाल में भगवा पट्टी बाँधे रामनामी ओढे हुए जय श्रीराम का जयघोष करते ट्रक भर लोग अयोध्या पहूँचे थे। इसी गाँवकी आदिवासी स्त्री पर जब देवी आती है तो वह घर के बाहर चबूतरे पर बैठ कर झूमने लगती है। पुराने दमा के रोगी की भाँति तेज तेज हफरने लगती है। शत्रुओं का नाश-निरबंस मनाती है और सास ननद को खूब गालियाँ देती है। उस स्त्री को देखने सारा गाँव काम-काज छोडक़र दौड पडता है। इस गांव के लोग धर्म-कर्म में बहुत आस्था रखते हैं। यहाँ के अधिकतर बूढे चारों धाम की यात्रा कराने वाली बस में बैठकर चारों धाम के दर्शन करके लोक-परलोक सुधार चुके हैं।
यह गाँव एक बार फिर चर्चा में है। इस शस्यश्यामला,पतित-पावनी भूमि में साक्षात दुर्गा मैया अवतरित हुई हैं।
गांव की रौनक देखते ही बनती है। पितृ पक्ष बीत चुका है और नवरात्रि की धूम है। घर घर कीर्तन, भजन, जागरण,पूजन, हवन-आरती हो रही है। गाँव की कच्ची खडंज़ा वाली सडक़ में गाडियों की आवा-जाही लगी हुई है और गाडियों के पीछे गांव के रूखे बालों वाले बच्चे पी-पी करते हुए दौड रहे हैं।
देवी ने अवतार का समय नवरात्रि को चुना है। गांव की एकमात्र पाठशाला के गुरुजी तीरथ प्रसाद पयासी की द्वितीय कन्या सोलह वर्षीया वीणा को देवी ने अपना वास बनाया है। भक्ति भाव में डूबे लोग चकित हैं कि देवी इस गांव में सोलह वर्षों से रह रही हैं और वे जान तक नहीं पाये हैं। वीणा को ऐसी मंद बुध्दि लडक़ी समझते रहे जिसका न पढने में मन लगता है न घर-गृहस्थी के काम में। गुरुजी तीरथ प्रसाद पयासी हाथ जोड विनय भाव से सबको समझाने में लगे हैं -
“अवतार इसी तरह चुपचाप पडे रहते हैं और उपयुक्त समय आने पर अपनी पहचान प्रकट करते हैं। रामचन्द्र जी को आठ लोग ही जान पाये थे कि वे परम ब्रह्म का अवतार हैं बाकि तो उन्हें प्रतापी राजा ही समझते रहे। मैं ही कहाँ समझ पाया एक अलौकिक कन्या मुझ गरीब,दालिद्रय के घर जन्मी है। वीणा आरम्भ से ही कुछ भिन्न चेष्टाएं किया करती थी ये आप लोग जानते ही हैं। कभी बिना बात के हँसती थी, कभी रोने लगती थी, कभी मौन हो जाती थी जैसे ध्यान लागये बैठी हो। वास्तव में तो वह इस नश्वर संसार में रहती हुई भी सांसारिक नहीं थी और हम लोग उसे मंद बुध्दि समझते रहे। उसकी क्षमता,शक्ति, प्रभाव को उसकी मानसिक कमजोरी मानते रहे। भगवती हमें क्षमा करेंगी।”
वीणा की माँ सिया पति का अनुमोदन करती -
“वीणा में भगवती का वास है इसीलिये इसका सांसारिक कामों में चित्त नहीं लगता था। बस वही अपने आजा की जाने कब की रखी कल्याण और अखण्ड ज्योति लिये बैठी रहती थी और जोर जोर से बांचा करती थी। जय हो तुम्हारी मां अम्बे। और हम इस अलौकिक कन्या को विवाह के बन्धन में बांधने चले थे। जगत्जननी का पाणिग्रहण संस्कार...त्रुटि क्षमा करना माँ भगवती! ”
तीरथ प्रसाद अत्यंत विव्हल हो देवी के समक्ष नतमस्तक हो जाते हैं। इस समय आपका ॠषि दुर्वासा सा क्रोधी स्वभाव कहीं विलोप हो गया है। अन्यथा छात्रों के कान उमेठे बिना, मेंहदी की सांटी, जिसे आप विद्या वर्धनी कहते हैं; छात्रों की थरथराती हथेली में मारे बिना आपका अध्यापन कार्य पूरा नहीं होता। अडोस-पडोस में कोई नहीं बचा जिसे अपशब्दों से सम्मानित न किया हो। अब तो आप पूरे विनयशील बने हुए हैं। जगतजननी के जनक जो ठहरे।
तीरथ प्रसाद को वीणा के विवाह की चिन्ता दीमक की तरह चाट रही थी। आर्थिक दशा कमजोर और चार पुत्रियों का ॠण! बडी पुत्री करुणा के किसी प्रकार हाथ पीले कर गंगा नहा सके हैं। ससुराल से आकर करुणा बडे क़रुण भाव से सुना जाती है उसे कम दहेज लाने के कारण ससुराल में प्रताडित किया जाता है। पुत्री का विलाप देख सिया टप-टप आंसू ढारने लगती और वे मौन साध लम्बी लम्बी सांसे भरने लगते। करुणा की यह दशा तो वीणा का क्या होगा जो कि करुणा जैसी रूपवती, कलावती, गुणवती नहीं बल्कि मंदबुध्दि है। सिया जब-तब गुहार मचा मचा कर उनकी चिंता बढाती -
“सुनते हो कि कान में तेल डाल कर बैठ गये हो। इस वीणा को कहीं ठिकाने लगाओ, लडक़ी का रिन मूड में रखोगे तो रौरव नरक में पडोगे। ”
सुन कर कल्याण के मोटे वार्षिक अंक के चित्र देखती वीणा तुनक जाती - ”अम्मा हमें विवाह नहीं करना है, ससुराल में करुणा जिज्जी की तरह पिटना नहीं है।”
सिया दांत पीस कर वीणा की दोनों चोटियाँ पकड क़र उसे झकझोर डालती। ”विवाह नहीं करोगी तो क्या जनम भर हमारी छाती पर पीपल की तरह जमी रहेगी। न जाने किसका करम फोडेग़ी ललई! ”
वीणा चीख मारकर रोने लगती और छोटी अरुर्णा-वरुणा सिटपिटा जातीं। सिया का प्रलाप देर तक चलता। वीणा जब रो-गाकर शांत हो जाती तो फिर से कल्याण में छपे चित्र देखने लगती। रौरव नरक के चित्र - किसी चित्र में पापियों को मोटे रस्से से बांधकर घसीटा जा रहा है, किसी में कोडों से पीटा जा रहा है, उबलते तेल के कडाहे में डाला जा रहा है, कहीं आग में जलाया जा रहा है। कुम्भी पाक नरक के भयावह दृश्य देख वीणा कांप उठती। यदि उसका विवाह न हुआ तो क्या बाबू इसी रौरव नरक में जा पडेंग़े?वह तीरथ प्रसाद के कंधे हिला कर कहती -
“बाबू जल्दी हमारा बियाह कर दो। फिर तुम नरक में नहीं पडोगे।”
तीरथ प्रसाद को समझ में न आता अपनी इस भोली पुत्री की निर्दोष चेष्टाओं पर रोयें या हंसे? तीरथ प्रसाद की चिंता बढती गई। गांव में सोलह वर्ष की लडक़ी सयानी कहलाती है जो विवाह की उम्र पार कर चुकी होती है। कई जगह गये, पर बात नहीं बनी। तभी किसी से सुझाव दिया कि -
“जरियारी गांव में चम्पा नाम की एक स्त्री में संतोषी माता का वास है। वीणा को दरसन करा लाओ। इनके आर्शीवाद से बिगडी बात बन जाती है। दूर दूर से लोग दरसन को पहुँचते हैं। नेता-मंत्री, अफसर, व्यापारी सभी जाते हैं। सुना है संतोषी माता सांसारिक-प्राकृतिक सब प्रवृत्तियों से मुक्त हैं। युवा है फिर भी रजस्वला नहीं होतीं। शुक्रवार को चले जाओ। मेला भरता है।”
संतोषी माता के दर्शन से लौटे तीरथ प्रसाद, देवी के प्रभामण्डल से चमत्कृत थे। घर से लगी बाडी में लगे झूले में बैठी आनंदीभाव से झूला झूलती, केसरिया साडी में सुशोभित मुक्त केशिनी देवी के प्रभाव, चमत्कार, सुकीर्ति,चमक-दमक, दानपेटी में सरकते कडक़ नोट, खनखनाते कलदार, सोना-चांदी, फल-मिष्ठान्न। भक्तों की अंधश्रध्दा ने उन्हें विचलित कर दिया, चित्त अशांत हो गया। कितना अच्छा होता जो उनके घर भी एक ऐसी चमत्कारी पुत्री जन्म लेती। वे सोच विचार में डूबे रहे। जेहन में भावी योजना का प्रारूप तैयार होता रहा, सिया के साथ खूब विचार विमर्श किया। यह विचार विमर्श तमाम सतर्कता के बावजूद पैतृक घर की विभाजित दीवार के उस ओर रह रहे अनुज सिध्दमणि के संवेदनशील कानों तक पहुँच गया।
“खेत पात के बंटवारे में तुमने मुझे ठगा अब धर्म के नाम पर गांव वालों को ठगो।
बाज आओ दादाभाई।”
“चुप रहो। तुम जैसे विभीषण घर में हों तो आदमी कभी सफल नहीं हो सकता।”
तीरथ प्रसाद भाई की बातों को अनदेखा कर वीणा को दुर्गापाठ करने के लिये उत्प्रेरित करने लगे। सुनकर वीणा हाथ पैर पटकने लगती, सिर के बाल नोचने लगती और सिया उसकी चोटी पकड क़र झकझोर डालती।
योजना के अन्तर्गत तीरथ प्रसाद अडोस-पडोस में सुनाने लगे -
“ये कैसी अलौकिक कन्या जन्मी है मुझ निर्धन के यहाँ। कहती है उसे देवी दुर्गा ने स्वप्न में आदेश दिया है कि वे कुछ दिन उसकी देह में निवास करेंगी। धर्म की स्थापना करेंगी। पापियों का नाश करेंगी। लोगों का धर्म से विश्वास उठ रहा है जबकि धर्म ही भवबंधन से मुक्ति दिला सकता है। दिन भर रटती है। मैं दुर्गा हूँ मेरी पूजा करो, मुझमें दुर्गा का वास है, दुर्गा की अराधना करो। दिन में चार बार स्नान करती है, देवी का पाठ करती है, अलोन (बिना नमक का) भोजन करती है। ”
अवतारों और चमत्कारों की चर्चा तो क्षणों में हमारे पूरे देश में व्याप जाती है फ़िर चाहे गणेश जी की मूर्ति द्वारा दूध पीने की घटना हो या चकौडे क़े पत्तों पर नाग-नागिन बनने की या पुट्टापर्थी के साईं बाबा की तसवीर से भभूत निकलने की। इस पांच सात हजार की विरल आबादी वाले छोटे से अविकसित गांव में वीणा की चर्चा घर घर व्याप गई। मंद बुध्दि वाली वीणा श्रध्देय हो गई। तीरथ प्रसाद की माटी की भित्तियों और खपरैल की छत वाला घर महिमा मण्डित हो गया। श्रध्दा और भक्ति में ऊब-डूब होते स्त्री-पुरुष-बच्चे वीणा को देखने दौड पडे। वीणा के घर के आगे के कमरे, जिसे बैठक के रूप में प्रयोग किया जाता है; में गोबर लीपी भूमि में बैठकी बिछाए नेत्र मूंदे पद्मासन लगा ध्यान में लीन बैठी थी। दर्शनार्थियों को उपस्थित जान अथरों में बुदबुदाने लगती -
“मैं दुर्गा हूँ, मेरी पूजा करो, मुझमें दुर्गा का वास है, दुर्गा की अराधना करो।
ॐ भूभूर्व:स्व: कूष्माण्डे, इहागच्छं इहतिष्ठं।
कूष्माण्डेयै नम: कूष्माण्डाम आवातयामि स्थापयामि नम:।”
श्लोक सुनकर लोग चकित रह गए। जिस मंद बुध्दि लडक़ी को - चाह नहीं में सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं.. के अतिरिक्त कोई पाठ याद नहीं हुआ उसे पण्डितों-आचार्यों-शास्त्रियों द्वारा कहे जाने वाले श्लोक कण्ठस्थ हैं। उच्चारण ऐसा शुध्द, जैसे जन्म से संस्कृत जानती हो। और चेहरे की गंभीरता, तेज, दीप्ति पर तो आंखे नहीं ठहरतीं। रातों रात कायाकल्प! सब भगवती की कृपा है। लोग श्रध्दानत हो गए। लोगों की श्रध्दा में वृध्दि करते हुए तीरथ प्रसाद हाथ जोड श्लोक का अर्थ कहने लगे -
“हे ब्रह्म स्वरूपा कूष्माण्डा देवी आप यहाँ आवें, पधारें। हे कूष्माण्डा देवी आपको मेरा नमस्कार है। मैं कूष्माण्डा देवी का आह्वान करता हूँ। मैं कूष्माण्डा देवी की स्थापना करताहूँ।”
“बन्धुजन कूष्माण्डा भूरे कुम्हडे क़ो कहते हैं।यह ऊपर से कठोर अन्दर से अत्यन्त कोमल श्वेत हृदय वाला होता है।भक्तों के लिये माता का हृदय कूष्माण्डा नवनीत जैसा कोमल दया से भरा होता है।”
लोग बिल्कुल ही साष्टांग हो गये। जन्म सफल हुआ! एक बार फिर सिध्द हो गया कि यह पुण्यात्माओं का गांव है! अवतारों-चमत्कारों की धरती है। और फिर पितृपक्ष के समापन पर पुरखों को विदा कर नवरात्रि की पहली भोर में लोगों ने जो कुछ देखा वह अलौकिक था। स्त्रियाँ सूर्योदय के पहले नहा धो कर, गीले केश और नंगे पैर लिये सती-चौरा और तालाब की मेड पर बने देवी के मंदिर में जल चढाने निकलीं तो वीणा, जो अब देवी के नाम से जानी जाती है; को तीरथ प्रसाद के घर के निकट लगे विशाल पाकर के वृक्ष, जिसकी जडों के पास किसी ने छोटे आकार की शिला पर गोल पत्थर रख पत्थर को शिव और वृक्ष को पवित्र बना दिया है; के नीचे पद्मासन लगाए, नेत्र मूंदे तपस्या करते पाया। देह में भगवा वस्त्र, चेहरा प्रशान्त,ललाट में पीला चंदन, केश खुले हुए, कण्ठ में तुलसी की गुरियों की माला! स्त्रियों ने काल्पनिक क्षमता से देवी के शीश के पीछे ज्योर्तिवलय भी देख लिया। अलौकिक रूप! अप्रतिम! अद्भुत! ललाईन की बाडी से कुत्ते के पिल्ले चुराने वाली, खेतों की मेड पर सरपट दौडने वाली ये लडक़ी कैसी धीर-गंभीर हो गयी है। सब देवी की महिमा है। इस वर्ष नवरात्र सफल हो गया।
स्त्रियाँ सुख-सुहाग-समृध्दि-शांति बने रहने की कामना लिये देवी के चरणों में लोट गईं।
इस धर्म निरपेक्ष देश में धर्म से अधिक प्रभावी कुछ और नहीं। यहाँ नदियों में पाप धोए जाते हैं और पाषाण पूजे जाते हैं। फिर वीणा तो जीती जागती साक्षात भगवती है।पूरे गांव में व्यस्तता का वातावरण बन गया लोग आकर रूपया पैसा चढाने लगे। तीरथ प्रसाद ने हाथ जोडे -
“देवी को आप लोगों के दो पुष्पों की चाह है, रूपयों पैसों से उनका कोई प्रयोजन नहीं। इस चढावे से उनकी तपस्या में व्यवधान पहुंचेगा।”
पर भक्ति भावना जोर मारे तो लोग रोके नहीं रुकते।सार्मथ्य भर चढावा चढाते रहे। सरपंच ने उद्धोषणा की -
“धन्य भाग हमारे जो इस तुच्छ, पापी गांव में देवी की कृपा हुई। हम सब धन संग्रह कर देवी का एक मंदिर बनाएंगे। झब तक मंदिर की व्यवस्था नहीं होती तब तक पयासी जी आप देवी की तपस्या की व्यवस्था घर में करें। इस तरह घाम में, खुले आसमान के नीचे, चिडिया-चुरूगन की चहचहाहट से देवी का ध्यान भंग हो सकता है।
“जैसी आप भक्तों की इच्छा। तीरथ प्रसाद पूर्ववत नमन की मुद्रा बनाए रहे।”
तीरथ प्रसाद ने अपने घर की बैठक को आनन-फानन में मंदिर का रूप दे दिया। पूरब की ओर दीवार में दो रेशमी साडियों के चुन्नटदार परदे टांग दिये। तीन ओर देवी देवताओं की तसवीरें लटका दीं। पर्दे के पास देवी के बैठने हेतु तोषक, चादर रख कर आसन बना दिया गया। दानपेटी रख दी गई। कांसे की थाली में लाइ, बताशे, नारियल,मखाने, तुलसी दल का प्रसाद रख दिया गया। धूप-दीप,नैवेद्य, आरती, शंख ध्वनि!
घर को मंदिर बनाने में जो संसाधन चाहिये वही सब जुटा लिये गए। टयूबलाईट लगा दी गई। चालीस वाट के बल्ब के बीमार-पीत प्रकाश में कभी अलसायी लगने वाली बैठक,भक्तों की जयकारों से जी उठी। मुक्त केशनी देवी पैरों में हल्दी और महावर रचाए, पीली धवल साडी पहने, ललाट में केसरिया सिन्दूर, शीश में छोटा सा मुकुट लगाए, गेंदे के पुष्पों और तुलसी की माला पहने आसन में विराजमान हो गयीं। तीरथ प्रसाद ने सस्वर स्तुति की -
“ज्वाला कराल मृत्युग्रम शेषासुर सूदनम्
त्रिशूलं पातु नो भीते भद्रकालि नमोस्तुते।”
वीणा ने कल्याण हो पुत्र कह कर पिता को हाथ लहरा कर आर्शीवाद दिया। तीरथ प्रसाद ने बताया -
“देवी सांसारिक रिश्ते भूल चुकी हैं। मुझे पुत्र समझती हैं।”
मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा की कौडियों से बडे नेत्रों का प्रभाव होता है या और कुछ पर मनुष्य एक क्षण को ही सही दुनियावी माया मोह भूल कर श्रध्दा, आस्था, विश्वास से भर जाता है फिर यहाँ तो जीती जागती देवी के दर्शन हो रहे हैं, जो हँसती है, बोलती है, हाथ लहरा कर आर्शीवाद देती हैं, चेहरे पर उड आए केशों को हाथों से पीछे भी हटाती हैं। लोग अभिभूत हैं। पूर्व जन्मों के पुण्यों की फलश्रुति पर। दिन भर घर में मेला सा लगा रहा। संध्या आरती के बाद जब देवी के विश्राम का समय हुआ तब तक रूपये-पैसों, फल-फूल-मिष्ठान्न-मेवे का ढेर लग चुका था।
चर्चा विस्तार पाती गई। निकटवर्ती गांवों, कस्बे, जिले से दर्शनार्थी आने लगे। बेरोजगार, रोगी, दालिद्रय, नि:संतान,प्रताडित बहुओं, अविवाहित लडक़ियों के अभिभावक,मामला मुकदमा वाले! भीड बढने लगी और दर्शनार्थियों को कतार बनाकर क्रमवार देवी के पास भेजा जाने लगा। लोग कारे में बिछी जाजिम पर बैठ गए। तीरथ प्रसाद कहते -
“आपकी जो समस्या हो उसे मन में स्मरण कीजिये। देवी सबके मन की गति जानती हैं। निवारण करेंगी।”
दर्शनाथी समस्या मन में दोहराते हुए साष्टांग हो जाते।देवी भगवती सदा सहाय हो। कह कर साष्टांग भक्त के शीश पर हाथ फेर देतीं। भभूत ललाट पर लगातीं और पसरी हथेली पर प्रसाद रख देतीं। कुछ अस्पष्ट सा बुदबुदातीं। तीरथ प्रसाद उसका अनुवाद कर देते। देवी कभी प्रसन्न होतीं तो उपदेश भी देने लगतीं -
“मेरी अराधना अर्थात प्रकृति की अराधना। प्रकृति की रक्षा करना मेरी सेवा करना है। वृक्ष न काटो, नदी तालाब का पानी न दूषित करो। वातावरण शुध्द रखो। दानपुण्य, हवन-अनुष्ठान आदि धार्मिक कार्य करो। मैं धर्म की स्थापना के लिये ही आई हूँ।”
लोककल्याण की ये परिष्कृत भाषा ये मंदबुध्दि लडक़ी ने कैसे सीख ली? सब देवी की महिमा है। आरती के समय उत्सव का सा माहौल हो जाता। दिन भर के थकेहारे लोग देवी दरबार में जुहा जाते और धर्म की चर्चा करते और भजन गाते।
“ओम अम्बे माता!”
देवी पूरी गरिमा के साथ दीपज्योति को निहारती बैठी रहतीं। आरती की समाप्ति पर तीरथ प्रसाद जनहित के लिये मांगते -
“दु:ख हरण करो माँ, पापियों का नाश करो, कल्याण करो माँ।”
एक भक्त आरती का थाल सबके पास ले जाता और चढोत्री एकत्र करता। आरती के बाद सब घर लौटते और देवी विश्राम के लिये घर के किसी भीतरी कमरे में चली जाती हैं। तब तीरथ प्रसाद और सिया दिन भर की चढोत्री का लेखा-जोखा लेकर बैठ जाते हैं।
रूपये-पैसे, वस्त्र, बर्तन, स्वर्ण-चांदी, मेवा-मिष्ठान्न देख कर पुलकी पडती सिया - जनम भर का दालिद्रय दूर हो गया। घर भर गया। पूरण करना मां भगवती।
सब देवी की कृपा है, तीरथ प्रसाद रूपये-पैसे सेंत पोटली में बांध एक पुराने संदूक की तलहटी में रख, गोदरेज का नवताल लगा चाभी अपने जनेऊ में बांध लेते।
अब तक देवी की महिमा का प्रकाशन स्थानीय दैनिकों के बॉक्स कॉलम में हो चुका था। समाचार पढ दूर दूर से लोग दरसन को पहुँचन लगे हैं। नेता-मंत्री, अफसर,व्यापारी सभी आने लगे हैं। तीरथ प्रसाद के घर के सामने एक न एक गाडी ख़डी रहती है। इन बडे लोगों की पत्नियाँ आम स्त्रियों की भांति ही धर्मभीरु हैं।
प्रदेश के शिक्षा मंत्री का पैतृक गृह ग्राम इसी जिले में है वे सपरिवार एक पारिवारिक वैवाहिक आयोजन में भाग लेने आए हैं। लगे हाथ कुछ उद्धाटन समारोह किये और पत्नी के हठ पर देवी के दर्शनार्थ पहुंचे। शिक्षा मंत्री की सहधर्मिणी धर्म-कर्म का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देतीं। देश-विदेस घूम आई हैं पर जीती-जागती देवी के दर्शन का अवसर पहला ही है। शिक्षामंत्री के दल-बल में जिले के पुलिस अधीक्षक , जिला अस्पताल में पदस्थ सर्जन रामकृष्ण और सुरक्षा गार्ड थे। जब ये काफिला पहुंचा तो आरती समाप्त हो चुकी थी और देवी विश्राम के लिये जा चुकी थीं। इन्हीं शिक्षामंत्री को तीरथ प्रसाद ने अपनी पाठशाला के सम्बंध में पत्र लिखा था, जिसके उत्तर की आज तक प्रतीक्षा है। आज शिक्षामंत्री सपत्नीक चल कर उनके घर पधारे हैं। चमत्कार को नमस्कार है। तीरथ प्रसाद की तीव्र इच्छा हुई कि शिक्षा मंत्री के चरणों में झुक जाएं और अपनी समस्या कहें पर छठी इन्द्रीय ने सतर्क किया कि वे एक अवतार के जनक हैं और उन्हें अपनी गरिमा को नहीं भूलना चाहिये। वे मंत्री जी का स्वागत करते इससे पूर्व ही मंत्री जी ने स्वयं हाथ जोड दिये। तीरथ प्रसाद के अनुज सिध्दमणि ने तत्परता से बताया - देवी विश्राम के लिये जा चुकी हैं। दर्शन कल हो सकेंगे।
तीरथ प्रसाद ने सिध्दमणि को सुलगती दृष्टि से देखा। वे जानते हैं सिध्दमणि उनकी आर्थिक स्थिति के सुधार को देख दु:खों से भरा हुआ है। भगवती की कृपा को पाखण्ड कहता है। भक्तों को भडक़ाता है।
मंत्री पत्नी मलिन पड ग़यीं - दूर से आए हैं। क्या निराश लौटना होगा?
तीरथ प्रसाद को एक क्षण को विचार आया इन्हें लौटा देना लाभप्रद होगा। बडे ॠ़र्षिमुनि, आचार्य, योगी बडी हस्तियों को भी द्वार से भगा देते हैं। इससे उनका प्रभाव जमता है कि विशिष्ट वर्ग उनके सामने कोई अर्थ नहीं रखता। पर ऐसा करने से दान-दक्षिणा की हानि हो जाएगी।
“आप लोग विराजिये। मैं देखता हूँ। कुछ हो सका तो। भगवती की इच्छा होगी तो दर्शन अवश्य देंगी।”मंत्रीजी को सादर बिठा तीरथ प्रसाद भीतर भागे।
वीणा हाथ-मुंह धोकर, रेशमी वस्त्र बदल कर, सूती सलवार कुर्ता पहन कर खुले केशों की चोटी गूंथ चुकी थी और खिचडी ख़ा रही थी। यह सब देख कर उन्होंने कपाल थामा फिर सिया से जल्दी जल्दी बोले -
“वीणा को तैयार कर भेजो। जल्दी! मंत्री जी पधारे हैं। साथ में उनकी धर्म पत्नी भी हैं। जल्दी! ”
तीरथ प्रसाद ने वीणा को जल्दी से कुछ समझाया और बाहर भागे। सिया ने चील सा झपट्टा मार कर वीणा के सामने से थाली खींच ली। इस पर वीणा चीखने को हुई।सिया ने अपनी दक्ष हथेली उसके मुख पर रख चीख को बाहर निकलने ही नहीं दिया। विवशता से या सिया की हथेली के दबाव से वीणा के नेत्र छलछला आए। दिन भर की भूखी थी, बहुत भूख लगी थी पर खाना छोड देवी को साज सज्जा कर मंत्री जी के सामने आना पडा दुबली-पतली, पतले गेहुंआ मुख वाली देवी को आते देख सभी उठ खडे हुए।
मंत्री पत्नी, पति के कानों में फुसफुर्साई ऐसा तेज कहीं नहीं देखा। दर्शन से ही देह की सारी थकान और मन के विकार दूर हो गये। मंत्री जी ने सहमति में दो बार शीश डुलाया। देवी के आसन ग्रहण करने तक कक्ष में ऐसी शांति छाई रही कि सांसो के स्वर ही बज रहे थे। देवी ने हाथ लहरा कर लोगों को बैठने के लिये संकेत किया। वे कुछ क्षण नेत्र मूंदे बैठी रहीं फिर मंत्री जी से सम्बोधित हुईं - ”बहुत दूर से चल कर आए हो। मालूम होता है किसी बडे पद पर हो। भाल की रेखाएं बताती हैं बहुत ऊंचे जाओगे।जल्दी ही प्रदेश के सबसे बडे पद पर बैठोगे।”देवी ने पिता का पढाया पाठ दुहरा दिया।
मंत्री जी उत्साहित हो उठे। छ: माह बाद चुनाव होने हैं।उनका दल सत्ता में आया तो उनके मुख्यमंत्री बनने की संभावना है। अगले मुख्यमंत्री के लिये अनुमानित तीन नामों में एक नाम उनका है। वे गदगद् दशा में हाथ जोड बोले -
“आप जगतजननी हैं। कृपा बनी रहे।”
“कल्याण भव:। दानपुण्य करो। भूखे को भोजन, नंगे को वस्त्र दो। मानव सेवा ही सच्चा धर्म है। भगवती सफल करें।”
देवी ने मंत्री के प्रशस्त ललाट में भभूत लगा दी।
इधर मंत्री पत्नी ने बटुए से छोटी डिबिया निकाली। डिबिया के भीतर रत्नजटित स्वर्णमुद्रिका की चमक फैली हुई थी।उन्होने उसे आरती के थाल में रख दिया। देवी ने उनके ललाट पर चंदन का पीला टीका लगाया तथा एक तावीज हाथ में लिया, अधरों में कोई मंत्र बुदबुदाया और मंत्री जी की पत्नी से कहा - ”इसे अपने मालिक की भुजा में बांध देना मंगल होगा। उन्होंने तावीज क़ो सादर नेत्रों से लगा लिया।”
मंत्री जी सपत्नीक पुलक रहे हैं और एसपी मन ही मन उनकी अंधभक्ति देख विक्षुब्ध हैं। वे इस समय डयूटी पर हैं अन्यथा जब से उन्होंने एक ऐसे ही अवतार का पर्दाफाश किया है तब से उन्हें इन पाखन्डों से घृणा हो गयी है।फिर भी इक्यावन रूपये मात्र इसलिये चढा दिये कि उपस्थित लोग उन्हें कृपण न समझें। उधर डॉक्टर रामकृष्ण का दृष्टिकोण सबसे पृथक था। रोगियों से निपटते जूझते उनकी दृष्टि में चिकित्सा विज्ञान का ऐसा प्रभाव पड चुका था कि प्रत्येक व्यक्ति में उन्हें रोग के लक्षण ढूंढने की आदत सी पड ग़यी है। वीणा उन्हें चमत्कारिणी नहीं रोगिणी दिखाई पड रही थी। देह क्षीण, त्वचा पीली, नाखून सफेद, मुस्कान निष्प्रभ, आंखे गङ्ढों में धंसी हुई। निर्जलन और रक्ताल्पता के लक्षण मालूम होते हैं। हाव-भाव से मानसिक रोगी प्रतीत होती है। उनके भीतर ज्वार उठा कि इसकी नब्ज पकड क़र हृदयगति देखें और आंखों और जीभ की जांच करें। पर चिकित्साविज्ञान अंधश्रध्दा के आगे व्यर्थ है। जबकि प्रदेश का मंत्री पूरी तरह से देवी के प्रभाव में दिख रहा है। वे यहाँ निपट अकेले हैं और भक्त बहुसंख्य का तनाव उत्पन्न हो जाएगा। इस देश में धर्म के नाम पर पहले ही बहुत मार-काट हो चुकी है। अभी चार दिन पहले ही दैनिक में पढा कि देवी के अवतार को पाखन्ड सिध्द करने आए दो पत्रकारों के कैमरे छीन लिये और भक्तों ने उन्हें गाली गुफ्तार कर खदेड दिया। ओह सामने रोगी बैठा है और वे विवश हैं। ऐसे विवश कि सबकी देखा देखी वह भी हाथ जोडे हुए हैं और मंत्रचलित से इक्यावन रूपये भेंट कर चुके हैं।
खूब फलने-फूलने का वांछित आर्शीवाद ले मंत्री जी अपने दल-बदल के साथ उठे कि देवी आसन में ढह गईं। जैसेमूर्च्छा आ गई हो। डॉक्टर रामकृष्ण का अनुमान विश्वास में बदल गया। वे बडे आंतरिक संघर्ष के बाद स्वयं को रोक पाए। सिया तत्परता से बिजना डुलाने लगी और तीरथ प्रसाद कहने लगे -
“देवी ध्यान में चली गई हैं। मैं ने पहले ही कहा था उनके ध्यान का समय हो चुका है।”
मंत्री जी सपत्नीक धन्य हो गये। किसी सिध्द वयक्ति को ध्यान में जाते हुए पहली बार देख रहे हैं। जीवन सफल हो गया। मंत्री जी के जाने के बाद तीरथ प्रसाद, सिया के साथ बैठकर दिन भर के चढावे की गणना करने लगे।सिया स्वर्ण मुद्रिका को उलटती पुलटती रही। इतनी चमक इतने निकट से अब तक न देखी थी।
गाँव तीर्थ बना हुआ है। सती की पवित्र भूमि में देवी अवतरित हुई हैं। दूर-दूर से भक्तजन दौडे आते हैं पर कुछ भी तो प्रभावी-चमत्कारी नहीं लगा डॉक्टर रामकृष्ण को।घर पहुंच पत्नी लता से कहने लगे -
“जिस देवी के दर्शन के लिये तुम कई दिन से उतावली हो रही हो न, मैं आज मंत्री जी के साथ उसी देवी को देख कर आ रहा हूँ। लता, वह कमजोर सी लडक़ी देवी नहीं है। वह कुपोषित, शोषित, मंदबुध्दि लडक़ी है जिसका इस्तेमाल धर्म के नाम पर धन बटोरने के लिये हो रहा है। आज के वैज्ञानिक-इलेक्ट्रानिक युग में ऐसे चमत्कार स्वयं ही झूठे सिध्द हो जाते हैं।”
नि:संतान लता अपने पति के इस नास्तिक आचरण से क्षुब्ध हुई। संतान प्राप्ति के लिये कितने ही पत्थर पूजे,यज्ञ अनुष्ठान किये। अब देवी के पास अपनी अरज लेकर जाना चाहती है। और पति हैं कि उन्हें देवी-देवता झूठे लगते हैं।घबरा कर कहने लगी -
“शुभ शुभ बोलो जी। ये क्या सभी को चिकित्सकीय दृष्टिकोण से जांचते-परखते रहते हो। मैं देवी के दर्शन को जाऊंगी और जरूर जाऊंगी।”
“मुझे तो नहीं लगता कि वो तुम्हारी बीमार देवी माह-दो माह से अथिक जियेगी। फिर प्रचारित किया जाएगा कि देवी समाधि ले अपने धाम को चली गयीं।”
“बस बस इस तरह की नास्तिक बात मत करो। ये देवी सच्ची हैं, उनका गांव पवित्र है, मिट्टी चमत्कारी है। आपको मेरे साथ चलना ही होगा। मैं कहती हूँ लाभ नहीं होगा तो हानि भी नहीं होगी। जाने में हर्ज क्या है? “
डॉक्टर साहब जब पहुंचे तो दोपहर ढलान में थी और देवी कदाचित ध्यान(अचेतावस्था) से कुछ ही क्षण पहले बाहर आईं थीं। मुख क्लान्त था और बरौनियाँ झपका रही थीं।देवी को देख लता ने भाव विव्हल दशा में हाथ जोड दिये जैसे साक्षात परम ब्रह्म के दर्शन हो गये हों, देवी बुदबुदा रही थीं -
“मैं दुर्गा हूँ, मेरी पूजा करो, मुझमें दुर्गा का वास है, दुर्गा की अराधना करो।”
लता कातर होकर देवी से अरज करने लगी - ”माँ आप तो सबके मन की गति जानती हैं। मुझ दु:खियारी की भी सुनिये। एक बच्चे के बिना धन-दौलत, सुख चैन सब बेकार है। मेरी गोद भरो माँ।”
“दुख के दिन खत्म हुए देवी। कल्याण होगा। संतान होगी। निराशा छोडो दुर्गा का पाठ करो।”कहते हुए देवी ने एक पुडिया में भभूत और तावीज लता को दिया - भभूत को घर में भगवान के पास रख देना और तावीज अपने मालिक की बांह में बांध देना। भगवती पूरण करें।
“जय हो माँ, मनोरथ पूरा हुआ तो सोने की नथ और चुनरी चढाउंगी।”
डॉक्टर रामकृष्ण देवी की रुग्णता ध्यानपूर्वक जांचते-परखते रहे। इन्हें सौ प्रतिशत विश्वास हो गया कि वीणा अस्वस्थ है और यही स्थिति बनी रही तो यह अस्वस्थता उसके लिये घातक सिध्द होगी। दान दक्षिणा चढा, चलने को उध्दत हुए थे कि सिध्दमणि निकट जाकर कहने लगा -
“डॉ साहब, भाग्य से आप पधारे हैं तो मेरे बच्चे को देखने की कृपा करें।
चार दिन से बुखार आ रहा है। ”
“देवी की घर में बीमारी? अपने चमत्कार से वे एक बच्चे का ज्वर उतारने में सक्षम नहीं है।”
“चलो देख लेते हैं। डॉक्टर रामकृष्ण बुदबुदाए।
बच्चे की नब्ज देखते हुए, तनिक भी आशा न थी कि सिध्दमणि रहस्योद्धाटन के लिये उन्हें अपने घर बुला लाया है।
“साहब, मेरा नाम बीच में न आए पर वीणा दिन पर दिन दुर्बल होती जा रही है। आप डॉक्टर होकर उसकी रक्षा न करेंगे तो कैसे होगा? “
“हाँ, मैं उसे धर्म के नाम पर इस्तेमाल होने से बचाना चाहता हूँ। देखो कुछ कर सका तो अवश्य करुंगा।”
सिध्दमणि ने विद्वेष भाव से ही सही पर डॉ साहब को सही स्थिति बताई थी। वीणा स्वस्थ हो या न हो इससे उसे कुछ लेना देना न था। पर डॉ रामकृष्ण के अनुमान को प्रमाण मिल गये। वे अपनी शंका लेकर पुलिस अधीक्षक से मिले। अखबारों में इस कथित अवतार के विरोध में लेख लिखे जा रहे थे। गांव का एक गुट एसपी साहब के पास ज्ञापन लेकर पहुंच चुका था कि तीरथ प्रसाद धर्म के नाम पर ठगी कर रहे हैं। वे स्वयं जब प्रदेश के शिक्षा मंत्री के साथ देवी के दर्शन करने गए तो वीणा एक साधारण लडक़ी प्रतीत हुई थी। और अब डॉ रामकृष्ण अब इस अवतार की पोल खोलना चाहते हैं। एसपी, डॉ रामकृष्ण की सहायता के लिये सहर्ष तैयार हो गए।
डॉ रामकृष्ण, दो अन्य चिकित्सक, एस पी, सादे कपडों में चार सिपाही देवी के द्वार पर पहुंचे तो आरती हो रही थी।घंटे, घडियाल, शंख, भक्तों की समवेत तालियों के मध्य उभरती ओम जय अम्बे मैयाकी ताल! एस पी ने रात का समय इसलिये चुना कि लोग घर लौट चुके होंगे। अकेले में प्रकरण अपेक्षाकृत सरलता से सुलझाया जा सकेगा पर आरती के समय खासी भीड एकत्र थी और पूरे जोश और उत्साह में थी। इस श्रध्दा और भक्ति को चुनौती देना आसान होगा? एसपी और डॉ रामकृष्ण एक दूसरे को प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते बाहर खडे थे। आरती की समाप्ति पर तीरथ प्रसाद उच्चारने लगा -
“दु:ख निवारण कर मां, कल्याण कर मां, ताप हर मां! ”
एक भक्त आरती का थाल सबके सामने घुमाने लगा।सिक्के, नोट थाल में डाले जाने लगे। आरती के बाद कुछ लोग लौट गए और कुछ देवी के द्वार पर खडी ग़ाडियों और बडे अधिकारियों की उपस्थिति के प्रभाव में वहीं रुके रहे। किसी ने तीरथ प्रसाद को सूचित किया कि एसपी साहब और डॉ साहब आए हैं। तीरथ प्रसाद प्रसाद हुलसते हुए बाहर दौडे आए। आज फिर अच्छी चढोत्री का योग है।बडे लोगों से ही बडी राशि मिलती है, गांव के लोग तो एक, दो या ज्यादा हुआ तो पांच रूपये चढा देते हैं।
“पधारिये साहब, झटपट दर्शन कीजिए, देवी के ध्यान का समय हो रहा है। आरती की ज्योति जल रही है। आप सब लोग आरती लें। तीरथ प्रसाद अधिकारियों को भीतर ले आए।”
एक भक्त ने अधिकारी समुदाय के साथ घुसे चले आ रहे लोगों को वापस खदेडा। एस पी ने चौकस दृष्टि देवी पर डाली। दिन भर की थकान से शिथिल पडी देवी पलकें झपका रही थीं। मुख ऐसे बन बिगड रहा था मानो उबासी को बलपूर्वक रोक रही हो। कुछ देर कक्ष में निचाट चुप्पी पसरी रही फिर बडे अप्रत्याशित-असंभावित ढंग से चुप्पी भंग हुई।
“बेटी तुम सुबह से रात तक ऐसे बैठी रहती हो थक जाती होगी। तुम्हारी रीढ क़ी हड्डी में तनाव पैदा हो जाएगा। तुम्हें खून की कमी है। तुम्हारा इलाज होना चाहिये।”
माता को बेटी कहने वाला ये दुस्साहसी विमूढ क़ौन है।देवी की झपकती थकी पलकें चौंकती हुयी डॉ रामकृष्ण के चेहरे पर स्थिर हो गयीं। तीरथ प्रसाद का मुख फ्यूज उडे बल्ब सा ही फक्क होकर स्याह पड ग़या। ये कैसा कलियुगी भक्त? देवी की परीक्षा लेने चला है?
“जगत का पालन करने और संहार करने वाली जननी का इलाज? ये आप क्या कह रहे हैं साहब? “तीरथ प्रसाद को जैसे अपनी ही आवाज नहीं सुनाई पड रही है। बस वे क्रोध से या किसी अनिष्ट की आशंका से पत्ते की तरह कांप रहे हैं।
“मैं ठीक कह रहा हूँ वीणा को इलाज की सख्त जरूरत है।”ड़ॉ साहब ने दोहराया।
“देवी का इलाज? ये जो इन्हें ज्वर है न वह तो इन्होंने सिध्दमणि के बेटे का ज्वर अपने ऊपर ले लिया है वरना उसका ज्वर अभी उतरने वाला नहीं था।”सब देवी की महिमा है। तीरथ प्रसाद ने अज्ञानता में स्वयं ही देवी को ज्वर होने की बात प्रकट कर दी।
“इसे ज्वर है? “ डॉ रामकृष्ण मुस्कुराये। उनकी औषधि का श्रेय देवी लूट ले जाना चाहती हैं सिध्दमणि के बेटे को निरोग कर!
“जी हाँ, देवी दूसरों का दुख ताप अपने ऊपर ले लेती हैं।”
“सब बकवास है। इसे ज्वर है तो मुझे इसी वक्त इसका परीक्षण करना होगा। तुम व्यर्थ ही इसके जीवन से खिलवाड क़र रहे हो। इस तरह ये मर जाएगी।”
“एसपी साहब आप कुछ कीजिये ना। ये साहब तो धार्मिक स्थान में अशांति फैलाना चाहते हैं।”तीरथ प्रसाद एसपी से सम्बोधित हुए।
“क्यों परेशान होते हैं। मैं कुछ करने के लिये ही आया हूँ।”एसपीअब भी अपनी चौकस दृष्टि कक्ष में चारों ओर डाल रहे हैं।
सिया, असमर्थता पर मुंह में आँचल रखे स्थिति को भांपने का प्रयास कर रही है। वीणा की भौंचक्क दृष्टि अब भी सर्जन के मुख पर है। लोग अपनी व्यथा, दुख-पीडा,मनोकामना उससे कहते हैं, उसे कोई परेशानी है ये पूछने वाला ये पहला व्यक्ति है। जब देवी नहीं बनी थी तब माता-पिता की फटकार सुनती रही और जब देवी बना दी गई तो मानव के मौलिक अधिकारों से वंचित कर दी गई।न मन का खाना-पहनना, न खेलना-बोलना। जी चाहा चीख पडे क़ि मैं इस देवी के आसन से उतरना चाहती हूँ। अभी इसी बक्त, नहीं चाहिये मुझे ये चमक दमक। मैं अपनी तरह से जीना चाहती हूँ। वीणा के ज्वर से तपते नेत्रों में नमी की एक महीन परत उतर आई। उस नम परत में आरती की बुझती लौ का लाल प्रतिबिम्ब अम्गारे सा दहकता प्रतीत हो रहा था।
“देवी की आंखों में तेज दिखाई नहीं देता आपको? “देवी के क्रोध की ज्वाला आपको भस्म करदे, इससे पूर्व ही आप यहाँ से जाएं। तीरथ प्रसाद वीणा के अरुण नेत्रों की ओर संकेत करते हुए बोले।
सर्जन साहब अपनी बात पर अडिग र्हैं ”बेटी ये तुम्हारे खाने खेलने के दिन हैं। ये क्या स्वांग रचा कर बैठी हो। खुद को अपने बडे बुजुर्गों से पुजवाना तुम्हें अच्छा लगता है? इस छोटी उम्र में इस तरह धीर-गंभीर बैठे रहना अच्छा लगता है? ये रोज रोज की पूजा-अर्चना-आरती तुम्हें अच्छी लगती है? ये पाखण्ड अच्छा लगता है? “
वीणा के नेत्र आवेग से भर आए। उसने एक बार क्रोध से कसमसाते पिता को देखा। उन्हें देख आंखों में तेजी से समाते अश्रुकणों को उसने चाहा फिर से वह भीतर सोख ले पर वह स्पष्ट अनुभव कर रही थी कि आंखों में छलक आंसू वापस भीतर नहीं जाते। उसने पिता की धुंधलाती दृष्टि हटाई। ज्वर से तपती उंगलियों की पोरों में आंसुओं को समोया -
“नहीं मुझे नहीं अच्छा लगता ये सब। मैं ऊब गई हूँ, थक गई हूँ ! ”
स्नेह लेप से वीणा सारी माया-काया-महिमा भूल गई। डॉ रामकृष्ण ने आश्वस्ति की सांस ली। यदि वीणा स्वयं अपनी स्थिति से असंतोष व्यक्त न करती तो वे उसके हित में कुछ नहीं कर सकते थे।
तीरथ प्रसाद कुछ क्षण पक्षाघाती मुद्रा में खडे रहे फिर संभले -
“देवी, ये अथर्मी आपकी परीक्षा ले रहा है और आप इसे तरह दे रही हैं। इसे भस्म कर दीजिये। आपने प्रत्येक युग में पापियों का नाश किया है।”
स्थिति की नाजुकता देख सिया, वीणा को कंधे से पकड उठाने लगी - ”देवी, आप भीतर चलें, आपके ध्यान का समय हो रहा है।”
वीणा मां की मजबूत पकड में रबड क़े पुतले सी लुंज-पुंज हो एक ओर ढुलक गई। उसे मूर्च्छा आ गई थी। खलबली मच गई। उस समय कक्ष में दो भक्त थे दोनों क्रुध्द हो सर्जन की ओर झपटे, जिन्हें सादे कपडे में तैनात पुलिसकर्मियों ने अपना परिचय देते हुए नियंत्रित किया।
तीरथ प्रसाद चीखे -
“डॉ साहब, एसपी साहब कृपा कर अब आप जाएं। देवी ध्यान में चली गई हैं।”
“बकवास है, वीणा अत्यंत कमजोर है। वह कमजोरी और तनाव से मूर्च्छित हो गई है। मुझे उसका परीक्षण करना है.. ”कहते हुए डॉक्टर रामकृष्ण ने साथ के चिकित्सक को एक इंजेक्शन तैयार करने का निर्देश दिया।
तीरथ प्रसाद भडक़ाऊ नारे लगाने लगे -
“धर्र्मकर्म में विघ्न डालने वाले डॉक्टर तेरा नाश हो जाएगा।”
“देवी अपने तेज से तुझ अधर्मी को भस्म कर देंगी।”
नारों ने उत्प्रेरक का काम किया और बाहर खडे लोग शोर मचाने लगे। तीरथ प्रसाद को कुछ न सूझा तो झपटते हुए वीणा को गोद में उठा कर अन्दर ले जाने लगे।
डॉक्टर रामकृष्ण ने हस्तक्षेप किया -
“लडक़ी को उपचार की जरूरत है। इसे इसी वक्त इंजेक्शन देना है।”
दो सिपाहियों ने तीरथ प्रसाद को पकड क़र एक ओर ठेल दिया। तीरथ प्रसाद ने स्वयं को इतना असहाय पहले कभी नहीं पाया था। इधर तो वे पूरे क्षेत्र के लिये प्रभावी हो गये हैं। बलशाली हो गये हैं। श्रध्देय हो गये हैं। और आज सर्जन, वीणा की बाम्ह में सुई लगा रहे हैं और वे अपनी झनझनाती शिराओं का प्रकम्प संभाले विवश खडे देख रहे हैं।
तीरथ प्रसाद कुछ देर उछल कूद करते रहे फिर सिपाहियों की पकड से छूट, सदर द्वार से बाहर निकल वहाँ खडे भक्तजनों को उकसाने लगे -
“इस पातकी डॉक्टर ने देवी को जहर की सुई लगा दी है। यदि अब देवी समाधि लें लें तो दोषी यह अधर्मी होगा। आज इस गांव में आंधी आएगी, भूडोल आएगा, नाश हो जाएगा। यदि देवी चण्डी बन गई तो उनके क्रोध को शान्त करने के लिये हम किस शिव को उनके चरणों में डालेंगे? “
तीरथ प्रसाद की ललकार ने भीड क़ो उग्र बना दिया समूह से विरोधी नारे उभरने लगे। एसपी और डॉक्टर रामकृष्ण को गालियाँ देने लगे। एसपी तत्परता से बाहर निकले और लोगों को शांत रहने का निर्देश देने लगे। उनका तीक्ष्ण स्वर चीख-पुकार में खो कर रह गया । स्वर्ण मन्दिर में सेना के प्रवेश की अनुमति के लिये प्रशासन को कई दिन सोचना पडा था। यह भी धार्मिक स्थल है और काम सहजता से पूरा नहीं होगा, एसपी जानते थे। उन्होंने गांव की सीमा पर तैनात पुलिस को वायरलैस पर सूचना दे तत्काल आने का आदेश दिया। उत्तेजित लोग अब पुलिस पर पथराव करने लगे। औरतें बच्चे चीत्कार करते हुए,इधर-उधर भागे। वीर पुरुष मोर्चे में डटे रहे। पुलिस को हवाई फायर करना पडा। पर जिनके शीश पर देवी का वरद हस्त हो उन्हें बारूद से भय कैसा? देवी कोई चमत्कार कर देंगी और सारे सिपाही भस्म हो जाएंगे। उन्मादी लोग चीखते रहे, नारे लगाते रहे, पथराव करते डटे रहे। पत्थरों से कौन हताहत हो रहा है किसे सुध थी? एक नुकीला पत्थर किसी युवक की कनपटी पर लगा। चीखता हुआ युवक हथेली से रक्तस्त्राव दबाता हुआ भूमि पर बैठ गया।
युवक के बहते रक्त ने एक क्षण को भीड क़े स्वर को मंद किया और तब जाकर एसपी, जो बडी देर से चीख रहे थे;का स्वर लोगों तक पहुंचा -
“आप लोग शांत हों, वीणा को कोई जहरीला इंजेक्शन नहीं दिया गया है। वह होश में आ चुकी है। स्वस्थ है। वह तेज बुखार और कमजोरी के कारण मूर्च्छित हो गई थी।”पहले भी वह कमजोरी के कारण मूर्च्छित होती रही है और आप लोगों को बताया जाता था कि देवी ध्यान में चली गई है। वीणा स्वस्थ है, चाहें तो आप लोग देख सकते हैं।
कोलाहल, कुतुहल में बदल गया। नारेबाजी भनभनाहट में बदलती हुई बिलकुल ही शिथिल पड ग़ई। ये देवी की कैसी लीला है? लोग अविश्वास या अचरज से या सदमे से ठगे खडे थे। गांवों के प्रमुख समझे जाने वाले लोग जिनमें सरपंच भी थे, दूसरों को ठेल ठाल देवी के कक्ष में पहुंचे देखा देवी ने मुकुट उतार कर एक ओर रख दिया है और डॉक्टर रामकृष्ण दूध में ग्लूकोज घोल कर पीने के लिये दे रहे हैं। दूसरे का भरण-पोषण करने वाली अन्नपूर्णा कह रही हैं -
“हमें दूध नहीं चाय पीना है, बहुत मन है।”
“चाय पी लेना। पहले दूध पियो, तुम्हें इस वक्त ताकत की जरूरत है, तुम्हें तेज बुखार है।”डॉक्टर रामकृष्ण, वीणा के खुले केश सहलाने लगे। जिस देवी के चरण गहे जाते हैं, सर्जन उनका शीश सहला रहे हैं। इस लोहमर्षक दृश्य को आंखे फाडे देखते लोग चकित हैं कि देवी एक सांस में दूध का ग्लास खाली कर हथेली से अधर पौंछ कह रही हैं -
“डॉक्टर साहब दूध पीकर अच्छा लगता है, बहुत भूख लगी थी।”
लोग सदमे में हैं। जगत का भरण पोषण करने वाली अन्नपूर्णा स्वयं भूखी हैं। या भ्रम यह वही भूख है जो शबरी के बेर और सुदामा के चावल देख कर ईश्वर को लग आई थी। हे अम्बे ! तुम्हारी महिमा अपरम्पार है।
तीरथ प्रसाद की वही स्थिति हो गई जो जोश के बाद होश आने पर होती है। ठण्डे पड ग़ये तीरथ प्रसाद । हाथ जोड क़र एसपीके समक्ष खडे हो गए।
“साहब, अब देवी के विश्राम का समय है, उन्हें विश्राम करने दें।”
“बाज आओ मास्टर जी। इस मासूम के जीवन से खिलवाड न करो। इसे पौष्टिक भोजन और उपचार की आवश्यकता है। वरना ये मर जाएगी। ये साधारण लडक़ी है देवी नहीं। एसपी जोर देकर बोले।”
“मैं क्या जानूं साहब ये क्या है? मैं सीधा-सादा, धर्म-कर्म मैं विश्वास करने वाला साधारण आदमी हूँ, कृपा निधान! एक दिन इस वीणा ने बताया कि इसे देवी ने सपने में दर्शन देकर कहा है वे इसकी पवित्र देह में वास कर जन कल्याण करना चाहती हैं। लोगों का धर्म में से विश्वास उठ रहा है, इसीलिये धर्म की स्थापना करेंगी। धर्म ही सृष्टि को नष्ट होने से बचा सकता है। हमने सपने को देवी का आदेश मान लिया, हुजूर ।”तीरथ प्रसाद शरणागत हो गए।
“बाबू तुम इतने सयाने होकर झूठ बोलते हो? वीणा, खुले केशों की चोटी गूंथती हुई बोली - ये क्यों नहीं कहते कि जब से तुम संतोषी माता के दर्शन करके आए मेरे पीछे पड ग़ए कि मैं देवी बन जाऊं। मैं ने मना किया तो तुमने और अम्मा ने मुझे पानी भरने वाली लजुरी(रस्सी) से मारा था। मेरे सिध्दमणि चाचा ने तुम्हें खूब समझाया था, ये धोखाधडी है, परन्तु तुम नहीं माने। मैं रोज कहती मेरा खेलने-पढने का मन होता है पर तुम सुनते नहीं थे। मुझे कल रात से बुखार है फिर भी तुमने आराम नहीं करने दिया।”
तीरथ प्रसाद पराजित हो गये। जैसे तूणीर के सारे बाण समाप्त हो गये हों। सिया के मुख पर निराशा और तनाव का घटाटोप छा गया। उमडी पड रही रुलाई के साथ किसी प्रकार बोल फूटा -
“चुप रह बिटिया, ये क्या अण्ड बण्ड बक रही है? “
आज मौका मिला है तो बिटिया चुप नहीं रहेगी - ”अम्मा मैं अण्ड बण्ड नहीं बक रही हूँ। मैं सच कह रही हूँ डॉ साहब। मैं पढना चाहती हूँ, पेट भर खाना चाहती हूँ,अच्छे अच्छे कपडे पहनना चाहती हूँ। एसपी साहब मुझे इस कैद से बाहर निकाल दें। मेरा कोई घर नहीं है, कोई अम्मा नहीं, कोई बाबू नहीं है। सब कसाई हैं। ”
वीणा हिचकी लेकर रो पडी। लोग सदमे में हैं। दूसरों का कष्ट हरने वाली देवी स्वयं इतनी दुखी हैं। रो रही हैं। कैसी अबूझ पहेली है।
“क्यों झूठ बोलती है, अम्बे! क्यों इस गरीब की मिट्टी पलीद करती है? “
तीरथ प्रसाद बहुत कातर हो आए हैं। लगता है रो देंगे।
“ढोंग बंद करो दादाभाई।”सिध्दमणि प्रकरण का पटाक्षेप कर डालना चाहते हैं -
“भलाई इसी में है कि तुम अपनी गलती मान लो। तुम गांव के इन भोले लोगों को बहुत लूट चुके हो। बहुत धन जोड चुके।”
सिध्दमणि एसपी से सम्बोधित हुए - ”साहब मैं इन्हें बहुत बरजता था पर ये मानते न थे। वीणा को आधा पेट खाना देते ताकि उसका पाचन सही रहे और वह भक्तों के सामने उठ कर शौचादि को न जाए। दिन भर बैठे रहने से इसकी रीढ में दर्द रहने लगा है। मेरी ये सिया भाभी इसकी पीठ में आयोडेक्स लगा कर काम चला लेती हैं। दादाभाई अंगूठी, तावीज, माला बाजार से खरीद कर देवी का आर्शीवाद कह भक्तों को दे अच्छी दक्षिणा वसूलते रहे हैं। वीणा जब भी देवी बनने से इनकार करती, ये उसे मारते-पीटते। यह कमजोरी से अचेत हो जाती और ये कह देते देवी ध्यान में चली गई है। इन्होंने इस बच्ची को चमत्कारी बना कर इसकी आजादी छीन ली है। आपकी कृपा हो गई वरना माह-पखवाडे में मर जाती।”
भजन ,कीर्तन, आरती से झंकृत, दीप ज्योति से आलोकित,पुष्प, धूप दीप, हवन की आगरु से सुवासित, पुष्पमालाओं से सुसज्जित, भक्तों द्वारा पूजित वह पवित्रस्थल क्षणांश में संदिग्ध, करुण, उजाड, भुतहा लगने लगा। इस छोटे से गांव के सीमित संसार के सीमित अनुभवों में धर्म पर हुआ यह पहला आघात था। विभूति सदृश्य माटी अपवित्र हो गयी। कुछ लोग लुटे-पिटे से खडे थे, कुछ व्यंग्य से मुस्कुरा रहे थे, कुछ घटना की सत्यता को पचा नहीं पा रहे थे,कुछ लोगों को तमाशा देखने का सा आनंद आ रहा था।कुछ लोग तीरथ प्रसाद को मारने दौड पडे -
“इसे जाति बिरादरी से बाहर कर दो। इसने गांव को नीचा दिखाया है।”
सिपाहियों ने बीच-बचाव किया। एसपी बोले - ”आपकी भावनाओं को चोट पहुंची है, मैं समझ सकता हूँ पर इन्हें मार-पीट कर आप लोग कानून हाथ में नहीं ले सकते। जो भी उचित कार्यवाही होगी वह हम करेंगे।तीरथ प्रसाद जी आपको हमारे साथ चलना होगा। आपसे पूछताछ करनी है।”
ड़ॉ रामकृष्ण बोर्ले वीणा को उपचार की जरूरत है, इसे अस्पताल में भरती करना होगा।
“डॉ साहब आप मुझे अपने साथ ले चलेंगे? “ सुनकर वीणा का रुदन कुछ थमा।
“हाँ बेटी, तुम कपडे बदल आओ। हमारे साथ चलना है तुम्हें।”
“अच्छा । और जब मैं ठीक हो जाऊं तो आप मुझे कोई छोटा-मोटा काम दिला देना या अनाथ आश्रम में भेज देना। अब मैं घर वापस नहीं आऊंगी। अम्मा-बाबूजी बहुत मारेंगे मुझे।”
सुनकर सिया का दबा घुटा रुदन जिसे वह मुंह में आँचल ठूंस दबाए हुए थी, वेग से फूट पडा। अरुणा, वरुणा सब कुछ समाप्त हो जाने की त्रासदी समेटे एक कोने में सिकुडी बैठी हैं।
..और जब वीणा छींटदार सलवार कुर्ता और सफेद दुपट्टा डाल कर सर्जन की कार की पिछली सीट पर बैठी तो उसे देवी के रूप में आदी हो चुके लोगों को लगा महिमा मण्डित देवी, रूप बदल कर किसी भक्त का काम सिध्द करने जा रही हैं या फिर किसी भक्त की परीक्षा लेने।पुलिस की जीप में बैठते हुए तीरथ प्रसाद का शीश कमर तक झुका था। स्याह मातमी अंधेरे में दो गाडियाँ धूल उडाती चल पडीं। धर्म की ध्वजा फहराने वाला महिमामण्डित गांव इस तरह उजाड और वीरान दिख रहा था, जैसे मेला उजडने के बाद का मैदान।