महिला, आन्दोलन एवं असीम विसंगतियाँ / कविता भट्ट

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(उत्तराखंड के विशेष सन्दर्भ में)

उत्तराखंड के सन्दर्भ में महिलाओं द्वारा किए गए प्रमुख आंदोलनों तथा विसंगतियों का विवेचन करने से पूर्व कुछ तथ्यों का स्पष्टीकरण आवश्यक है। पहला यह की विज्ञान, संचार एवं अतितीव्र आवागमन के आधुनिक दौर में भी ग्रामीण महिला वर्ग मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। दूसरा यह कि महिला यहाँ की अर्थव्यवस्था की रीढ़ होने के होते हुए भी; आज भी संस्कारवश उत्पीड़ित एवं शोषित है। यह भी कहना अतिशयोक्ति नहीं की पहाड़ महिला की पीठ पर बंधा एक बच्चा है जिसे वह ढो भी रही है और उसका भरण-पोषण भी कर रही है। तीसरा यह कि उत्तराखंड के सन्दर्भ में इन्हीं महिलाओं के आंदोलनों ने ऐतिहासिक परिवर्तन किए। चौथा तथ्य यह है कि पुरुष और महिला एक दूसरे के विरोधी नहीं; अपितु पूरक हैं, किन्तु पुरुष प्रधान समाज की अनेक विसंगतियों के कारण महिलाओ को अनेक बार विरोध तथा आन्दोलन की राह भी पकड़नी होती है जो समाज हित में होती है। पांचवा तथ्य यह है कि आन्दोलन शब्द मात्र उस प्रतिक्रिया के लिए प्रयोग में नहीं लाया जाता जो यदा-कदा सरकार या समाज के विरोध में उजागर होती रहती है; अपितु यह सामूहिक चैतन्य-प्रवाह की सकारात्मक प्रक्रिया भी है। जन चेतना-जो नए विचारों को जन्म दे; आन्दोलन ही है अर्थात यह सकारात्मक और संवेदनात्मक प्रवाह की तरह भी है जो मानव समाज को सभ्यता के चरम पर प्रतिष्ठापित करे। इस लेख के माध्यम से हम मुख्य रूप से भारतवर्ष के हिमालयीय क्षेत्र में स्थित उत्तराखंड के महिला आंदोलनों तथा यहाँ की सशक्त; किन्तु संस्कारी महिलाओं के जीवन की विसंगतियों को प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।

भारतीय समाज पुरुष प्रधान है; किन्तु फिर भी व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय दायित्त्वो के कुशल निर्वहन में शताब्दियों से आज तक महिलाओं की अग्रणी भूमिका रही है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि उत्तराखंड हिमालय के महिला समाज ने भी प्राचीन समय से ही ऐतिहासिक सोपानों का निर्माण किया। यद्यपि; महिलाओं के नाम तीलू रौतेली, टिंचरी माई अथवा गौरा देवी आदि जो भी हों ; इन्होंने सामाजिक दृष्टि से ऐतिहासिक आंदोलनों की नींव रखी। इन्होने ऐसे आंदोलनों की नींव रखी व क्रांति के ऐसे बिगुल गुंजायमान किए; जिनकी प्रतिध्वनियों से पहाड़ ही नहीं ; सम्पूर्ण विश्व और मानव समाज गुंजायमान होता रहेगा। पहाड़ी समाज के विकास में ये आन्दोलन मील के पत्थर साबित हुए।

ये आन्दोलन मात्र महिलाओं के मुद्दों पर ही नहीं ; अपितु समाज के प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण हेतु किए गए. इन आंदोलनों के मुद्दे शिक्षा, संस्कार, मद्यनिषेध, अनुशासित समाज ,स्वच्छ, स्वस्थ एवं सुरक्षित पर्यावरण आदि रहे। सांस्कृतिक धरोहरों के शुभ संस्कारों से सुशोभित, चिरस्थायी मानव समाज की दूरदर्शी प्रतिस्थापनाओं को लेकर समय-समय पर सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दों पर अनेक आंदोलन यहाँ की महिलाओं ने किए। इन आंदोलनों में चिपको, मद्यनिषेध, उत्तराखंड राज्य निर्माण, रक्षासूत्र, मैती, सांस्कृतिक, सर्वशिक्षा, साक्षरता तथा महिला समाख्या जैसे आन्दोलन प्रमुख हैं। यहाँ की महिला अपनी कठिन दिनचर्या, विषम परिस्थितियों एवं चुनौतीयुक्त वातावरण में भी सामाजिक हितों के लिए समर्पित रही। इन आन्दोलनों की अनेक उपलब्धियाँ भी हैं।

सर्वप्रथम बात करेंगे गढ़वाल क्षेत्र के चमोली जनपद में चलाये गए चिपको आन्दोलन की; इसकी कर्णधार गौरा देवी को कौन नहीं जनता; लेकिन इस आन्दोलन का श्रेय कैसे पुरुषो ने लिया यह भी सभी जानते हैं। यह आन्दोलन तत्कालीन ही नहीं ,आज के सबसे ज्वलंत मुद्दे-स्वच्छ, संतुलित एवं स्वस्थ पर्यावरण की रक्षा को समर्पित था। वनों को अपने मायके और वृक्षों को अपने भाइयों की संज्ञा देते हुए गौरा देवी के नेतृत्व में सैकड़ों महिलाएँ पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उन पर चिपक गई थी। इस प्रकार वन माफियाओं से उन्होंने लोहा लेकर वृक्षों की रक्षा की और वनों से माफिया के पैर उखाड़ फेंके.उनमे से अधिकतर महिलाएँ अनपढ़ होने के बावजूद वनों के कटान से उपजने वाले पर्यावरणीय असंतुलन को जन्म देगा। उन महिलाओं द्वारा किया गया यह आन्दोलन पर्यावरण संरक्षण हेतु किए गए विश्व के बड़े आन्दोलनों में से एक था। इन महिलाओं ने मानव समाज की रक्षा हेतु पर्यावरण को संरक्षित करने का महत्त्वपूर्ण आन्दोलन था। इस आन्दोलन के कारण सम्पूर्ण विश्व में गढ़वाल को एक विशेष स्थान प्राप्त हुआ। इसी महिला आन्दोलन के कारण भारत सरकार द्वारा आज पर्यावरण संरक्षण को प्रोत्साहित करने हेतु आक्सीजन रॉयल्टी पर सहमति की मोहर लगाई गई है। इस प्राविधान के तहत जो व्यक्ति जितने वृक्ष संरक्षित करेगा उसे उसके अनुपात में लाभांश दिया जाएगा; किन्तु विसंगति यह है कि जिस आन्दोलन को यहाँ की महिलाओं ने अपने अथक प्रयासों से किया, उसका श्रेय पुरुषों को दे दिया गया; गढ़वाल की गौरा देवी तथा अन्य निस्वार्थ एवं निश्छल महिलाओं के नामों को हाशिये पर रखकर इसका पूरा श्रेय तथाकथित पर्यवारणविदों को दे दिया गया। यह तो बिलकुल वैसी ही बात हुई; कि पशुपालन के सारे कार्य और दूध दुहकर मठ्ठा बनाने जैसे कार्य किए महिलाओं ने और मलाई, मक्खन और घी खा गए पुरुष प्रधान समाज के प्रतिनिधि। आंदोलनों की इस शृंखला में दूसरे बड़े आन्दोलन-मद्यनिषेध की प्रणेत्री टिंचरी माई को इतिहास कभी भूल नहीं सकता; जिन्होंने अपने शराबी पति से विरक्ति के पश्चात्; अनेक महिलाओं को अपने साथ जोड़कर आजीवन नशे के लिए ली जाने वाली टिंचरी एवं शराब का क्रन्तिकारी विरोध किया। बिना किसी पुरुष को साथ लिए टिंचरी माई ने स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ दशक बाद ही स्वयं को सशक्त ढंग से प्रस्तुत किया। वे पिछड़े हुए गढ़वाल क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए उत्तराखंड में गढ़वाल के भावर क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं के समाधान हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू से मिलने चली गई।

वे साध्वी थी ; इसलिए निर्भीक थी, उन्होंने नेहरू जी से हाथ पकड़कर यह कहा कि चलिए ,तो सही, हमारा क्षेत्र कितना पिछड़ा है, देखिये तो सही कि गढ़वाल की जनता अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, पेयजल आदि जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव को कैसे झेल रही है। नेहरु जी को माई के हाथों की तपन से अनुभव हुआ की माई तो तीव्र ज्वर से पीड़ित है। इस प्रकार का त्याग और तपस्या पहाड़ की नारी के खून में रहा है कि सामाजिक हितों के लिए अपने व्यक्तिगत हितों का त्याग वे हमेशा से ही करती रही हैं। नेहरू जी ने माई की चिकित्सा करवाने के साथ ही भावर क्षेत्र का जायजा लेकर उस क्षेत्र में पेयजल आदि की व्यवस्था दुरुस्त करने के निर्देश दिए. इस प्रकार के इच्छा शक्ति थी उत्तराखंडी नारी की प्रतिनिधि टिंचरी माई में। टिंचरी माई स्वयं में ही किसी सामाजिक संस्था से कम नहीं थी। उन्होंने अनेक विद्यालय, चिकित्सालय अपनी पेंशन और निजी प्रयासों से खुलवाए. वे अंतिम साँस तक सामाजिक दुःख-दर्द को अपना समझकर सामाजिक कार्यों के लिए सदैव समर्पित रही।

टिंचरी माई ने गढ़वाल की नशामुक्ति हेतु जो प्रयास किए वे उस समय बहुत ही प्रभावी हुए, वे ठेकों को महिलाओं के बड़े-बड़े समूह ले जाकर तोड़ देती थी; इससे शराब का प्रचलन घटने लगा; क्योंकि एक भय व्याप्त हो गया; लेकिन बड़े ही खेद का विषय है; जिस शराबबंदी के लिए उन्होंने पूरा जीवन खपा दिया, उसी शराब तथा नशे ने उत्तराखंड के अधिकांश जनमानस को दीमक के खाए हुए वृक्ष के समान खोखला कर दिया है। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाएँ २४ घंटे में से १८-१८ घंटे तक बंधुआ मजदूरों के समान कार्य करती हैं। घर के कार्यों के अतिरिक्त खेती, पशुपालन, बैंक, पोस्ट ऑफिस, परिवार के भरण-पोषण तक का समस्त कार्य इन्ही महिलाओं के हवाले है। इन सारी जिम्मेदारियों के साथ ही वे नशामुक्ति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क निर्माण, पेयजल तथा चिकित्सा के मुद्दों को लेकर आंदोलनों द्वारा समाज के उत्थान में जुटी हुई हैं। इतना होते हुए भी वे संस्कारवश अपने नशाखोर पिता, पति और पुत्र के समक्ष अपने को लाचार ही अनुभव करती हैं। भारतीय नारी के आदर्शों पर चलते हुए ,वे व्यक्तिगत जीवन में केवल संस्कारों के निर्वहन करते हुए; केवल अश्रुपूरित जीवन को ही झेल रही हैं। अनेक घरों में महिलाएँ अपने शराबी पति के द्वारा नशे में किए गए उत्पीडन तथा घरेलू हिंसा की शिकार हैं। अनेक बार तो हिंसा इतनी चरम पर होती है कि महिलाएँ मारपीट में अपने शरीर का कोई अंग विशेष हमेशा के लिए भी खो देती हैं। विसंगति का चरम तो देखिए कि सामाजिक रूप से अनेक आंदोलनों से सरकारी नीतियों में परिवर्तन लाने वाली महिला संस्कारों में उलझी होने के कारण कितनी विवश और अशक्त प्रतीत होती है।

समय-असमय आने वाली आपदाओं एवं सरकार की गैरजिम्मेदाराना नीतियों की वजह से उत्तराखंड का निम्न युवा वर्ग बेरोजगारी व भूखमरी के कगार पर खड़ा है; किन्तु फिर भी नशे के मकड़जाल में बुरी तरह फंसा हुआ है। बड़े खेद व शर्म का विषय है कि जिस उम्र में किशोरों को अपने भविष्य के निर्माण हेतु नींव रखनी चाहिए व किस उम्र में युवाओं को व्यक्तिगत व सामाजिक विकास में सहभागी बनना चाहिए तथा जिस उम्रदराजी में अधेड़ों को अनुभवों द्वारा समाज को नयी दिशा देनी चाहिए; वे सभी उम्र वर्ग को ही भुगतना होता है जो दिन भर के कमरतोड़ परिश्रम के बाद चन्द पैसे कमाकर किसी प्रकार परिवार का भरण-पोषण भी करती हैं; और तब भी पुरुषों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं। परिणामत: महिलाओं के द्वारा आज भी सरकार के विरोध में मद्यनिषेध हेतु अनेक आन्दोलन किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त गढ़वाल के कई गाँवों में महिलाओं द्वारा शराब उन्मूलन हेतु स्थानीय आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त गढ़वाल के कई गाँवों में महिलाओं द्वारा शराब उन्मूलन हेतु स्थानीय आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। इसके अंतर्गत जिस परिवार या व्यक्ति के द्वारा शादी-समारोहों में शराब परोसी जाती है, महिला प्रधान, पंचायत तथा महिला मंगल दल द्वारा उससे जुर्माना वसूला जाता है। इस प्रकार यह नशामुक्ति का आन्दोलन महिलाओं द्वारा निरंतर जारी है।

आन्दोलनों की सूची में उत्तराखंड राज्य -निर्माण -आन्दोलन पुरुषों व महिलाओं द्वारा संयुक्त रूप से चलाया गया एक बड़ा आन्दोलन था; परन्तु इसके लिए महिलाओं ने ही अधिक बलिदान दिया। मुझे आज भी याद है ,जब सैकड़ो महिलाएँ अपने व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर मुजफ्फरनगर कांड में राज्य आन्दोलन की वेदी पर समर्पित हो गई थीं। अनेक प्रकार से प्रताड़ना, अपमान व त्रासदी को झेलकर भी अलग से पहाड़ी राज्य मिलने पर वे गौरव का अनुभव कर रही थीं। मुझे अब भी याद है ,जब मैं इण्टरमीडिएट की छात्रा थी; तो हम किस प्रकार से अपनी पढ़ाई का व्यक्तिगत मोह छोड़कर ,सामाजिक हितों को देखते हुए कई-कई घंटे पृथक् राज्य- निर्माण के आन्दोलन में हम लोग दिन-रात एक कर रहे थे। इस प्रकार पहाड़ की महिलाओं द्वारा किया गया यह विश्व के सबसे बड़े जन आंदोलनों में से एक आन्दोलन के रूप में इतिहास में अंकित हुआ। इस सम्बन्ध में विसंगति यह है कि महिलाओं ने लाज, जीवन, परिश्रम और प्रताड़नाओं के बदले ,अलग राज्य का निर्माण करवाया; आज का उत्तराखंड उनकी परिकल्पना से बिलकुल विपरीत है। आज भी यहाँ की सरकारें ऐसी कोई नीति नहीं बना पायी जिससे यहाँ की महिलाओं को बोझ से मुक्त किया जा सके. कई-कई किलोमीटर से उतराई-चढ़ाई पर आज भी पहाड़ी महिलाओं को अपना पहाड़-सा ही कठिन जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। एक विसंगति यह भी है कि पंचायत राज में भी अधिकतर महिलाओं को केवल मोहर की भाँति ही उपयोग में लाया जाता है। महिलाएँ प्रधान, क्षेत्र पंचायत सदस्या, जिला पंचायत सदस्या, आदि से लेकर विधायक एवं सांसद तक हैं; किन्तु अधिकतर महिलाओं को 'महिला की मोहर पुरुष के झोले में' वाली लोकोक्ति ही कही जाती है।

अब एक और आन्दोलन की बात करते हैं; जो उत्तराखंड की महिलाओं द्वारा चलाया गया; पर्यावरण प्रदूषण व असंतुलन आज प्रबुद्ध वर्ग के समस्त व्यक्तियों, वैज्ञानिको व पर्यावरणविदों के लिए चिंता का विषय है व विश्व की रक्षा का प्रश्न हमारे समक्ष एक पहेली की तरह है। ऐसे में उत्तरकाशी की महिलाओं का रक्षा -सूत्र आन्दोलन-जिसमे वृक्षों को राखी पहनाकर उन्हें संरक्षित व पोषित किया जाता है तथा जिला चमोली की महिलाओं के द्वारा चलाया जा रहा मैती आन्दोलन ,जिसमे विवाह होते समय वर-कन्या द्वारा एक वृक्ष अवश्य रोपा व संरक्षित किया जाता है। ये आन्दोलन समस्त वैश्विक समाज के लिए प्रेरणा स्तम्भ हैं; किन्तु विसंगति यह है कि इन आंदोलनों का श्रेय भी पुरुष ही लेना चाह रहे हैं।

आज पाश्चात्य सभ्यता के अन्धानुकरण के कारण हमारे समक्ष उत्तराखंड की संस्कृति के संरक्षण की चुनौती है, ऐसे समय में चांचरी, थडिया एवं चौफुला आदि नृत्यों के रूप में समस्त उत्तराखंड की महिलाओं द्वारा चलाया जा रहा सांस्कृतिक आन्दोलन हमारी सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण ही नहीं संवर्धन भी कर रहा है। सामयिक समस्याओं में शिक्षा से सम्बंधित सर्वशिक्षा और साक्षरता आन्दोलन सुशिक्षित व सुसंस्कृत समाज के निर्माता हैं। इनको आगे बढ़ाने में महिलाओं की अग्रणी भूमिका रही है। महिला समाख्या एक विचारधारा थी ,जो कि एक आन्दोलन के रूप में महिलाओं के अस्तित्व की लड़ाई को जारी रखे हुए है। स्वरोजगार आदि की दिशा में इसके माध्यम से अनेक कार्य किये जा रहे हैं, जो गढ़वाल के समाज को चेतना प्रदान कर रहे हैं। उत्तराखंड के ग्रामीण परिवेश की बालिकाओं में असीम बौद्धिक क्षमता विद्यमान है; किन्तु विसंगति यह है कि विद्यालयों के दूर होने तथा मूलभूत सुविधाओ के अभाव में ये बालिकाएँ तकनीकि एवं रोजगारपरक शिक्षा से अभी भी वंचित हैं।

विज्ञान, अतितीव्र आवागमन एवं दूर संचार तथा अभूतपूर्व भौतिक विकास से युक्त वर्तमान युग में जहाँ महिला सशक्तीकरण के उच्चस्तरीय दावे किए जा रहे हों; ऐसे में गढ़वाल के सुदूरवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं ने अपनी दुरूह जीवन शैली के होते हुए भी अपने गौरवपूर्ण इतिहास को स्वयं ही रचा है। चूँकि, पहाड़ की अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा खेती-बाड़ी व पशुपालन से जुड़ा हुआ है व इनसे सम्बंधित अधिकांश कार्य महिलाओं के ही जिम्मे हैं, इसलिए इस अर्थव्यवस्था में महिलाएँ रीढ़ की हड्डी जैसी हैं।

महिला आन्दोलनो के मूल कारण और घटक यद्यपि बहुत सारे हैं; किन्तु यह तो निश्चित ही है कि अत्यधिक संघर्षपूर्ण जीवन- स्थितियों का निर्वहन करते हुए भी महिलाएँ समाज में निर्णायक आंदोलनों की अगुआ रही हैं। यह ऐसा पक्ष है जहाँ वातानुकूलित व आधुनिक सुख सुविधाओं वाले बंद कक्षों में बैठे अधिकारियों व राजनीतिज्ञों द्वारा महिला सशक्तीकरण व उत्थान के लिए बनाईं जाने वाली कागजी योजनाओं का परिहास होता है व नारी शक्ति उद्घोष करती है कि हम अपना सम्बल स्वयं हैं। हमें किसी के सहारे की आवश्यकता नहीं। ऐसे में विभिन्न मुद्दों से जुड़े उपर्युक्त आन्दोलन महिलाओं के साथ ही समस्त समाज को दिशा देने का कार्य कर रहे हैं।