महिला केंद्रित फिल्मों की सफलता / जयप्रकाश चौकसे

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महिला केंद्रित फिल्मों की सफलता
प्रकाशन तिथि : 29 अप्रैल 2019


किसी भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को चुनाव लड़ने के लिए समुचित अवसर नहीं दिए हैं। इतना ही नहीं वर्षों से महिलाओं को 33 फीसदी कोटा देने का बिल संसद में लंबित पड़ा है। यहां तक कि उस बिल पर चर्चा ही नहीं हुई। दरअसल, प्रतिनिधित्व 50 फीसदी होना था परंतु 33% वाला बिल ही कूड़ेदान में फेंका हुआ प्रतीत होता है। संविधान में समानता का अधिकार दिया गया है परंतु समाज में सदियों से पूर्वाग्रह के बादल छाए हुए हैं। फिल्म उद्योग में भी नायक केंद्रित फिल्मों की संख्या बहुत अधिक है। सारे फिल्मकार इस भ्रम में है कि महिला प्रधान फिल्में अधिक धन नहीं कमातीं, जबकि महबूब खान की 'मदर इंडिया' सबसे अधिक दर्शकों ने देखी है। आज के युवा को सात दशक पूर्व बनी 'मदर इंडिया" का उदाहरण देना अखरता है तो निवेदन है कि विद्या बालन अभिनीत 'कहानी', तापसी पन्नू केंद्रित 'नाम शबाना', रानी मुखर्जी अभिनीत 'नो वन किल्ड जेसिका', 'पिंक' इत्यादि फिल्में वर्तमान कालखंड में ही बनी हैं। हम इतिहास प्रेरित गल्प कंगना रनोट अभिनीत 'झांसी की रानी' और दीपिका पादुकोण अभिनीत 'पद्मावत' को कैसे नज़रअंदाज कर सकते हैं। गौरी शिंदे की श्रीदेवी अभिनीत 'इंग्लिश विंग्लिश' भी सफल रही थी। आज़ादी हासिल करने के पहले शोभना समर्थ, लीला चिटनिस, दुर्गा खोटे और नरगिस की मां जद्दन बाई फिल्मकार रही हैं। निर्मला भुराड़िया ने 'कैमरे के पीछे' महिलाएं नामक शोध परक किताब में 14 महिला फिल्मकारों का विवरण प्रस्तुत किया है। दीपा मेहता, सई परांजपे, अरुणा राजे और अपर्णा सेन ने यादगार फिल्में बनाई हैं। अपर्णा सेन की '36 चौरंगी लेन' और अरुणा राजे की 'रिहाई' मर्दों की मांद में अतिक्रमण करने वाली महिला फिल्मकारों की रचनाएं हैं। यह कहावत है कि हर पुरुष में पुरुष, स्त्री और शैतान छुपा होता है। हरिवंश राय बच्चन ने कहा है कि उनका सारा सृजन उनके भीतर बैठी स्त्री ने किया है। पुरुषों का धुंध से घिरा मस्तिष्क और महिला के गर्भाशय की कार्यप्रणाली के सारे रहस्य अभी तक उजागर नहीं हो पाए हैं, परंतु शोध जारी है। सिमोन डी ब्वॉ की महान किताब 'द सेकंड सेक्स' हजारों वर्षों में महिलाओं पर हुए अत्याचार को बयां करती है। एक जगह वे इस आशय की बात कहती हैं कि बुर्जुआ समाज द्वारा निर्मित सारे सौंदर्य प्रसाधनों को तजकर जब महिला अपनी देह को उसके संपूर्ण रहस्य के साथ उजागर करती है, तो लंपट पुरुषों के पैरों के नीचे से जमीन खिसक जाती है। इसके टाइटल में 'सेक्स' शब्द से आप किताब की गहराई को ही नहीं समझ पाते। सारा शगुफ़्ता की कविताओं से पाकिस्तान का सामंतवादी एवं रूढ़िवादी समाज इस कदर हिल गया था कि सारा की हत्या करके उसके रेल के नीचे कट जाने का झूठ गढ़ा गया। सारा शगुफ़्ता लिखती हैं-'मर्दानगी का परचम हाथ में लिए फिरने वालों, औरत जमीं नहीं कुछ और भी है, यौनाचार के आकाश में वासनाओं की पतंग उड़ाने वालों, औरत आकाश नहीं कुछ और भी है।'

ग्वालियर में रहने वाले पवन करण ने पुरातन ग्रंथों का अध्ययन व शोध करके पौराणिक काल में 200 से अधिक महिलाओं की व्यथा-कथा लिखी है। उनके 'स्त्री शतक' के दो खंड भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित हुए हैं। उनके एक संग्रह का नाम 'स्त्री मेरे भीतर' है। उनके काव्य में नारी की देह अपनी स्वतंत्रता के लिए कसमसाती, कराहती नज़र आती है और आशा है कि उनकी अगली रचनाओं में नारी की आर्थिक स्वतंत्रता और राजनीति में सक्रियता पर भी फोकस करेंगे। पवन करण का अब तक का सृजन उस सड़क की तरह है, जिस पर अभी मरम्मत का काम जारी है। उनका हाईवे आपको अंतरिक्ष तक छोड़ सकेगा। अगर संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ती है तो कम से कम इतने से लाभ की आशा भी कम नहीं कि संसद में बोली गई भाषा में शालीनता का आना संभव हो जाएगा। शायद भाषा का अपमान भी इसलिए किया जा रहा है कि वह शब्द स्त्रीलिंग है। तमाम अपशब्द भी महिला केंद्रित हैं। हमारे महान ग्रंथ कहते हैं कि जिस घर में स्त्री को आदर नहीं दिया जाता वह घर नहीं बीहड़ होता है। संसद को बीहड़ बनने से बचाने के लिए संसद में महिलाओं की संख्या बढ़नी चाहिए।

प्रेम भारद्वाज द्वारा संपादित 'पाखी' में खाकसार की कथा 'संसद में खून के दाग' प्रकाशित हुए अरसा हो गया है। कथा है युद्ध में एक शहीद की विधवा पर किए गए जुल्म और उसका संसद तक पहुंचना....महिलाओं के मत चुनाव में निर्णायक सिद्ध होते हैं, परंतु उनको कितने कम अवसर दिए जाते हैं। पढ़ी-लिखी सुसंस्कृत महिला को टिकट नहीं दिया जाता। फिजाओं में कोहरा छाया हुआ है।