महिला सितारों का जमघट / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 जून 2017
सफल सितारों का आसमान छूता मेहनताना और लाभांश मांगने के कारण निर्माता नारी केंद्रित फिल्में बनाना चाहते हैं परंतु एक नायिका से लागत निकालना कठिन होता है। अत: तीन या चार नायिकाओं की फिल्में बनाने के प्रयास हो रहे हैं। अगस्त माह में फिल्मकार शशांक घोष की फिल्म 'वीर द वेडिंग' की शूटिंग दिल्ली में की जाएगी, जिसमें करीना कपूर, सोनम कपूर, स्वरा भास्कर और शिखा तलसानियां अभिनय करने जा रही हैं गोयाकि यह चार महिला पात्रों की कहानी है। शांतारामजी ने 1936 में चार महिलाओं की फिल्म 'जीवन ज्योति' बनाई थी, जिसमें पुरुष बर्बरता से त्रस्त एक विवाहिता अपनी तरह तीन और सताई गई महिलाअों का एक दल बनाती है, जो सशस्त्र होकर अन्याय करने वाले पुरुषों को दंडित करती हैं। इसी अवधारणा की माधुरी दीक्षित अभिनीत 'गुलाबी गैंग' नामक फिल्म बनी थी, जो एक सत्य घटना से प्रेरित थी। इनसे अलग थी शेखर कपूर की फूलनदेवी परंतु केंद्रीय विचार तो अन्याय सह रही महिला का ही रहा है। अन्याय व असमानता आधारित अंधी व्यवस्था लिंग भेद नहीं करती, उसकी चक्की में सभी पिसते हैं, चाहे वह व्यापारी हो, किसान हो, छात्र हो या मजदूर हो।
महिला को समानता दिलाने के आंदोलन होते रहे हैं। शास्त्रों से संविधान तक उसे पूजनीय भी बताया जाता रहा है परंतु यथार्थ जीवन में इसके विपरीत घटित होता रहा है। कहते हैं कि हर पुरुष में आधी महिला, आधा पुरुष और आधा शैतान समाया हुआ होता है। कभी-कभी ही तीनों स्वरूप एक साथ सामने प्रस्तुत होते हैं, क्योंकि अपने को छुपाए रखना सहज स्वभाव है। समुद्र की थाह तक पहुंचा जा सकता है परंतु मनुष्य के अवचेतन की थाह पाना असंभव है। निदा फाज़ली तो कहते हैं हर आदमी में दस आदमी छिपे होते हैं। क्या रावण के दस सिर होना भी इसी का प्रतीक है? वह सीता का अपहरण करता है परंतु अपनी कैद में जकड़ी सीता से कभी बदतमीजी नहीं करता, कभी दुराचार की कोशिश नहीं करता।
बर्नाड शॉ के नाटक से प्रेरित फिल्म 'माय फेयर लेडी' में एक गीत है, 'व्हाय वीमैन कांट बी लाइक मैन' अर्थात औरत पुरुष जैसी क्यों नहीं होती। अगर स्त्री और पुरुष समान हो जाएं या एक-सा ही सोचने लगें तो जीवन बहुत उबाऊ हो सकता है। सारी सृष्टि की रचना में विविधता ही सबसे प्रमुख है। एक राजनीतिक विचारधारा चाहती है कि सब एक से वस्त्र पहनें और एक-सा सोचें अर्थात यह विचार सृष्टि की रचना के ही विरुद्ध जाता है।
पुरुष में स्त्री के होने को शांताराम ने 'नवरंग' के एक गीत में यूं प्रस्तुत किया है कि नायिका कुछ पंक्तियां गाकर, उन पर ठुमककर पेड़ के पीछे जाती है और फिर पुरुष रूप में सामने आती है। नारी और पुरुष की शारीरिक और वैचारिक विभिन्नता से ही जीवन रोचक बना रहता है। चार नायिकाओं का एक फिल्म में होना पुरुष विरोधी विचार नहीं है और न ही शांताराम की 'जीवन ज्योति' में सताई हुई महिलाओं का एक होना पुरुष विरोधी है। ये सारे विरोध अन्याय व असमानता के खिलाफ है। याद कीजिए कि 'गुलाबी गैंग' में माधुरी की अंतिम जंग जूही चावला के खिलाफ है, क्योंकि जूही का पात्र अन्याय का प्रतीक है।
आक्रोश की मुद्रा, चाहे पुरुष पात्र प्रस्तुत करे, चाहे महिला पात्र करें, वह अन्याय के ही खिलाफ है और इसी रूप में देखा जाना चाहिए। इस जंग में लिंग भेद का बखेड़ा खड़ा करना अनावश्यक है। कितनी ही कहानियों में कन्या के जन्म के तथ्य को छिपाने के लिए उसे बालक की तरह पाला-पोसा जाता है परंतु सत्य उजागर होकर रहता है। मात्र वस्त्र परिवर्तन से कुछ नहीं होता। चार महिलाओं को लेकर फिल्म बनाने का मूल कारण पुरुष सितारों का आसमान छूता मेहनताना है। आर्थिक विषमताएं और कष्ट सभी नैतिक मूल्यों को बदल देते हैं। इस विचार की श्रेष्ठ कथा बेदी की 'एक चादर मैली सी' है।