महिला सितारों की अंतरराष्ट्रीय पहचान / जयप्रकाश चौकसे

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महिला सितारों की अंतरराष्ट्रीय पहचान
प्रकाशन तिथि :22 जनवरी 2017


दीपिका पादुकोण और विन डीज़ल अभिनीत 'एक्स एक्स एक्स' का भारत में प्रदर्शन उत्साहवर्द्धक नहीं रहा। बॉक्स ऑफिस पर औसत आय रही परंतु फिल्म देखने वाले दर्शक नाखुश नज़र आ रहे हैं। शीघ्र ही प्रियंका चोपड़ा की फिल्म भी प्रदर्शित होगी। अमेरिका के आम दर्शकों के बीच प्रियंका चोपड़ा लोकप्रिय हैं और उनकी फिल्म दीपिका पादुकोण से बेहतर परिणाम दे सकती है। संभवत: सदियों तक गुलाम रहने के कारण हमारी सामूहिक मानसिकता कुछ ऐसी बन गई है कि विदेश से काम का प्रस्ताव मिलते ही उसे स्वीकार कर लिया जाता है और अपनी कॅरिअर की टोपी में सुरखाब के पर की तरह लगाया जाता है। दीपिका पादुकोण जैसी समझदार स्टार ने अमेरिकी फिल्म की पटकथा पढ़े बिना ही उसे स्वीकार कर लिया गोयाकि रुपए से अधिक मूल्य और महत्व तो डॉलर का ही है। भारत के फिल्मकार से पटकथा मांगने वाली शिखर सितारा ने अमेरिकी निर्माता से पटकथा नहीं मांगी। सारा नाज़ो नखरा घरेलू निर्माता के लिए है। विदेशी फिल्मकार के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए जाते हैं।

दीपिका पादुकोण की फिल्म हमें याद दिलाती है चौथे दशक की नाडिया की फिल्मों की। यह इत्तेफाक भी देखिए कि विशाल भारद्वाज की कंगना रनौट अभिनीत 'रंगून' में कंगना नाडिया की तरह हाथ में हंटर लिए खड़ी हैं। नाडिया ऑस्ट्रेलिया में जन्मी सर्कस कलाकार थीं और होमी वाडिया उन्हें भारत ले आए तथा 'हंटरवाली' और 'पंजाब मेल' की तरह अनेक सफल फिल्में उन्होंने बनाई और नाडिया से विवाह भी किया। कुछ समय पहले फिल्मकार विशाल ने नाडिया बायोपिक बनाने की इच्छा जाहिर की थी। संभवत: अपनी किशोर अवस्था में देखी नाडिया की फिल्मों की याद अभी तक उनके अवचेतन में दर्ज है। यह संभव है कि नाडिया बायोपिक का आर्थिक समीकरण नहीं जमने के कारण उन्होंने उस विचार को त्याग दिया हो परंतु अपनी 'रंगून' में नायिका कंगना को कुछ दृश्यों में नाडिया की तरह उन्होंने प्रस्तुत करके अपने उस कथा विचार का शमन कर लिया।

दीपिका पादुकोण की फिल्म के औसत व्यवसाय की खबर के साथ ही यह खबर भी है कि प्रियंका चौपड़ा को अमेरिका में लोकप्रियता के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। स्मरण आता है कि जब नरेंद्र मोदी अमेरिका गए थे तो उनके स्वागत के लिए प्रवासी भारतीयों ने जगह-जगह भव्य बैनर लगाए थे परंतु उन्हीं स्थानों पर प्रियंका चोपड़ा की 'क्वांटिको' के पोस्टर कहीं अधिक संख्या में कहीं अधिक स्थानों पर लगे थे। मोदी भक्त आप्रवासी भारतीय इस बात से दु:खी लग रहे थे कि भारतीय कलाकार, भारतीय प्रधानमंत्री से अधिक लोकप्रिय है। तब तक मोदी प्रचार मशीन सुचारु रूप से सक्रिय नहीं हो पाई थी। वर्तमान मंे तो उस प्रचार मशीन के घनघोर स्याह बादलों ने सत्य के सूरज को भी ढंक लिया है। इस कालखंड में प्रचार का मुर्गा बांग नहीं दे तो सूरज उगता भी नहीं है। हमारे अपने 'महाभारत' में भगवान श्रीकृष्ण ने सू्र्य को छिपाकर जयद्रथ का वध कराने में सफलता पाई थी। कोई आश्चर्य नहीं कि व्यक्ति पूजा में लीन हम भारतीय लोगों का सत्य के प्रति रवैया पौराणिक सूर्य-बादल कृष्ण लीला की तरह ही है। पौराणिकता के मोहपाश से हम मुक्ति चाहते ही नहीं हैं। यह कथा वाचकों और श्रोताओं का अनंत देश है।

लगभग डेढ़ करोड़ भारतीय विदेशों में जा बसे हैं और अमेरिका में इनकी संख्या इतनी अधिक है कि वहां कुछ दुकानों में अचार, पापड़ इत्यादि भी उपलब्ध हैं। हालात ऐसे हैं कि आलू और भारतीय सभी देशों में पाए जाते हैं। शायद इसी तथ्य के कारण ओबामा ने बयान दिया है कि कोई भारतीय मूल का व्यक्ति भविष्य में अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जा सकता है। भारत की जीवनशैली पर अमेरिका का प्रभाव बढ़ता जा रहा है गोयाकि वाशिंगटन में मोदी और नई दिल्ली में ट्रम्प सत्तासीन होंगे। आज भी नीतियों के स्तर पर कमोबेश यही तो हो रहा है। राइट विंग सफलताएं भयावह भविष्य का संकेत है।

स्मृति के केलाइडोस्कोप को थोड़ा-सा घुमाने पर पुराना फिल्मी गीत याद आता है, 'मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफून तुम्हारी याद सताती है।' इस तरह के अनेक गीत बने हैं, 'जैसे ईना मीना डीका, डाई, डामा नीका, रम पम पो...।' बहरहाल, हमारी नायिकाओं को विदेश में अवस मिल रहे हैं परंतु नायकों को कोई आमंत्रण नहीं मिल रहा है। इसका कारण यह है कि सभी देशों का फिल्म उद्योग पुरुष प्रधान है और भारतीय नायकों को लेने पर आर्थिक समीकरण सही नहीं जम पाता। इसके साथ यह भी सच है कि नारी देह का आकर्षण वैश्विक है यद्यपि यह उसकी स्वतंत्र हैसियत का अपमान है। सतत परिवर्तन हो रहे हैं परंतु नारी देह के मामले में वहशत जस की तस है। यहां तक कि घनघोर शाकाहारी भी 'गोश्त की दुकान' के सामने लार टपकाते खड़े रहते हैं।