माँद / शिवजी श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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एक बालक-रामू, बचपन में जिसे भेड़िये उठा ले गए। भेड़ियों के बीच रामू भेड़िया बालक बन गया-न पूरी तरह आदमी ही और न पूरी तरह भेड़िया ही। समाज की पीड़ा यह है कि देश एक भावी नागरिक से वंचित रह गया। यह भी संभव है कि उसके अंदर कई विराट संभावनाएँ छुपी रही हों-कलाकार, डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या साहित्यकार बनने की, पर मेरी पीड़ा उससे कुछ भिन्न है। मेरी कल्पना में बिम्ब उभरता है एक दुधमुँहे बच्चे का। भेड़िये अपनी माँद में उसे पंजों से सहलाकर दुलारते होंगे, जीभ से चाटकर प्यार करते होंगे, मुँह में दबाकर यहाँ से वहाँ ले जाते होंगे और लहूलुहान होता हुआ वह शिशु भेड़ियों के उस झुण्ड में चीख-चीखकर रह जाता होगा-बस।

स्टाफ-रूम में घुसते-घुसते सुभाष गुप्ता अचकचाकर रुक गया, अंदर से आती हुई आवाज़ सुनकर उसके कान खड़े हो गए और पैर थम गए।

"क्यों भाई ओझा, हिन्दी में जो नया लड़का आया है, कैसा लगा वह?" बत्रा कि यह बात सुनकर वह रुक गया था।

"अरे, ठीक ही है यार।" उत्तर में ओझा का उदासीन स्वर सुनाई दिया। उसने दरवाजे से चिपककर गर्दन उचकाकर चोरों की तरह अंदर झाँका और तुरंत सीधा खड़ा हो गया। स्थानापन्न प्राचार्य गुरुशरण ओझा, अंग्रेज़ी के विभागाध्यक्ष कृष्णकुमार बत्रा तथा समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष नरेन्द्र यादव ईजी-चेयरों पर इत्मीनान से पसरे हुए बतिया रहे थे। बत्रा के हाथ में सिगरेट थी, धुएँ की लकीरें उसके चेहरे के ऊपर की ओर फैलती चली जा रही थीं। गुप्ता ने किवाड़ों से सटकर अंदर की ओर कान लगा दिए।

"पर यार ओझा!" बत्रा का तेज स्वर फिर बाहर आया-"तू तो कहता था कि इस कॉलेज में अब पंडित के अलावा किसी को नहीं घुसने देंगे, फिर ये बनिया कहाँ से आ गया?"

गुप्ता के दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं।

"कमीशन के रास्ते से घुसकर आया है ससुरा, वरना तुम जानते हो कि हम अब किसी गैर-पंडित को नहीं घुसने देते।" ओझा के स्वर में दर्प था।

गुप्ता के पैर काँपने लगे।

"पर कुछ भी हो यार, तुम्हारी मात हो गई।" यह यादव का स्वर था-"हम होते तो ससुरे को ज्वाइन ही नहीं करने देते।"

"अरे, ठीक है यार!" ओझा के स्वर में वही दर्प था-"आ गया तो क्या हुआ, रहेगा तो इस कालेज में हमारी ही मर्जी से।"

"वाह ओझा, गैर-पंडित पर भी अपना हक़ जता रहे हो।" बत्रा कि विषाक्त हँसी से सना स्वर गुप्ता को सुनाई दिया-"ये बनिया तुम्हारी नहीं, हमारी मर्जी से रहेगा।"

ओझा ठठाकर हँसा-"उस बनिये को पंडित बनाके न छोड़ा तो हम ओझा नहीं।"

"और हमने भी अगर उसे तुम्हारा दुश्मन बनाकर न छोड़ा तो हम भी बत्रा नहीं!" बत्रा के स्वर में चुनौती का भाव था।

गुप्ता को चक्कर-सा आ गया। उसे लगा जैसे वह किसी माँद के मुहाने पर खड़ा है और अंदर खूँखार भेड़िये उसका शिकार करने के लिए हुंकार रहे हैं। वहाँ से भागने के लिए वह मुड़ने को हुआ, पर कंधे पर किसी के स्पर्श ने उसे बुरी तरह चैंका दिया। पलटकर देखा तो उसकी साँस थमने-सी लगी-चैबे जी खड़े थे-एस0एन0 चैबे। अंग्रेज़ी के प्राध्यापक और ओझा के दाहिने हाथ। एक और भेड़िया-दहशत से भरते हुए गुप्ता ने सोचा, पर प्रकट में मुख से यही निकला-"ओह! आप?"

"हाँ भाई!" उन्होंने पिच्च से कपूरी-तम्बाकू की पीक एक ओर थूकी-"कैसे परेशान से खड़े हो? अंदर चलो न।" और गुप्ता के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे हाथ पकड़कर उसे अंदर ले आए। गुप्ता को देखते ही अंदर बैठे हुए उन तीनों लोगों की मुख-मुद्राएँ कुछ बदलीं, आँखें सिकुड़ीं और समवेत स्वर फूटे-"आहा! आओ भाई गुप्ता, बैठो भाई गुप्ता, तुम्हारी ही चर्चा अभी हम लोग कर रहे थे।"

"अच्छाऽऽऽ... तभी बेचारे बाहर दरवाजे से चिपके खड़े थे।" चौबे ने एक-एक शब्द बड़े इत्मीनान से कहा और बैठकर एक सींक से अपने दाँत कुरेदने लगे।

"इसका मतलब, आप पढ़ाने के अलावा जासूसी का काम भी कर लेते हैं...!" ओझा घूरते हुए बोला।

"तो आप शरलॉक होम हैं या जेम्स बॉण्ड?" बत्रा ने भी प्रहार किया।

गुप्ता थूक निगलने लगा।

"ये आप लोगों की अच्छी आदत नहीं है भाई।" चौबे उसी इत्मीनान से दाँत कुरेदते हुए हलके से मुस्कराए-"आते ही बेचारे को बोर करना शुरू कर दिया, बैठो भाई गुप्ता, ये लोग तो ऐसेई मज़ाक करते हैं।" बड़े दोस्ताना अंदाज़ में उन्होंने गुप्ता को खींचकर अपने बगल वाली चेयर पर बिठा लिया।

"अरे, यार गुप्ता, बुरा मान गए क्या? हम तो मज़ाक कर रहे थे।" बत्रा ने नाटकीय अंदाज़ में कहा।

"किससे मज़ाक हो रहा है सुबह-सुबह से...?" अचानक प्रश्न करते हुए मिस कामिनी ने प्रवेश किया। सबके चेहरे खिल गए। बत्रा कि आँखों की चमक कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई। जो होंठ अब तक अंगारे बिखेर रहे थे, वे फूल बरसाने लगे-"आइए-आइए, मिस कामिनी जी, यूँ ही ज़रा गुप्ता जी से बातें कर रहे थे।"

"बातें कर रहे थे या बोर कर रहे थे, मेरे विभाग के सीधे-साधे अध्यापक को!" बड़े अपनत्व के भाव से मिस कामिनी ने उलाहना-सा दिया बत्रा को और गुप्ता के बगल वाली चेयर पर बैठ गई।

गुप्ता कि साँस में साँस आई। लगा, जैसे कोई रक्षा-कवच मिल गया हो। मिस कामिनी ने मर्दाने अंदाज़ में पैर फैलाकर ईजी चेयर पर टेक लगाई और वाणी में मिठास घोलते हुए गुप्ता से प्रश्न किया-"और सुनाइए मि0 गुप्ता, कैसा लग रहा है आपको ये कॉलेज?"

"जी अच्छा!" उसने विनम्रता से उत्तर दिया।

"कॉलेज के लोग, स्टूडेंट्स...?"

"जी, बहुत अच्छे..."

"और वे लड़कियाँ?" ओझा ने मुस्कराते हुए बीच में ही सवाल दाग दिया।

"ज्...ज्...जी!" वह हड़बड़ा गया।

"अरे, वही यार, जिनसे थोड़ी देर पहले तुम बात कर रहे थे।" ओझा के स्वर में कुटिलता थी। बत्रा, यादव और चौबे के चेहरों पर भी मुस्कराहट थी।

अचानक गुप्ता कुछ समझ न सका, पर एकदम से उसे याद आ गया-आज पीरियड के बाद ही दो-तीन छात्रायें क्लास के बाहर एक प्रश्न पर 'डिस्कस' करने लगी थीं। उफ! कितने तुच्छ हैं ये लोग! उसके अंदर क्रोध की तीव्र लहर उठी पर वह कसमसाकर रह गया।

"चुप कैसे हो गए भाई, कोई पसंद हो तो बात चलाई जाए?" यादव ने भी मौका देखकर एक तीर चुभो दिया। गुप्ता ने दीनता के भाव से कामिनी जी की ओर देखा। वे भी होंठ दबाकर मुस्करा रही थीं, पर गुप्ता को अपनी ओर देखते देख सबको बड़े मीठे अंदाज़ में झिड़कने लगीं-"आप लोग भी बस हमेशा बेकार की ही बातें करते हैं, सीधा आदमी देखा ओर लगे मज़ाक करने..."

"मजाक की बात नहीं है कामिनीजी!"-ओझा के तेवर बदले, भृकुटियों पर बल पड़े-"आपके विभाग के हैं इसलिए आप ही समझा दीजिए इन्हें, लड़कियों से दूर रहें, इसी में इनकी भलाई है।"

"पर वह तो कुछ पूछने आई थीं।" गुप्ता ने सफ़ाई दी। "बात तो एक ही है श्रीमान्जी, वह आपके पास आएँ या आप उनके पास जाएँ। आपको लड़कियों से दूर रहना है बस।" ओझा ने बुरी तरह झिड़का।

"हाँ, भई।" चौबे मुँह में कपूरी डालकर मुँह ऊपर को उठाकर बोले-"अभी नई नौकरी है, इन लड़कियों के चक्कर में पड़े तो न नौकरी रहेगी और न आप..." बत्रा और यादव बड़ी अदा से मुस्कराए। मिस कामिनी ने आँखें तरेरते हुए कृत्रिम क्रोध का प्रदर्शन किया-"आप लोगों को ऐसेई मज़ाक सूझते हैं, बेचारे कितने नर्वस हो रहे हैं।" वे उठीं और निस्संकोच भाव से गुप्ता कि कलाई थामते हुए बोलीं-"चलिए गुप्ताजी, यहाँ बैठेंगे तो ये लोग ऐसेई बोर करते रहेंगे।" गुप्ता को सिहरन-सी हुई, भय और रोमांच के मिश्रित भाव से वह भर गया और किसी आज्ञाकारी बालक की भाँति मिस कामिनी के पीछे चल पड़ा-"ये लोग तो ऐसेई मज़ाक करते हैं मि0 गुप्ता, आप परेशान मत हुआ करिए।" रूम से बाहर निकलते हुए उन्होंने समझाने के अंदाज़ में कहा। गुप्ता ने कृतज्ञ नजरों से उनकी ओर देखा। वे हौले से मुस्करा दीं, गुप्ता के अंदर कुछ पिघलने-सा लगा। तभी अंदर से ओझा कि आवाज़ आई-"अरे, कामिनीजी, ज़रा सुनना तो।"

"ऊँ हूँ" , कामिनी ने मुँह बिदकाया-"आप चलिए गुप्ताजी, मैं अभी आई।" कहते हुए वे तेजी से स्टाफ रूम की ओर बढ़ गईं। गुप्ता शिथिल कदमों से आगे की ओर बढ़ने लगा।

"क्यों कामिनी जी, लड़का पसंद आ गया क्या?" ओझा को तेज और बेहूदा स्वर गुप्ता के कानों से टकराया, वह ठिठक गया।

"अरे...लड़के की उमर तो देखी होती। इस उमर में तो मेरे नाती-पोते खेल रहे हैं।" बेहूदे प्रश्न का मिस कामिनी द्वारा दिया गया बेहूदा उत्तर, उनकी खनखनाती हँसी और शेष अध्यापकों के उन्मुक्त ठहाके उसे एक साथ सुनाई दिए। अचानक हवा का एक सर्द झोंका आया। उसे कँपकँपी-सी हो आई। लगा जैसे अंदर तक कुछ जमकर रह गया है। उसने तीव्र गति से क़दम बढ़ा दिए, पर ऐसा लग रहा था जैसे कामिनी जी का वह मज़ाक और वे ठहाके उसके साथ चिपककर चले आए हैं। उसे लगा जैसे वह भयानक वन्य-पशुओं के बीच में घिर गया है, जहाँ ज़िंदा रहना भी एक कठिन साधना के समान होगा।

नौकरी की शुरूआत का यह पहला सप्ताह था सुभाष गुप्ता का, पर यह झटका पहला नहीं था जब उसकी आस्थाएँ झनझनाकर रह गई हों। पहला झटका तो उसे आते ही आते लगा था। अपने शहर से पाँच सौ मील दूर इस शहर में जब वह आया तो उसके हाथ में था इस कॉलेज के प्रवक्ता-पद का नियुक्ति-पत्र और साथ में थी मित्रो की शुभकामनाएँ, माँ के आशीर्वाद, पिता कि सीख और ढेर सारे सपने। बड़े उल्लास के साथ वह अध्यापकीय जीवन में क़दम रखने आया था। चिंतन, मनन, अध्ययन-अध्यापन-इन सबके लिए ही उसका जीवन होगा। ढेर-सी किताबें होंगी। बस, पढ़ो और पढ़ाओ, यही उसका कार्य होगा। पर इस कॉलेज में आते ही सब सपने हवा होने लगे, उल्लास दम तोड़ने लगा, आदर्श बिखरने लगे और आस्थाएँ झनझनाकर टूटने लगीं। पहले ही दिन नियुक्ति-पत्र लेकर उसे यहाँ से वहाँ लुढ़काया गया। प्राचार्य से प्रबंध-तंत्र के मंत्री, मंत्री से अध्यक्ष और अध्यक्ष से पुनः प्राचार्य तक गेंद की तरह लुढ़कते-लुढ़कते जब वह पस्त हो गया था तब कहीं उसे ज्वाइनिंग मिल पाई थी। उस वक़्त हताशा के क्षणों में विभागाध्यक्ष डॉ0 शास्त्री के इस वाक्य ने बड़ा सम्बल दिया था-"देखिए गुप्ताजी, ये तो रेल के डिब्बे में चढ़ने वाली धक्का-मुक्की है। आप निराश न हों, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।" सोचा तो उसने भी यही था कि धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा, पर आज के उस अनुभव के बाद उसे लग रहा था कि ठीक होने के बजाय सब कुछ और अधिक उलझ रहा है। अभी तो सिर्फ़ पाँच दिन ही हुए थे और पाँचवें दिन ही यह तीसरा कटु अनुभव हो गया था उसे।

दूसरा कड़ुवा अनुभव उसे ज्वाइनिंग के दूसरे दिन हुआ था, जब उसने शास्त्रीजी से लाइब्रेरी देखने की इच्छा व्यक्त की थी। शास्त्रीजी ने बड़े ही अनमने ढंग से उसका प्रस्ताव स्वीकार किया था। उस क्षण तो गुप्ता को शास्त्री जी की उदासीनता का कारण समझ में नहीं आया था, पर लाइब्रेरी पहुँचते ही वह बहुत कुछ समझ गया था। बेतरतीब ढंग से रैकों में ठुँसी, गर्द चढ़ी किताबें, मेज पर बिखरे अख़बार और एक कुर्सी पर पैर पसारे दूसरी पर बैठकर ऊँघते नाटे-मोटे लाइब्रेरियन को देखते ही उसे लगा था, ये लाइब्रेरी है या कबाड़खाना। इन लोगों को देखकर लाइब्रेरियन ने वैसे ही पसरे-पसरे एक वाक्य उछाला था-"अरे! शास्त्रीजी, आज यहाँ कैसे रास्ता भूल गए?"

शास्त्रीजी के चेहरे पर एक फीकी-सी मुस्कान आ गई थी-"मैं अपने विभाग के नए अध्यापक से आपका परिचय कराने लाया हूँ मिश्रा जी! ये सुभाष गुप्ता हैं..."

"अच्छा-अच्छा, तो आप ही हैं सुभाष गुप्ता।" वह एक झटके से सीधा बैठ गया था-"बैठिए भाई, आपकी तो काफ़ी चर्चा है।"

"मेरी चर्चा!" बैठते-बैठते गुप्ता ने विस्मय प्रकट किया था। इस पर मिश्रा ठठाकर हँस पड़ा था-"हाँ, भाई, सुना था वह हरामजादा ओझा आपको ज्वाइन नहीं कराना चाहता था। बड़ा परेशान किया उसने आपको।"

गुप्ता ने उसे विस्मय के भाव से देखा। अचानक मिश्रा उसके पास झुक आया और बड़े भेद-भरे स्वर में बोला-"ये मत समझना गुप्ताजी कि ज्वाइन करके आपने क़िला जीत लिया। उस ओझा के बच्चे से सावधान रहना। जब वह हम पंडितों को ही चैन से नहीं जीने देता तो आप तो ठहरे बनिये। आपको तो वह कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।" गुप्ता ने कुछ भयभीत होते हुए शास्त्रीजी की ओर देखा, तो मिश्रा ने टोक दिया-"अरे, शास्त्रीजी तो बेचारे बड़े सीधे हैं। ये आपको कुछ नहीं बतलाएँगे। यहाँ के ज्यादातर मास्टर साले बड़े हरामी किसिम के हैं, उनसे निपटने के लिए मेरे जैसा हरामीपन सीखना पड़ेगा, तभी यहाँ रह पाओगे..." इतना कहकर वह फिर ठठाकर हँस पड़ा था। गुप्ता समझ ही नहीं पा रहा था कि मिश्रा किस प्रकृति का व्यक्ति है। शास्त्रीजी निर्लिप्त भाव से अख़बार पर नजरें गड़ाए हुए थे। मिश्रा फिर कुछ कहना चाहता था तभी दो-तीन सीधे-सादे छात्र वहाँ आ गए, उनके चेहरों पर अतिरिक्त शिष्टता थी। बड़े ही विनम्र शब्दों में उन्होंने मिश्रा से पुस्तकों की माँग की तो मिश्रा ने उन्हें घुड़क दिया था-"देखते नहीं, अभी हम बिजी हैं। प्रोफेसरों से बातें कर रहे हैं और हाँ, हिन्दी में ये नए गुरुजी आए हैं, नमस्ते करो!" लड़कों ने झुककर अभिवादन किया और बाहर चले गए। गुप्ता को मिश्रा पर बेहद क्रोध आया। तभी मिश्रा ने शास्त्रीजी से प्रश्न किया-"और शास्त्रीजी, किस-किससे मिलवा दिया है इन्हें?"

"खास-खास सभी लोगों से मिलवा दिया है" , शास्त्रीजी का स्वर बेहद कमजोर था-"ओझा साब, बत्रा साब, यादवजी, चौबेजी... ।"

"इन हरामजादों को आप जी और साब कहकर मत पुकारा करिए... " मिश्रा ने बीच में बात काटी और गुप्ता से बोला-"गुप्ताजी, यही लोग सबसे ज़्यादा हरामी हैं जिनके नाम शास्त्रीजी ले रहे हैं, ज़रा इनसे ही सावधान रहिए।"

न चाहते हुए भी गुप्ता के मुख से निकला-"जी।" तभी एक हट्टा-कट्टा दादा टाइप का छात्र आया और शास्त्रीजी को प्रणाम करने की औपचारिकता निभाकर कुर्सी पर बैठ गया। मिश्रा के चेहरे पर कुछ परेशानी की रेखाएँ उभर आई थीं और वह यकायक विनम्र हो गया था-"कहिए, आपकी क्या सेवा कि जाए?"

"सेवा क्या," छात्र के स्वर में उद्दंडता थी-"कल हम जो लिस्ट दे गए थे वह किताबें निकालीं?"

"हें...हें...हें...हें..." मिश्रा दयनीय मुद्रा में आ गया था-"अभी निकाले देते हैं। असल में ये अपने कॉलेज में नए प्रोफेसर साब आए हैं न, इनसे बातें करने लगे थे।"

"अच्छा, नमस्ते साब!" उसने ऊपर से नीचे तक गुप्ता का निरीक्षण-सा किया था-"हमें शेरसिंह कहते हैं साब, कोई परेशानी हो इस कॉलेज में तो बतलाना, अपनी मर्जी के बिना तो इस कॉलेज का पत्ता भी नहीं हिलता।" उसका वह अपनापन भी गुप्ता को भीतर तक दहला गया था।

उसके बाद वे लोग बाहर आ गए थे। बाहर आते-आते शास्त्रीजी ने समीक्षा-सी की थी-"ये शेरसिंह यहाँ का बहुत बड़ा गुंडा है। ओझा-बत्रा सभी की शह है इसको। इसे नकल-वकल को मत पकड़ लेना कभी।"

"पर ये मिश्रा किस प्रकृति का है, बड़ी गंदी बातें करता है ये तो।"

"हाँ, इसकी ज़बान कुछ ज़्यादा ही गंदी है... धीरे-धीरे आप ख़ुद ही इसे समझ जाएँगे।"

उस दिन तो गुप्ता ने यही सोचा था कि लाइब्रेरियन मिश्रा बेहद बदतमीज व बदजबान आदमी है, पर आज दो दिन बाद ही उसे लगने लगा था कि बदतमीजी और बदजबानी यहाँ की हवा में घुली है। बेहद उलझकर रह गया था वह। समझ में नहीं आ रहा था कि इस माहौल में वह कैसे रह पाएगा।

पंद्रह-बीस दिनों में ही गुप्ता कॉलेज को, कॉलेज के लोगों को और उनके बीच चलने वाली राजनीति को बहुत कुछ समझने लगा था। कस्बेनुमा शहर के इस एक मात्र छोटे से महाविद्यालय को ब्राह्मण समाज संचालित करता था, अतः इस कॉलेज में भी पंडितों का ही वर्चस्व था। उसके अतिरिक्त कॉलेज में तेरह अध्यापक और थे, उनमें दस ब्राह्मण थे, जिनके नेता ओझा थे। पिछले पाँच वर्षों से कॉलेज में कोई स्थायी प्राचार्य भी नहीं था अतः ओझा ही प्राचार्य का भार भी ग्रहण किए थे। गैर-पंडित अध्यापकों-बत्रा, यादव और मिस कामिनी ने अपना एक अलग गुट बना रखा था। उसके नेता बत्रा थे। यह गुट ओझा गुट से किसी मामले में कमजोर नहीं था। ओझा के गुट में दो ही लोग सक्रिय थे-स्वयं ओझा और चौबे। शेष बेहद डरपोक क़िस्म के अवसरवादी लोग थे। जिनमें से कुछ कभी बत्रा कि जी-हुजूरी करने लगते थे और कभी ओझा की, उनके चरित्रों को गुप्ता समझ नहीं पा रहा था। तीन क्लर्क और एक लाइब्रेरियन सभी पंडित थे। पर सब ओझा को भी गाली देते थे और बत्रा को भी। उसके अपने विभाग में दो अध्यापक और थे-विभागाध्यक्ष डॉ0 शास्त्री-जो इस कॉलेज के एकमात्र पी-एच0डी0 अध्यापक थे, तो भी वे हमेशा सहमे-सहमे से दिखाई देते थे। बात करते तो डरते-डरते, पता नहीं क्यों? दूसरी थीं मिस कामनी। कुछ स्थूल शरीर की, लगभग पैंतीस वर्षीय मिस कामिनी हमेशा हँसती थीं, ख़ूब हँसती थीं, मर्दों की तरह खुलकर हँसती थीं, नारीसुलभ संकोच या लज्जा उनके अंदर दिखाई नहीं देती थी, फिर भी उनकी मुस्कान और उनके बोलने का अंदाज़ गुप्ता को अच्छा लगने लगा था।

ओझा, चौबेबे, बत्रा और यादव भीतर एक-दूसरे की जड़ें खोदने का प्रयास करते, पर प्रकट में बड़ा प्रेम प्रदर्शित करते। हमेशा ही ये चारों स्टाफ-रूम में बैठे हँसते-बतियाते और एक-दूसरे को ही गरियाते रहते थे-हाँ, अगर उनकी चर्चा के बीच कोई पाँचवाँ फँस जाए तो उसकी खैर नहीं रहती। कक्षाएँ तो इनमें से शायद ही कोई पढ़ाता हो? यह सब देख गुप्ता को ऐसा अनुभव होता जैसे बड़े-बड़े काँटेदार आदमखोर पेड़ इस कॉलेज में लगे हैं। उनके पास पहुँचे नहीं कि लहूलुहान हुए और अस्तित्व धुआँ-धुआँ हुआ। अब तो गुप्ता को स्टाफ-रूम में बैठने में भी भय लगने लगा था। इन चारों के चेहरे देखकर ही उसे सिहरन होने लगती थी। अपने खाली वक़्त में कभी वह ऑफिस में जा बैठता, कभी लाइब्रेरी में, पर गुटबाजी की चर्चा और परस्पर किए जाने वाले बेहूदे मज़ाक उसे कहीं निश्चिंत नहीं रहने देते, फिर भी उसे लाइब्रेरी में बैठना ही अधिक निरापद लगने लगा था। मिश्रा कि जिस बदजबानी ने उसे पहले दिन उद्वेलित कर दिया था वही बदजबानी अब सुकून देने लगी थी। ओझा, यादव, बत्रा और चौबे को कोसते हुए मिश्रा जब उनकी माँ-बहनों से अपना निकट का सम्बंध स्थापित करता तो गुप्ता को बड़ी ख़ुशी होती। यद्यपि वह गालियाँ मिश्रा पीठ-पीछे ही देता था। मुँह पर तो 'सर-सर' ही करता था, तो भी गुप्ता को मिश्रा अत्यंत प्रिय लगने लगा था और उसकी गंदी ज़बान बड़ी मीठी लगने लगी थी।

एक दिन यूँ ही जब गुप्ता लाइब्रेरी से निकला तो शास्त्रीजी मिल गए। वे स्टाफ-रूम की ओर जा रहे थे। गुप्ता से आग्रह किया तो वह मना न कर सका। चलते-चलते शास्त्रीजी फुसफुसाए-"आप लाइब्रेरी में ज़्यादा मत बैठा करिए, ओझा को अच्छा नहीं लगता।"

"हद हो गई," वह आवेश में आ गया-"अब हमारे उठने-बैठने पर भी उस ओझा का पहरा रहेगा क्या?"

"अरे रे, धीरे बोलिए गुप्ता जी," शास्त्रीजी सहम गए-"अगर किसी ने सुन लिया तो आपके साथ हम भी मुसीबत में पड़ जाएँगे।"

"मुझे समझ में नहीं आता, आप इतने सीनियर और योग्य होकर इन ससुरों से इतना डरते क्यों हैं?" उसने तीखेपन से प्रश्न किया।

"इन लोगों से डरकर रहने में ही भलाई है भाई!" उनके स्वर में वेदना उभर आई थी। अतः गुप्ता भी चुप हो गया।

स्टाफ-रूम में वही चारों बैठे थे-यादव, बत्रा, चौबे और ओझा। आदतन वे किसी विषय पर जोर-जोर से बातें कर रहे थे। गुप्ता को देखते ही उनकी आँखों में चमक-सी आ गई।

"यार गुप्ता, कहाँ रहते हो, दिखते नहीं हो?" ओझा ने तीर चलाया।

"हाँ, यार, हम तो तुम्हें देखने को तरस गए।" बत्रा ने भी चुटकी ली।

"लाइब्रेरियन हम लोगों से अधिक खूबसूरत है क्या?" यादव ने कहा।

आते ही आते इस हमले से गुप्ता बौखला-सा गया। हकलाते हुए-से स्वर में बोला-"जी, किताबों... की ज़रूरत होती है..."

"अर्रे..." ओझा नाटकीय ढंग से बोला-"किबातों का क्या करते हैं आप?"

गुप्ता कि समझ में नहीं आया कि इस बेतुके सवाल का क्या जवाब दे।

"अरे! इतना भी नहीं जानते ओझा," यादव ने बड़े ड्रामाई अंदाज़ में उत्तर दिया-"किताबों का ये क्या करेंगे? पढ़ेंगे। कोई आप जैसे थोड़े ही हैं जो पढ़ना ही नहीं जानते।"

यादव की इस चुटकी पर सब खिलखिलाकर हँस पड़े। गुप्ता खिसियाकर रह गया। शास्त्रीजी के चेहरे पर भी बेबसी के भाव उभर आए। ओझा ने तिरछी नजरों से यादव की ओर देखा और सिर हिलाते हुए बोले-"हमने तो भाई स्टूडेंट लाइफ में ही सब पढ़ लिया था, अब ज़िन्दगी भर क्या पढ़ते ही रहेंगे।"

फिर वे गुप्ता कि ओर मुख़ातिब हुए, "क्यों भाई गुप्ता, तुमने एम0ए0 कितने साल में पास किया था, दो ही साल में न?"

"ज्...जी... " गुप्ता ने थूक निगलते हुए सकारात्मक भाव से सिर हिलाया।

"अरे, दो साल में क्या पढ़ पाये होंगे, खाक! नकल-वकल करके पास हो गए होंगे, मुझे देखो, पूरे छह साल में एम0ए0 किया था। ख़ूब ढंग से पढे़ थे। है किसी के पास इतना एक्सपीरियंस?"

ओझा ने अपनी अयोग्यता का बखान भी जिस गौरव-बोध से मंडित करके किया था उससे गुप्ता अपने को बौना महसूस करते हुए कुछ कुंठित-सा होने लगा था। इस वक़्त उसे अपनी प्रथम श्रेणी की डिग्रियाँ एक रद्दी काग़ज़ से अधिक नहीं लग रही थीं। उसने कनखियों से शास्त्रीजी की ओर देखा। कॉलेज के सर्वाधिक योग्य प्रवक्ता डॉ0 शास्त्री इतनी मासूमियत और विस्मय से ओझा कि ओर देख रहे थे जैसे कोई बच्चा किसी विलक्षण कौतुक को देख रहा हो।

"हाँ भई गुप्ताजी," चौबे ने दाँत कुरेदते हुए सवाल किया-"है इतना एक्सपीरियंस किसी क्लास में पढ़ने का-या हर क्लास में नक़ल करके ही पास होते रहे हो।" बत्रा ने ढेर-सा सिगरेट का धुआँ उसके मुँह पर ही उगल दिया। गुप्ता तिलमिला गया। वह झटके से उठा और बाहर की ओर चल दिया।

"अरे, चल कहाँ दिए बरखुरदार!" ओझा तीखे स्वर में बोला।

"क्लास लेने।" गुप्ता कि आवाज़ में भी तीखापन आ गया था।

"अ र...र...र...धीरे बोलो महाशय, धीरे।" बत्रा ने सिगरेट का लम्बा-सा कश लेकर कहा-"जानते नहीं, अभी आप प्रोवेशन पर हैं अतः इस कॉलेज के प्रिंसिपल ओझा साब के सामने ज़ोर से बोलने का नतीजा अच्छा नहीं होगा।"

"आखिर आप लोग क्या चाहते हैं मुझसे?" गुप्ता ने विवशता-भरे स्वर में पूछा।

"लगता है आप बुरा मान गए।" यादव ने नर्मी से कहा-"अरे यार, पढ़ाना-बढ़ाना तो चलता ही रहता है, यहाँ भी बैठ लिया करो कभी।"

"और क्या?" बत्रा ने फिर व्यंग्य किया-"ओझा साब को खुश कर लो। फिर पढ़ाओ, चाहे न पढ़ाओ... "

"न पढ़ाने पर कोई तनख्वाह कट नहीं जाएगी और पढ़ाने पर ज़्यादा नहीं मिल जाएगी।" यादव ने बात पूरी की।

"हें...हें...आप लोग भी अच्छा मज़ाक कर लेते हैं..." शास्त्रीजी ने चाटुकारिता-सी की।

"इसमें मज़ाक की क्या बात है!" बत्रा ने उन्हें भी घुड़का-"ये तो सत्य है, विश्वास न हो तो ओझा से पूछ लो।"

"अरे, छोड़ों ये बातें," ओझा ने बात बदली-"हम लोगों के पास भी कभी बैठ लिया करो गुप्ताजी-हम लोग तुम्हारे दुश्मन नहीं हैं।"

"जी, दरअसल टाइम नहीं रहता... सारे पीरियड्स के बीच में यही एक खाली पीरियड है।" गुप्ता ने धीमे स्वर में कहा।

"अरे, क्यों भाई," ओझा ने चौंकने का अभिनय किया-"क्यों शास्त्रीजी, ऐसे पीरियड्स क्यों लगा दिए? बेचारे को गैप भी नहीं मिलता। ऐसा करो, इनका टाइम-टेबल बदल दो, पहला, चौथा, छठवाँ और आठवाँ पीरियड डाल दो। कल से यही टाइम-टेबल रहेगा। ठीक है न गुप्ता जी!" ओझा के इस प्रस्ताव से गुप्ता का दिल डूबने लगा। उसने कातर निगाहों से शास्त्रीजी की ओर देखा। शास्त्रीजी ने ओझा से याचना-सी की-"इससे सारा टाइम-टेबल गड़बड़ा जाएगा, फिर गुप्ताजी को भी असुविधा हो जाएगी, बेचारे अकेले आदमी हैं।"

"क्या असुविधा होगी? अरे, अकेले आदमी हैं, जैसे घर में बैठे रहते हैं, यहाँ बैठे रहेंगे।" ओझा ने बड़ी रुखाई से कहा-"ठीक है मि0 गुप्ता, कल से यही टाइम-टेबल रहेगा आपका।"

गुप्ता ने हताशा के भाव से सबकी ओर देखा, बत्रा आराम से कश लगा रहा था। उसके पैर बड़ी मस्ती के अंदाज़ में हिल रहे थे। यादव के चेहरे पर मुस्कराहट थी और चौबे जुगाली-सी कर रहे थे। कुर्सी के पीछे मुँह करके 'पिच्च' से पीक थूकते हुए वे बोले-"अरे, ठीक ही है यार, घर पर अकेले बोर ही तो होते होंगे, यहाँ बैठोगे तो कुछ मन बहलेगा। नौजवान हो, आँखें-वाँखें भी सेेंक लोगे।" चौबे की बात पर सब ठठाकर हँस पड़े।

"कोई और शौक रखते हो तो बतलाना, अपने स्टाफ-रूम में सारी व्यवस्था हो जाती है," कहते हुए बत्रा ने अपनी बाईं आँख थोड़ी-सी दबा दी। सबके ठहाके और तेज हो गए। गुप्ता खिसियाकर रह गया।

"ठीक है, अब क्लास ले आइए!" ओझा ने आदेश दिया तो वह जान छुड़ाकर बाहर की ओर भागा। शास्त्रीजी भी तेज-तेज कदमों से बाहर आए और उसके पास आकर कान में फुसफुसाकर बोले-"ये लोग बहुत ही दुष्ट हैं, शाम को घर पर आइए, इत्मीनान से बातें करेंगे।" इतना कहकर वे तेजी से दूसरी ओर बढ़ गए। गुप्ता कि गति शिथिल हो गई। तभी सामने से कामिनीजी आती दिखाई दीं। वैसी ही इठलाती चाल और चेहरे पर मुस्कराहट लिए। गुप्ता के पास आते ही बोलीं-"कहिए मि0 गुप्ता, बड़े अपसैट नज़र आ रहे हैं, क्या फिर उसी चांडाल-चौकड़ी में फँस गए थे?"

गुप्ता कुछ कहता तभी दो-चार छात्रों ने घेर लिया-"सर! क्लास लेंगे?" "ठीक है मि0 गुप्ता, क्लास ले आइए," कहती हुई वे आगे बढ़ीं फिर यकायक ठिठक गईं-"सुनिए!" उनके स्वर में मिठास कुछ और भी अधिक बढ़ गई-"शाम को आप अकेले बोर ही तो होते होंगे, आज शाम की चाय आप मेरे साथ पीजिए... आइए ज़रूर, मैं वेट करूँगी।" कहती हुई वे एक मोहक मुस्कान फेंककर आगे बढ़ गईं। गुप्ता कुछ क्षण उन्हें जाते देखता रहा। फिर क्लास की ओर बढ़ गया छात्रों के साथ।

गुप्ता असमंजस में था कि कामिनी के यहाँ जाए अथवा न जाए। अब तक की सारी स्थितियाँ जैसी बन रही थीं उसमें उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो रही थी। यहाँ लोग कब क्या कह दें, कुछ कहा नहीं जा सकता? कहीं चाय पर जाने में भी कोई स्कैंडल खड़ा न हो जाए? फिर अचानक ही कामिनीजी ने उसे अपने यहाँ कैसे आमंत्रित कर लिया? यही सब सोचता हुआ वह लम्बी उधेड़बुन में रहा कि वहाँ जाए अथवा न जाए, अंततोगत्वा उसने जाने का ही निर्णय लिया क्योंकि सहज रूप में न जाना उसे अशिष्टता लग रही थी और भयवश न जाना कायरता और पलायन, जो फिलहाल उसे मंजूर नहीं था। उसने यही सोचकर जाने का निर्णय लिया कि इस प्रकार वह किस-किससे और कहाँ-कहाँ तक भागता फिरेगा।

जब वह पहुँचा तो मिस कामिनी उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं। बड़े उत्साह के साथ उन्होंने उसका स्वागत किया। पहली ही दृष्टि में कमरे की सजावट उनकी परिष्कृति रुचि का परिचय दे रही थी। मिस कामिनी काफ़ी देर तक औपचारिक बातें करती रहीं। गुप्ता को वे भली और शालीन महिला लगीं। घर पर उनका व्यक्तित्व बिल्कुल भिन्न था। कॉलेज वाली, तीखेपन से फूहड़ मज़ाक करने वाली, बात-बेबात उन्मुक्त भाव से हँसने वाली मिस कामिनी यहाँ नहीं थी, यहाँ थी धीरे-धीरे सलीके से बात करने वाली एक सभ्य और शालीन महिला। उनके सहज, संयत और आत्मीयता-भरे व्यवहार से गुप्ता को बड़ी शान्ति का अनुभव हुआ और उसने कॉलेज की घटनाओं से उत्पन्न क्षोभ और आक्रोश को समग्र रूप से उनके सम्मुख व्यक्त कर दिया। उसने ओझा, यादव, बत्रा और चौबे को जी भरकर कोसा। उनके साथ हुआ अपना वार्तालाप और उनके व्यवहार को वह एक तीखेपन के साथ बतलाता रहा और उदास हो गया। कामिनीजी बड़े धैर्य से सब सुनती रहीं। फिर सांत्वना देती हुई बोलीं-"अपने को दुखी करने से कुछ नहीं होगा मि0 गुप्ता, यहाँ की स्थितियों का सामना करने के लिए आपको अपने में चेंज लाना होगा।" गुप्ता ने उदास निगाहों से उनकी ओर देखा। वे अत्यन्त गंभीरतापूर्वक धीमे-धीमे कहती गईं-"यहाँ सिर्फ़ इंसान बने रहने से काम नहीं चलता मि0 गुप्ता, मुझे ही देखिए, जब मैं इस कॉलेज में आई तो कॉलेज से निकली एक सीधी-सादी लड़की थी। इन लोगों ने मुझे कितना परेशान किया होगा, आप ख़ुद समझ सकते हैं। एक सीधी-सादी अकेली लड़की को जितना परेशान किया जा सकता है, इन्होंने किया... अब आपसे क्या बतलाऊँ... खैर छोड़िए... " अचानक कुछ कहते-कहते वे रुक गईं-"मैं भी कहाँ की बात ले बैठी, पहले चाय बना लूँ, फिर इत्मीनान से बातें करेंगे।"

मिस कामिनी किचन में चली गईं। गुप्ता वहीं पड़ी एक पत्रिका के पन्ने पलटने लगा। इस वक़्त वह स्वयं को काफ़ी हलका अनुभव कर रहा था। कुछ देर पत्रिका को पलटने के पश्चात् वह यहाँ-वहाँ नजरें घुमाता हुआ कक्ष का निरीक्षण-सा करने लगा। सामने दीवार पर कामिनीजी की बनाई हुई एक बड़ी-सी पेंटिंग टँगी थी। गुप्ता कि दृष्टि उसे पर ठहर गई। क्षितिज की ओर उतरता हुआ सूर्य, अँधेरे में डूबता परिवेश, शांत वृक्ष, वापस लौटते हुए परिंदे और एक वृक्ष की छाया में खड़ी एक उदासीन लड़की। यद्यपि पेंटिंग बड़ी परिचित-सी थी, सो भी उसमें रंगों के संयोजन ने बड़ी आकर्षकता उत्पन्न कर दी थी। गुप्ता तल्लीन होकर उसे देखने लगा। तभी कामिनीजी चाय लेकर आ गईं।

"बड़ी अच्छी पेंटिंग करती हैं आप तो!" गुप्ता ने प्रशंसा की।

"कभी किया करती थी," चाय की ट्रे रखती हुई वे कुछ अनमनेपन से बोलीं-"अब तो सब कुछ छूट गया। यहाँ के माहौल में इन सबका कोई महत्त्व नहीं है।"

"किया कीजिए। आपको तो टाइम मिल ही जाता होगा। रंगों का चयन और प्रयोग आप बहुत अद्भुत ढंग से करती हैं।"

"अब तो सारे रंगों पर एक ही रंग चढ़ गया है, इस कॉलेज का रंग।" बात को उन्होंने हँसी में उड़ा दिया और गुप्ता के बिलकुल बगल में बैठकर कपों में चाय उड़ेलने लगीं। उनके इस प्रकार निकट बैठ जाने से गुप्ता कुछ असहज-सा होने लगा। उसकी धड़कनें बढ़ने लगीं और सारे शरीर में अजीब-सा रोमांच हो आया। एकांत कक्ष में किसी महिला के यूँ निकट बैठने का उसका यह पहला अवसर था। उसने कनखियों से मिस कामिनी की ओर देखा, पर वे बिलकुल सामान्य थीं, जैसे उनके लिए यह कोई ख़ास बात न हो। कामिनी जी ने चाय का कप उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा-"किस सोच में डूब गए मि0 गुप्ता?"

"जी, कुछ नहीं।" चाय का कप हाथ में लेते हुए उसने असहज होती साँसों को संयत करने का प्रयास किया।

"शाम को आप इसी तरफ़ निकल आया कीजिए, बैठकर बातें करने से कुछ मन हलका ही होगा।"

"जी।" कहते हुए गुप्ता को ऐसा अनुभव हुआ कि कामिनी जी के शरीर से एक नए प्रकार की गंध निकलकर उसके नथुनों में समाती जा रही है। उसने चाय का सिप लिया। तभी अचानक काॅलबेल बजी। कामिनीजी ने उठकर दरवाज़ा खोला तो गुप्ता सन्न रह गया। मि0 बत्रा थे। पर अंदर आते ही वे माफी-सी माँगने लगे-"साॅरी मिस कामिनी, साॅरी मि0 गुप्ता, मैं लेट हो गया।" गुप्ता ने विस्मय के भाव से कामिनी जी की ओर देखा। वे कुछ सहमे स्वर में बोलीं-"दरअसल बातों में मैं आपको यह बताना भूल ही गई कि बत्रा साहब भी इन्वाइट हैं।" गुप्ता के चेहरे का रंग बदलने लगा। उसने अभी-अभी बत्रा के खिलाफ कितने कटु वचनों का प्रयोग किया था तब भी मिस कामिनी को याद नहीं रहा होगा क्या? उसे अचानक ही चाय के स्वाद में कड़ुवाहट का अनुभव होेने लगा। मिस कामिनी शायद उसके मनोभावों को ताड़ गई और बात सँभालने के अंदाज़ में बड़े ही अपनत्व से बत्रा से बोलीं-"आपके लेट आने पर तो मैं बाद में कुछ कहूँगी, पहले ये बताइए, आज आपने बेचारे गुप्ताजी को क्यों परेशान किया। आप भी जब उस ओझा के पास बैठते हैं तो सब भूल जाते हैं-ये बेचारे बड़े दुखी थे।" बत्रा उसके ठीक बगल में बैठ गया था, वहीं जहाँ अभी मिस कामिनी बैठी हुई थीं। गुप्ता के कंधे पर आत्मीयता से हाथ रखते हुए उसने पुनः क्षमा-याचना-सी की-"साॅरी यार गुप्ता, अपने व्यवहार के लिए मुझे अफ़सोस है, पर मुझे आप अपना हितैषी ही समझें। दरअसल इस कॉलेज की साली पाॅलिटिक्स ही कुछ ऐसी है।" गुप्ता को अपने कंधे पर रखा हुआ बत्रा का हाथ बड़ा भारी मालूम पड़ रहा था। इच्छा तो उसकी यह हो रही थी कि एक झटके से अपने कंधे पर रखे उस हाथ को हटा दे और यहाँ से उठकर भाग जाए। तभी मिस कामिनी ने चाय का एक कप भरकर बत्रा के हाथ में थमा दिया। गुप्ता को लगा, जैसे कंधे से कोई बोझा हट गया। चाय पीते-पीते बत्रा ने अनी बात जारी रखी-"ये तो आप जान ही गए हैं कि ये पंडितों का कॉलेज है। केवल मैं, यादव और कामिनी जी ही गैर-पंडित हैं। हम लोग शुरू में ही इस कॉलेज में आ गए थे। यूँ समझो कि हम लोगों का एक अलग गुट है-'नॉन पंडित' गुट। दिखावे के लिए ही हम ओझा के साथ मिले रहते हैं। आज जो कुछ आपको कहा, वह महज़ दिखावा था। ओझा के सामने ऐसा ड्रामा ज़रूरी रहता है, वैसे हम लोग आपको अपने में ही गिनते हैं और अपनी संख्या चार मानने लगे हैं।" इतना कहकर बत्रा क्षण-भर को रुका और चाय का सिप लेते हुए तोलने के अंदाज़ से गुप्ता को देखने लगा। गुप्ता चुप ही रहा। कामिनीजी बड़ी चपलता से बोलीं-"तो गुप्ताजी अपने से अलग कब हैं, क्यूँ गुप्ताजी? हैं न...अरे, आप चाय तो पीजिए, ठंडी हो रही है।"

गुप्ता ने चुपचाप चाय का कप होंठो से लगा लिया, कामिनी जी की बात का कोई उत्तर नहीं दिया। "बात यह है" , बत्रा ने अपनी बात पुनः प्रारम्भ कर दी-"ये ओझा कुछ ज़्यादा ही महत्त्वाकांक्षी है इसलिए हम लोग उसकी हाँ में हाँ मिलाकर उसे हमेशा पंडितों के खिलाफ ही भड़काते रहते हैं। लगभग सभी पंडित अध्यापकों का हम उससे जवाब तलब करवा चुके हैं। इसलिए उसके संघ के लोग भी मन से उसके साथ नहीं हैं। धीरे-धीरे वे भी हमारे ही साथ आ जाएँगे। इसलिए दिखावे के लिए हमें उसका साथ देना पड़ता है। अगर आपको कुछ कहें भी तो आप बुरा मत मानना।" बत्रा ने चाय का कप टेबिल पर रखा और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगाने लगा-"आपका अहित तो हम वैसे भी नहीं होने देंगे" , सिगरेट सुलगाते हुए वह बोला-"हाँ, अगर आप खुलकर हमारे संघ में आ जाएँ तो मैं भी आपसे कुछ नहीं कहूँगा और ओझा भी कुछ नहीं कह पाएगा..." अपनी बात पूरी करके उसने सिगरेट का एक लंबा कश लिया और निगाहें गुप्ता के चेहरे पर ही टिका दीं। गुप्ता कुछ नहीं बोला। उसके अंदर आग-सी फुँकने लगी थी। मिस कामिनी ने बड़ी मधुरता के साथ गुप्ता से आग्रह-सा किया-"आ भी जाइए अब आप हमारे संघ में।"

"हाँ गुप्ताजी," सिगरेट का धुआँ छोड़ते हुए बत्रा ने बात पूरी की-"इसी में आपका हित सुरक्षित रहेगा। यह ओझा जब तक प्रिंसिपली करेगा हम लोगों से मिलकर ही चलेगा और उसके साथ अगर आप गए तो गैर-पंडित होने के कारण वैसे भी एडजेस्ट नहीं कर पाएँगे और हमारे विरोध में तो आप हो ही जाएँगे..." बत्रा के स्वर में जो धमकी का भाव था उसे गुप्ता समझ रहा था। उसने बड़े रूखे स्वर में कहा-"सोचूँगा..."

"अरे, अब उसमें सोचना क्या है?" मिस कामिनी फिर इठलाई, पर अब तक वह गुप्ता को बेहद मक्कार-सी लगने लगी थी। वह झटके से उठ खड़ा हुआ और जलते हुए स्वर में बोला-"जल्दी क्या है, एक-दो दिन सोचने दीजिए। अभी तो मुझे इजाज़त दीजिए, एक जगह और जाना है।"

मिस कामिनी का चेहरा कुछ विकृत-सा हो गया। बत्रा के नथुने फड़कने लगे। गुप्ता के चलते वक़्त उसने खड़े होने की औपचारिकता भी नहीं निभाई, बल्कि अत्यंत कड़वे शब्दों में चेतावनी-सी दे दी-"जल्दी सोच लेते मि0 गुप्ता, तो ठीक रहता। ऐसा न हो कि बाद में आप हाथ मलते रह जाएँ..." उसके शब्द और शब्दों के साथ निकलने वाले सिगरेट के धुएँ ने गुप्ता के मन में अजीब-सा कसैलापन भर दिया, वह भी बिना प्रणाम इत्यादि किए हुए झटके से किवाड़ खोलकर बाहर निकल आया।

सारी स्थितियों ने उसे पुनः तनावग्रस्त कर दिया था। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि बत्रा के प्रस्ताव को ठुकराकर उसने अच्छा किया या बुरा! चारों तरफ़ अँधेरा उतर आया था, जाड़ों में यूँ भी रात जल्दी होती है, अब तो सात बनजे वाले थे। सड़कों पर सन्नाटा छाया था। बड़े शहरों में जिस समय सड़कों पर रौनक शुरू होती है, छोटे शहरों में उस वक़्त सड़कें वीरान हो जाती हैं। गुप्ता को अकेले चलते हुए अजीब से ख़ौफ़ का अनुभव होने लगा। उसे लग रहा था कि ये सन्नाटा और ये अंधकार कहीं उसके अंदर बहुत गहरे में जाकर बैठ गए हैं। अचानक सामने पड़े हुए पत्थर को उसने ज़ोर से ठोकर मारी और तेज-तेज क़दम बढ़ा दिए शास्त्रीजी के घर की ओर।

"बड़े विलम्ब से आए। मैं शाम से ही आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ।" उसके पहुँचते ही शास्त्रजी ने शिकायती भाव से कहा।

"शाम को कामिनी जी ने चाय पर बुला लिया था। वहीं से चला आ रहा हूँ।"

"अच्छा, वहाँ तो बत्रा से भी मुलाकात हो गई होगी!" अनायास ही शास्त्रीजी के मुख से निकले इस वाक्य ने गुप्ता को चौंका दिया-"आपको कैसे मालूम?"

शास्त्रीजी हँस दिए-"धीरे-धीरे आपको भी सब मालूम हो जाएगा।"

"क्या मालूम हो जाएगा?" गुप्ता खीझ गया। प्लीज, हमें अँधेरे में मत रखिए, साफ-साफ बतलाइए, जिसे देखो हर बात में यही कह देता है, थोड़े दिनों में सब समझ जाओगे। पर मैं...मुझे लगता है, अगर यही स्थितियाँ रहीं तो थोड़े दिनों में मैं पागल हो जाऊँगा। "शास्त्रीजी गंभीर हो गए। उन्होंने धीमे-धीमे अपनी बात प्रारंभ की-" देखिए, मिस कामिनी के यहाँ आपसे कॉलेज की राजनीति के सम्बंध में बातें की गई होगी। पंडित, गैर-पंडित गुट की बातें बतलाई गई होंगी। आप पंडित नहीं हैं, अतः हो सकता है आप उनकी बातों से कंविंस भी हुए हों..."गुप्ता विस्मय से उन्हें देखता रहा, वे कहते रहे-" यहाँ जो भी नया अध्यापक आता है उसके साथ यही नाटक खेला जाता है। जब मैं नया आया था तो मेरे साथ भी यही नाटक खेला गया था, हाँ, तब बत्रा अकेला था, अब उनका साथ देने के लिए कामिनीजी मौजूद हैं..."

"आपने ये सब बातें मुझे पहले ही क्यों नहीं बतला दीं?"

"क्या-क्या बतलाऊँ मि0 गुप्ता आपको," उनके स्वर में कड़वाहट आने लगी थी-"मैं इसीलिए कहता हूँ कि आप धीरे-धीरे सब समझ जाएंगे, इन लोगों ने मुझे कितना परेशान किया है, मैं बतला भी नहीं सकता। मुझे क्या, यहाँ हर आदमी को परेशान किया जाता है। यह लाइब्रेरियन मिश्रा जब आया था तो बड़ा सीधा-सादा था, पर ओझा और बत्रा ने उसका जीना दूभर कर दिया। अब वह बिना गालियों के बात नहीं करता सो ये लोग भी उससे दूर रहते हैं। कामिनीजी भी जब आई तो ऐसी न थीं, उन लोगों ने उन्हें ख़ूब परेशान किया। चारित्रिक लांछन भी लगाए। आख़िर उन्हें बत्रा कि शरण में आना पड़ा। अब वे हर तरह से बत्रा के कब्जे में हैं। बत्रा कि शामें वहीं गुजरती हैं और सारी राजनीति भी वहीं से संचालित होती है।"

गुप्ता हैरत के भाव से सब सुन रहा था। शास्त्रीजी आवेश में आ गए थे-"और अपनी क्या बताऊँ मि0 गुप्ता, जब मैं नया-नया आया तो इन लोगों ने अपने जाल बिछाने शुरू कर दिए। ओझा चाहता था कि पंडित होने के नाते मैं उसके संघ में आ जाऊँ और बत्रा अपनी ओर खींचना चाहता था। पर उस वक़्त तो मुझमें जवानी का जोश था, उत्साह था। इंसानियत का जज़्बा था, हर बुराई से लड़ने का टकराने का साहस था, मनोबल था, इसलिए मैं इनकी हर ग़लत बात का विरोध करता रहा। मुझे अपने अध्ययन, अध्यापन और डाॅक्टरेट की डिग्री पर बड़ा नाज़ था। पर इन लोगों के चक्कर में मेरा सारा स्वाभिमान मिट्टी में मिल गया। मेरी सारी योग्यता धरी की धरी रह गई। इन लोगों ने मुझे कदम-कदम पर लांछित किया, अपमानित किया, मेरी क्लास में गुंडे भेजे। मुझे हूट कराया..."

"पर आख़िर क्यों?" गुप्ता को हैरानी थी, "क्यों करते हैं ये लोग ऐसा? क्या चाहते हैं आख़िर ये?"

"धैर्य रखिए गुप्ताजी, धीरे-धीरे सब बता रहा हूँ मैं।" कहते हुए शास्त्रीजी क्षण-भर को रुके, गहरी साँस ली और फिर अपनी बात प्रारम्भ कर दी-"ये ओझा है न, इसका कहना यह है कि ज़ुल्म के चूतड़ों से अहसान निकलता है। सो पहले सब पर ज़ुल्म करेगा फिर मरहम लगाएगा ताकि लोग इसके तलवे चाटते रहें। बत्रा भी इससे अलग प्रकृति का नहीं है। दोनों ससुरे एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं।" शास्त्रीजी के स्वर में उन लोगों के प्रति घृणा उभर आई थी। गुप्ता को विश्वास नहीं हो रहा था कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बैठे हुए लोग, समाज को ज्ञान दान करने वाले लोग, देश के लिए पीढ़ियाँ तैयार करने वाले लोग इतने घिनौने हो सकते हैं। शास्त्रीजी की बात जारी थी-"ये लोग ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ये सब यहाँ तब आ गए थे जब कॉलेज नया-नया खुला था। ये स्थानीय लोग हैं। एकेडेमिक कैरियर इनका कुछ नहीं था। सोर्स से या बिरादरीवाद से ये यहाँ आ गए थे। पढ़ने-पढ़ाने में इनकी कोई रुचि नहीं थी। इसलिए इन्होंने टुच्ची राजनीति शुरू की। अपने लोगों का प्रबंध-तंत्र बनवाया, गुंडे पाले, उन्हें एडमीशन दिलाया, नक़ल कराके पास कराया और जब नए-नए लोग आए, जिनके पास योग्यता थी, ज्ञान था तो इन्हें अपना अस्तित्व डगमगाता नज़र आया, इसलिए उन लोगों ने हैरसमेंट की नीति अपनाई ताकि जो रहे इनकी तरह ही होकर रहे।" शास्त्रीजी बेहद आवेश में आ गए थे।

"इनका कोई विरोध नहीं करता?" गुप्ता ने जिज्ञासा प्रकट की।

"विरोध!" शास्त्रीजी की मुखमुद्रा कठोर हो गई-"शुरू-शुरू में हर कोई नया आदमी इनका विरोध करता है, पर जल्दी ही उसे हथियार डालने पड़ते हैं, या तो वह इनके रंग में रँग जाता है या समझौतावादी हो जाता है, मैंने तो बहुत लम्बे समय तक इनका विरोध किया पर परिणाम इतना भयंकर हुआ कि..." कहते हुए उनका चेहरा तमतमा गया, आँखों में लाल डोरे उतर आए-"कहते हुए रूह काँपती है मि0 गुप्ता, जब मैं लगातार इनका विरोध करता रहा तो एक गुंडे को इन्होंने मेरे पीछे लगा दिया। उसने परीक्षा में मुझसे अपना पेपर हल कराना चाहा। मैंने इनकार तो किया ही, आवेश में आकर उस गुंडे को नक़ल में पकड़ लिया। बस, फिर क्या था। वह गुंडा मेरा दुश्मन बन गया, इन लोगों ने भी ख़ूब भड़काया। उस दिन जैसे ही मैं कॉलेज से बाहर निकला, उस गुंडे ने अपने चार-पाँच साथियों के साथ मुझे घेर लिया और चाकू निकालकर मेरे सीने पर अड़ा दिया। कई लोगों ने देखा पर अनदेखा करके भाग गए। मैं अकेला, असहाय और वे छह लोग! उफ! लाल आँखों से घूरते हुए वे गुंडे किसी यमदूत से कम नहीं थे। मुझे सपने में भी वह दृश्य याद आता है तो काँप जाता हूँ..." इतना कहकर शास्त्रीजी रुक गए, मानो वे थक गए हों। कमरे में सन्नाटा छा गया।

"फिर क्या हुआ...?" गुप्ता ने आकुलता से पूछा।

"होना क्या था मि0 गुप्ता, मैं कोई फ़िल्मी हीरो तो था नहीं जो उनसे दो-दो हाथ करता। मैं तो साइकिल छोड़कर प्राण लेकर भागा, पर उस गुंडे ने लपककर मेरा कालर पकड़ लिया और मेरी बाँह पर गहरा ज़ख़्म करते हुए यह कहते हुए छोड़ दिया कि अगर फिर कभी ऐसी हरकत की तो जान से मार डालूँगा।" कहते-कहते उन्होंने कमीज की बाँह समेटी और ज़ख़्म का निशान गुप्ता के सामने कर दिया। 'उफ!' गुप्ता के मुख से अचानक निकला। शास्त्रीजी के स्वर में भी दर्द उभर आया था-"बस भाई गुप्ता, मैं उस दिन से टूट गया, हार गया, मैंने मौत को बहुत करीब से देखा था। उस क्षण मुझे लगा था कि अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरे बीवी-बच्चे अनाथ हो जाएँगे। मेरे पीछे कोई उन्हें देखने वाला भी तो नहीं है। तुम्हीं सोचो गुप्ता, अगर मुझे कुछ हो जाता तो मेरे बीवी-बच्चों का क्या होता? सरकार भी दो-चार हज़ार रुपए देकर अपने दायित्व की पूर्ति कर लेती, बस..."

"आपने रिपोर्ट नहीं कराई?" बड़े धीमे से गुप्ता ने पूछा।

"रिपोर्ट, हुँह!" उनके स्वर में विद्रूपता उभर आई-"रिपोर्ट भी की थी पर गवाही नहीं मिली। तुम्हीं सोचो, ऐसे गुंडों से भला कौन दुश्मनी लेना चाहेगा। ओझा और बत्रा ने पूरे प्रकरण को राजनीतिक रंग देने की कोशिश की। दोनों झूठी गवाहियाँ दिलवाने का आश्वासन देते रहे, पर शर्त यह थी कि मैं उनके संघ में आ जाऊँ। दरअसल दोनों ही एक-दूसरे के खिलाफ मेरा इस्तेमाल करना चाहते थे। मैंने कुछ नहीं किया, बस चुप हो गया। बस भाई, उस दिन से मैं चुप ही रहता हूँ। किसी से कुछ नहीं कहता। सबकी हाँ में हाँ मिलाता हुआ ईश्वर के सहारे अपना वक़्त गुजार रहा हूँ..." बोलते-बोलते शास्त्रीजी के स्वर में गहरी हताशा उभर आई थी। वे चुप हुए तो बातों का क्रम जैसे टूट-सा गया। गुप्ता को भी समझ में नहीं आया कि क्या कहे। एक भयावह चुप्पी उन दोनों के बीच आकर बैठ गई। आख़िर कुछ क्षणों के बाद गुप्ता ने ही उस मौन को तोड़ा-"आपने कहीं और ट्राई नहीं किया, किसी अच्छे शहर में या किसी बड़े कॉलेज में..."

"सपने देखने से कोई फायदा नहीं मेरे भाई, हर जगह स्थितियाँ कमोबेश एक-सी ही हैं। हर जगह दो-चार ओझा और बत्रा मिल जाएँगे। हर जगह किसी जाति-धर्म-संप्रदाय या राजनीति का 'वाद' अपना फ़न फैलाए लोगों के दिलों में अपना ज़हर घोल रहा है। मैं तो आपको भी यही सलाह दूँगा कि आप इनसे लड़ें नहीं। किसी एक गुट का मजबूती से पल्ला पकड़ लें तभी सुखी रहेंगे, वर्ना ये आपको चैन से नहीं जीने देंगे। ये आदमी नहीं भेड़िये हैं, भेड़िये..."

वातावरण बेहद बोझिल हो गया था। शास्त्रीजी चुप तो हो गए पर काफ़ी देर तक सहज नहीं हो पाए, अपनी हथेलियों को मलते रहे, होंठ चबाते रहे और अजीब खाली-खाली-सी नजरों से गुप्ता को देखते रहे। गुप्ता भी असहज हो गया था और उलझन का अनुभव करने लगा था। कुछ देर औपचारिक बातें करने के बाद जब उसने शास्त्रीजी से विदा ली तो उन्होंने उसकी हथेलियाँ अपने हाथों में लेकर पराजित-से स्वर में यही कहा-"मैं आवेश में आकर जाने क्या-क्या कह गया दोस्त! पर आपको मैं बार-बार यही सलाह दूँगा कि आप इन लोगों से उलझना मत..."

उस रात सुभाष गुप्ता गहरा अवसाद लेकर घर लौटा। सारे दिन के घटना-चक्र ने उसे बुरी तरह थका दिया था। शरीर से भी और मन से भी। आते ही वह निढाल होकर चारपाई पर बैठ गया, जूते के फीते खोलते हुए उसने सोचा-"ये कॉलेज है या कसाईघर, जहाँ क्षण-प्रतिक्षण आरे चला-चलाकर अच्छे-भले आदमी को लुंज-पुंज कर दिया जाता है।" अचानक उसे क्रोध-सा उमड़ा। उसने जूते उतारकर एक ठोकर मारी और वैसे ही चारपाई पर पसर गया। काफ़ी रात तक वह सारी स्थितियों पर विचार करता रहा। सबके बारे में सोचता रहा। फिर न जाने कब सो गया। सोया भी क्या! सारी रात अजीब-अजीब सपने देखता रहा। ओझा, यादव, चौबे और बत्रा-कुत्तों की भाँति भोंकते दिखे, शास्त्रीजी भयभीत से यहाँ से वहाँ भागते दिखाई दिए, मिस कामिनी हँसती-खिलखिलाती, उछलती और नाचती दिखाई दीं। बीच-बीच में ओझा और बत्रा कि शक्लें बदल जातीं, आवाजें बदल जातीं, वे विचित्र-विचित्र मुखौटे लगा लेते। इन सबके बीच वह ख़ुद कभी गुर्राता, कभी घिघियाता, कभी भागता, कभी चिल्लाता और कभी रो पड़ता-ऐसे ऊटपटाँग सपनों में उसकी रात गुजर गई। सुबह जब नींद खुली तब सिर में भारीपन था और आँखों में कड़वाहट हो रही थी। वृक्षों से टकराती हुई हवा कि सनसनाहट से उसे कुछ सिहरन-सी होने लगी। इच्छा हुई कि थोड़ी देर और सो ले, पर तभी याद आया कि आज पहला ही पीरियड लेना है, अतः झटके से उठ बैठा।

पहला पीरियड सात बजे से था। गुप्ता तेजी से साइकिल चलाकर कॉलेज पहुँचा। सर्द हवा के थपेड़ों के प्रतिरोध से कॉलेज पहुँचते-पहुँचते वह बुरी तरह हाँफ गया। साइकिल से उतरकर पहले उसने अपनी साँसों को संयत किया और कलाई-घड़ी पर नज़र डाली। अभी पाँच मिनट शेष थे सात बजने में। उसने राहत की साँस ली, चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई तो सन्नाटा-सा ही दिखाई दिया। दस-पंद्रह छात्र यहाँ-वहाँ टहल रहे थे, स्टाफ रूम खाली पड़ा था। लाइब्रेरी के बाहर मिश्रा खड़ा हुआ मुस्करा रहा था। गुप्ता दूर से ही संकेत से उसे अभिवादन करते हुए आगे बढ़ा, पर अचानक उसे देखकर बड़ा विस्मय हुआ कि प्राचार्य-कक्ष खुला हुआ था। इतने दिनों में उसने ओझा को कभी इस कक्ष में बैठे नहीं देखा था। वह तो हमेशा स्टाफ-रूम में ही जमा रहता है। ऊँह! होगा, उसे क्या! सोचते हुए वह ओझा को अभिवादन करने प्राचार्य-कक्ष में पहुँचा तो एक बार फिर चौंक गया। बत्रा भी वहीं बैठा था, पर गुप्ता को देखकर वह इतनी द्रुत गति से बाहर निकला जैसे पुलिस को देखकर कोई अपराधी भागा हो। गुप्ता ने ओझा को अभिवादन किया, पर ओझा ने अभिवादन का उत्तर न देकर धीमे पर तीखे स्वर में कहा-"कहिए गुप्ताजी, रात में कामिनी जी के यहाँ कुछ ज़्यादा पी ली थी क्या?"