माँ-बेटा / हयात-उल्लाह अंसारी / सादिक
मोहिना आँधी और पानी में रात-भर भागती रही, ठिठुरती रही और भागती रही। अँधेरा इस गजब का था कि दो कदम आगे का दरख्त तक नहीं सुझाई देता था। खेत और मेढ़, टीला और खाई, पूरब और पश्चिम, ज़मीन और आसमान-सब असीम काली दिशाओं में गुम हो गये थे। हर कदम पर उसे अन्देशा था कि मैं किसी कुएँ या नदी या नाले में न जा गिरूँ, लेकिन फिर भी वह भागती रही। बल्कि यह अन्देशा तो भागने में उसका और साहस बढ़ा रहा था। मौत अचानक आकर मेरी इस दिशाहीन की ज़िन्दगी का अन्त कर दे। यह तो एक सुहावना सपना था। एक ओर तो उसने यह इरादा भी कर लिया कि सामने के कुएँ में जिसे बिजली ने चमककर दिखा दिया था, अपने को गिरा दूँ, लेकिन पापी दिल ने हामी भी भरी तो रोकर। शायद उसको अब भी उम्मीद थी कि कभी-न-कभी ज़िन्दगी के क्षितिज पर कोई-न-कोई किरन फूट आएगी-मूर्ख!
वह भागती रही और अन्धाधुन्ध भागती रही, लेकिन उसकी ज़िन्दगी ऐसी निकम्मी थी कि न खाई ने पूछा न खन्दक ने निगला, न भेडि़ए ने फाड़ा, न साँप ने डसा, न कोई दरख्त फट पड़ा और न बिजली ने भस्म किया। पापिन ऐसी जली ना कोयला भई न राख।
मोमिना जब थककर एक पुराने बरगद की भीगी जड़ पर गिरी तो पौ फट रही थी, घटा छिट रही थी। कुछ दूर पेड़ों, मकानों और अँधेरे के टीलों के बीच में एक शिवाले की चोटी नज़र आ रही थी। शिवाला! इसी के मानने वालों ने तो मुसलमानों पर जुल्म ढाये हैं। कितने बच्चों को यतीम किया! कितनी औरतों को बेवा किया है, कितने मासूम औरतों की इज्जत लूटी है! एक दो दिन नहीं, लाखों घरों को बर्बाद किया है और अभी तक उनकी खून की प्यास बुझी नहीं है।
बारिश से धुली हुई सुबह के आने से दृश्य में रौनक आ गयी। हरे-भरे खेतों ने अँगड़ाई ली। कौवों ने काँव-काँव का शोर मचाया। पेड़ों ने नीम की लहरों पर तालियाँ बजायीं और दूर पर किसी भैंस ने अपने कटड़े को पुकारा। सामने के शिवाले के गिर्द अब पेड़ों से ढके हुए कच्चे घर भी नज़र आने लगे थे। यह दृश्य उन लोगों के लिए जिनकी ज़िन्दगी देहात में गुजरी है बड़ा आकर्षण रखता है। मोमिना उसी में खो गयी और उसकी कल्पना की आँखें उन घरों के अन्दर की चहल-पहल को देखने लगीं। किसान बैल खोल रहे हैं। उनकी स्त्रियाँ गाय को दूह रही है, लड़कियाँ दूध बिलो रही हैं। धोबी कपड़ों की लादी गधे पर रखे घाट जा रहा है। सामने के पक्के घर में दबे हुए कंडों को कुरेद कर आग बनायी जा रही है। जवान डण्ड पेल रहे हैं। औरतें गगरियों को ले कुओं पर जा रही हैं। उनके बच्चे सोते से उठे हैं और भूख से रूँ-रूँ कर रहे हैं।
कल्पना ने यह भैरवी कुछ इस तरह अलापी कि मोमिना मस्त हो गयी और थोड़ी देर के लिए अपने गम को भूल गयी। फिर उसने सीने में ज़िन्दगी और उम्मीद की कोंपलें फूटने लगीं। गाँव के किनारे एक पुख्ता मकान भी था जो मामिना को अपना मकान याद दिला रहा था। उसमें भी बड़ा-सा फाटक लगा था। उसकी बगल में भी मर्दाना कमरा था। उसके भी दो बड़े-बड़े सायादार दरख्त थे। हाय अपने घर के सामने सायादार दरख्त, जिनके नीचे उसका बचपन गुज़रा था। उसके बच्चे महरून, शम्स और मेहताब भी वहाँ खेलते थे। उसी दाहिनी तरफ के नीचे ही तो मैंने तो हाज़राने तालाब से मिट्टी लाकर घरौंदा बनाया था। बनाने में हज्जे की उँगली में शीशे का टुकड़ा लग गया और खून निकल आया। हम दोनों खून देखकर कितना डर गये थे कि अब घर में डाँट पड़ेगी लेकिन चचीजान ने दोनों को बचा लिया। फिर उसी घरौंदे में हाज़रा के गुड्डे और मेरी गुडिय़ा की शादी हुई. बेवा शबरातन, बहारो, सुन्दरी और जाने कितनी लड़कियाँ इकट्ठा हुईं और घरौंदा जो मेरा घर था वहाँ बारात आयी। बारात बैठी थी कि दरख्त से एक इमली गिरी और मैंने दौडक़र उठा ली। हज्जे बोली, वाह यह इमली तो बारातियों का हक है। मैंने कहा कि बाराती आये हैं वे खाना खायेंगे, दहेज लेंगे और गुडिय़ा को बियाह ले जाएँगे या सारा घर ले लेंगे। फिर तो हज्जे बिगड़ गयी। मैंने इस पर कहा कि चलो मैं बियाह नहीं करती। फिर क्या था सब बराती बिगड़ गये और सख्त जंग छिड़ गयी। इतने में उधर से आ निकले दादा मियाँ। उन्होंने मुझे और हज्जे को पुकारा और पूछा क्या मामला है! मैंने कहा कि इमली मैंने उठायी थी इसलिए मेरी हुई. हज्जे बोली कि नहीं मेरी हुई. दादा मियाँ ने सब लड़कियों को नाम लेकर पुकारा। हम सब डर रहे थे कि अब सब डाँटे जाएँगे। लेकिन दादा मियाँ पूरा मुकदमा सुनकर हज्जे से कहने लगे-बताओ बेटा तुम इमली लोगी या आम?
इमली से आम की बातें, यह पलटा बहुत मजे का था। हम सबके चेहरे पर बहाली आ गयी।
हज्जे लहककर बोली, "आ।"
"क्यों लड़कियों कितने-कितने आम खाओगी?"
हज्जे, "दो-दो!"
दादा मियाँ ने हर लडक़ी से पूछा, हरेक ने यही जवाब दिया "दो-दो" , लेकिन फत्तो हिम्मत करके बोली, "तीन-तीन" फिर क्या था सब लड़कियाँ चिल्ला उठीं-"तीन-तीन" मैंने दिल मजबूत करके कहा-"चार-चार" ? फिर तो हर तरफ से शोर होने लगा-"चार-चार"। इसी तरह बोली बढ़ती गयी और दस पर आकर ठहरी। इससे आगे बढ़ते लड़कियाँ डर रही थीं।
कि कहीं ऐसा न हो कि दादा मियाँ नाराज हो जाएँ और फिर जितने आम मिल रहे हैं वे भी न मिलें।
दादा मियाँ खामोशी से सुन रहे थे। जब नीलामी बोली आगे नहीं बढ़ी तो वह कहने लगे, "अच्छा, अगर तुमको ग्यारह-ग्यारह मिलें?"
अब तो लड़कियों में जैसी खुशी की मिर्चें लग गयीं। वे बेसब्री से चीखने लगीं, "हाँ दादा मियाँ, ग्यारह-ग्यारह।"
"और अगर बारह-बारह मिलें?"
लड़कियाँ ठट्ठे मारने लगीं। दो-चार दादा मियाँ से चिमट भी गयीं। सब शोर कर रही थीं। "हाँ दादा मियाँ बारह-बारह।"
अब तो लड़कियाँ नाचने लगीं और गुल-शोर से उन्होंने सारा गाँव सिर पर उठा लिया। इतना शोर हुआ कि और बच्चे भी आने लगे और भीड़ बढऩे लगी।
दादा मियाँ ने आवाज़ दी, ' मीको, आमों का टोकरा और बाल्टियों में पानी ले आओ. "
बाल्टियों में पानी आ गया। उसमें आम डाल दिये गये और सब लड़कियाँ और लडक़े चूसने लगे। आम खिलाने के बाद दादा मियाँ ने दूध मँगवाया। उसे देखकर रामदई, सुन्दरी और मोहन खिसकने लगे तो दादा मियाँ ने कहा, "कहाँ चली तुम्हारे लिए भी दूध आ रहा है।"
उन बच्चों के लिए अलग दूध आ गया। साथ-साथ कुल्लढ़ भी। दोपहर तक यही हंगामा रहा।
मेरी शादी भी उन्हीं दरख्तों के नीचे हुई थी। बड़ा-सा शामियाना लगा था। नीचे दरियाँ, चाँदनियाँ और कालीन बिछे थे। रंडियाँ 'मुबारकबाद' गा रही थीं। कितना शोर था। पुलाव की देग दे जाओ. बफाती कहाँ उड़ गया? अरे, दूध का घड़ा किसने लुढक़ा दिया। ऐ मीको, ऐ कल्लू, ऐ रमजानी, ऐ मंगलदास, ऐ बाबा जी! कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। इस पर रौशन-चौकी का शोर। बर्तनों की खनाखन। देगों की ठन-ठन। बच्चों का रोना। घोड़ों का हिनहिनाना। सब कैसा अजीब-सा मालूम होता था।
मैं दुल्हन बनी पसीने में सराबोर एक कोठड़ी में मुँह ढके लेटी थी। दादा मियाँ की यही ख्वाहिश थी कि उनकी पोती-पोता में रिश्ता हो जाएे। इसलिए उनकी मौत के बाद अब्बा और चाचा ने रिश्ता तय कर लिया। मँगनी होते ही मुझे तो उनके नाम से शर्म आने लगी और पर्दा करने लगी, लेकिन वे मुझे मौका निकाल-निकालकर ताकने लगे। उनकी यह शरारत कि इस दरख्त में झूला डाला और खड़े होकर इतने बड़े-बड़े पेंग लेने लगे कि मैं कोठे पर थी तिस पर भी उनसे नज़रें मिल गयीं। पर मैं हट गयी। फिर तो ताने मारने लगे-
काकुल की तरह आज तो बल खाये हो,
मालूम हुआ गैर के भडक़ाये हुए हो।
मैं अपने दिल में कहने लगी कि ये गैर या तो अम्मा को कह रहे हैं या अब्बा को। लेकिन उनमें से किसी पर यह इल्जाम लगाना कि उन्होंने मुझे भडक़ाया है, कैसी बुरी बात है।
मोमिना अपना यह भोलापन याद करके मुस्करा दी। आज उसे झूले का किस्सा बरसों बाद याद आया। वर्ना इसे कब की भूल चुकी थी।
मोमिना की जब आँख खुली तो सूरज चौथाई आसमान तय कर चुका था और वह धूप में पड़ी जल रही थी। खेत, बाग, मन्दिर और मकान-सब धूप से मालामाल थे। मोमिना ने अँगड़ाई लेकर रंगीन और सुनहरे, ज़मीन और आस्मान की तरफ देखा और उठी। उठते ही उसे खयाल आया कि कहीं किसी ने मुझे देखा न लिया हो और कहीं यह गाँव दुश्मनों का न हो। इस खयाल का आना था कि वह काँप गयी और अपने को इस तरह बेखबर हो जाने पर बुरा भला कहने लगी, लेकिन उसे किसी तरफ आदमी का नामो-निशान भी नज़र नहीं आया। खेत खाली, बाग खाली, कच्चा रास्ता खाली। गाँव के अन्दर भी न कोई आदमी चलता फिरता नज़र आ रहा था और न किसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। उसे यह देखकर इत्मीनान भी हुआ और हैरत भी कि गाँव खाली क्यों है?
कहीं ऐसी बात तो नहीं कि यहाँ के सब बसने वाले मुसलमान हों और वे डर कर पाकिस्तान भाग गये हों। मुमकिन तो है ऐसा? पर अभी ज़रा और देख लेना चाहिए कि वहाँ कोई हिन्दू या सिख तो नहीं है।
मोमिना को बहुत भूख लगी थी। एक बरसाती गड्ढे से पानी पीकर उसने पेट फुला लिया। उस समय उसे यह खुशखबरी मिली कि उसकी कमीज और दुपट्टा सूख चुके हैं। केवल सलवार कमर के पास भीगी रह गयी है। मोमिना ने यह इत्मीनान करके कि आसपास वाकई कोई आदमी नहीं है, दुपट्टे की तहमद बाँध ली और सलवार सूखने फैला दी।
जब मोमिना की नज़र अपनी खुली पिण्डलियों पर पड़ी तो दिल पर एक सख्त घूँसा लगा कि हाय! इस जिस्म पर इन चार-पाँच दिनों में क्या-क्या बीत गयी। हाय! कैसी बेहयाई के दिन-रात काटना पड़े हैं। दो दिन तक मेरे और मेरे गाँव की पन्द्रह-बीस औरतों के जिस्म पर कपड़े की एक धज्जी तक न थी। इस हाल में सौ-दो सौ मर्दों के बीच में रहना पड़ा। वह उनका शराब पी-पीकर नंगे नाच और बेचारी औरतों के साथ बेशर्मी की हरकतें करना।
उफ! उस कलूटे मुए बदबूदार गाली बकने वाले के बाजुओं में, कमबख्त मुसलमानों से नफरत के कारण मुझे इस्तेमाल करता था। हाय, मैं क्यों यह नजारा देखती रही। क्यों न मैं भी इज्जे की तरह दौडक़र कुएँ में फाँद पड़ी। मैं बेहया यह शर्मनाक ज़िन्दगी लेकर अब कहाँ जाऊँ? शर्मनाक-सी शर्मनाक! उफ!
मोमिना को अपनी दूध-पीती बच्ची लाड़ली का आँखों के सामने मारा जाना याद आ गया और फिर एक 'हाय' के साथ पूरा दृश्य आँखों के सामने फिर गया।
दिन के नौ बजे होंगे, अब्बा बाहर की कोठरी में भूसा भरवा रहे थे ताकि बारिश में ख़राब न हो जाए. चचा ने बाहर पेड़ के नीचे हुक्का मँगवाया था। बच्चे मदरसे जाने के लिए रोटी माँग रहे थे। महरून जल्दी-जल्दी उनके खाने का बन्दोबस्त कर रही थी कि अब्बा, चचा और वह भागते हुए घर में आये। चेहरों पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। आते ही चिल्लाये-पर्दे में जाओ. मैं, चची रूकैया और लड़कियाँ अभी कमरे में घुसने भी न पाये थे कि अब्बा ने पुकारा-अन्दर आ जाओ. आवाज़ के साथ ही खैराती, मौला, गनी, जुमेराती-सब लाठियाँ लिए अन्दर आ गये। फाटक बन्द कर लिया गया। अब्बा ने हुक्म दिया कि खैराती, तुम ऊपर छत पर चढ़ जाओ. चचा से कहा, तुम गनी और मौला को लेकर पिछवाड़े के दरवा$जे पर जाओ. खुद अब्बा उनको साथ लेकर फाटक की तरफ गये।
उन लोगों के आने से पहले मैं लाड़ली का दूध पिला रही थी। उस समय कुछ शोर कान में आया। मैं सोचने लगी कि एक तो आज बाज़ार का दिन नहीं है और दूसरे यह दिल्ली-वाली सडक़ की तरफ से आ रहा है। यह शोर कैसा है? अब जो यह हंगामा हुआ तो मैं समझी कोई भयानक बात है।
अभी अब्बा और चचा वगैरह अपनी जगहों पर भी नहीं पहुँचे होंगे कि शोर हमारे घर के करीब आ गया और नारे सुनाई देने लगे-
बजरंगबली की जय!
मुसलमानों का नास हो!
खून का बदला खून है! मुसलमानों को भारत से निकाल दो!
महात्मा गाँधी की जय!
बन्दूकें चलीं। मरने वालों की चीखें सुनाई दी और ज़रा ही देर में हमारे फाटक पर धड़-धड़ होने लगा। फिर इतना शोर हुआ। कि कुछ समय में नहीं आता था कि क्या हो रहा है। कई बन्दूकें एक साथ छूटीं। अब्बा की चीख सुनाई दी और साथ ही बजरंगबली की जय और फिर हमारा आँगन हमलावरों से पट गया। उन लोगों में खद्दर की टोपियाँ भी, फ़ौज़ी वर्दियाँ भी थी, साधू और संन्यासी भी और हमारे गाँव के बहुत-से जान-पहचान वाले लोग भी थे। ज़रा देर में ये लोग एक बल्ली लाये और उसे दस-बारह आदमी पकडक़र झोंक देकर जिस कमरे में हम थे, उसके एक किवाड़ पर मारने लगे। वह चर-चर करने लगा। हम सबको अपनी मौत का यकीन हो गया। जो-जो आयतें याद आयीं पढऩे लगे। बच्चों को समझया कि रोओ नहीं, खुदा को याद करो। इतने में चचा और मौला किसी तरफ से दौड़ते हुए कमरे की ओर आये और लाठियाँ तानकर दरवा$जे के सामने खड़े हो गये। वे अभी क़दम जमा भी नहीं पाये थे कि छह-सात बन्दूकें एक साथ छूटीं। वे दोनों जिस जगह थे वहीं ढेर हो गये। मेरी आँखों में दुनिया अन्धेर हो गयी और मुँह से चीख निकल गयी। चची ने कान में कहा-बीबी खुदा को याद करो।
उन दोनों के मरते ही दरवाजा टूट गया। हमलावर अन्दर आ गये और हम सबको पकड़-पकडक़र बात की बात में घर के बाहर पहुँचा दिया। एक जवान पिस्तौल हाथ में लिए खड़ा हुक्म दे रहा था। उसने मेरी और महरून की सूरतें देखकर कहा-यह लडक़ी तो काम की है और यह औरत भी कुछ बुरी नहीं, लेकिन उसकी गोद में क्या झंझट है, फेंको इसे।
मैं लाड़ली को चिमटाकर बैठ गयी, लेकिन तीन-चार जवानों ने मुझे पछाड़ कर लाड़ली को छीन लिया और एक टाँग पकडक़र ज़मीन पर दे मारा। उसका भेजा बह निकला। हाय! बुझती हुई वह नजरें! माँ मर जाती उसके बदले। जालिमों ने इस पर एक कहकहा लगाया।
लाड़ली का दम निकला ही था कि कुछ हमलावर उनको शम्स और मेहताब के साथ खींचते हुए लाये और सरदार ने कहा-यह अपने बच्चों को लेकर भाग रहा था।
वह जख्मी थे। हो सकता है कि बच्चों को बचाने के लिए उन्होंने कुछ मुकाबला किया हो। सरदार ने हुक्म दिया कि इसको इसी तरह कुएँ में डाल दो। सामने एक कुएँ में लाशें फेंकी जा रही थीं। उसी में वे झोंक दिये गये। हाय! वह अन्दर से रह-रहकर पुकारते थे-जालिमो! खुदा के लिए मुझे एक गोली मार दो। उनकी ओर से मैं भी एक-एक की खुशामद करती रही, पर किसी ने गोली न मारी।
शम्स और मेहताब को ठायें-ठायें गोलियाँ मार दी गयी और वे "हाय! अम्मा" कहकर ख़त्म हो गये। फिर मुर्दा बेटों को जिन्दा बाप के ऊपर फेंक दिया गया। मुझे और महरून को नंगा करके नंगी औरतों की भीड़ में शामिल कर दिया गया। उसी भीड़ में हज्जे भी थी और महरून की तरह सिर झुकाये फूट-फूटकर रो रही थी।
उसी रात जालिमों ने खूब शराबें पीं और हम लोगों को बेदर्दी से इस्तेमाल किया। हमारे आँसुओं और चीखों में उन लोगों को मजा आता था और जोश में इजाफा होता था। हज्जे मौका पाकर उन लोगों के बीच से निकल भागी और तीर की तरह जाकर एक कुएँ में जो सामने कुछ दूरी पर था, कूद पड़ी। कैसी बहादुर और खुशनसीब थी वह! उन लोगों को एक माल निकल जाने का दुख तो बहुत हुआ लेकिन किसी से इतना नहीं हुआ कि निकालने की कोशिश करता।
सुबह औरतों का बँटवारा हुआ। महरून नामुराद को खुदा जने कौन ले गया, मैं कलूटे खबीस के हिस्से में आयी। वह लेकर अपने घर आया। हाय, वहाँ की शर्मनाक ज़िन्दगी! बातों से मुझे पता चल गया कि वहाँ से पाकिस्तान की सरहद करीब है। पिछली रात अँधेरे में किसी तरह वहाँ से निकल भागी और अपने हिसाब से पाकिस्तान की ओर चल पड़ी। अब पता नहीं कि कहाँ हूँ। हाय! मुझ बेहया में इतनी हिम्मत क्यों नहीं है कि हज्जे की तरह अपनी नापाक ज़िन्दगी को ख़त्म कर लूँ।
इन ख़यालों के साथ मोमिना के दिल में एक हूक उठी जो दिल और दिमाग को इस तरह तपाने लगी जैसे दहकती भट्टी में लोहा। आह! चारों ओर नाले, ताल, तलैया हद यह है कि ज़रा-ज़रा से गड्ढे तक पानी से ठिले हुए थे। लेकिन मोमिना की आँखें थीं कि दो बूँद पानी के लिए इस तरह तड़प रही थीं जैसे तपते रेगिस्तान में रेत के जर्रे।
कई दिन की बारिश के बाद जो धूप निकली तो चीटियाँ अण्डे सुखाने और अपना खाना जमा करने के लिए बाहर निकल पड़ीं। उनकी एक फौज ने एक जीती-जागती भिड़ को पकड़ लिया। दर्जनों की तादाद में उसके पैरों, बाजुओं, पेट और सिर में चिमट गयीं और फिर वे उसे घसीटकर ले चलीं। भिड़ फडफ़ड़ाती थी लेकिन उसके बाजू और पाँव उस निर्दय फौज के सामने बेकार थे। अगर वह तड़पकर अपने जिस्म का कोई हिस्सा छुड़ा लेती थी तो फिर उस जगह एक की बजाय चार चीटियाँ चिमट जातीं। चीटियाँ भिड़ को जबरदस्ती लिये जा रही थी। खींचे लिए जा रही थीं।
मोमिना जब अपनी कहानी को मन-ही-मन दोहरा रही थी, उसकी नज़र भिड़ और चीटियों पर जमी हुई थी। अपनी दास्तान के खात्मे पर पहुँचते ही उसे खयाल आया कि एक चींटी काट ले तो कितनी तकलीफ होती है, फिर उस बेचारी भिड़ का क्या हाल होगा, बेरहम चीटियों! किसी बेदर्दी से एक जिन्दा जिस्म को खा रही हो। क्या अनाज के दाने तुमको मयस्सर नहीं होते? इस बेचारी ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा भा कि एक जान पर हजारों टूट पड़ी हो। हो सकता है कि इस भिड़ के बच्चे हों और इसके न होने से भूखे प्यासे मर जाएँ।
मोमिना ने एक तिनका उठाकर उससे चीटियों को भगा दिया लेकिन भिड़ इतनी घायल हो चुकी थी कि वह आजाद तो हो गयी, पर उड़ न सकी।
अफसोस! अपाहित कर दिया इस बेचारी को। अब जिएगी भी तो सिसक-सिसक कर। इससे तो अच्छा होता अगर चीटियाँ उसे एक ही बार में निगल जातीं।
मोमिना ने एक पत्ते से भिड़ को उठाकर पेड़ पर बैठा दिया कि वह वहाँ सुरक्षित रहे। जब अच्छी हो जाएे अपने छत्ते में चली जाएे नहीं तो आराम से मर जाएँ।
सलवार सूख चुकी थी। दु: खी भिड़ को बचाने की खुशी के अलावा मोमिना को एक खुशी और भी हुई. वह यह कि रात बारिश में भीगने की वजह से उसके गन्दे कपड़े, गन्दा जिस्म और गंदा सिर-सब साफ हो गये थे, बस कंघी की कसर रह गयी थी।
मोमिना का ध्यान गाँव की ओर लगा हुआ था। इतनी देर हो चुकी थी, आबादी की कोई निशानी नज़र नहीं आती थी। न कोई आदमी आता-जाता दिखाई देता था। न बच्चे खेलने निकले थे और न खेतों से किसी ने किसी को पुकारा था। गाँव वाकई उजाड़ और खाली था।
मोहिना पगडण्डी-पगडण्डी जा रही थी, लेकिन बहुत चौकन्ना हो ऊपर कान लगाये हुए, पत्ते-पत्ते कि हरकत को भाँपती हुई. पगडंडी ने ज़रा-सा चक्कर देकर दूसरी ओर से गाँव में पहुँचा दिया। गाँव वास्तव में बिलकुल खाली था। हर तरफ आग की कारस्तानियाँ और तबाही नज़र आ रही थी। यह भी नज़र आ रहा था कि बारिश ने आकर कोयले को राख होने से बचा लिया है। छतें ढेर थीं, किवाड़ कोयला बनकर मकान के सामने आ रहे थे। घरों के अन्दर न कोई खटिया थी, न बर्तन और न किसी प्रकार का सामान। या तो कोयल था या फिर मिट्टी के ठीकरे जो हर घर के अन्दर और बाहर प्राय: नज़र आते थे।
मोमिना आगे बढ़ी तो हलवाई की दुकान नज़र आयी। उसका खौंचा सजाने वाला चबूतरा शेष रह गया था। यहाँ मोमिना की नज़र एक ऐसी चीज पर पड़ी कि वह ठिठककर रह गयी। ध्यान से देखने लगी। वह वाक्य था चबूतरे की दीवार पर कोयले से 'अल्लाहो अकबर' लिखा हुआ था जो बारिश से आड़ में होने की वजह से धुँधला-बाकी रह गया था। भड़भूजे का भाड़ मिला। यहाँ भी दीवार पर 'अल्लाहो अकबर' लिखा नज़र आया। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि यह गाँव मुसलमानों का था और आग ने उनको भगा दिया? लेकिन ऐसा क्योंकर हो सकता है? देखो उन खेतों को जो लहलहा रहे है। भला उनको छोडक़र वह लोग कहीं दूर जा सकते हैं किन्तु यदि आसपास होते तो खेतों में तो नज़र आते। फिर क्या हुआ?
मोमिना को 'अल्लाहो अकबर' देखकर गाँव से एक लगाव-सा महसूस होने लगा। जैसे वतन से बहुत दूर, वीराने में उसे एक अपना मिल गया। यहा गाँव वीरान होने पर भी आबाद महसूस हो रहा है और जी तड़प-तड़प कर कह रहा था कि मोमिना उसके दरो-दीवार से लिपट-लिपट कर अपनी वह राम-कहानी सुना दे जिसको सुनने वाला कोई मौजूद नहीं है और यह पहाड़-सा बोझ उससे बँटा ले।
गाँव! मोमिना को सहसा अपना गाँव याद आ गया। जिस दिन मैं हसरत के साथ इससे विदा हो रही थी! कितनी वीरानी थी उसकी आबादी में! हर चेहरा अनजबी, हर आँख नफरत से भरी, हर मकान अपने मकानों की याद में-में गमगीन। रहीम दर्जी की दुकान पर न वह था, न उसका लडक़ा, न मशीन, न कपड़े। एक अजनबी बैठा हुआ मोटे डंडे से भाँग घोंट रहा था। डंडे में बँधे घुँघरू छन-छन बोल रहे थे और वह उसकी गति पर झूम-झूम कर ताने उड़ा रहा था। मुरादी के दरवाजे पर जो मैदान था, जहाँ कल तक वह और उसके बेटे दौड़-दौड़ के लच्छे सुलझाते थे और ताना तानते थे और फिर थान बेलते थे, जिसमें ऐसे फूल डालते थे कि बस बैठे देखा करो, वहाँ अब मैली गन्दी औरतें सिर झाड़ मुँह फाड़ बैठी जुएँ देख रही थीं। सिर धो रही थीं और सबके सामने नहा रही थी और बच्चों को दूध पिला रही थीं। ड्योढ़ी में औरतों से ज़रा आड़ में एक जवान मुग्दर की जोड़ी हिला रहा था।
मुरादी के मिट्ठू मियाँ पेड़ से लटके हुए अपने खाने की कटोरी बजा रहे थे और बीबी जी-बीबी जी की रट लगा रखी थी। एक लडक़ी कुछ देने आयी तो मिट्ठू मियाँ ने ताल लगायी। 'नबी जी भेजो।'
यह सुनते ही लडक़ी ने हाथ रोक लिया और एक सत्तर-अस्सी बरस की बुढिय़ा ने दूर से चिल्लाकर कहा, "अरी छोकरी! तू किसका पेट पाल रही है। देखती नहीं है कि यह माटी-मिला गैरजात है। मार डाल इसे?"
लडक़ी ने पिंजरा उठाकर पटक दिया। लेकिन मिट्ठू मरा नहीं है-है करने लगा। इसमें शिकायत थी कि आज तक किसी ने सिवाय मिट्ठू मियाँ, मिट्ठू मियाँ कहने के मेरे साथ बुरा बर्ताव नहीं किया। तुम लोग यह क्या कर रहे हो।
जहाँ पिंज़रा लटका था वह जगह मुग्दर हिलाने वाले जवान के सामने थी और वह यह सब-कुछ देख रहा था। उसने बाहर आकर लडक़ी से कहा, "वाह री छोकरी, मुट्ठी-भर का मिट्ठू तुझसे नहीं मरा।"
पहलवान ने रूमाल हाथ पर लपेटकर पिंजरे में हाथ डाला और मिट्ठू मियाँ की गर्दन मरोडक़र पिंजरे के बाहर फेंक दिया। फिर खुद जाकर पहले की तरह मुग्दर हिलाने लगा।
पिंजरे के पट खुले थे और वह भायें-भायें कर रहा था। उससे ज़रा ही दूरी पर तोता पड़ा था जिसकी सुर्ख चोंच गर्दन टूट जाने के कारण हरे परों के बीच में आ गयी थी। मिट्ठू मियाँ नबी जी भेजो, नबी जी भेजो की रट लगाने वाली जबान सदा के लिए चुप हो चुकी थी।
शाही युग की शानदार मस्जिद जिसे दूर-दूर से लोग देखने आते थे, उसकी कटावदार मेहराब को बेलचों से तोडक़र वहाँ गेरू से मूरत बना दी गयी थी और एक घण्टा लटका दिया गया था। अब वह मन्दिर था, जहाँ एक पुजारी भी बैठा हुआ था। अपने घर की हालत! उफ! याद करके कलेजा फटता है।
मोमिना ख़यालों में डूबी हुई शिवाले तक आ गयी। यहाँ एक चीज बिलकुल उम्मीद के खिलाफ नज़र आयी। उसके कलस से एक जानवर का सिर लटक रहा था, जिसकी आँखें और गोश्त कौवे निकालकर खा गये थे और खाल बिगड़ चुकी थी, किन्तु सींग और चेहरा बता रहे थे कि गाय का सिर है। शिवाले के अन्दर शिव का स्थान तोड़-फोड़ डाला था और कोयले से मेहराब बनाकर 'अल्लाहो अकबर' लिख दिया गया था।
मोमिना ने उधर मस्जिद को देखा और इधर उसकी नाक में इतनी सख्त सड़ाँघ आयी कि जी मचलने लगा, लेकिन यह देखकर उसके दिल को कुछ सुकून हुआ कि दुनिया में एक जगह तो ऐसी निकली जहाँ मस्जिद ने मन्दिर पर फतह पायी है। हो न हो यह जगह पाकिस्तान है। खुदा चाहेगा तो यहाँ ऐसे-ऐसे नजारे और बहुत देखने में आएँगे।
मोमिना दोनों वृक्षों के नीचे खड़ी उस मकान को देख रही थी जो दूर से उसे अपने घर से मिलता-जुलता नज़र आया था। उसके घर की तरह उसमें भी बाहर बैठक और बगल में अहाता था। जिसमें बराबर-बराबर बहुत-सी नाँदें लगी हुई उन सिरों को याद कर रही थी जो उनसे घंटों कानाफूसी करते रहते थे। यहाँ भी अहाते के अन्दर और बाहर मिट्टी के बर्तनों के ठीकरे बिखरे पड़े थे। बैठक के सामने तीनों दरवाजे और एक वह दरवाजा जो बैठक के अन्दर घर में खुलता था, ये सब पाटो-पाट खुले थे। घर के अन्दर का बहुत-सा भाग नज़र आ रहा था। बैठक के बाद दालान था फिर बहुत-बड़ा सेहन फिर खपरैल जो जलकर नीचे ढेर हो चुकी थी। उसके पीछे एक और दालान और वह भी आग का शिकार हो चुका था।
यह बैठक देखकर मोमिना को अपने घर की बैठक याद आ गयी। वह भी इसी तरह फाटक के बगल में थी। वहाँ जाड़ों में रात गयेे तक ताश और शतरंज होती रहती थी और कहकहे गूँजा करते थे। कभी-कभी कोई ताने भी मारने लगता था। ग्रामोफोन का चस्का लग जाता था तो रोज वही बजा करता था। वही गिनती के कुछ रिकार्ड थे, सुनने वाले रोज सुनते थे। दिन में दो-दो, तीन-तीन बार। कभी-कभी तो दिन-दिन भर सुनते थे। मोमिना सोचने लगी, क्या इस बैठक में भी यही हुआ करता होगा। इस सवाल में और उस याद में कुछ इतना जोर था कि वह मोमिला को ढकेल कर बैठक के अन्दर ले गया। यहाँ पहुँचते ही उसकी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ गयी जिसके लिए सुबह से उसका जोड़-जोड़ बिलख रहा था। बैठक के अन्दर कुछ चने इस प्रकार बिखरे पड़े थे जैसे फूहड़पन से रखने-उठाने से अनाज बिखर जाता है, लेकिन बारिश की बौछार और नमी से उनमें अखुए फूट आये थे। मामिना उन चनों पर ऐसे टूट पड़ी जैसे भूखी मुर्गियाँ दाने पर गिरती हैं। वह उनको चुन-चुनकर खाने लगी। खाती जाती थी और सोचती जाती थी कि अखुआ फूटे चने भी मजे के होते हैं। न नमक, न मिर्च किन्तु कैसे सौंधे मालूम हो रहे हैं। सच है कि भूख में हर चीज मजा देती है। चने खाते-खाते मोमिना की नज़र बैठक और घर के बीच के दरवाजे पर पड़ी और कुछ देखकर उछल पड़ी। एक कुतिया खड़ी बहुत ध्यान से मोमिना की ओर देख रही थी। मोमिना पहले तो डरी कि कहीं यह मुझ पर हमला न कर दे, किन्तु उसकी आँखों में $खूँख्वारी न पाकर चुमकारा। फिर तो कुतिया कूँ-कूँ करती हुई दौड़ी और मोमिना के पाँव पर लोटने लगी और उस पर प्रेम न्योछावर करने लगी। उसकी बेताब मुहब्बत देखकर मोमिना को सुरूर-सा लगा। ओफ्फो, कितने दिनों के बाद मुहब्बत मिली है। उसने कुतिया को चिमटा लिया। जैसे बहुत दिनों के बिछुड़े हुए अचानक मिल गये हैं। चिमटाने के बाद मोमिना को ख़याल आया कि कुत्ता नापाक होता है।
अब प्यार हो चुका तो कुतिया अन्दर भाग गयी। दम-भर में वापस आकर मोमिना के कदमों पर लोटने लगी और फिर अन्दर भाग गयी। फिर बाहर आकर कदमों पर लोटने लगी। मोमिना समझ गयी कि यह मुझे अन्दर ले जाना चाहती है। वह उसी मकान में रात बसर करना चाहती थी। इसलिए उसका कुछ इरादा हो रहा था कि अन्दर का एक जायजा ले लूँ। कुतिया के कुलाबा देने से वह निडर हो गयी और उसके पीछे-पीछे अन्दर चली। मकान सादा बना हुआ था। बैठक के पीछे दालान था और बगल में एक छोटा-सा कमरा। मकान का सामने का हिस्सा तो जल गया था, पर आग सेहन पार करके उस तरफ नहीं आयी थी। यह हवा की मेहरबानी हो या बारिश की।
कुतिया कमरे की तरफ मुड़ी। मोमिना ने जसे ही उधर देखा उसका दिल ाक-से रह गया और मुँह से चीख निकलते-निकलते रह गयी, लेकिन उसने फौरन ही अपने को सँभाल लिया। डर की कोई बात ना थी उसके सामने सिर्फ़ एक छोटा-सा दुबला पतला हकीर-सा, नंगा मादरजात लडक़ा था।
लडक़े का एक पहलू, एक बाजू सीना और सिर पर शायद दोनों आँखें आग ने चाट ली थीं। जख्मों से पानी बह रहा था और उन पर मक्खियों के झुंड भिनक रहे थे जिनको लडक़ा कराह-कराह कर कमज़ोर हाथों से उड़ा रहा था।
लडक़ा पतनाले के नीचे-वाले गड्ढे को टटोल रहा था। शायद पानी की तलाश में था। जब वह नहीं मिला तो उसके मुँह से "हाय! माँ" निकल गया और फिर वह हाथों और कूल्हे के बल घिसटता हुआ कमरे के अन्दर गया और ज़मीन पर करवट से लेट गया। उस लडक़े के अलावा घर में कोई इनसान न था और न किसी किस्म का साजो-सामान। यहाँ तक कि पीने के पानी के लिए एक बर्तन भी न था।
कुतिया जोश में लडक़े के पाँव चाटने लगी।
लडक़ा कराह कर बोला, "क्या बात है आशा, तू भी भूखी प्यासी हो गयी।"
मोमिना के दिल में डर की जगह दया ने ले ली और फिर दया, "हाय माँ" सुनकर ममता बन गयी। हाय यह नन्हा-सा अपाहिज बच्चा इस अँधेरी नगरी में बिलकुल अकेला है, बेचारा। आशा बेज़बान के सिवा कोई पूछनेवाला तक नहीं। कोई दो बूँद पानी देने वाला तक नहीं। बेचारा पतनाले के नीचे गड्ढे में पानी ढूँढ़ रहा था। एक बूँद भी न मिला।
मोमिना की आँखें ममता से नम हो गयीं और वह दबे पाँव ज़रा और करीब चली गयी। आशा खुशी से उछलने लगी।
लडक़े ने कराह कर कहा, "हे राम!"
'हे राम' सुनते ही ममता पर बिजली गिर गयी और उसने आग की लपट बनकर मोमिना के तन-बदन को फूँक दिया।
यह मुसलमान नहीं, फिर तो यकीनन इस पर खुदा का कहर टूटा है। उन कमबख्तों ने किस बेदर्दी से मेरी हँसती खेलती लाड़ली को उठाकर पटका है और उसका कहकहा लगाया है। हाय, उन बेचारों को जिन्दा कुएँ में अपने बेटे की लाशों से दबा दिया जाना। उफ्! न जाने कितने दिनों में जान निकली होगी। मेरे प्यारे शम्स और मेहताब। उनका चीख मारकर 'अम्मा' पुकारना। बदनसीब महरून खुदा जाने ज़िन्दा भी है और अगर ज़िन्दा है तो उसकी कैसी कट रही है? हाय! कैसे-कैसे दाग हैं मेरे दिल पर। ये जालिम पापी तो इसी काबिल हैं कि उनका एक-एक बच्चा इसी तरह सिसका-सिसका कर मारा जाएे और मरते वक्त भी एक बूँद पानी न दिया जाएे। मोमिना ने थोड़ी देर लडक़े के कराहने और तड़पने का सुकूनब$ख्श न$जारा देखा और फिर वह जिस दबे पाँव आयी थी उसी तरह दबे पाँव बाहर चली। उसके मुँह मोड़ते ही फिर बदबू का एक झोंका आया जिससे उसकी रूह तिलमिला गयी।
बच्चे की अकेली उम्मीद आशा, मोमिना की ओर हसरत से देखने लगी और उसके कदमों पर लोटने लगी, लेकिन मोमिना के लौटते हुए कदमों में ब्रेक न लगा सकी।
बैठक में आकर मोमिना चने समेटकर आँचल में भरने लगी। उस समय उसकी नज़र एक ऊँची ताक पर पड़ी जिसमें सूँडवाले देवता की मूर्ति रखी हुई थी। इसका मतलब है कि यह घर किसी मुसलमान का नहीं है। ऐसे घर में पनाह लेने से उस पेड़ के नीचे ज़िन्दगी काटना लाख दर्जे अच्छा है जहाँ मेरी भिड़ रहती है।
धूप की तेजी जा चुकी थी। आसमान पर बादलों के बड़े-बड़े सफेद टुकड़े सुकून से एक तरफ से दूसरी तरफ जा रहे थे। खुशगवार हवा के धीमे-धीमे झोंके थके हुए बदन को सहला रहे थे। पेड़ के नीचे गोगाइयाँ शोर मचा रही थीं और आपस में आँख मिचौली खेल रही थीं। मोमिना अपने पेड़ से कुछ दूर एक तलिया के पास बैठ अँखुआ फूटे चनों को धो-धोकर खा रही थी, गोगाइयों के बचकाने शोर से आनन्द ले रही थी। उसके दिल में आज कितने दिनों के बाद खुशी की मौजें उठ रही थीं। मोमिना दिल में कह रही थी, देख शक भरे दिल देख। खुदा के यहाँ देर है, अन्धेर नहीं। देख सामने का गाँव जिस तरह जलकर खंडहर बन गया है और इसके बसने वालों को देश निकाला मिला है। एक बच्चा जो सबके पापों को भोगने के लिए रह गया है किस तरह सिसक-सिसक कर मर रहा है। यह खुदा का कहर नहीं तो और क्या है? उसकी लाठी में आवाज़ नहीं। किस जबान से तेरा शुक्र अदा करूँ, ओ करम करने वाले, तूने मुझ दुखियारी के शौहर और बच्चों की आहों को यूँ ही नहीं जाने दिया।
मोमिना क्योंकि चने खा रही थी और अपनी कल्पना की आँखों से सिसकते हुए बच्चे का तड़पना, एडिय़ाँ रगडऩा और उसके मृत्यु-कष्ट भोगते हुए आँखों-आँखों से दरो-दीवार से पानी माँगना, देख रही थी। क्यों रे काफिर, अब महसूस किया तूने कि मेरी लाड़ली की जान किस तरह निकली होगी। अब जाना कि कत्ल करना और वह भी बच्चों को माँ के सामने और शौहर को बीवी के सामने। बलात्कार करना और वह भी बेटी के सामने, ये कैसे पाप हैं और इस दुनिया का पालनहार इसकी सजा कैसी भयानक देता है।
इस दृश्य से मोमिना को कुछ ऐसा मजा आ रहा था कि कई बार यही कल्पना करने के बावजूद जी नहीं भरा था बल्कि जी में तो ये मौजें उठ रही थीं कि काश इसी कल्पना में सारी ज़िन्दगी बीत जाएे। जालिम आसमान तू ज़रा देर भी किसी को हँसते-खेलते नहीं देख सकता है। मोमिना उन खयालों से आनन्द ले रही थी कि वह चारों तरफ से घिर आया। कडक़ और गरज से उसने दुनिया को भर दिया। मोमिना के ख़यालों की उड़ान रुक गयी। वह सोचने लगी कि मैं कहाँ जाऊँ ताकि रात बिन भीगे कट जाएे। एक रात भीग चुकने के बाद अब उसमें फिर इस मुसीबत के झेलने की बिलकुल हिम्मत न थी। दूसरी ओर उसे महरून याद आने लगी थी। खुदा जाने किस हाल में हो और कैसे जालिमों से वास्ता पड़ा हो? हो सकता है कि वह बीमार हो गयी हो और उसके दुश्मनों ने भी उसके साथ वही सुलूक किया हो जो कनीज के साथ किया कि वह बहुत बीमार हो गयीं तो उसे कहीं फिकवा दिया। हो सकता है कि महरून इस हालत में हो और उसकी मदद कर सकूँ। मोमिना इन खयालों को ड्रामे के रूप में देखने लगी कि महरून बीमार है। बेघर है कि एकाएक मैं पहुँच जाती हूँ और उसकी मदद करती हूँ। वह सोचने लगी कि मेरी जान महरून के लिए बहुत कीमती है इसलिए इसकी हिफाजत ज़रूरी है।
साथ-साथ एक बात और भी वह यह कि वह डर रही थी। थी तो वह बहादुर और बहादुर बाप-दादा की औलाद। एक बार चोरों को भी भगा चुकी थी लेकिन दिल मजबूत होने पर भी मुलायम किनारे रखती थी और इस वक्त छोटे-छोटे बहुत-से भय उसे घेरे हुए थे। डर, जंगल का डर, जानवरों का डर, साँप-बिच्छू का डर, चोरों-डाकुओं का डर, शरणार्थियों का डर। भीग कर बीमार होने और फिर एकान्त में एडियाँ रगड़-रगडक़र मरने का डर। ये सब डर महरून के लिए जिन्दा रहने की इच्छा में गड्डमड्ड होकर एक घबराहट में बदल गये थे कि क्या करूँ और कहाँ जाऊँ?
मोमिना ने फैसला कर लिया कि क्या करना चाहिए. यह फैसला उसने किसी तर्क से नहीं किया बल्कि उसी तरह किया जैसे उसने कलूटे के घर से निकल भागने का निर्णय किया था। यानी दोनों दिशाओं में से जो दिशा जज्बात के लिए अधिक आकर्षणपूर्ण होती है वह मोमिना को खींचे ले गयी।
मोमिना पगडंडी छोडक़र खेतों-खेतों होती हुई आशा के घर की ओर चली। वहाँ छत थी जो बारिश को रोकेगी। दरवाजे थे जो बन्द हो जाएँगे। आशा थी जो वक्त पडऩे पर ज़रूर काम आएगी। फिर यह बात भी है कि जब दुश्मनों ने मेरे बाप-दादा के घर पर क़ब्ज़ा कर लिया है तो मे। क्यों न उनके घर पर कब्जा कर लूँ। ज़रूर करूँगी। आशा का घर मेरा घर ही है। हाँ, मेरा घर।
मोमिना अपने घर पहुँच गयी। बैठक में जाकर उसने जल्दी-जल्दी सब दरवाजे बन्द कर लिये। अब वह रात के आक्रमणकारियों से भी सुरक्षित थी और आशा की नज़रों से भी। वह आशा से और आशा उससे प्रेम करती थी। फिर भी मोमिना आशा की नज़रों से डरती थी।
मोमिना खैरियत से अपने घर पहुँच गयी। अपना घर। हाँ, अब यह अपना घर तो है ही। मैं यहाँ की घरवाली हूँ। महरून आएगी तो उसे भी यही रखूँगी। बैठक, दालान और कमरे को मैं साफ कर लूँगी। जीवन-यापन का कोई-न-कोई साधन हो ही जाएगा। यदि मुझे कोई यहाँ से निकालेगा भी तो मैं नहीं निकलूँगी। कहूँगी कि पहले तुम मेरा मकान मुझे दिला दो, तब इसे माँगना। किसी को क्या हक था मेरे बाप-दादा के घर को मुझे छीन लेने का।
रात हो गयी। सियार हूवा-हूवा पुकारने लगे। थोड़ी रात बीती थी कि उनके साथ दूसरे जानवरों की चीखें भी शामिल हो गयीं। मोमिना के दिमाग पर सिनेमा के पर्दे की तरह भयानक दृश्य अवतरित हो रहे थे। कभी वह यह देखती कि मैं अपने मकान में हूँ और अब्बा मियाँ घबराये हुए अन्दर आ रहे हैं और हमला हो रहा है और मेरी लाड़ली मारी जा रही है। कभी यह कि मैं अपने नए मकान में हूँ और मुजाहिदीन का हमला हो रहा है। जले हुए लडक़े के दादा ने घर को चारों ओर से बन्द करके मुकाबला करना चाहा किन्तु मुजाहिदों के जोश और नारों के सामने वे शिकस्त खा गये और मुजाहिदीन अन्दर घुस आये और दरवाजे पर उन्होंने लडक़े के दादा को मारा। फिर मोमिना को ऐसा महसूस हुआ कि मैं खुद भी आक्रमणकारियों के साथ हूँ। मुजाहिदों ने औरतों को खींच-खींच कर घर से बाहर निकाला, लडक़े की दूध-पीती बहन को माँ की गोद से छीनकर पटक दिया। फिर उसकी बहन और माँ के साथ बलात्कार...
मोमिना स्वप्न में भी यही सब-कुछ देखती रही। एक बार उसने देखा कि लाड़ली पटक देने से मरी नहीं बल्कि एक सूने कमरे में पड़ी सिसक रही है और कोई उसे दो बूँद पानी तक नहीं देता है। एक बार स्वप्न में उसकी आँखें आशा की आँखों से मिल गयीं। यह देखकर उसका दिल दु: ख से भर गया कि आशा की पलकों के नीचे में शम्स की आँखें हैं। ओफ्फो, वह किस हसरत से मेरी ओर ताक रही है! हाय मैं इसे जालिमों से कैसे छुड़ाऊँ? वह देखो, शम्स की आँखें प्यासी हैं और दो बूँद पानी के लिए तड़प रही हैं।
फिर मोमिना को ऐसा नज़र आया कि महरून भागी चली आ रही है और उसके पीछे बहुत-से लोग पकडऩे के लिए दौड़ रहे हैं। महरून चिल्ला रही है-'बचाओ, बचाओ' किन्तु कोई मदद को नहीं आता। भागते-भागते महरून बैठक के दरवाजे पर आ गयी और गिड़गिड़ाने लगी "अम्मा दरवाजा खोल दो। अम्मा, अम्मा मेरी अम्मा! मुझे अन्दर ले लो। अम्मा जल्दी करो नहीं तो वे लोग आ जाएँगे। अम्मा, मेरी अम्मा, खुदा के लिए...!"
मोमिना के हाथ और पाँव और जबान से जैसे किसी ने जान निकाल ली है। उनमें कोई सत नहीं। न वह हिल सकती है, न बोल सकती है। बड़ी बेबसी की हालत में महरून की आवाज़ सुनती रही।
कुछ देर बाद जब मोमिना चेतना में आयी तो उसे पता चला कि बाहर के दरवाजे पर महरून नहीं, आशा है जा चौखट से अपना सिर रगड़ रही है और प्रार्थनाएँ कर रही है कि मरते हुए बच्चे के गले में दो बूँद पानी टपका दो। साथ-साथ मकान के अन्दर से कराहने की आवाज़ आ रही है।
माँ! हे माँ माँ...पानी...एक बूँद पानी। हे राम! हे माँ, माँ! मैं चला एक बूँद...हाय माँ तुम कहाँ हो माँ! "
किवाड़ों की दराजों से चाँद की मीठी किरणें आ रही थीं और हवा के खुशगवार झोंके भी। यानी घटा छिट चुकी थी और अब आसमान साफ था। मोमिना ने किवाड़ खोला और उसके खुलते ही आशा अन्दर आकर मोमिना के पाँव पर लोटने लगी। प्रार्थनाएँ करने लगी। उसकी लोटने में इल्तिजा थी। उसके लेटकर दोनों हाथों को उसकी ओर फैलाने में इल्तिजा थी, उसकी भिखमंगी नज़रों में खुशामद थी।
मोमिना ने चुमकाकर आशा को अपने साथ लिया और मिट्टी के बर्तन का एक बड़ा-सा टुकड़ा लेकर तलैया तक गयी। उसके पानी में उस समय चाँद-सितारों का प्रतिबिम्ब पड़ रहा था। जब मोमिन झुककर पानी भरने लगी तो उसे ऐसा महसूस हुआ कि मैं उस कत्ले-खून की दुनिया से निकलकर ऐसी दुनिया में आ गयी हूँ जहाँ ऊपर भी चाँद-सितारे हैं नीचे भी चाँद-सितारे।
मोमिना पानी लेकर ऐसी सावधानी से वापस चली कि उसने जो कुछ टूटे बर्तन में चाँद-सितारों की छाँव में भर लिया है, वह छलक न जाए. उसके आगे आशा थी। घर आते ही वह मोमिना से पहले लडक़े के पास पहुँचकर खुशी से भौंकने और उछलने लगी और लडक़े के पाँव चाटने लगी।
"क्या बात है आशा? क्यों इतनी खुश है?"
"हाय माँ!" मोमिना ने निकट जाकर पुकारा, "बेटा!"
बच्चे ने नहीं सुना। मोमिना समझ गयी कि आग ने जहाँ उसकी आँखें जला दी हैं, वहाँ कान भी खराब कर दिये हैं। अब की उसने जोर से पुकारा, बेटा! "
लडक़ा उछल पड़ा और अपनी खाली आँखों से इधर-उधर देखने लगा। मोमिना ने ढाढ़स देने वाली आवाज़ में पुकारा, "बेटा!"
"कौन?"
उसकी आवाज़ में डर भी था और आश्चर्य भी। मोमिना ने और पास आकर कहा, "बेटा!"
बच्चा फिर उछल पड़ा। काँपती हुई आवाज़ से बोला, "कौन? माँ!"
"हाँ, बेटा!"
"माँ!"
"हाँ, हाँ बेटा मैं हूँ।"
"माँ! तुम!"
"हाँ, हाँ बेटा! मैं हूँ? माँ!"
मोमिना ने लडक़े का सिर उठाकर अपनी गोद में रख लिया।
"बेटा!"
"माँ! क्या तुम उस दुष्ट से बचकर आयी?"
"हाँ बेटा, मैं भाग आयी।"
"माँ...माँ...माँ...माँ...माँ..."
बच्चा मोमिना के गले में बाहें डालकर फूट-फूटकर रोने लगा।
मोमिना की आँखों से जो पति और बच्चों की मौत के दिन से लेकर आज तक आँसू की एक बूँद को तरसती रही थी, झरना फूट निकला। वह आँचल से बच्चे का घाव बचाकर उसके आँसू पोंछती और फिर अपने। जब ज़रा दिल हलका हो गया तो मोमिना बच्चे का ढाढ़स देने लगी।
"बेटा अब न रो। अब तो मैं आ गयी हूँ।"
लडक़ा हिचकियाँ लेते हुए कहने लगा, "माँ! पानी!"
"लो बेटा!"
मोमिना लडक़े को गोद में बैठाकर पानी पिलाने लगी और वह उस पर टूट पड़ा। उस समय मोमिना को आभास हुआ कि लडक़े को बहुत तेज बुखार है। जब पानी पी चुका तो कहने लगा, "माँ!"
"हाँ, बेटा!"
"अन्धा हो गया हूँ और शायद बहरा भी। किसी बात की खबर नहीं होती। माँ मेरा अब क्या होगा? बच्चा फिर रोने लगा।"
मोमिना की आँखों में भी आँसू आ गये। वह समझाकर कहने लगी, "बेटा, घबराओ नहीं, अच्छे हो जाओगे।"
मोमिना ने बच्चे के माथे पर प्यार किया।
बच्चा रूठकर बोला, माँ, तुम मुझे रामू क्यों नहीं कहतीं? "
"कहती तो हूँ रामू, रामू बेटा...मेरा प्यारा रामू!" "तुम्हारी आवाज़ और तुम्हारी बातें कुछ बदली मालूम होती है। मैं जल गया हूँ इस कारण से शायद ऐसा मालूम होता होगा, क्यों माँ?"
अन्तिम वाक्य में बच्चे ने जो प्रश्न किया था उसका सम्बोधन मोमिना से इतना नहीं था जितना उसके अपने दिल से।
"बेटा मैंने बहुत कष्ट झेले हैं।"
"हाय माँ...तुमको दुश्मनों ने बहुत दु: ख पहुँचाया? क्या मारा?"
जलाया तो नहीं?
"बेटा अब इन बातों को...न याद दिलाओ. जब तुम अच्छे हो जाओगे तब मैं खुद बता दूँगी।"
"अच्छा माँ तुमको इन बातों को याद करके बहुत दुख होता होगा। हाय माँ, तुम ने अभी यहाँ जले पर हाथ रख दिया था तो जान निकल गयी।"
"चिच-चिच, मेरा प्यारा रामू अब मैं ख़याल रखूँगी, घबराओ नहीं। मैं आ गयी हूँ। अब तू अच्छा हो जाएगा।"
आशा निरन्तर उन दोनों के गिर्द खुशी से नाच रही थी। रामू के कान में उसकी आवाज़ की भनक पहुँची तो बोला, "माँ, आशा को भी प्यार कर लो, मेरी बड़ी ख़बर ली है। मुझे बचाया है।"
मोमिना ने आशा को चिमटा लिया और कहने लगी, "आशा, तूने मेरे बच्चे की सुरक्षा की है। तू मेरी बेटी के बराबर है।"
आशा अपनी तारीफ़ सुनकर इतराने लगी।
"मुसलमानों से तो यह कुतिया अच्छी है। इसके दिल में दया तो है।" रामू बोला। "
मोमिना के दिल पर एक बर्छी लगी, किन्तु वह सहन करके बोली, हाँ बेटा!
रामू माँ की गोद में खिसककर लेट गया। कुछ देर चुप रहकर बोला, माँ!
"हाँ रामू!"
"मेरी आँखें अच्छी हो जाएँगी।"
हाँ, बेटा! "ज़रूर अच्छी हो जाएँगी।"
"और कान?"
"वह भी।"
रामू खुश होकर माँ के गले में बाहें डालकर बोला, -माँ मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं अच्छा हो जाऊँगा। "
"हाँ, मेरे चाँद, अल्लाह ने चाहा तो जल्द ही अच्छा हो जाएगा।"
रामू ऐसे चौंक पड़ा जैसे उसको गोली लग गयी। उसने अपनी बाँहे खींच ली और मोमिना की गोद से सिर उठाकर बोला, "माँ!"
मोमिना घबराकर बोली, "क्या बात है रामू...क्या हुआ?"
"तुम...?"
"हाँ बेटा! कहो ना।"
"तुम अल्लाह कहती हो।"
बच्चा बहुत सहमा हुआ था और अपनी खाली आँखों से मोमिना का चेहरा देख रहा था मानो डर रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मेरी माँ न हो, बल्कि कोई मुसलमान हो। मोमिना के दिल पर यह दूसरी बर्छी लगी किन्तु उसने फिर हसन करके रामू का सिर अपनी गोद में खींच लिया। उसके हाथ अपने गले में डाल लिये और बोली, "बेटा, मुझे इतने दिनों मुसलमानों में जो रहना पड़ा है।"
रामू ने कुछ सोचा और फिर कहने लगा, "वो लोग तुमसे जबरदस्ती अल्लाह, अल्लाह कहलवाते होंगे। उसके लिए मारते होंगे।"
यह बात रामू ने प्रश्न के रूप में नहीं अपनी इत्मीनान दिलाने के लिए कही थी और वह सन्तुष्ट भी हो गया था। उसके समीप मुसलमानों के जुल्म हर परिवर्तन को सम्भव बना सकते थे।
"हाँ बेटा! किन्तु अब उन बातों को न पूछो।"
"माँ, जब मैं 'अल्लाहो अकबर' की उन पुकारों को याद करता हूँ तो..."
बच्चा सहमने लगा और उसके गले में फाँसी-सी लगने लगी। मोमिना ने उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा, "तुम भी इन बातों को भूल जाओ."
रामू कुछ देर सोचता रहा, फिर हिचकिचाते हुए बोला, "माँ!"
"रामू!"
"सच बताओ. तुम मेरी माँ हो?"
"और कौन तुझे इस प्रकार प्यार कर सकता है बेटा!"
"सच है। जाने क्या बात है। मुझे शक होता है।"
"शक न करो बेटा!"
रामू फिर कुछ देर के बाद पूछने लगा, "कहीं यह स्वप्न तो नहीं?"
"नहीं बेटा!"
"ऐसा तो नहीं कि जब सुबह हो तो तुम न मिलो।"
बच्चे के दिल में वाकई डर पैदा हो चला था ओर उसने मोमिना को इस तरह टाटोला कि कहीं वह वहम तो नहीं है।
"नहीं बेटा! ऐसा नहीं होगा। देख तेरी आशा भी तो मुझे देख रही है।"
रामू की बाँहें और अधिक मजबूती से मोमिना के गिर्द चिमट गयीं। माँ मेरा मन भी अन्दर से ही कह रहा है कि तुम मेरी माँ हो और अब सचमुच आ गयी हो। मुझे 'रामू-रामू' कहो।
रामू जख्मों को सँभालकर माँ की गोद में सिमट आया और फौरन अचेत हो गया। मोमिना को ऐसा आभास होने लगा मानो उस बच्चे को गोद में लेकर मेरे घाव हरे हो गयेे हैं, दिल है कि उमड़ा चला आ रहा है और बच्चे को कलेजे से लगाकर दहाड़ें मार-मारकर रोने को जी चाह रहा है। साथ-साथ यह भी आभास हो रहा है कि एक बेसहारा को सहारा देने से अपनी ज़िन्दगी बेसहारा न रहे।
वास्तव में मोमिना अपने ज$ज्बात समझने में बिलकुल असमर्थ थी। उस समय से असमर्थ थी जब से वह सोकर उठी है और सीधी बच्चे के पास चलती आयी। मेरे अन्दर आखिर क्या उलट-पुलट हो गया जो मैंने इस बच्चे से नफरत करते-करते कलेजे से लगा लिया। एक हिन्दू से इतनी मुहब्बत करना कोई बुरी बात तो नहीं? किन्तु अन्दर से इस बात का यकीन ज़रूर था कि मैंने जो कुछ किया है, ठीक किया है।
पौ फटी और सुबह की रोशनी हर तरफ फैलने लगी। मोमिना ने दुलारे रामू की तरफ देखा। उसका चेहरा कितना भोला और कितना प्यारा है। थोड़ी ठंडक हो रही थी इसलिए मोमिना ने रामू को अपना दुपट्टा दोहरा करके ओढ़ा दिया। हलकेघ्-से उसके माथे पर प्यार करके दिल में यह संकल्प कर लिया कि यह मेरा शम्स और मेहताब है और मैं इसको उसी प्रकार पालूँगी।
दिन चढ़े जब रामू की आँख खुली तो मोमिना ने अपना दुपट्टा तर करके उसका मुँह और बदन, जो जूठे बर्तनों की तरह घिनौने हो रहे थे, साफ किये। फिर जितना उससे हो सका और रामू सहन कर सका घावों को साफ किया और फिर किसी प्रकार की घृणा महसूस नहीं की। अपनी औलाद का गू-मूत करने में घृणा कैसी?
इन बातों से निपट कर रामू कहने लगा, जिस दिन गाँव लुटा है, मैं उस दिन का खाया हुआ हूँ। तबसे इस बरसाती पानी के अलावा तो पतनाले के नीचे गड्ढे में जमा हो जाता था, मेरे पेट में कुछ नहीं गया है। शायद छ: दिन हुए मुझे खाना खाए? मोमिना ने कुछ खुश होकर पूछा, "तुम ने कैसे पहचाना कि छह दिन हुए? क्या इतना नज़र आता है?"
" रात को लाशों को खाने के लिए जो जानवर आते हैं, वे आपस में लड़ते हैं, चीखते हैं और शोर मचाते हैं। उनके आने से मालूम हो जाता है कि रात हो गयी और जाने से यह कि दिन हो गया?
मोमिना उसका हाल सुनकर काँप गयी।
रामू इतना भूखा था लेकिन इस पर भी उसे स्वीकार न था कि माँ पास से चली जाएे। मोमिना उसे बहुत समझ-बुझाकर ढाढ़स देकर खाने की तलाश में निकली। बुखार में भुनते हुए छह दिन की भूख के मारे हुए बच्चे को चने देना तो उसे मौत के मुँह में झोंक देना है फिर और क्या किया जाएे? आग तक तो मौजूद नहीं जो चनों को ठीकरों में उबाला जा सके. मोमिना को जो कुछ उम्मीद थी, एक आवाज़ से थी, जिसे वह कल कई बार सुन चुकी थी और आज सुबह फिर सुनी थी, उस समय उसने कुछ अन्दाजा कर लिया था कि वह किस तरफ से आ रही है। उस वक्त दरअसल वह उसी आवाज़ की तलाश में निकली थी। वह मिल जाएे तो रामू के खाने का बल्कि खुद उसके खाने का भी प्रबन्ध हो जाएे, शायद।
मोमिना अपने मकान के पिछवाड़े की ओर चली। उसे कुछ जले हुए घर मिले और उनसे निकलकर गाँव की हद आ गयी। गाँव छोटा-सा था सरहद पर पहुँचकर उसने भयानक दृश्य देखा और नाक में इतनी तेज सड़ाँध आयी कि वह सिर से पाँव तक काँप गयी। वह अपनी जगह स्तब्ध रह गयी। कुछ कच्चे घरों से मिला हुआ एक छूटा हुआ मैदान था, जिसमें जले हुए कुन्दे और जले हुए इनसानों के हाथ-पाँव, सिर और सीने के ढाँचे के ढेर थे। उनमें से कुछ तो मुर्दा$खोर जानवरों के द्वारा बिलकुल साफ हो चुके थे और कुछ पर जले हुए गोश्त के रेशे लगे रह गये थे, जिनको उस समय कौवे, गिद्ध और आवारा कुत्ते बड़े चाव से साफ कर रहे थे। तीस-चालीस खोपडिय़ाँ इधर-उधर बिखरी हुई अपनी आँखों के पलकों से मोमिना की ओर ताक रही थीं। उफ! उनमें जीने की कितनी हसरत थी।
मैदान दो तरफ से घरों से घिरा हुआ था। उनकी दीवारों पर कोयला रगड़-रगड़ कर बहुत स्पष्ट लिखा हुआ 'अल्लाह हो अकबर'। जाहिर था कि मुजाहिदीने इस्लाम ने अल्लाह की शान ऊँची करने के लिए यह सब किया था। मोमिना की नाक में रह-रहकर जो तेज सड़ाँध आती रही उसका कारण यही था। मोमिना ने इधर कुछ दिनों के अन्दर कत्लो-खून और आगजनी के इतने दृश्य देखे और सुने थे और अपने प्यारों को आँखों के सामने कत्ल होते देखा था कि वह तजुर्बेकार फ़ौज़ी की तरह लाशों को देखने की आदी-सी हो गयी थी, किन्तु इतना आदी होने पर भी उस दृश्य ने उसे दहला दिया।
मोमिना को एक कुआँ भी याद आ गया जिसमें उसके पति, बच्चों और सारे खानदान की लाशें थीं।
मोमिना अभी उस दृश्य की घबराहट से पूरी तरह निकल नहीं पायी थी कि उसने देखा कि आशा जो उसके पीछे-पीछे आयी थी एक रान को सूँघ रही थी। साथ-साथ जबान से चाट रही थी और भूँक-भूँक कर मोमिना की ओर देख रही थी-क्या आशा इनसानी कबाब खाने की इजाजत माँग रही है? आशा क्यों न खाये जब उनको सैकड़ों जानवरों और गिद्धों ने खाया है तो आशा क्यों न खाये?
जब पेट-भरों ने खाया है तो छह दिन की भूखी आशा क्यों न खाये?
जब ईश्वर के पुजारी और इस्लामी मुजाहिद इनसानी जिस्म का अदब नहीं करते तो आशा क्यों करे। क्या आशा उनसे बुरी है?
आशा लाश को सूँघती रही और मोमिना से इजाजत माँगती रही, किन्तु जब उधर से कोई सुनवाई न हुई तो चाहते हुए भी मोमिना के पास आकर सवालिया नज़रों से देखने लगी, जैसे शिकायत कर रही थी जिस काम को सब कर रहे हैं उसको करने से तुम मुझे क्यों रोकती हो? यह कैसा जुल्म है?
मोमिना में आगे जाने की हिम्मत न थी लेकिन उसने लाशों के पास के एक घर के अन्दर से वही आवाज़ सुनी जिसकी तलाश में वह इधर आयी थी। जो माँ अपनी तीन औलादों को आँखों के सामने मरते देख चुकी हो वह चौथी के लिए जो अब फूटी आँख का दीदा है क्या न कर गुज़रेगी। वह हिम्मत करके चिता के किनारे-किनारे इनसानी हड्डियों को बचाती हुई उस आवाज़ वाले घर तक पहुँच गयी।
उस घर की छतें जल चुकी थीं। केवल दीवार में जुड़ी रह गयी थी और उन्हीं के अन्दर से यह आवाज़ आयी थी। दरवाजे के सामने मल्बे का ढेर था। इसलिए अन्दर जाना नामुमकिन था। मोमिना ने मल्बे पर से होकर ऊपर चढऩे की कोशिश की। आशा आगे-आगे चढऩे की कोशिश की। आशा आगे-आगे चढऩे लगी। उसका सहारा मिल गया और मोमिना ऊपर पहुँच गयी। वहाँ से उसने नीचे झाँका।
चारदीवारी के अन्दर थोड़ी-सी जगह जिसमें पानी भरा हुआ था और उसमें भैंस का मुर्दा बच्चा फूला हुआ तैर रहा था। उसक बराबर जिन्दा भैंस पड़ी हुई थी जिसकी कमर को एक बड़े शहतीर और बहुत-से मलबे से ऐसा दबा रखा था कि वह हिल भी नहीं सकती थी। वह कराह रही थी और अपने बच्चे को चाट रही थी। भैंस तो वह ममता-भरी माँ होती है जो अपने बच्चे की महीनों की सूखी खाल तक को चाटती है और उसके लिए भी थनों में दूध उबल आता है। भैंस ने मोमिना को जो देखा तो बड़ी फरियाद भरी आवाज़ निकली। वह कह रही थी कि खुदा के लिए मुझे जल्दी इस कैद से रिहाई दो ताकि मैं अपने बच्चे का दूध पिलाऊँ। गरीब छ: दिन से भूखा था।
मोमिना हसरत से भैंस को देखती रही कि छ: हाथ नीचे दूध की नहर मौजूद है लेकिन बेकार। मेरी-जैसी चार औरतें भी इस बेचारी को आजाद नहीं करा सकतीं हैं। आज मेरे छ: दिन के भूखे बच्चे को इसके दूध का एक कतरा भी नहीं मिल सकता। मोमिन टूटे दिल से वहाँ से वापस हुई. दर्जनों खोपडिय़ाँ बत्तीसी निकाले उसकी कोशिश पर हँस रही थीं और कह रही थीं-मूर्ख हमने अपने प्यारे-प्यारे बच्चों को बचाने के लिए क्या कुछ नहीं किया। खुशामदें कीं, गिड़गिड़ाये, नाक रगड़ी, लेकिन क्या हासिल हुआ? जाओ, अपने बच्चे को इसी चिता में लाकर रख दो।
मोमिना मस्जिदनुमा शिवाले के सामने से गुजरी तो वह सहसा सज्दे में गिर पड़ी और गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर दुआ माँगने लगी-ऐ सबको पैदा करने वाले, इस दुनिया में जो कुछ मेरे पास था जाता रहा। घर-बार, धन-दौलत, रिश्ते-कुबेदार, शौहर, बच्चे, इज़्ज़त सभी कुछ। अब तूने तक अपाहिज बीमार बच्चा मुझे दिया है, जिसने मेरे वीरान दिल को बागो-बहार बना दिया है। इसके लिए किस जबान से तेरा शुक्र अदा करूँ। मैं इसे मेहनत-मज़दूरी करके पाल लूँगी और जब तक जिऊँगी इसकी आँखों का काम करूँगी और अगर मरते दम भी महरून मिल गयी तो उसका हाथ इसके हाथ में देकर कह जाऊँगी कि यह मेरी अमानत है। देख, चाहे तू तकलीफ उठाये लेकिन इसे तकलीफ न हो। ऐ मेरे मालिक तू अब रामू को मुझसे न छीन। अगर मेरी जान के बदले जान बच सकती है तो मैं अपनी जान शौक से कुरबान कर दूँगी, जैसे बाबर ने हुमायूँ पर अपनी जान निछावर कर दी थी।
मोमिना की आँखों से मूसलाधार बारिश होने लगी। उसने उठकर गोद फैलाकर कहा, "ऐ मालिक! तू बच्चे के लिए खाना और दवा दे।"
मोमिना के जिस्म की एक-एक रग, गोश्त का एक-एक रेशा, जज्बात का एक-एक सुर ममता बन गया। वह देर तक यूँ ही दुआ माँगती रही। इससे दिल को ढाढ़स हुई और आत्मविश्वास लौट आया।
मोमिना के आते ही रामू ने पूछा, "माँ, कुछ मिला?"-
मोमिना ने कुछ जवाब नहीं दिया।
"कुछ नहीं मिला, कहाँ से मिलता, सब-कुछ तो मुसलमान ले गये।"
रामू ने टूटे दिल और मायूसी से दो बार 'हे राम-हे राम' पुकारा।
मोमिना ने खामोशी से रामू का सिर जख्मों को बचाकर अपनी गोद में रख लिया।
"अच्छा माँ पानी ही पिला दे।"
मोमिना ने दिल में बिस्मिल्लाह कहकर अपनी एक छाती रामू के मुँह में दे दी। रामू हैरत से चौंक कर बोला, "माँ!"
"बेटा, तू इसी पर पला है, पी."
"माँ!"
"कोई बात नहीं बेटा! तेरी जान मुझे बचानी है। पी, शायद कुछ कतरे तेरे नसीब से उतर आएँ।"
मोमिना की ममता ऐसे जोश पर थी कि एक बार सूखने के बाद फिर गंगा दुनिया में उतर आयी और रामू के पेट में चन्द कतरे पहुँच गये।
मोमिना को रामू की कटी-कटी बातों से गाँव के उजडऩे का जो हाल मालूम हुआ वह यह था कि रामू अपने भाइयों, बहनों के साथ खेल रहा था। यकायक बाप चिल्लाता हुआ घर में घुसा कि मुसलमान हमला कर रहे हैं। सब जल्दी से भाग चलो। औरतें चीखने लगीं। दौड़-दौडक़र अपने जेवर और कपड़े बाँधने लगी। बच्चे रोने लगे और काम में रुकावट डालने लगे। मर्द औरतों को पकड़-पकडक़र खींचने लगे कि सामान की परवाह न करो। जल्दी निकल भागो। रामू की दादी चिल्लाने लगी कि यह कैसे हो सकता है कि अपनी सात पीढिय़ों की कमाई छोडक़र भाग चलूँ दरवाजे तोड़े गये और बहुत-से मुसलमान 'अल्लाहो अकबर' के नारे लगाते हुए घर में घुस आये।
बड़े दालान की छत को कोई जीना नहीं जाता था किन्तु रामू दीवार से खपरैल पर और उससे छत पर चढ़ जाता था और वहाँ से पतंग उड़ाता था जैसे ही उसके घर में हमलावर घुसने लगे वह जल्दी से छत पर चढ़ गया। खपरैल का जो हिस्सा छत पर टिकने के लिए ऊपर उठा हुआ था उसकी आड़ में छिपकर लेट गया। छत और खपरैल के बीच चौड़ी-सी दराज थी उससे खपरैल के अन्दर का और कुछ बाहर का हाल नज़र आता था। उस जगह से रामू ने देखा कि किस तरह हमलावरों ने औरतों के जेवर और फिर पकडक़र ले गये। घर के मर्दों और बच्चों में से कुछ को मारे जाते हुए रामू ने अपनी आँखों से देखा और कुछ की चीखें सुनीं।
जब हमलावर घर को लूटकर चले गये तो रामू ने सिर उठाकर इधर-उधर देखा। उसके पिछवाड़े कुछ घरों के पार जबरदस्त आग जल रही थी और उधर से हमलावरों के कहकहे और मरने वालों की चीखें सुनाई दे रही थीं। एक छत पर नज़र पड़ी तो देखा कि चार-छ: आदमी एक आदमी के चारों हाथ-पाँव पकड़े उसको आग में झोंक दे रहे हैं और वह बेबसी से चीख रहा है। उन्होंने 'अल्लाहो अकबर' का नारा लगाकर उसे आग में झोंक दिया। जब वह शोलों की लपटों में आ रहा था तब रामू ने पहचाना कि वह मेरे पिता जी हैं।
यह देखकर वह बेहोश हो गया।
जब होश आया तो उसने देखा कि चारों ओर से आगे के शोलों में घिरा हुआ है। खपरैल धड़-धड़ जल रही है और छत दो जगह से जलकर नीचे गिर चुकी है। रामू मुँडेर-मुँडेर भागा लेकिन एक जगह से छत गिरी तो उसके साथ वह भी नीचे आग में जा गिरा लेकिन हिम्मत करके उठा और उठकर अपने कपड़ों को, जिन्होंने आग पकड़ ली थी, फेंक कर भागा। अब उसे याद नहीं किस तरह और किस तरह से वह आगँन में आकर बेहोश हो गया।
जब होश आया तो उसे पता चला कि मेरी दोनों आँखें जा चुकी हैं और सारा बदन फुँका जा रहा है। वह चीखने लगा। कुछ आदमी उसके इर्द-गिर्द खड़े बातें कर रहे थे, "सिसक-सिसककर मरने दो साले को, एक गोली क्यों बेकार करते हो?"
"बहुत ठीक। घर के दरवा़े खुले छोड़ जाएँ ताकि जंगली जानवरों को आने में दिक्क़त न हो।"
दो-तीन कहकहों की आवाज़ सुनाई दी और कोई ज़रा तेज लहजे में बोला, "लेकिन हमको मालूम कैसे होगा कि यह मर गया है।"
"मैं बता दूँगा। भला यह जी सकता है।"
किसी ने रामू को एक लात मार दी और कहा, "बेटा आराम से मौत का इन्त$जार करो।"
फिर सब चले गये। उनके जाते ही बारिश होने लगी और रामू आशा के सहारे कमरे में आ गया।
रामू को ये घटनाएँ बहुत कटे-कटे हिस्सों में याद थीं और कुछ बातें एक-दूसरे में गड़मड़ हो गयी थी। जैसे माँ की बेइ$ज्ज़ती के साथ वह अपने छोटे भतीजे का जिक्र जोड़ देता जिसके सिर को एक हमलावर ने ठोकर से चूर-चूर कर दिया था। जब भतीजे का ज़िक्र करता तो करते-करते मोमिना से कहने लगता कि माँ तुमको बहुत दु: ख उठाना पड़ा और फिर रो देता।
रामू जब अपने घर की चहल-पहल की या उसकी तबाही की बातें करता तो मोमिना को ऐसा महसूस होने लगता जैसे मैं यह सब-कुछ देख चुकी हूँ। मेरे सामने रामू की माँ मुँह अँधेरे उठकर घर साफ करती और सामने के दालान में चौका लेपती और जब सब बच्चे सोकर उठते तो उनको लस्सी बनाकर देती। फिर दोपहर को सबकी उसी दालान में बैठकर उनके आगे थालियाँ रखकर उनमें दाल और तरकारियाँ परोसती। फिर गर्म-गर्म रोटियाँ देती जाती और लोग खाते जाते। बच्चे अचार के लिए ज़िद करते, बराबर की कोठरी में जाती और हाँड़ी उठा लाती और उसमें से अचार की फाँकें निकाल-निकालकर एक-एक सबको देती। छोटा चन्दर कहता कि मेरी फाँक छोटी है और जब तक वह रामू से ज़्यादा न ले लेता न मानता।
रामू ने जब पिछली दीपावली की बातें की, तब भी मोमिना को ऐसा लगा जैसे सब-कुछ उसके सामने हुआ था। रामू की माँ ने दीये जलाकर सबको दिये थे और जब चन्दर अपने मिठाई के सब खिलौने चट कर गया तो फिर रामू का शेर छीनने लगा और उसके लिए जिद करने लगा तो माँ ने रामू को समझा-बुझाकर उसका शेर चन्दर को दिला दिया था। रामू ने शेर तो दे दिया लेकिन हसरत से उसकी तरफ ताकता रहा।
केवल इतना ही नहीं, आबाद घर का पूरा नक्शा मोमिना की आँखों के सामने फिर जाता, दालान, कमरे और बैठक-सब भरे-पुराने नज़र आने लगते। बच्चे, मर्द और औरतें इधर से उधर आ रहे हैं। रामू की माँ इन्तजाम में लगी हुई है। एक दालान से दूसरे दालान में और उस दालान से कमरे में। कमरे से कोठरी में और फिर रसोई में आ-जा रही है। हर बात का फिक्र है। भैंस दूही गयी। जो दूध आया था वह आग पर क्यों नहीं रखा गया? दही जमा दिया या नहीं? नौकरों को खाना भिजवा दो। चन्दर इतना न शोर करो-रामू कमरे में जाओ और सबक याद करो। बाहर कहार किसी बात के लिए चिल्ला रहा है। अहाते में बैलों को सानी दी जा रही है।
घर की तबाही का हाल मोमिना यूँ देखती कि अहाते की तरफ के फाटक पर हमला होता है। रामू की माँ रामू और चन्दर को लेकर भागने की फिक्र में है कि हमलावर अन्दर घुस आये हैं। रामू बेबसी से ' माँ-माँ पुकारते हैं-साथ ही मोमिना को शम्स और मेहताब का मारा जाना और लाड़ली का पटक दिया जाना याद आ जाता है।
मोमिना को ऐसा महसूस होता कि रामू की माँ और मैं-चन्दर और रामू, शम्स और मेहताब दोनों घरानों की आबादियाँ और बरबादियाँ एक-सी है। वही ताश के बावन पत्ते, सिर्फ़ फेंट देने से बाजियाँ बदल गयी हैं। अपने नए अनुभवों पर उसे आश्चर्य होता था कि कहाँ मैं मुसलमान और कहाँ वह हिन्दू? हम दोनों क्यों खिचड़ी के दाल-चावल की तरह मिल गये हैं। कहीं मुझे कुछ हो तो नहीं गया है। लेकिन उसकी वह ममता जिसने रामू को कलेजे स लगा लिया था यकीन दिला देती थी कि नहीं भूली। तू पहले से अच्छी हो गयी है।
अगर कहीं मोमिना अपने इस बदलाव को समझ लेती तो फिर वह यह भी समझ लेती कि वह क्यों एकाएक रामू पर जान छिटकने लगी।
एक जलती हुई घड़ी थी जो कायनात के क्रम और गति के निर्धारण में हाथ बँटाती थी किन्तु नफ़रत की भट्टी ने उसे पिघलाकर मिट्टी में मिला दिया। एक पुर्जा जो बच गया था। गमों से छलनी दिल को लिये खिजाँ के पत्ते की तरह इधर-से-उधर और उधर-से-इधर मारा-मारा फिर रहा है। न कोई ऐसा है जो उससे सम्बन्ध जोड़े और न ऐसा जिससे वह सम्बन्ध तोड़े। न कोई ठौर न ठिकाना। न कोई ओर न छोर। न कोई काम-धाम। उसके लिए आबादियाँ भी ऐसा बंजर मैदान हैं जिसमें घास का एक तिनका तक नहीं। क्या उस पुर्जे के दिल में यह हसरत न होगी कि मैं फिर किसी मशीन में लग जाता। ऐसी मशीन में जो मुझे समो लेती और मैं खप जाता। क्या यही हसरत अब उसकी कुल ज़िन्दगी न होगी?
मोमिना एक ऐसा ही पुर्जा थी और वह खिजाँ-मारे पत्ते की तरह मारी-मारी फिर रहती थी। न उससे कोई ऐसा जिससे वह मुहब्बत करे। कोई ऐसा भी न था जो उसका दु: खड़ा ही सुन लेता। ले-देकर एक महरून की याद थी लेकिन वह भी शंकाओं के दर्जनों आवरणों से ढकी हुई थी। पता नहीं महरून जिन्दा भी है या नहीं? और अगर जिन्दा है तो क्या मालूल उससे कभी मिलना होगा या नहीं। भला ऐसी ज़िन्दगी की नाव खेल सकती है?
रामू का मकान मोमिना के मकान से मिलता-जुलता था। फिर उसे हाल में आयी आशा, अपनी मुहब्बत लेकर। उन दोनों चीजों ने मोमिना की ममता को अपनी ओर खींच लिया और फिर वह अपने आप रामू तक पहुँच गयी। अगर ज़िन्दगी कहीं इतनी तंग-दामन हो जाती कि मोमिना को एक कुतिया और एक छोकरा तक मुहब्बत के लिए न मिलता तो यह बात असम्भव न थी कि वह भिड़ को बेटी बना लेती। ज़िन्दगी के फार्मूले हिसाब के फार्मूलों से कम जबरी नहीं।
एक बार रामू अपने घर की तबाही का हाल सुना रहा था और ऐसा डरा हुआ था मानो उस समय भी वह खपरैल की आड़ में कोठे पर छिपा हुआ है और डर रहा है कि कहीं मुझ पर भी कोई हमला न कर दे। मोमिना ने ढाढ़स देने के लिए उसे प्यार किया और समझाया कि जो कुछ हुआ है उसे भूल जाओ. इस ढाढ़स पर वह अपने पिताजी, दादाजी, चन्दर, छोटी बहन और नन्हें भतीजे-एक-एक को याद करके फूट-फूटकर रोने लगा। देर तक रोता रहा। जब कुछ शान्त हुआ तो कुछ सोचकर कहने लगा, "माँ?"
"हाँ रामू!"
सब मुसलमान हमलावर यहीं पाकिस्तान में होंगे?
"पाकिस्तान?"
"हाँ वह लोग कह रहे थे कि अब यह जगह पाकिस्तान में शामिल है।"
"फिर ज़रूर यहाँ होंगे।"
"माँ!"
"कहो रामू!"
"मैं जब अच्छा हो जाऊँगा तो दो काम करूँगा-एक तो हवाई जहाज़ उड़ाना सीखूँगा और दूसरे बम बनाना।"
मोमिना इस खौफ़नाक ख़याल को कुछ भाँप गयी। "फिर क्या करोगे बेटा?"
"मैं बहुत-से बम हवाई जहाज पर रखकर उड़ जाऊँगा और जहाँ देखूँगा किसी मस्जिद में बहुत-से मुसलमान जमा हैं उन पर बम गिरा दूँगा और उड़ जाऊँगा। बम गिरेगा धम। किसी का कान उड़ जाएगा, किसी की नाक उड़ जाएगी, किसी का सिर उड़ जाएगा, किसी की तोंद चिथड़े-चिथड़े हो जाएगी, कोई रोएगा, कोई हाय-हाय करेगा-कोई अल्लाह को पुकारेगा।"
रामू इस कल्पना से मस्त हो गया और खिलखिलाकर हँस पड़ा। रामू पर ज़िन्दगी की कड़वी हकीकत, नफरत, इन्तकाम, कत्ल, मौत, तावारिसी की ज़िन्दगी यह सब अपने पूरे बोझ के साथ फट पड़ी थी। उसका मासूम बचपन इनके नीचे कुचलकर चूर-चूर हो गया था। वह दूसरों को कष्ट पहुँचाने और कत्ल करने की बातें इस तरह करता जैसे मैच में वह दूसरी टीम को हराने के इरादे बाँध रहा हो। इससे भी ज़्यादा दु: खभरी बात यह थी कि उसकी तह में पूरा यकीन था।
मोमिना यह देखकर कि रामू के अन्दर बदले की बारूद भरी हुई है, सहम गयी। फिर प्यार से कहने लगी, " नहीं रामू, ऐसा न कहो। मुसलमानों में बुरे भी होते हैं और भले भी। '
जिस समय रामू बदले की बातें कर रहा था तो उस पर $खौफ़ और डर की बजाय हर्ष और विश्वास के ज$ज्बात आ गये थे लेकिन माँ की जबान से ऐसी बातें सुनते ही बेहद सहम गया और चेहरे पर हवाइयाँ उडऩे लगीं।
"माँ!"
"हाँ, रामू कहो ना!"
"माँ...तुम मुसलमानों की तरफदारी करती हो।" '
मोमिना को महसूस हुआ कि अगर मैंने कहीं तरफदारी पर जिद की तो बच्चा मुझे भी गैर समझने लगेगा और फिर मुसीबतों के बोझ और तन्हाई से उसका दिल टूट जाएगा। कुछ मोमिना को यह भी अंदेशा हुआ कि कहीं रामू भाँप न ले कि मैं उसकी माँ नहीं हूँ।
"तुम मुझसे क्यों हट गये रामू!"
"तुम मुसलमानों की तरफदारी जो करती हो।"
"कहाँ तरफदारी करती हूँ।"
"तरफदारी नहीं करती हो?"
"नहीं मेरा मतलब यह था कि उनमें से कुछ अपने को भला भी समझते हैं, लेकिन होते सब ऐसे ही हैं।"
मोमिना ने बात बना दी और रामू को समझाती रही। फिर भी रामू देर तक माँ से अलग-अलग रहा।
रामू के दिल में मुसलमानों से बदला लेने की यही एक सूरत नहीं थी, ऐसी-ऐसी दर्जनों सूरतें थी जिनसे वह मजे लिया करता था। कभी सोचता था कि मैं बहुत-से हिन्दू लडक़ों को जमा करके डाकू बन जाऊँगा और मुसलमानों को लूट-लूटकर उनका पैसा हिन्दुओं को दिया करूँगा। वह कभी यह सोचता कि मैं जहर लेकर रातों को मुसलमानों के गाँव में चला जाएा करूँगा और कुओं में डाल दिया करूँगा, बस वे पानी पीएँगे और सब-के-सब एक साथ तड़पने लगेंगे। कोई पानी तक देने वाला न होगा।
रामू के मुँह से ऐसी बातें सुनकर मोमिना को उससे नफ़रत हो जाना चाहिए थी लेकिन ममता ने उसे ऐसे आलम में पहुँचा दिया था कि वह ये बातें सुनकर तरस खाती थी कि हाय हमला करने वालों ने मेरे रामू के जिस्म ही को नहीं दिमाग को भी फूँक दिया है। वह रामू को लिपटा लेती और अपने दो-एक आँसू उसके बदले की आग पर छिडक़ देती।
हमलावरों ने अनाज उठाने में बहुत लापरवाही से काम लिया था। इस वजह से घर में बैठक के अलावा जगह-जगह पर चने और गेहूँ बिखरे हुए थे जिनमें अँखुए फूट आये थे। चिडिय़ाँ उनको बारिश की आशा की वजह से खत्म न कर सकी थी। चूहे या तो सब आग में जल गये थे या भाग गये थे। मोमिना ने अनाज को बटोरा तो ढाई सेर के करीब निकला। उस अनाज को मोमिना खुद खाती थी और अपनी छाती का दूध रामू को पिलाती थी।
मोमिना ने अपनी सलवार के दोनों पाँयचे फाडक़र अलग कर लिये। एक को फाडक़र लहँगे या पेटीकोट की तरह खुद पहन लिया और दूसरे को फाड़ कर दो टुकड़े किये और उसका रामू का बिछौना बना दिया। दुपट्टे को दो करके ओढऩे की दो चादर बना दी ताकि मक्खियाँ उसे तंग न करें। जब उस ओढऩे-बिछौने का एक जोड़ा रामू के जिस्म से बहने वाले पानी से तर हो जाता था तो मोमिना उसे धोकर सूखने को फैला देती और दूसरा जोड़ा बिछा-उड़ा देती थी। जब रात को ठण्डक होती थी तो सब कुछ रामू को उढ़ा देती थी और खुद भी उसे लिपटा लेती थी।
राम जब भी अपनी माँ का दूध पीता तो पहले से ज़्यादा उस पर मोहित हो जाता। उससे बन नहीं पड़ता था कि वह अपनी भावनाओं को जाहिर कैसे करे। बस यह मोमिना के गले में बाँहे डालकर माँ-माँ पुकारता और अपनी खाली आँखों से उसके चहरे पर मुहब्बत और एहसानमंदी की बारिश करता।
मोमिना रामू के इलाज के लिए बहुत बेचैन थी लेकिन इलाज कहाँ से और कैसे सम्भव था। उसको जलने की जो-जो दवाइयाँ मालूम थी उनमें एक भी यहा नहीं मिल सकती थी। ऐसी हालत में बस दो सूरतें थी। एक तो यह कि मोमिना रामू को लेकर पास के गाँव चली जाएे। शायद कोई भला मानुस तरस खाकर उन दोनों को टिका ले और इलाज कर दे या करवा दे। सो यह सूरत यूँ मुमकिन न थी कि रामू इतना जला हुआ था कि उसे गोद में उठाना मुश्किल था और मोमिना में इतनी ताकत भी न भी कि उसे लेकर कोस-दो-कोस जा सके. दूसरी सूरत यह थी कि उसी गाँव में बसने के लिए कुछ लोग आ जाएँ और वे तरस खाकर रामू के इलाज का इन्त$जाम कर दें। बस यही उम्मीद थी जिस पर वह जी रही थी किन्तु पहला दिन गुज़रा, दूसरा दिन गुज़रा, तीसरा दिन गुज़रा, चौथा दिन गुज़रा, पर गाँव में बसने के लिए न तो हिन्दू आये और न मुसलमान। वह हैरान थी कि आजकल जबकि लाखों इनसान बेघर होकर मारे-मारे घूम रहे हैं, इस गाँव को जिसके खेत खड़े लहलहा रहे है कोई पूछता तक नही।
हकीकत यह है कि अगस्त और सितम्बर, 47 ई. का ज़माना पंजाब और उसके आसपास के इला$कों के लिए ऐसा हंगामों और उथल-पुथल और अराजकता का जमाना था कि पाकिस्तान के एक गाँव का, जो हिन्दुस्तान की सरहद पर रास्ते से हटकर स्थित था, भाग्यहीन लोगों की बहुतायत के बावजूद खाली रह जाना कोई अजीब बात न थी। सिखों या हिन्दुओं के वहाँ बसने का उस दौर में कोई मतलब ही न था। रहे मुसलमान पनाहगजीं सो वह विशेष रास्तों से गुजरते थे और जो खाली मकान मिल जाता था या जिसे खाली कराया जा सकता था वहाँ बस जाते थे लेकिन कोई ऐसा जरिया न था जिससे उनके दूरदराज के खाली इलाकों की खबर मिल सकें गाँव में आ जाते या अगर आ जाते तो बस भी जाते। बसने के लिए भी तो सौ तरह के इन्तजामों की ज़रूरत होती है जिनको हासिल करना आसान नहीं होगा। हो सकता है कि कोई व्यवस्था न होने की वजह से न आये हों। हो सकता है कि वह अपनी हिफाजत में या अपने पड़ोसियों को लूटने में ऐसे व्यस्त हों कि उधर ध्यान देने की नौबत ही न आयी हो। हो सकता है कि उनके पास काफी हथियार न हों, इस वजह से वे हिन्दुस्तान की सरहद के करीब बसते हुए डरते हों। हो सकता है कि वे मोमिना के आने से पहले वहाँ आये हों और गाँव को जला हुआ और बसने के नाकाबिल पाकर वे यहाँ की बची-खुची चीजों को लेकर लचे गये हों। खेत ज़रूर छोडऩे वाली चीज न थे, सो हो सकता है कि उन्होंने उनको आपस में बाँट लिया हो। लेकिन क़ब्ज़ा करने को हंगामों के शुरू होने पर उठा रखा हो।
मोमिना को कोई शख्स उधर से आता-जाता भी नज़र न आया, लेकिन यह भी कोई अजीब बात न थी। उस दौर में सफर करने वाले या तो हिन्दू, सिख और मुसलमान शरणार्थी होते थे या उन दोनों को लूटनेवाले मुजाहिद और सूरमा या उनकी हिफाजत करने वाले फ़ौज़ी। उनके अलावा और कोई शख्स सफर करने की खासकर सरहद के इलाकों में हिम्मत ही नहीं करता था। ऐसी सूरत में एक गाँव जो शाहराहों से दूर सरहद पर बसा था, अगर आने-जाने वालों से खाली रहा तो कोई ताज्जुब की बात नहीं थी।
चार दिन की चाँदनी रातें गुज़र चुकी थी ओर अब अँधेरा पास था जिसे बार-बार आने वाली घटनाएँ और घना, डरावना बना देती थी। जले हुए दालान के सामने जली हुई खपरेल का ढाँचा अन्धकार का पहाड़ बन गया था। घर के हर दरवाजे और हर खिडक़ी के अन्दर अँधेरा ही अँधेरा था। इतना अँधेरा कि मालूम हाता था कि यह उबलने ही वाला है और उबलकर सारी दुनिया को भर देगा। लाशों को खाने वाले जानवरों की चीख-पुकार अब जो आती थी तो दिल में तरह-तरह के हौल पैदा करती थी। इस अँधेरे में सिर्फ़ आशा की आँखें थीं जो चमकती थीं और जिससे ज़रा ढाढ़स बँधती थी कि शायद वह आनेवाली नागहानी का मुकाबला कर ले।
मोमिना ने रामू को अपने जिगर का खून जो पिलाया तो उसमें कुछ ताकत तो ज़रूर आयी लेकिन जब बुखार बढ़ा और जख्म बिगड़ा तो यह ताकत चौगुनी कमजोरी में बदल गयी। दो दिन में वह बहुत चिड़चिड़ा और जिद्दी हो गया। वह नमकीन चीज माँगता था और कहता था कि गाँव में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई ऐसी चीज ज़रूर होगी, तुम ढूँढ़ती नहीं हो। उसके पास एक काठ का घोड़ा था जो बैठक में बराबर वाले दालान में रहता था। रामू कहता था कि उसे मुसलमान नहीं ले गये होंगे। उन्होंने कहीं फेंक दिया होगा। उसे ढूँढ़ लाओ. साथ-साथ वह यह भी नहीं चाहता था कि माँ कुछ देर के लिए भी उसके पास से हट जाएे। जहाँ ज़रा देर के लिए मोमिना उसे छोड़ती वह रोने लगता और फिर उसे अपना बाप चन्दर, दादी, घर, आँखें सब-कुछ याद आ जाता।
मोमिना रामू की तकलीफ़ को समझती थी। जिस बच्चे का आधा जिस्म छाला बन गया हो और हर समय टपकता रहता हो उसकी क्या हालत होनी चाहिए. बहादुर था रामू जो इतना सहन करता था।
आज मोमिना को आये पाँचवीं रात थी कि रामू को घबराहट का दौर पड़ा और वह सब गुजरी हुई बातें याद करके फूट-फूटकर रोने लगा। मोमिना ने मुँह धुलाया, पानी पिलाया, दिल में दुआएँ पढ़-पढक़र फूँकी। बहुत देर में जाकर उसकी हालत कुछ सँभली। तब बहलाने को मोमिना ने उसे 'मशीनी घोड़े' की कहानी सुनायी। कहानी सुनकर रामू बोला। ' माँ! अगर मेरा काठ का घोड़ा मिल जाएे वह उडऩे लगे तो क्या मजा आये? "
"हाँ बेटा! फिर तुम जहाँ चाहो उडक़र पहुँच जाओ." " माँ, फिर मैं उसपर तुमको बिठाकर मामाजी के यहाँ पहुँच जाऊँ और उनके दरवाजे पर नहीं बल्कि कोठे पर उतरूँ और हम दोनों जीने से उतरकर नीचे आएँ। माँ, फिर मामाजी और नानीजी को कितनी हैरत होगी। '
रामू को इस ख़याल से मजा आ गया और वह हँस पड़ा, लेकिन फिर कुछ सोचकर बोला, "अगर ऐसा घोड़ा होता तो मैं एक काम और करता।"
"वह क्या?"
"वह यह कि उस पर जाकर किसी मुसलमान को उठा लाता और फिर उसके हाथ-पाँव बाँधकर किसी कुएँ में लटका देता और कहता-कहो बच्चा जी, अब मिला मजा, हमें मारने का।"
रामू के मुँह से फिर जहर के भभके निकलने लगे और फिर वह हवाई जहाज और बम वाली बातों के रंग में आ गया। मोमिना अब ऐसे मौके पर हाँ-हाँ कर दिया करती थी लेकिन कुएँ में लटकाने की बात सुनकर उसे अपने शौहर का कुएँ में जिन्दा दफन किया जाना याद आ गया और वह कोशिश के बावजूद भी हाँ में हाँ न मिला सकी।
"कैसा अच्छा होता माँ।" रामू ने कहा।
मोमिना खामोश रही, लेकिन वह डरती भी रही कि कहीं इस खामोशी से रामू भयभीत न हो जाएे या उस पर फिर से घबराहट का दौरा न पड़ जाएे, किन्तु ऐसा नहीं हुआ। रामू किसी गहरी सोच में डूब गया।
पिछले पहर रामू की हालत बिगड़ गयी। मोमिना के पास दवा के नाम को सिर्फ़ गड्ढे का बरसाती पानी था या दुआ-यूँ तो जब तक रामू की साँस थी तब तक मोमिना की आस थी लेकिन उसकी जबान से निकल गया, "उन तीनों का जैसा कुछ देखा, यह भी देख।"
हालत की खराबी कोई छ:-सात घंटे तक रही। मोमिना उसका सिर अपनी गोद में लिये हालत देखती रही, दुआएँ माँगती रही और कुरआन की आयतें पढ़-पढक़र फूँकती रही।
ज़रा दिन चढ़े रामू ने धीरे-धीरे अपनी आँखों खोलीं और कमजोर आवाज़ से पानी माँगा। मोमिना ने पानी देकर पूछा-"भूखे भी तो होगे?"
"हाँ, माँ!"
मोमिना ने रामू के मुँह में छाती दे दी। उसने मुँह में ले तो ली लेकिन दूध पिया नहीं। वह केवल माँ की गोद का भूखा था। उसने कोशिश करके माँ के गले में बाहें डाल दी और कहा, "माँ, अगर मैं बच जाऊँ तो जानती हो क्या करूँगा?"
"क्या करोगे बेटा? तुम बच जाओगे।"
"माँ मैं जिन्दगी-भर तुम्हारी सेवा करूँगा। अपनी ज़िन्दगी का एक-एक पल उसी में खर्च करूँगा। मैं पढँूगा जो कुछ भी करूँगा तुम्हारे लिए करूँगा। तुमको हर समय दूध, दही खिलाऊँगा। तुमको अपनी जगह से हिलने न दूँगा। हर काम खुद दौड़-दौडक़र करूँगा।"
मोमिना के गालों पर आँसूओं का हार-सा गुँथ गया। उसने अपनी आवाज़ को सँभालकर कहा, "हाँ बेटा, तू बड़ा प्यारा है। तू ऐसा ही करेगा।"
रामू की हालत फिर नाजुक हो गयी।
"माँ!"
"बेटा!"
"मुसलमान अपने मुर्दों को दफन कर देते हैं।"
"हाँ, रामू!"
"लाश ज़मीन के अन्दर सड़ती होगी और उसे कीड़े-मकोड़े खाते होंगे। यह भी कितना बुरा तरीका है। हम लोग तो आग में फूँक कर सब-कुछ अपने सामने खत्म कर देते है।"
मोमिना अब तक समझती थी कि लाश का फूँकना बहुत ख़राब तरीका है और दफन करना बहुत अच्छा तरीका है। यह नई बात सुनकर वह हैरान हो गयी लेकिन उसने सोचा कि इस तरह भी महसूस किया जा सकता है।
फिर रामू की हालत और बिगड़ गयी।
"माँ!"
"हाँ, बेटा!"
"क्या मरने में बहुत तकलीफ़ होती है?"
इस खयाल पर मोमिना की ममता तड़प उठी लेकिन उसकी हिम्मत ने कहा, "मोमिना! अपने बच्चे को आख़िरी सफ़र के लिए तैयार करना है।" वह अपना दिल थामकर बोली, "नही, रामू तकलीफ सिर्फ़ उन लोगों को होती है जिनके दिल में बुराई होती है।"
"माँ, क्या मेरे दिल में बुराई है?"
"प्यारे, तेरा मन तो हीरा है।"
"सच?"
"हाँ बेटा!"
"रामू।"
"मगर रामू मरने की बात न करो। तुम तो अच्छे हो जाओगे।"
रामू ने कोई जवाब नहीं दिया।
"माँ!"
"हाँ, बेटा!"
"एक बात पूछँ।"
"ज़रूर" "बता देना।"
"हाँ, ज़रूर बताऊँगी।"
"माँ, क्या तुम मुसलमान हो?"
यह सवाल उम्मीद के बिलकुल ख़िलाफ़ था। मोमिना धक-से रह गयी। क्या रामू ने शुरू से ही पहचान लिया था और अब तक मुझे धोखे में रखा? लेकिन नहीं, अब तक तो वह मुझे माँ ही समझता रहा। उसकी बातों में कोई खोट न था फिर क्या बात है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मरते समय सच्चाई का पहचान लेने की जो एक ताकत-सी पैदा हो जाती है, वह रामू में पैदा हो रही है। रामू खुद ही कहने लगा।
"माँ, कुछ ऐसा लगता है कि मैंने अदबुदाकर बहुत-सी बातों को नहीं समझा था। मैं चाहता था कि तुम मेरी माँ होती इसलिए मैंने समझ लिया कि तुम मेरी माँ हो, लेकिन अब छिलका उतर गया और बात समझ में आने लगी। माँ तुमने जितनी मुहब्बत की है सगी माँ ने भी नहीं की, मुझे ऐसा सुख कभी नहीं मिला था। पिछले जन्म में तुम्हीं मेरी माँ होंगी।"
"हाँ, बेटा मैं मुसलमान हूँ।" मोमिना सच छुपा न सकी।
"माँ मुझसे कुछ न छिपाओ, अब मैं डरूँगा नहीं। तुम्हारा घर कहाँ है और तुम यहाँ कैसे आईं?"
"मेरा घर दिल्ली के पास था और सब-कुछ लूट लिया गया। सारे अजीज मार डाले गये और मुझे लोग पकड़ ले गये। फिर मौका पाकर मैं भाग आयी और यहाँ पहुँच गयी।"
"लूटने वाले कौन थे हिन्दू?"
"हाँ, बेटा हिन्दू थे।"
रामू की आवाज़ से मालूम हुआ कि उसके दिल पर सख्त चोट लगी है।
"मेरे भाई बहिन भी हैं?"
"दो भाई, एक छोटी बहिन, मार डाले गये और एक जवान बहिन महरून बाकी है।"
"कहाँ है?"
"पता नहीं।"
"हिन्दू उठा ले गये?"
"हाँ।"
"रामू के दिल पर सख्त चोट लगी और मुँह से आह निकल गयी।"
"माँ, अगर तुम बदला ले सकी तो हिन्दुओं से बदला लोगी?"
"देखता नहीं है मूर्ख, मैं तुझे कितना प्यार करती हूँ।"
रामू की आँखों में आसूँ भर आये। वह कहने लगा, ' क्षमा करो माँ, मुझसे भूल हुई. तुम बदला लेना चाहती तो मुझसे न ले लेती। तुम्हारे दिल में तो दया ही दया है।
रामू कुछ सोचता रहा। फिर कहने लगा, "अगर मैं बच गया तो मैं भी अब बदला न लूँगा। अपनी बहिन महरून को ढूँढक़र लाऊँगा।"
"बेटा, तू ज़रूर ऐसा करेगा। तू बड़ा अच्छा है। मेरा रामू तो हीरा है।"
"मेरी एक कामना और पूरी कर दो माँ!"
"क्या?"
"तुम मेरे मरने पर गम न करना और मेरी आत्मा उसी समय शान्त होगी, जब तुम सुखी होगी। माँ, तुम नहीं समझ सकती कि मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ।"
मोमिन ने पत्थर का दिल करके जवाब दिया, "मैं सब करूँगी लेकिन तू अच्छा हो जाएगा।"
"हमारे गाँव में सबसे मज़बूत चीज़ वह पत्थर है जिस पर शिवाला बना है। तुम मुझे वैसी ही की मजबूत मालूम होती हो। माताजी, तुम जो चाहो कर सकती हो। मेरी माँ का नाम प्रेमा है और बाप का नाम सूरज प्रसाद, उन्हें बुरे मुसलमान पकड़ ले गये हैं। हो सके तो उन्हें भी मेरी बहिन के साथ ढूँढऩा।"
"मैं बेबस औरत हूँ। न पैसा है और न कोई मददगार, लेकिन जो कुछ कर सकती हूँ उन दोनों को छुड़ाने के लिए करूँगी। जो मुहब्बत मैं तुमसे करती हूँ वही प्रेमा से करूँगी। तुम शान्त रहो बेटा!"
"एक बात और है माँ-तुम्हारा जी चाहे तो दफन कर देना। मैं तुम्हारा ही बेटा हूँ। ईश्वर करे, दूसरे जन्म में तुम्हीं से पैदा होऊँ और तुम्हीं मेरा पालन-पोषण करो।"
बुझता हुआ चिराग लम्हे-भर के लिए इस तरह भडक़कर हमेशा के लिए खामोश हो गया।
मोमिना वाकई शिवाले का पत्थर बन गयी। वह कुरआन की आयतें पढ़ती रही और जब रामू चला गया तो उसने अपनी सलवार की बनायी की हुई चादर को धोकर उसे कफन दिया। वह अकेली न उस लाश को दफन कर सकती थी और न फूँक सकती थी लेकिन उसे यह भी पसन्द न था कि उसके बच्चे को मरने के बाद जंगली जानवर अपनी खुराक बनाएँ। इसलिए उसने लाश उठाकर बैठक में रख दी और उसकी दीवार पर कोयले से लिख दिया-
"यह लाश रामू की है। वह हिन्दू था लेकिन उसकी माँ मोमिना मुसलमान थी। अगर यहाँ मुसलमान आएँ तो इसे दफन कर दें, हिन्दू आएँ तो फूँक दें। मोमिना अगर जिन्दा बची तो यह एहसान करने वाले का शुक्रिया करने यहाँ एक बार ज़रूर आएगी।"
मोमिना ने बैठक के सब दरवाजे बन्द कर दिये और दहलीज पर कुछ जंगली फूल लाकर चढ़ा दिये।
उस उजड़े गाँव में मोमिना की एक सहेली और थी और गाँव छोडऩे से पहले वह उसकी भी ख़बरगीरी कर लेना चाहती थी, यानी भैंस।
मोमिना वहाँ गयी। खण्डहर पर चढक़र उसने झाँका। पानी सूख चुका था और माँ और बछड़े की लाशें एक-दूसरे से एक गुँथी हुई पड़ी थीं मानो वे दो जिस्म नहीं बल्कि एक ही जिस्म हों।
मोमिना वहाँ से रुख्सत होकर जब गाँव से निकलने लगी तो आशा उसके इरादे को भाँप गयी और खुशामद-भरी निगाहों से मोमिना को देखने लगी। वह यह कह रही थी कि मैं रामू को छोडक़र नहीं जा सकती, मुझे माफ़ करो। मैं तो उसकी समाधि पर जोगन बनकर रहूँगी।
आशा अब पहले वाली आशा न थी। वह निराश हो गयी थी। मोमिना ने उसको चुमकारा और प्यार से समझाया, "भोली-भोली आशा क्या तू समझती है कि रामू वह था जिसे मैं बैठक में छोड़ आयी हूँ? वह तो एक बेकार की चीज थी। असल रामू तो अब मेरे मन में है और कहता कि तुम महरून और पे्रमा की खोज में निकलो, जब तक तुम उनकी खोज में लगी रहोगी मैं तुम्हारे मन में रहूँगा और अगर तुमने इस मकसद को भुलाया तो मैं चला जाऊँगा। चल आशा, तू अगर रामू से प्रेम करती है तो तू भी मेरे साथ आ।"
आशा समझी या नहीं, लेकिन मोमिना के साथ चल पड़ी। गाँव से निकलकर मोमिना शिवाले के सामने आ गयी और वह पत्थर देखने लगी। जिससे रामू ने उसकी उपमा दी थी। वाकई वह एक भारी लम्बी-चौड़ी चट्टान थी जो अपने सीने पर शिवाले या मस्जिद को उठाए हुए थी। जाने कब से उठाए हुए थी और न जाने कब तक उठाए रहेगी। दंगों और आग तथा क़त्लो-ख़ून का उस पर कोई असर नहीं पड़ा था।
मोमिना ने ऊपर नीचे देखा। पाँव-तले वही ज़मीन थी और सिर पर वही आकाश जिसके बीच उसके सुख के दिन बीते थे और दु: ख के भी। उन दोनों के बीच में पहले की तरह हवा के झोंके हिन्दुस्तान से पाकिस्तान और पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आते-जाते थे।
पत्थर वहीं रह गया और मोमिना, उसी धरती और उसी आकाश के बीच में अपने मिशन पर चल खड़ी हुई.