माँ और गृहस्थी / सपना मांगलिक
माँ को भजन गाने का बड़ा शौक था वह संगीत सीखना चाहती थीं, मगर तीन बेटों की परवरिश उनके लिए उनके शौक से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थी। गृहस्थी में उनका शौक मन से कब विलुप्त हो गया इसका खुद उन्हें भी अंदाजा न था। तीनों बेटे उच्च नौकरी करते हुए अपने-अपने गृहस्थ जीवन में रम गए। पिताजी के जाने के बाद माँ अपने बच्चों की गृहस्थी में ही अपनी ख़ुशी ढूँढने लगी, मगर बड़ी बहु को माँ का उसकी गृहस्थी में दखल न भाया और वह अलग हो गयी। मंझली की गृहस्थी में खुद उसकी माँ शामिल थी इसलिए माँ को वहाँ जगह मिलना मुमकिन ही नहीं था। रही बात छोटी की तो उसने माँ के आने की खबर सुनते ही अपने पति को फ़रमान सुना दिया कि या तो घर में माँ रहेगी या वह। तीनों भाइयों ने अपनी-अपनी गृहस्थी और सुविधानुसार एक निश्चय किया और अगले ही दिन माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आये। माँ के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे और वह आश्रम के मन्दिर में दीनबंधु से करूण-भजन गा प्रार्थना करने लगी कि उसका दुनिया में कोई नहीं है, हे प्रभु अब तो उसे उठा ले। भजन खत्म होने के बाद माँ ने पीछे मुड़कर देखा, उसकी ही तरह कई गृहस्थी विहीन गृहस्थ एक जैसा दर्द आँखों में लिए उसे अपनी इस विशाल गृहस्थी में शामिल करने को आतुर दिखे।