माँ का त्याग / महेश कुमार केशरी
ईलम सरकारी बाबू ज़रूर हैl लेकिन उसे लोगों से घुलने -मिलने की आदत हैl वह , एक बैंक में कैशियर हैl अरियालूर शाखा मेंl इसके अलावे , दिल का भी बहुत अमीर आदमी है , ईलम l इस अरियालूर शाखा में ईलम को आये करीब दो साल हो गये हैंl लेकिन , लगता है जैसे अभी - अभी कल ही की बात होl
थामाराई को जब - जब पैसों को जमा करना होता हैl तो , वह बैंक आकर पैसे जमा कर जाती हैl थामाराई को ईलम अम्मा कहता हैl थामाराई को अक्सर, बैंक में आते-जाते देखता हैl एक दिन बैंक में ग्राहक कुछ कम थेंl थामाराई से यूँ ही पूछ लिया था ईलम ने "और , अम्मा तुम्हें अक्सर देखता हूँl बैंक में पैसे जमा करवाते हुएl निकालती कभी नहीं हो क्या?"
"नहीं इसकी कभी ज़रूरत नहीं पड़ीl"
"क्यों ?" ईलम ने नोट गिनते हुए पूछाl
"बच्चों के लिये एक घर बनवाना चाहती हूँl भगवान का एक जागरण भी करवाना है , मुझेl"
"ओ..l"
"तुम्हारे , खाते में तो बहुत पैसे जमा होते जा रहें हैं , अम्मा l" ईलम बोला l
"हूँ अl"
"क्या ,करती हो अम्मा तुम ?"
"मैं , एक माॅडल हूँl"
ईलम , थामाराई की बातों को सुनकर हँस पड़ा था - "माॅडलिंग और इस उम्र मेंl क्यों बेवकूफ बनाती हो , अम्मा? कभी रैंप पर भी चली होl या कभी कैटवाॅक भी किया है ?"
"वह , वाली माॅडल नहींl"
"फिर ?"
"दर असल मैं , एक न्यूड आर्टिस्ट हू़ँl"
"मैं , समझा नहीं ?"
"बच्चे, मेरी न्यूड पोट्रेट , बनाते हैंl फिर , उसके मेहनताना के रूप में चार - पाँच सौ रूपये मुझे मिल ही जाते हैंl"
"इसका मतलब तुम नंगी होकर तस्वीरें बनवाती होl"
"हाँl"
ईलम को बहुत ही आश्चर्य हुआ थाl
"इस उम्र मेंl जब तुम्हारी उम्र ढलान पर हैl"
थामाराई पचास- पचपन की होगीl ये उसकी गालों के सुर्खियों के जाने के दिन थेंl यौवन ढलान पर थाl खाते- पीते घरों में प्राय: इस उम्र में भी स्त्रियाँ गोल - मटोल और भरी - भरी रहतीं हैंl लेकिन ; थामाराई के गालों की लाली जाती रही थीl चेहरे पर की आभा ख़त्म हो गई थीl छातियों में वह मादकता नहीं बची थीl जो किसी स्त्री को देखकर किसी पुरूष में मादकता भरती हैl ईलम को बहुत आश्चर्य हुआ कि फिर क्या दिखाकर थामाराई माॅडलिंग करती हैl
कैशियर होते हुए भी आज उसका एक नये विषय से साबिका पड़ा थाl थामाराई उसके लिये सात संदूकों के अंदर बंद आश्चर्य से कम ना थीl
"बड़े भी बनाते हैं , तुम्हारी तस्वीरें ?"
"हाँ"
"तुम कैसे कर लेती हो ये सब ?"
"अब आदत हो गई"
"मतलब ?"
"कला को तुम कैसे समझते हो ? या कला के बारे में तुम क्या सोचते हो ? अच्छा एक बात बताओ ? जो संगीत से प्रेम करता हैl या कोई तबला वादक को ही ले लोl या कोई सितार वादक को या किसी हारमोनियम मास्टर को ही ले लोl ये लोग इन वाध यंत्रों की पूजा करते हैंl सामान्य आदमी के लिये ये एक ढोलक , तबला या हारमोनियम हो सकते हैंl लेकिन , इन उस्तादों के इसमें प्राण बसते हैंl इसमें वह सरस्वती का वास मानते हैं l नहीं समझेl इसको एक अलग उदाहरण से समझोl तुम्हें समझने में आसानी होगीl जैसे अगर तुम ईश्वर में विश्वास रखते होl या आस्था रखते होl तो तुम क्या करते हो ? तुम पहले नहाते होl अच्छे , धुले हुए और साफ़ कपड़े पहनते होl बागों से अच्छे -अच्छे फूल चुनते होl फिर , दुकान से पेड़े , प्रसाद और नारियल खरीदते होl भगवान के पास जाते हो तो जितनी तुम्हारी हैसियत हैl कम - से - कम उतना तो नकद चढ़ाते ही होl भगवान से प्रेम इतना है कि जब मँदिर जाते हो तो चप्पल या जूते मँदिर के बाहर ही खोलकर चले जाते होl इसका कारण क्या है ? इसका कारण ये हैl कि हम अपनी प्रिय से प्रिय चीजों को ईश्वर के श्रीचरणों में अर्पित कर देते हैंl कला के साथ भी कुछ ऐसा ही हैl कला किसी कलाकार के लिये पूजा या साधना से कम नहीं हैl"
"फिर , भी ...कोई मर्द किसी नंगी औरत को देखकर अपनी भावनाओं पर कैसे काबू रख सकता है ?"
"मैं ...समझ रहीं हूँl तुम्हारी बातों कोl शुरू - शुरू में मुझे भी बहुत झिझक हुई थीl लेकिन , फिर सब सामान्य हो गया थाl मैं एक- एक कपड़े उतारती जाती थीlऔर लाज से धरती में गड़ती जा रही थीl लेकिन मैं करती भी तो क्या ? खुली औरत पूरे ज़माने के लिये एक चारागाह की तरह होती हैl जिसका भी मन होता हैl वह आकर चर लेता हैl औरत कहाँ तक अकेले लड़ सकती हैl उन्हीं दिनों मैं सरस्वती दीदी से मिली थीl और अपनी मजबूरी उनको बताई थीl कुछ दिनों तक मैं उनसे लगातार कहती रहीl तो एक दिन वह मुझे जे । के. स्कूल लेकर गईं थीं l सुनों तुमको एक कहानी सुनाती हूँl एक नौ साल की बच्ची को बचपन से पढ़ने की बहुत इच्छा थीl लेकिन , उसके माँ- बाप अनपढ़ थेंl बेटी को पढ़ाया- लिखाया नहींl माँ बाप सोचते आख़िर क्या करेगी वह पढ़- लिखकर? ऐसा नहीं था कि उन दिनों म्यूनसीपैलिटी में या अस्पतालों में काम नहीं मिलता था l लेकिन , सब जगह पढ़े- लिखे लोगों की ज़रूरत थीl वह नौ साल की लड़की अगर पढ़ी - लिखी होतीl तो भला कोई बात भी होतीl कहीं काम नहीं मिला उस लड़की कोl उस लड़की की तक़दीर का खेल भी देखो की शादी भी हुईl तो एक शराबी क़िस्म के लड़के सेl माँ- बाप तो पहले ही मर गये थें , उस लड़की केl लड़की को पति भी मिला तो पियक्कड़l दिन भर दारू पीकर टुन्न रहताl मारता - पीटता सो अलग सेl उस लड़की ने कम उम्र में ही कई- कई बच्चे जनेl एक दिन पियक्कड़ पति भी मर गयाl अब , उसके सामने एक क्रूर दुनिया थीl माँस की भूखीl आख़िर एक मजबूर औरत अपने आपको कहाँ तक बचाये ?"
थामाराई कुछ रूकककर बोलीं - "एक कलाकार की भावनाएँ और एक आम - आदमी की भावनाओं में काफ़ी अंतर होता हैl वह , दोनों चीजों को अलग- अलग परिप्रेक्ष्य में देखता हैl एक तरफ़ जहाँ आम-आदमी देह को देह की तरह देखता हैl वहीं दूसरी ओर कलाकार इन चीजों से बहुत ऊपर उठ चुका होता हैl दर असल आदमी जब लौकिक होता हैl तो इँद्रियों के वशीभूत होता हैl लेकिन , कलाकार इन सबसे परे होता हैl तुम योग के बारे में सुनते होl आध्यात्म के बारे में सोचते होl हम योग करते हैंl आध्यात्म से जुड़ते हैंl दर असल जब हम इन चीजों से जुड़ने लगते हैंl तो धीरे - धीरे हमारे अंदर कुछ ऐसी शक्तियों का संचार हो जाता हैl और हम सांसारिक चीजों से धीरे - धीरे विमुख होने लगते हैंl अच्छा - खाना , अच्छा पहनना इन जैसी छोटी - छोटी चीजों से परहेज करने लगते हैंl अपने आसपास के लोगों , पड़ौसियों के साथ ईर्ष्या - द्वेष रखने का जो भाव होता हैl धीरे - धीरे व्यक्ति में इसका लोप होने लगता हैl जैसे आध्यात्मिक होने और जब कोठर जीवण जीने का हम संकल्प लेते हैंl तो सबसे पहले सांसारिक चीजों का त्याग हमें करना पड़ता हैl ये हमारी लिप्साएँ और कुत्सित वृत्तियाँ ही होती हैंl जिनका हम त्याग करतें हैंl बिछावन की जगह हम ज़मीन पर सोने लगते हैंl नँगे पाँव चलने के अभ्यस्त होने लगते हैंl शरीर को कष्ट देने लगते हैंl जब आदमी कुँडलिनी जागरण की तरफ़ प्रवृत्ति होता हैl तो उसे बहुत ही नेम - धरम से रहना पड़ताl सांसारिकता और भोग की चीजों से दूर होना ही धर्म और आध्यात्म होता हैl जब आदमी अपने खराब कर्मों के बारे में सोचता हैl अपनी ख़ुद की स्थिति से अवगत होता हैl तो उसे ऐसा लगता हैl जैसे उसके आज तक के जो कर्म हैंl जिसमें उसने केवल और केवल अपने लिया ज़िया होता है l वह सोचता हैl इस तरह से जीना भी भला कोई जीना हैl जब वह विश्व के लिये सोचता हैl प्राणीमात्र के कल्याण के बारे में सोचने लगता हैl यही स्थिति कला के साथ भी हैl दर असल हमारी कला की जो लंबी यात्रा होती हैl उसमें कलाकार जिस सिद्धी की प्राप्ति करना चाहता हैl वह दर असल एक साधक की तरह हो जाता हैl अपने स्तुतेय या आराध्य के लिये उसके मन में कभी विकार पैदा हो ही नहीं सकता l जिस दिन उसके मन में अपने स्तुतेय के लिये विकार पैदा होगाl उस दिन से ही उस कलाकार की मौत हो जायेगी l दरअसल एक कलाकर की ये एक आध्यात्मिक यात्रा की तरह ही एक कलात्मक यात्रा होती हैl"
कुछ देर ख़ामोशी छाई रहीl फिर थामाराई बोली - "क्या जो भगवान से प्रेम करता हैl उसके प्रति श्रद्धा रखता हैl उसके घर में यानी कि उस मँदिर में चोरी कर सकता है , क्या ?"
"नहीं" ईलम बोला l
"कलाकार भी , ऐसा ही होता हैl प्राय: ऐसे लोग अपने पेशे के प्रति ईमानदार होते हैंl फिर , इस मिट्टी के शरीर का एक दिन नाश होना तो तय ही है l अगर ये कला के काम आ जाये तो इससे अच्छा और भला क्या हो सकता है ?"
"फिर , तुम अपने इस कला के लिये पैसे क्यों लेती हो अम्मा ? इन चार-पाँच सौ रूपयों से तुम्हारा क्या होता होगा अम्मा ?"
थामाराई बोली - "बहुत पैसा तो मुझे नहीं चाहियेl लेकिन , हाँ इतना तो ज़रूर ही होना चाहिए कि अपने और अपने बच्चों के सिर को ढकने के लिये एक छत बनवा सकूँl मेरी ज़िन्दगी के दो ही साध हैंl एक बच्चों के लिये घरl और , दूसरी मैं माता का एक बड़ा जागरण करवाना चाहती हूँl पता नहीं , कल मैं रहूँ या ना रहूँl बच्चों के लिये एक छत तो बनी रहनी चाहियेl"
ईलम सोच रहा थाl नारी से बड़ा और खासकर एक माँ से बड़ा त्याग आख़िर कौन कर सकता है ?