माँ के लिए घर / जगदीश मोहंती / दिनेश कुमार माली
दो बेडरुम वाले क्वार्टर का एक लाभ यह था कि माँ के लिए अलग से एक रुम मिल जाता। ऐसे भी माँ बेचारी बहुत हैरान हो रही थी। हमारे पुराने वाले मकान में केवल दो रुम हुआ करते थे, एक ड्राइंग रुम तो दूसरा बेडरुम। थोड़ी सी जगह खाली भी थी, जिसे डाइनिंग रुम का नाम दिया जा सकता था। उसी खाली जगह में हमारा डाइनिंग टेबल पड़ा हुआ था तथा बेडरुम हमारे सोने के काम में आता था। रात के समय माँ ड्राइंग रुम में दीवान के ऊपर सोती थी। अगर कोई अतिथि आ जाता था तो बहुत मुश्किल हो जाती थी। जब तक अतिथि ड्राइंग रुम में रहते थे, माँ बेडरुम में बैठकर अपना समय पास करती थी। उनका कोई अपना निजी रुम नहीं था।
दो बेडरुम वाला क्वार्टर मिल जाने से अन्ततः एक रुम माँ को मिल जाता। वह रुम माँ का अपना निजी रुम होगा। उसमें उसका अपना बेड लगा होगा, वह वहाँ अपनी इच्छानुसार सो पाएगी। अगर घर में कोई मेहमान आ भी गया तो उसे अप्रतिभ होकर इधर-उधर छिपने के लिए जगह नहीं खोजनी पड़ेगी। घर के कोलाहल से दूर वह अपनी पुराण-पोथी अपने निजी रुम में रख कर पूजा-अर्चना करके अपना समय बिता सकेगी।
माँ का कोई अपना निजी रुम नहीं था, यही बात मुझे भीतर से बुरी तरह खाए जा रही थी। यह बात दूसरी है, हमारे बचपन के समय में भी माँ का कोई अलग रुम नहीं था। उस जमाने में गोरु-महिषाणी लोह-खदान टाऊनशिप को कैंप के नाम से बुलाया जाता था। उसी कैंप का क्वार्टर, आज से तीस साल पहले, उस समय के अनुसार आधुनिक ही था। वह पूरा का पूरा क्वार्टर माँ का ही था।
उस घर में दो बड़े-बड़े कमरे थे और एक छोटा-सा कमरा। उस छोटे से कमरे के भीतर के बरामदे में पिताजी ने अपने खर्चे से एक पार्टीशन लगवाकर दो बनवाए थे। उस समय घर में ड्राइंग रुम नहीं था। अगर कोई मेहमान आ जाता था तो बरामदे में कुर्सी लगाकर बैठने की व्यवस्था कर दी जाती थी। दोनों बड़े-बड़े कमरे बेडरुम के तौर पर काम आते थे। एक कमरा माँ-पिताजी के लिए तथा दूसरा कमरा हम आठ भाई बहिनों के लिए। वहाँ सोने के लिए खाट बिछाए हुए थे। सुबह उठते ही खाट के ऊपर के बिस्तर हटा लिए जाते थे। आजकल की तरह खाट पर चौबीस घंटा परमानेंट गद्दी बिछी हुई नहीं रहती थी। छोटा कमरा बड़े भाई की पढ़ाई का कमरा था। माँ के लिए कोई स्वतंत्र कमरा नहीं था। यू देखे तो, सारा घर ही माँ का था। वहाँ पर माँ का हुकुम चलता था।
यहाँ पर माँ कितनी निष्प्रभ थी। किस तरह अपने आप को समेटकर रखती थी। किसी भी विषय पर अपनी राय नहीं देती थी। अगर देती भी थी तो डर-डरकर। मुझे पास बुलाकर धीरे-से कहती थी। हमारी दुनिया में माँ क्यों अपने-आप को अलग-अलग मह्सूस करती थी? क्यों वह हमारे बिस्तर पर कभी नहीं सोती थी? मेरी सुचेता पत्नी ने हमारे रुम की दीवार में बनी एक अलमीरा का एक खाना भगवान के लिए आरक्षित रखा था, माँ स्नान करने के बाद उस जगह पर जाकर पूजा क्यों नहीं कर लेती थी?
ऐसी कोई बात नहीं थी कि सुचेता ने कभी उसकी कोई बात काटी हो, कभी कड़वी भाषा का प्रयोग किया हो या कभी उसका अपमान किया हो। फिर भी पता नहीं क्यों, माँ अपने
प्रभुत्व को प्रकट नहीं कर पा रही थी? पता नहीं क्यों गोरु-महिषाणी के क्वार्टर की तरह इस क्वार्टर को अपना नहीं कह पा रही थी?
यद्यपि दो बेडरुम वाले क्वार्टर का फायदा यह था कि माँ के लिए एक रुम अलग से मिल जाएगा, परन्तु नुकसान भी बहुत थे। हमारे पुराने घर की छत काफी ऊँची थी। वह घर पुरानी शैली के बने बंगलों के अंतर्गत आता था। पुराने घरों की छतें बहुत ऊँची हुआ करती थी। मजबूत फर्श और मजबूत दीवारें होती थी। और दो बेड रुम वाला क्वार्टर आधुनिक ढंग से बना हुआ था। चूने का प्लास्टर, खिड़की दरवाजे सभी आकर्षक, किन्तु छूने मात्र से ही पता चलता था दीवारों के भीतर खोखलापन है। छत बहुत नीची थी। हाथ थोड़ा-सा ऊपर कर लेने से पंखा छू जाता था। इस घर में रोशनदान की भी सुविधा नहीं थी। अगर दरवाजा बंद करके रखे तो भयंकर गरमी लगने लगती थी। पुराने घर के कमरे इतने बड़े-बड़े थे, बच्चें उसमें फुटबाल खेलते थे, छुपाछुपी का खेल खेलते थे। यहाँ तक कि उस बड़े कमरे को भरने के लिए हमें काफी फर्नीचर भी बनाना पड़ा था।
दो बेडरुम वाले क्वार्टर में कम फर्नीचर रखने के बाद भी सारा घर भरा-भरा लगता था। घर इतना भरा-भरा लगता था मानो फर्नीचर का एक शो-रुम बन गया हो। इस घर में हम फर्नीचर के साथ एडजस्टमेंट कर चल रहे थे, जबकि पुराने घर में फर्नीचर हमारे साथ एडजस्टमेंट करके चलता था। इतना होने के बाद भी हम सभी दो बेड रुम वाला क्वार्टर पसंद करते थे। अन्यान्य कारणों में एक कारण यह भी था कि दो बेड़ रुम वाले क्वार्टर में माँ के लिए एक अलग से रुम मिल जाता।
गोरु महिषाणी के क्वार्टर को हमने कभी भी कंपनी का क्वार्टर नहीं समझा था। हमने तो कभी हमारा गाँव तक नहीं देखा था। पिताजी ने गोरु महिषाणी के पास स्थित 'सान-मऊदा' गाँव में एक जमीन खरीदी थी। हम लोग भी पिताजी के साथ कभी-कभी उस जमीन को देखने जाते थे, मगर वह 'सान-मऊदा' गाँव हमारे गाँव की तरह नहीं लग रहा था। कहने से भी हमारा अपना मकान कंपनी का वह क्वार्टर ही था। उर्दूखल, गुहाल, गोवर-कुंड से लेकर वगीचे के मकई के पौथे तक सभी हमारी निजी संपत्ति थी। बगीचे में दो बरगद के पेड़ तथा एक नीम का पेड़ था। गरमी के दिनों में हम उस नीम पेड़ के तले उत्साहित होकर पत्तों का शामियाना बाँधकर, गाँव के अष्ट प्रहरी नामयज्ञ के तर्ज पर वहाँ भजन-कीर्तन करते थे। मंजीरे की जगह बड़ी बहिन को मिले कपों के ढक्कनों को बजाते हुए नाचते थे।
हम सभी भाई नौकरी की तलाश में घर छोड़कर बाहर निकले। एक भाई राऊरकेला में तो दूसरा भाई तालचर की भरतपुर कोयला खदान में, तो एक और भाई सूनाबेड़ा में और मैं आ गया इस शहर में। सभी भाईयों ने, जो जिस शहर में रहा, वहीं पर अपना मकान बना लिया। सभी भाई कहने लगे, वे अब और गाँव की तरफ नहीं जाएँगे।
गोरु महिषाणी से आने के बाद पिताजी ने गाँव का घर तैयार करवाया था। उस समय मैं चौथी या पाँचवी कक्षा में पढ़ता था। 'गोरु महिषाणी में लोह-अयस्क खत्म होने जा रहा है इसलिए कंपनी जल्दी ही बंद हो जाएगी - इस प्रकार की एक खबर सुनने को मिली थी। उसी समय अचानक एक दिन ऐसा आया कि एक ट्रक आकर हमारे घर के सामने खड़ा हो गया और दो तीन आदमियों ने घर का सारा सामान-पत्र ढोकर ट्रक में लाद दिया। एक पल में सारा घर खाली हो गया। देखते-देखते घर के तख्त-पोष, पलंग, टेबल, चेयर, लकड़ी की अलमारी, यहाँ
तक कि घर के सारे बर्तन आदि। पर खाली होने से ऐसा लग रहा था मानो उस घर के साथ हमारा कोई रिश्ता नहीं रहा हो। ऐसा लग रहा था मानो वह हमारा घर नहीं हो, बिल्कुल अनजान, अपरिचित-सा। उर्दूखल और गुहाल के ऊपर की टीन छत खोल ली गई थी, छत से झूल रही झोली भी। यहाँ तक कि तुलसी चबूतरे से सीसे के शिवलिंग भी।
उसके अगले दिन हम सभी ने बस में बैठकर गोरु महिषाणी के अंतिम सूर्योदय के दर्शन किए थे। बहिन को विदा करने आई उसकी मित्र-मंडली फूट-फूटकर रो पड़ी थी। बस से उतरने के बाद मैं अपने जीवन में पहली बार बैलगाड़ी में बैठा था। उस जमाने में बस-स्टैण्ड से गाँव दस मील दूर था। बैलगाड़ी द्वारा नदी को पार करने का मेरा यह पहला प्रत्यक्ष अनुभव था। पहली बार मैने गाँव के रास्तों को देखा।
गाँव पहुँचने के बाद पहली बार पता चला कि हमारा अपना घर भी है। वह था आधा तैयार मिट्टी से बना हुआ घर। घर के ऊपर छप्पर तो था ही नहीं। लाल मिट्टी की दीवार के ऊपर बलुई मिट्टी का अस्तर तक नहीं चढ़ा हुआ था। वह घर जैसा बिल्कुल नहीं लग रहा था। हमारे गोरु महिषाणी के पुराने घर के साथ गाँव के इस नए घर की क्या तुलना की जा सकती थी? मगर फिलहाल यह दो बेडरुम वाला क्वार्टर बिल्कुल अलग तथा आधुनिक शैली का बना हुआ था। सूचेता ने इस नए घर को अच्छी तरह सजा दिया था। सुचेता ने काफी चिंतन-मनन करने के बाद कारपेट, दीवान, सोफासेट, डाइनिंग टेबल, खाट, ड्रेसिंग टेबल, आलमीरा, बर्तन-स्टैंड और शो-पीस स्टैंड को उचित जगहों पर सजा दिया था। घर के साज-सजावट से मंत्र-मुग्ध होकर सुचेता अपनी बुद्धि की दाद दे रही थी। सुचेता की गृह-सज्जा में बहुत ज्यादा अभिरुचि थी। इसके लिए वह गृह-सज्जा से संबंधित महँगी-महँगी किताबें खरीदती तथा विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में से खोजकर घर की साज-सजावट से संबंधित निबंध पढ़ा करती थी। किचन में दीवार पर तेल के छींटें नहीं पडे, यह सोचकर सुचेता ने गैस स्टोव के पास वाली दीवार पर सचिन तेंदुलकर का एक बड़ा पोस्टर चिपका दिया था। यह उसकी स्वयं की बुद्धि थी। उसने ड्राइंग रुम में दीवान के पीछे वाली दीवार पर पिपली से लाए हुए हस्त शिल्प के चांदुओ को सजा दिया था। उसके सामने वाली दीवार पर उसने अजंता-एलोरा से खरीदे हुए नए डिजाइन की वाल-प्लेट को टाँग दिया था। डाइनिंग टेबल के पास आसाम से खरीदी बेंत से बनी मछली को लटका दिया था। पेलमेटों के रंग जैसा दीवार पर डिस्टेंपर करवाकर उसी रंग के हिसाब से उसने सारे घर में परदा लगवा दिए थे।
माँ के रुम के लिए सुचेता ने एक पुराना खाट बाहर निकाला था। पुराने क्वार्टर का दीवान तैयार करवाने से पहले यही खाट दीवान के रुप में प्रयुक्त होता था। रात को माँ वहीं पर सोती थी। दीवान बनने के बाद माँ दीवान पर सोने लगी थी। तब सुचेता ने उस खाट को खोलकर हमारे डबल बेड के नीचे रख दिया था।
यह वही पुराना खाट था जिसे मैने अपनी शादी से पूर्व मात्र तीन सौ दस रुपए में खरीदा था। इस दौरान खाट का एक पाँव टूट गया था। उसी टूटे पाँव को दीवार के पास सटाकर सुचेता ने ईटों से इस प्रकार सेट कर दिया था कि बाहर से बिल्कुल भी पता नहीं चलता था कि यह टूटा हुआ खाट था। लेकिन गद्दा? दीवान तैयार होने के बाद पुरानी रजाई की रुई निकालकर दीवान के लिए एक गद्दा बनवा लिया था। तब माँ की खाट के लिए गद्दा कहाँ से आता? सुचेता ने दीवान के भीतर बाक्स में रखे हुए सर्दी के दिनों में काम आने वाले सारे कम्बल निकालकर एक बिछौना बना दिया था उस खाट के लिए।
गर्मी के इन दिनों में माँ कंबल के बिछौने के ऊपर सोएगी! यह बात मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगी. लेकिन मैं कर क्या सकता था? हमारे बेडरुम में कर्ल-ऑन के गद्दे थे, वे दोनों साइज में काफी बड़े थे। छ फुट गुना चार फुट के खाट पर लग नहीं सकते थ। अब, इसी क्षण माँ की खाट के लिए रजाई बनाना क्या संभव हो सकता था? पाँच सौ रुपए का अतिरिक्त खर्च।
माँ के कमरे में दीवार में एक अलमीरा बनी हुई है। माँ उस अलमीरा का क्या करेगी? क्यों नहीं, बच्चों की किताबें यहाँ रख दी जाए। बच्चों की पढाई का टेबल लिविंग रुम में अच्छा नहीं दिखता है। इसके अलावा, लिविंग रुम में जगह कहाँ है? माँ के कमरे में रख देने से उसे कोई परेशानी नहीं होगी। बच्चे पढ़ने के बाद सोने के लिए आ जाएँगे हमारे कमरे में। सिलाई मशीन रखने के लिए भी सही जगह नहीं मिल रही है। हमारे बेडरुम में इतना ज्यादा सामान हो गया है, कि एक इंच हिलने के लिए भी जगह नहीं मिल रही है। लिविंग रुम में सिलाई मशीन रखना मध्यमवर्गीय मानसिकता की धोतक है। माँ के रुम में रख देने से ठीक है । स्कूटर को रात में लिविंग रुम में रख देंगे तथा सुबह होते ही बाहर निकाल देंगे। लेकिन बेटे की साइकिल? शाम को स्कूल से घर लौटने के बाद ही उसे साईकिल की जरूरत पड़ती है। सारा दिन लिविंग रुम में पड़ी रहने से आने-जाने में दिक्कत हो रही है। अच्छा यही होगा, फिलहाल कम से कम माँ के रुम में रखा जाए।
अब रही कूलर की बात। हमारे बेड रुम में रहने देते हैं. बच्चें भी आराम से सो सकेंगे। इसके अतिरिक्त, हमारे से पहले जो इस क्वार्टर में रहते थे, उन्होंने बेडरुम की खिड़की के बाहर कूलर रखने के लिए सीमेंट की एक वेदी बनवाई थी। वेदी के ऊपर एक गद्दी रखी हुई थी। इन छोटे कमरों में कम से कम यह तो सुविधा दी गई है कि कूलर रखने के लिए ज्यादा जगह नहीं खोजनी पड़ेगी। ऐसे भी माँ के रुम में एक सीलिंग फेन तो लगा हुआ है। यह बात अलग है, पश्चिम की तरफ आने वाली गरम हवाओं की वजह से वह कमरा दोपहर से आधी रात तक गरम रहेगा, लेकिन रात को खिड़की खुला रखने से सुबह होने तक वह कमरा ठंडा हो जाएगा।
गाँव का घर बनाते समय माँ ने कई चीजों पर विशेष ध्यान दिया था। पहला तो यह, घर की दीवार ऊँची होनी चाहिए। दूसरा, घर में प्रकाश आने की श्रेष्ट व्यवस्था होनी चाहिए। शहर में बहुत दिनों तक रहने के बाद माँ गाँव में रहने के लिए आई थी तो उसे गाँव के घर का अंधेरा परिवेश अच्छा नहीं लग रहा था . मगर कुछ तकनीकी समस्याओं की वजह से छत से पानी टपक रहा था। छत पर रखा हुआ पुआल बहुत जल्दी सड़ जाता था तथा एक दो साल के भीतर पुआल छत में छेद होकर सामने आसमान नजर आने लगता था। वर्षा के दिनों में घर में टपकते पानी को रोकने के लिए अलग-अलग जगह पर तसला, कांसे की थाली, लोटा-लोटी, कटोरा-कटोरी इत्यादि रखे जाते थे और बारिश रुकने के बाद माँ झाडू लगाकर घर सारा साफ कर देती थी। उस समय माँ पिताजी के ऊपर आग-बबूला हो जाती थी और सारा दोष पिताजी पर थोप देती थी हमारे सामने। पिताजी माँ के द्वारा लगाए गए सारे दोषारोपण सुनते थे, मगर उनके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकलता था। वह चुपचाप घर से पानी बाहर निकालने के कार्य में व्यस्त रहते थे।
माँ कहती थी उसने अपने घर को उस योजनाबद्ध तरीके से बनाया है कि अगर भविष्य में उसके चारों बेटे अपने परिवार समेत गाँव में रहने आए तो उन्हें अपना-अपना घर नसीब हो सके और उन सभी को बराबर-बराबर हिस्सा मिल सके। गाँव का हमारा वह घर 'आटूघर' था और उसके चारो तरफ के बरामदे वाली जगह में दीवार खड़ीकर चार बराबर हिस्से कर दिए थे. पहले दीवारों में हवा तथा प्रकाश के आवागमन के लिए बड़े-बड़े झरोखें छोड़ दिए गए थे और उन सभी झरोखों में रेलिंग और दरवाजे लगाना संभव नहीं हो पा रहा था। इसी वजह से उन्हें ऐसे ही छोड़ दिया गया था। लेकिन कुछ ही दिनं के बाद हमें इस बात का पता चल गया था कि गाँव में चोरों का उपद्रव ज्यादा है। अंत में, माँ ने उन खाली झरोखों को मिट्टी के मसाले से पतली दीवार बनाकर बंद कर दिया था। गाँव में हमारा एक इजीमाली (संयुक्त) तालाब था, इसके अलावा, माँ ने एक छोटा-सा तालाब खुदवाया था, इस तालाब को हम 'टूबी तालाब' कहकर पुकारते थे। उसी तालाब में घर के बर्तन साफ किए जाते थे।
इजीमाल तालाब में स्नान करने से शरीर पर खाज खुजली होने लगती थी, मगर टूबी तालाब में पानी भले ही कम था, उसमें नहाने से शरीर पर खाज-खुजली नहीं होती थी। आषाढ़ महीने में उस तालाब में मछलियों के बीज छोडे जाते थे। उस तालाब में सारा दिन बतखें इधर-उधर विचरण किया करती थी। तालाब के किनारे-किनारे सनसुनिया साग के पौधें निकल आए थे।
एक दिन दादी ने पटवारी को घर बुलाया तथा गाँव के पुराने नक्शे के आधार पर वहाँ का नाप-जोख करवाया तथा हमें बताया कि टूबी तालाब में हमारा आधा अधिकार रहेगा। उसके बाद हर दिन झगड़ें-झंझट होने लगे। पहुँचते-पहुँचते मामला कोर्ट-कचहरी तक पहुँचा। एक बार, जब मैं हाई-स्कूल में पढ़ रहा था, दादी पिताजी को मारने के लिए कुल्हाड़ी लेकर पीछे दौड़ी थी। यह देखकर मँझले भाई ने दादी को एक जोरदार धक्का दिया, तो वह टूबी तालाब में गिर गई थी। तब जाकर पिताजी जिंदा बच पाए थे। इस प्रकार वे गाँव के दस लोगों की पंचायत के सामने बेइज्जत होने से बच गए।
पता नहीं क्यों गाँव वाले हमारे पक्ष में नहीं रहते थे। शुरु-शुरु में तो वे हमें परदेशी मान रहे थे। हमारा घर से नंगे बदन बाहर नहीं निकलना, अपने घर को साफ-सुथरा और सुसज्जित रखना, प्रतिदिन नमक, तेल, मसाला खरीदने के बजाय महीने का एक साथ परचूनी सामान खरीदना, छ मील दूर बाजार से आवश्यक सामग्री खरीदना, ये सभी बातें गाँव वालों के लिए कौतुहल का विषय बनी हुई थी। हमारी बहिनों की सुंदरता, बोल-चाल की शैली तथा फैशन वाले कपड़े पहनना गाँव के युवकों को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था। इसके अलावा, गाँव वाले ये भी सोच रहे थे कि हम गाँव में ज्यादा समय नहीं टिक पाएँगे। हमारा शहरी रंग-ढंग उन्हें कतई पसंद नहीं आ रहा था।
तब तक हम सभी को पता चल गया था कि गाँव का प्रत्येक बूढ़ा आदमी राजनीति करने में माहिर है। जिस प्रकार कहानियों और उपन्यासों में गाँव के लोगों को सरल स्वभाव का दिखाया जाता है, वैसा वे लोग नहीं थे। टूबी तालाब पर अपना हक जताने के लिए दादी ने गाँव के कुछ बूढ़े लोगों की बैठक बुलाई थी, उस बैठक में लिया गया निर्णय माँ और पिताजी के लिए यह सबसे बड़ी पराजय थी।
पिताजी की मृत्यु के उपरांत, हम सभी भाइयों में से कोई यह नहीं चाहता था कि माँ उस गाँव में रहे। पिताजी की तेरहवीं हो जाने के बाद बड़े भईया माँ को अपने साथ लेकर चले गए। सभी भाइयों के बीच में इस बात को लेकर सहमति हुई थी, माँ के चार-चार बेटे हैं, वह जिसके पास रहना चाहेगी, रह सकती है। लेकिन माँ किसी भी भाई के पास शांति से नहीं रह पाई थी। हर समय गाँव के उस घर के बारे में माँ चिंता करती रहती थी, जिसे हम छोड़ आए थे। वह दुख से कहती थी कि उसका वह सबसे बड़ा सपना था, उस घर में उसके चारों बेटे और बहुएँ रहेगी तो वह घर भरा-भरा लगेगा।
"माँ, तुम यह कैसे कह सकती हो कि तुम्हारे चारों बेटे गाँव में जाकर रहेंगे। देख, वे कितने बड़े-बड़े आदमी बन गए हैं. उनका शहर में कितना बड़ा नाम है। सभी लोग तेरे भाग्य से ईष्र्या करते होंगे।"
माँ एकदम चुप हो गई। कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। अन्यमनस्क होकर, वह अपनी एकमात्र निजी संपत्ति संदूक को खोलकर अपने कपड़े तथा पुराण-पोथी जमाने लगी तथा फिर कुछ देर इधर-उधर देखकर उसे बंद कर दिया। कभी-कभी वह मुझसे कहती थी, तेरी चाची का भाग्य मुझसे बेहतर है. कम से कम वह अपने गाँव में रहती है, अपनी जमीन का अन्न खाती है, तथा अपने हट्ठे-कट्ठे जवान बच्चों के साथ रहती है।
गाँव छोड़ते समय भाइयों के बीच में यही शर्त रखी गई थी, माँ जिस भाई के पास जितने दिन रहना चाहेगी, उतने दिन उसके पास रह सकती है। लेकिन माँ किसी के भी पास ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाती थी। जब वह हमारे घर रहती थी, उस समय वह दूसरे भाई को लेकर चिंतित रहती थी। हमारे घर के सभ्य साफ-सुथरे परिवेश में उसका दम घुटता जा रहा था। वह बुरी तरह से बोर हो रही थी तथा बड़ी भाभी माँ को खुश नहीं रख पाती थी क्योंकि माँ रात को दूध रोटी खाना पसंद करती थी, जबकि भाभी के वहाँ रात को सभी पखाल खाते थे। माँ के लिए आटा गूँधकर अलग से रोटी बनाने के लिए भाभी को चूल्हे के पास बैठना पड़ता था। गरमी के दिनों में तो बड़ी भाभी कभी भी नहीं चाहती थी, माँ उनके पास रहे। मंझला भाई कंजूस आदमी था, कंजूस ही नहीं महा कंजूस कहने से भी चलेगा। रात का उसका मेनू केवल गुड़ के साथ रोटी खाना था। उनके घर में रात को कभी भी दाल तो क्या कोई सब्जी तक नहीं बनती थी। इसलिए रोटी और गुड खाने से माँ को वहाँ एसिडिटी होने लगती थी। उसके अलावा, उनका घर इतना गंदा रहता था कि फर्श पर पाँव रखते ही गोंद जैसी चिपचिपाहट लगने लगती थी। मँझली भाभी बहुत गंदी रहती थीं। घर के सारे तकिए तेल से काले-काले हो जाते थे। सोफे के ऊपर कहीं लुंगी पड़ी रहती थी तो कहीं गमछा। डाइनिंग टेबल पर कभी इस्त्री पड़ी मिलती थी तो कभी जूते। बच्चों की पोशाकें साफ-सुथरी नहीं मिलती थी। कुल मिलाकर छोटे भाई के घर की संस्कृति पूरी तरह अनार्य थी। जबकि माँ स्वच्छता-प्रिय थी। जब वह गाँव में रहती थी तो हमेशा पैरों में चप्पल पहनकर रहती थी। उसे देखकर गाँव की औरतें हँसती थीं।
अब बाकी रह गई हमारे घर की कहानी। सुचेता अधिक अनुशासन-प्रिय थी।जौर-जोर से बोलना उसको बिल्कुल पसंद नहीं था। बच्चों को सही समय पर खाना खाना है, सही समय पर पढ़ने बैठना है। घर का हर सामान अपनी सही जगह पर मिलना चाहिए। घर आने के बाद अपने कपड़े बदलकर उन्हें समेटकर अपनी जगह पर रखना है। बातचीत करते समय शिष्टाचार का उचित ध्यान रहना चाहिए।
बचपन से ही माँ का लालन-पालन निम्न मध्यम वर्गीय संभ्रांत परिवार में हुआ था। उन संस्कारों में पली-बढ़ी माँ का इस वातावरण में दम घुट रहा था, यह बात जानने में मुझे बिल्कुल भी समय नहीं लगा।
अब बच गया छोटा भाई। उसकी शादी हुए आठ साल बीत चुके थे, मगर उनके कोई संतान पैदा नहीं हुई थी। वह बहुत दुःखी रहता था। जगह-जगह डाक्टरों को दिखाकर थक चुका था। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, पीरबाबा की मजार, किस-किस की शरण में नहीं गया वह। जो कोई जैसा कहता था, वह उसका अनुकरण करता था। उसके घर में माँ एक सेकंड भी रुकना पसंद नहीं करती थी। उस घर का खालीपन उसे काटने दौड़ता था। माँ जहाँ भी जाती थी, जिस मंदिर में जाती थी, छोटे बेटे के घर भर जाने की मन्नत माँगकर आती थी। फिर भी उसकी छोटे बेटे के घर में रहने की तनिक भी ईच्छा नहीं होती थी।
यह बात भी सही थी, माँ किसी भी भाई के पास ज्यादा दिन तक नहीं रह पाती थी। बड़े भाई के घर रहने से वह मंझेले भाई के बारे में सोचकर व्यग्र हो उठती थी, उसके बच्चों को तेज बुखार होने से फिट्स आने लगते थे। मँझली बहू इतनी बुद्धू थी कि बच्चों का अच्छी तरह ध्यान नहीं रख सकती थी। डॉक्टर उसे कहते थे कि जब भी बच्चों को दौरा पड़ने लगे तो उन पर पानी डालना चाहिए, मगर वह हर बार यह बात भूल जाती थी। माँ हमेशा मँझले भाई के बेटे टप्पू को लेकर चिंता मग्न रहती थी। परन्तु मँझले भाई के घर रहकर गुड़-रोटी खाना उसको पसंद नहीं था। उसको वहाँ रहने से बहुत कष्ट होने लगता था। पेट में गैस होने लगती थी और उनके घर की चिपचिपाहट उससे बिल्कुल भी बरदाश्त नहीं होती थी। वहाँ उसे दूसरे बेटे और उसके घर-संसार के बारे में चिंता सताने लगती थी। दूसरे भाई के घर में रहने से वह हमारे लिए भी चिंतित रहती थी। वह कहा करती थी, "देखो, उन दोनों को नौकरी करने का कितना शौक लगा हुआ है, बच्चों को नौकरानी के पास छोड़कर अपने ऑफिस चले जाते हैं। मैं बूढ़ी औरत उनके पास रहती तो कम से कम बच्चों का ख्याल रख पाती।"
एक बार माँ अचानक मँझले भाई के घर से मेरे यहाँ अकेले आ गई। जब वह घर पहुँची थी तब सुचेता और मैं ऑफिस गए हुए थे। घर में नौकर लड़का था। बच्चे भी स्कूल गए हुए थे। जब मैं घर लौटा, तो मैने देखा माँ ड्राइंग रुम के एक कोने में हाथ-पैर समेट कर बैठी हुई है। उसकी अपनी संपत्ति कहने से उसका संदूक, वह भी ड्राइंग-रुम में एक किनारे में पड़ा हुआ था। मैं माँ को ऐसे बैठा देखकर आश्चर्य चकित हो गया और पूछने लगा, "माँ, कब आई हो?"
"सुबह से।"
" कम से कम मुझे या सुचेता को फोन कर देती।"
माँ के चेहरे पर उभरे दुख के भाव को दबाते हुए हँसने का अभिनय करते हुए कहने लगी, "मैने सोचा क्यों तुम लोगों को व्यर्थ में परेशान करुँगी?"
"कुछ खाया है? फ्रिज में चावल-सब्जी सब रखा हुआ था। गरम करके थोड़ा-बहुत खा लेती।" माँ ने कुछ नहीं कहा।
"तुम इतने समय से भूखी हो? अपने कमरे में जाकर थोड़ा आराम कर लेती।" माँ के होंठ काँपने लगे। काँपते-काँपते वह कहने लगी, "उस खाट पर बहू की पालतू बिल्ली सो रही थी।"
"हमारे सोने के कमरे में दूसरी चादरें भी तो रखी हुई थी। वहाँ से चादर लेकर उसको बदल देती।"
माँ के होंठ फिर काँपने लगे। वह कुछ बोलना चाहते हुए भी कुछ नहीं बोल पाई।
मैं समझ गया था, माँ सुचेता से ड़रती थी. वह सोच रही थी, अगर उसने वहाँ से सुचेता
को बिना पूछे चादर उठा ली तो सुचेता क्या कहेगी? वह अपना निर्णय कैसे लेती?
अभी भी माँ के होंठ काँप रहे थे। मैं समझ चुका था, हम लोग माँ से बहुत दूर जा चुके थे। इतना दूर इतना दूर कि अगर हम अपना हाथ आगे बढ़ाते तो भी शैशव काल की हमारी माँ को स्पर्श नहीं कर पाते। हमारे अतीत में वह कहां गुम हो गई।
मैं भाव-विह्वल होकर कहने लगा, "माँ, ऐ माँ!"
शायद मेरे मुँह से ये संबोधन नहीं निकले। मेरे मुँह से बिल्कुल आवाज नहीं निकली। पता नहीं क्यों, मेरे मुँह से एक भी शब्द बाहर नहीं निकल रहा था।