माँ -बेटे / संतोष भाऊवाला

Gadya Kosh से
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भारत के पूर्वी तट पर आई सुनामी की भयंकर विनाश लीला याद आती है तो आज भी रोंगटे खड़े होते हैं। समुद्र-तटों पर बसी मछुआरों की बस्तियां, सुनामी निगल गई। माँ-बाप, भाई-बहन से बिछुड़ा हीरू भी उन अभागों में एक था, जिसे बम्बई की एक संस्था, जो बचाव कार्य कर रही थी, अनाथ जान बम्बई ले आई और एक आहारगृह में उसे ग्राहकों तक भोजन पहुंचाने का काम भी मिल गया। सुबह से शाम तक भाग भाग कर लोगों को खाना पहुंचाता और वापसी में खाली डिब्बे आहार-घर में जमा कर वहाँ जो मिल जाता, वही खाकर काम पर लग जाता और देर रात तक काम करता और फिर कहीं कोई पार्क या मंदिर या फुटपाथ पर रात गुजार लेता या फिर कभी किसी पुलिसवाले के हत्थे पड़ गया तो आँखों में ही रात बितानी पड़ती। यही सब उसकी दिनचर्या का अंग बन चुका था।

एक शाम किसी गाहक को भोजनं पहुंचाने जाते समय फुटपाथ के धुंधलके में उसका पैर किसी से टकराया और वह गिर पड़ा। डिब्बा छिटक कर अलग जा पड़ा। कानों में आवाज़ पडी “बेटा देख के चलो, चोट तो नहीं लगी” हीरू ने देखा कोहनी छिल गई थी, डिब्बा उठाया और तेज क़दमों से आगे बढ़ गया। मालिक का हुकुम था कि आर्डर अर्जेंट है सो देर किये बिना पहुंचाना जो था।

डिब्बे पकड़ा कर वहीं दरवाजे पर बैठ गया। कानों में स्वर बज रहे थे “बेटा चोट तो नहीं लगी” तभी उसका ध्यान कलाई पर गया और वहाँ से रिसा खून देख दर्द भी महसूस होने लगा। इसी बीच मालकिन खाली किये डिब्बे लौटाने बाहर आई तो उसकी नजर भी हीरू की घायल कलाई पर पड़ी। दया आ गई तो उसने एक दस रूपये का नोट पकडाया और बोली किसी दवाखाने में पट्टी बंधवा लेना।

हीरू के कानों में तो “बेटा चोट तो नहीं लगी” गूँज रहा था। औरत की सी आवाज थी भला कौन थी वह? कदम वहीं आ कर रुके। तब तक सड़क की बत्तियां जल चुकी थीं, जिसकी मरगिल्ली रोशनी में उसने मैली चादर में लिपटे मानव शरीर को काँपते पाया। बोला आप कौन हैं? तो एक सिर चादर से बाहर झाँका। चेहरा लाल हो रहा था, मुश्किल से आवाज़ निकली “बेटा भिखारिन हूँ आज बुखार आ गया है तनिक पानी ला दे” उसने नगरपालिका के नल पर बर्तन खंगाले और पानी लाकर पिलाया, फिर बोला अभी आता हूँ। वह भाग कर दवा की दुकान पर पहुंचा और केमिस्ट से ज्वर के लिये दवा माँगी। अपने दस के नोट से दवा की गोलियां और एक कुल्ल्हड़ में गरम चाय खरीद कर वापस आ बुढिया को पिलाया। उसे कुछ आराम मिलता देख बोला “माँ अभी फिर आऊँगा”

वापस आहार-घर में बर्तन जमा कर काम निपटाया। खाना मिला तो ले कर बुढिया के पास जा बैठा, आग्रह पूर्वक उसे भी खिलाया। इसे संवेदना कहें, सँयोग कहें या कोई अनबूझ आकर्षण कि हीरू नित्य अपना खाना उसी बुढिया के पास ले जाता, पहले उसे खिलाता और बचा खुद खा लेता। दोनों दुःख सुख कुछ देर मिल बैठ बाँट लेटे। मालिक ने देखा कि वह रोज खाना ले कर कहीं और जा कर खाता है। पूछने पर हीरू ने सच सच बता दिया। मालिक संवेदनशील था, उसने कहा बुढिया को यहीं ले आ।

मालिक ने चौका बर्तन का काम और खाना बनाने में मदद के लिये उसे भी रख लिया। दोनों को सहारा मिला। धरम की माँ, धरम का बेटा, पर अपनों से अधिक सगापन! माँ मराठी और बेटा तमिल, पर अब दोनों सगे माँ-बेटे हैं।