माँ / आदित्य अभिनव

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"जा—जा देखते हैं कौन बेटी रखती है–तुमको दस दिन भी गुजारा नहीं होगा।" बहू प्रिया ने हाथ चमकाते हुए कहा।

"जाओ—जाओ–तुम अपना दिन झखो बड़का-बड़का का घमण्ड नहीं रहा रावण–जैसे बली का घमंड नहीं रहा तू कवन खेत की मुरई हो बहुत बड़का का मुँह चीरा हुआ है।" कहकर कांती देवी मुँह में आँचल डालकर फफक-फफक कर रोने लगी।

यह आए दिन होने वाला गृह कलह एक साल पहले श्रीमती नारायणी देवी महाविद्यालय, अम्बिकापुर में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्त डॉ. आनंद सहाय के यहाँ का है। वे पिछले साल ही केंद्रीय विद्यालय, न। 1 भुवनेश्वर में पी. जी. टी. (हिंदी) के पद से त्याग पत्र दे यहाँ कमीशन से नियुक्त होकर आए हैं। हर तीसरे चौथे दिन सास बहु का बतकुच्चन आम बात है।

डॉ. आनंद कांती देवी की पहली संतान हैं। उनके पिता स्व। कमलेश्वर सहाय की दूसरी पत्नी हैं कांती देवी। शादी के समय उनकी उम्र मात्र सोलह वर्ष थी जबकि कमलेश्वर सहाय की थी सताईस साल। उनकी पहली पत्नी कमला देवी दूसरी संतान को जन्म देने के सात दिन बाद ही चल बसी थी। कमलेश्वर ने तो पहले दूसरी शादी से आना कानी किया लेकिन लोगों के यह समझाने के बाद कि वंश बढ़ाने के लिए पुत्र तो होना ही चाहिए वे शादी के लिए राजी हो गए। उनकी बड़ी बेटी प्रमिला तब तक ढाई साल हो चुकी थी। सहाय जी का परिवार अच्छा खाता पीता परिवार था। दस कोस के चौफेरा में उनके परिवार का नाम था। उनके दादा जी अंग्रेजों के जमाने के मिडिल पास थे और डाक विभाग में जिला सुपरिंटेंडेंट के पद से रिटायर हुए थे। पहले से भी बाप दादा की चली आ रही छोटी-सी जमींदारी भी थी जो उनके पिता श्री सुखदेव सहाय सम्भालते थे।

इधर कांती देवी अपने परिवार की सबसे छोटी बेटी थीं। उनके पिता राम सिन्हासन लाल ज्यादा पढ़े लिखे न थे। अत: खेती किसानी से घर का पालन पोषण करते थे। बीच में

कुछ समय के लिए चटकल फैक्ट्री में काम करने के लिए कलकत्ता गए थे। 1947 में जब बंगाल में दंगा भड़का तो हमलावर मुसलमानों की टोली को फरसा से चीरते हुए भाग निकले। कहते थे कि उन्होंने अपने फरसे से सात मुसलमानों को काट गिराया था। इसके बाद घर छोड़कर कही नहीं गए। परिवार में उनके पाँच बेटियों और दो बेटों के अतिरिक्त उनके स्वर्गीय बड़े भाई की भी तीन बेटियाँ थी जिनका शादी ब्याह भी इन्होंने ही किया। सबसे छोटी बेटी कांती देवी के ब्याह के समय उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी। अत: अपनी सबसे दुलारी बेटी का विवाह दोआह वर से करना पड़ रहा था। वैसे तो कांती देवी की उम्र तो अभी पढ़ने की थी लेकिन उस जमाने के हिसाब से शादी के लिए ज्यादा ही माना जायेगा क्योंकि उनकी बड़ी बहनों की शादी तेरह चौदह साल की उम्र में ही हो गई थी।

शादी के बाद कांती देवी जब ससुराल आई तो आते ही गोद में डेढ़ महीने की निभा को देते हुए सास शकुंतला ने कहा "लो संभालो–अपनी बिटिया।"

इस प्रकार नवविवाहिता का सुख उनके भाग्य में नहीं था सो डोली से उतरते ही सौत की दुधमुँही बिटिया को पालने पोषने और गू मूत करने में लग गई। यदि प्रमिला और निभा नहीं होती तो शायद एक डेढ़ साल नई नवेली दुल्हन का सुख मिल पाता। खैर, सब नसीब का खेल होता है।

डॉ. आनंद ने प्रतिदिन की भाँति संध्या के समय टहलने गए थे। अभी घर में प्रवेश ही किया था कि माँ ने कहा "बबुआ हो बबुआ हम अब–इहाँ–ना–रहब हमरा के घरे पहुँचा द तोहरा–मेहरारू के आगे हमार कुत्ता–कौवा के मोल भी–नईखे हे बबुआ।" इसके साथ ही वह पुक्काफाड़ कर रोने लगी।

आनंद ने पत्नी से कहा "प्रिया! क्या हुआ तुमको कितनी बार समझाया कि माँ से झगड़ा न किया करो लेकिन–फिर भी तुम।"

"मैंने नहीं इसी ने किया है यह–डोमरहो ये तो चाहती है कि टोला मोहल्ला में आपका नाम बदनाम हो इसीलिए छोटी-छोटी बात पर कलकान शुरु कर देती है।"

"मैंने कहा है न कि माँ को समझ नहीं है तुझे तो समझ है तुम–समझा करो रात दिन का कलह ठीक नहीं होता।" आनंद ने क्रोध से झुझलाते हुए कहा।

"अरे कलह मैं नहीं आपकी माँ नाँधती हैं एक नम्बर की कलही डोमिन है नचनी–है नचनी हाथ चमका-चमका कर दरवाजे पर जा-जा कर सब को सुना कर फेटा कस–कर लड़ती है मैं–तो खुद इससे बचना चाहती हूँ गुह पर ढेला फेकने पर छिटा अपने ऊपर ही पड़ता है भकठिन कलहिन।" कहकर प्रिया ने अपने तीन साल के बेटे अभिनव को लेकर ऐंठते हुए अपने कमरे में चली गई और दरवाजा बंद कर लिया।

आनंद ने माँ से पूछा "क्या हुआ था अम्मा! क्या बात है?"

"कुछ नहीं बबुआ! मैंने इस भगोना में चाय बनाया तो किचेन में आ बड़बड़ाने लगी सब बरतन में चाय बनाकर जला-जला कर–करिया–करलौठ कर देंगी कितनी बार कहा कि एक ही बरतन टिफिन में बनाएँ लेकिन–काहे को मानेगी जो माँजता है उसको न पता चलता है मुझसे जब न रहा गया तो मैंने कहा कि मैं धो दूँगी त्तो हमक कर बोली जहाँ तहाँ घुमने छिछियाने से फुरसत होगा तब न बबुआ हो–बबुआ हमार ये घर में दाई लौड़ी के बराबर भी मोल नईखे फिर जब हम कहनी कि हम चली जाएब अपना बेटी के पास तो बोली दूर-दूर तुम को कौन बेटी पूछती है कवनो ना पूछेगी कवनो ना।" यह वह वहीं बैठकर कहकर माथे पर हाथ रख फफक-फफक कर रोने लगी।

"आज हमार ई–गति दूर-दूर बिल बिल दु-दु गो बेटा गवाँ देनी भतार चल गईले त हमार ई दुर्गति ऐ बबुआ–हो बबुआ।" कहते हुए छाती पीट-पीट कर बिलख-बिलख कर रोने लगी।


आनंद ने अपने बाँहों में समेट कर ढाढ़स–दिलासा देते हुए कहा "अम्मा! मत घबराओ शांत हो जाओ कुछ-कुछ व्यवस्था करता हूँ अम्मा करता हूँ।" माँ को उसके कमरे में ले जाकर बेड पर लेटाकर खुद ड्रॉइंग रूम में आ सोफे पर बैठ दोनों हाथों से चेहरे को ढक चिंता निमग्न हो गए।

डॉ. आनंद अपने अतीत के धुँधलकों में खो गए। उन्हें अपना बचपन याद आने लगा उनकी माँ लम्बे–काले–घुँघराले बालों वाली पतल छरहरी सूती साड़ी पहने हुए वह उसके साड़ी को पकड़े जहाँ–जहाँ–जाती वहाँ–वहाँ जाता माँ किसी से बात भी करती तो तीन साल का बालक साड़ी पकड़े रहता माँ कहती तुन जाओ मैं–चाची से बात करके आती हूँ लेकिन वह साड़ी नहीं छोड़ता

घर में दो बहनों के बाद उसका जन्म हुआ था। पूरे परिवार का दुलारा था। उसके दादा उसे सदा अपने साथ रखते वह अपनी माँ की पहली संतान था माँ के जिगर का टुकड़ा था दोनों बड़ी बहनों का प्यारा छोटा भाई था हर छोटी–छोटी बातों पर जिद कर बैठता ये नहीं खाऊँगा वह नहीं खाऊँगा माँ आस पास से माँग कर लाती जिद पूरा करती अत्यधिक प्यार दुलार ने उसे उदंड और शरारती बना दिया था जरा जरा-सी बात पर वह बहनों पर हाथ चला देता

धीरे धीरे परिवार बढ़ता गया अब परिवार पाँच बहनों और तीन भाइयों का हो चुका था साथ में दादा दादी जी भी थे। कुल बारह लोगों का परिवार। सभी बच्चें उम्र के साथ बढ़ने वाले सबके पढ़ाई लिखाई का खर्च आमदनी के नाम पर पिता जी की पाँच छ: महीने की सुगर फैक्ट्री की प्राइवेट नौकरी। खेती भी ज्यादा नहीं थी क्योंकि तब तक जमीन का बँटवारा हो गया था और उसके बाबा के हिस्से में दो बिघा जमीन ही आई थी। खेती से मुश्किल से चार पाँच महीनें के लिए अन्न हो पाता था। ये तो अच्छा था कि पिताजी के भाइयों के बीच आपस में जमीन का बँटवारा नहीं हुआ था अन्यथा

और मुश्किल स्थिति हो जाती। माँ इन परिस्थितियों में घर चला रही थी। सुबह से शाम तक सारा काम करती बच्चों को तैयार कर स्कूल भेजना दादा दादी जी का सेवा टहल खेती गृहस्थी के पचास काम हुआ करते माँ कभी थकती नहीं।


एक दिन दोपहर में वह अपने मित्र अखिलेश साह के यहाँ पढ़ने गया था। पाँच बजे शाम को जब घर आया तो पता चला कि नौ साल के छोटे भाई सुजित का हाथ खेलते समय सहजन के पेड़ से गिरने से टूट गया है। पिता जी पांडिचेरी अपने नौकरी पर थे। वहाँ वे सुगर फैक्ट्री में पैनमैन का काम करते थे। जब तक गन्ना की पैदावार होती तब तक फैक्ट्री चलती थी। लगभग छ: महीनें काम होता, छ: महीनें घर पर रहना होता। वह अपने बाबा के साथ सुजित को लेकर छपरा सदर अस्पताल गया। वहाँ प्लास्टर चढ़ा था। सही ढंग से प्लास्टर नहीं हुआ। हाथ टेढ़ा हो गया था। पिता जी जब आए तो सबसे छोटे वाले चाचा जो बेगुसराय की जानी–मानी डॉक्टर प्रमिला श्रीवास्तव के कंपाउंडर थे के यहाँ ले गए। कुछ दिन तक पैराफिन पिघला कर चढ़ाया गया और एक्सरसाइज कराया गया। कुछ लाभ नहीं हुआ। वही एक नौसिखिया डॉक्टर बोला कि नस में इंजेक्शन देने से नस चालू हो जायेगा। हाथ ठीक हो जायेगा। इंजेक्शन दिया गया तो पूरे शरीर में प्वाइजन फैल गया। भाई का लाश भी वही मोकामा घाट पर दफना दिया गया था।

माँ को जीवन में पहली बार इतनी बड़ी चोट लगी थी। अब उसके दो बेटे ही बच गए थे। बाबा ओझाओं ने इस अवसर का लाभ उठाया था। माँ को भरमा कर बहुत ठगा था इन बाबाओं और ओझाओं ने। समय बीतता गया धीरे-धीरे माँ घर परिवार में रम गई। तब तक मेरी नौकरी भारतीय वायु सेना में लग चुकी थी। तीन बहनों की शादियाँ भी हो गई थी। मेरा छोटा भाई नीरज की बी. ए. फाइनल की परीक्षा हो गई थी। गाँव के कुछ लड़के करनाल में डाइंग मास्टर का काम करते थे। अच्छी आमदनी थी उनकी। वह उनके साथ डाइंग मास्टर का काम सीखने के लिए साथ हो लिया। लेकिन किसको पता था कि उसका करनाल जाना हम सब को सदा के लिए छोड़ जाना होगा। मेरी तब तक शादी भी

हो गई थी। कुछ दिन पहले ही मेरी पोस्टिंग जोधपुर में हुई थी। रोड एक्सीडेंट का फोन आया था मेरे पास। फिर पता चला कि मेरा भाई नहीं रहा। भाई की मृत्यु की खबर ने मुझे इतना विह्वल व्यथित कर दिया कि मैं अर्ध विक्षिप्त की अवस्था में पहुँच गया था। उस समय पत्नी प्रिया ने स्थिति को यदि न संभाला होता तो शायद मैं इस सदमे से उबर नहीं पाता। पिता जी उस समय रिटायर्ड हो गए थे। उन्हें कालाजार हो गया था। यह हृदयविदारक सूचना जब घर पहुँची तो माँ कि स्थिति का वर्णन करना संभव नहीं था। वह रोते-रोते धम्म से जमीन पर गिर पड़ती। छाती को पीट-पीट कर लहूलुहान कर चुकी थी।

पिताजी सदमे से उबर नहीं पा रहे थे। लगता था कि पुत्रशोक इनके मृत्यु का कारण बन जायेगा। बड़ी मुश्किल से उनको बचाया गया। मैं करनाल में ही उसका अंतिम संस्कार कर जब घर आया तो माँ का विलाप सुन मैं भी अधीर की भाँति रोने लगा था। माँ ने मुझे बाँहों में भर लिया और प्रलाप करते हुए बोली "बबुआ हो बबुआ तोहार दहिना बाँहवाँ टूट गएल हो बबुआ" वह मुर्छित हो कर गिर पड़ी थी।

माँ के मुसीबतों का अंत का यही नहीं हुआ। भाई के श्राद्ध कर्म के बाद पिता जी मेरे साथ जोधपुर आए थे। वहाँ मैंने मिलीटरी हॉस्पीटल, जोधपुर में उनको हुए कालाजार का विधिवत इलाज करवाया था। दो महीने बाद ही वे घर जाने की जिद करने लगे। एक मित्र जो कानपुर जा रहे थे उनके साथ मैंने उन्हें घर भेज दिया। ट्रेन पर बिठा कर मैं क़्वाटर आया था। पिता जी यह मेरा अंतिम दर्शन था। एक सप्ताह बाद घर से खबर आई थी कि पिता जी पटना पी. एम. सी. एच. में भर्ती है। सिवियर हार्ट अटैक हुआ था। मुझे विश्वास था कि पिताजी को मैं बचा लूँगा लेकिन मेरे पहुँचने के पहले ही पिता जी हम सब को छोड़कर जा चुके थे। माँ के जीवन का यह तीसरा और सबसे ज्यादा पीड़ादायक आघात था। मैं घर पहुँचा तो पिता जी के शव को बर्फ में रखा पाया था। माँ मुझसे लिपटकर बिलख-बिलख कर रोने लगी। वह बार-बार मुझसे कह रही थी " बबुआ हो बबुआ तू टूअर हो गईल हो बबुआ। वह पिता जी के लाश पर दहाड़ मार कर गिर पड़ी थी।

अब माँ के जीवन का एकमात्र सहारा मैं ही था। मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि स्त्री का हृदय जितना सहनशील होता है। शायद यहीं कारण है कि स्त्री की तुलना धरती से की जाती है। हर तरह के मुसिबतों को सहकर भी अपने संतान के लिए मंगल कामना स्त्री ही कर सकती है एक माँ ही कर सकती है। मेरे ऊपर जिम्मेवारियों का पहाड़ आ पड़ा था लेकिन माँ हमेशा कहती " तुम चिंता मत करो–बेटा मैं हूँ ना।

आज उस माँ की यह दयनीय दशा मेरे ही घर में अपने बेटे के घर में मेरे ही सामने मुझे याद आता है डेढ़ साल पहले की एक घटना प्रिया और माँ के बीच वाकयुद्ध अपने चरम पर था। मुझसे नहीं रहा गया तो मैं प्रिया को शांत करने के लिए बलप्रयोग पर उतर आया था। फिर क्या था उसने भी चप्पल चला दिया था माँ पर मैं तो सन्न रह गया था माँ का इतना अपमान प्रिया स्वयं एक स्त्री होकर अपने माँ सासू माँ का ऐसा अपमान इस प्रकार दुर्व्यवहार करेगी मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था। सब सहती रहती थी। मैं भी परिवार चलाने के नाम पर मूक बना हुआ था। पिताजी के मरने के बादे मैंने माँ के चेहरे पर कभी खुशी नहीं देखी थी मुझे अपना बचपन याद आता है होली लम्बा चौड़ा आँगन माँ कीचड़–काँदो और रंग अबीर गुलाल से सनी हुई अपने देवरों के साथ उल्लास पूर्वक होली खेल रही है–दिवाली में टोले मुह्हले के लोगों को गुजिया मिठाई दही बाड़ा परोस रही है दुर्गापूजा के समय नवरात्रि का आयोजन का धुमधाम थाली में पुरियाँ अंकुरित चना और मिठाइयाँ रख माँ भक्तिभाव में डूबी मैया का गीत गाते पूजन करने जा रही है सारे-सारे दृश्य मेरे आँखों के सामने नाँचने लगते हैं वहीं अब एक मायूसी खामोशी हमेशा चेहरे पर छायी रहती है।


मैं तीसरे दिन माँ को लेकर अपने गाँव आया था। वहाँ दो दिन रूक कर वापस अम्बिकापुर आ गया था। मैं हर महीने 2000 2500 रुपये भेजकर अपने आप को जिम्मेवारियों से मुक्त कर लेता था। लेकिन माँ का दर्द पीड़ा उसे भीतर ही भीतर खाये जा रहा था। मेरी सबसे छोटी बहन कल्पना जिसकी शादी माँ के देखे परखे लड़के से मैंने की थी,

वह शराबी निकला था। बहन का सारा गहना बेचकर पी गया। माँ उसके चिंता में घुलती रहती। मेरी बहन अब मेरे घर आ कर रहने लगी थी। समय बीतते गया। मैं माँ से दो तीन दिन पर बात कर लेता था। हर महीने रुपये भेज देता था। माँ से ही सभी बहनों का हाल चाल पता चल जाता था। उससे बात करने पर लगता कि वह मेरे पास आना चाहती है लेकिन प्रिया के कारण अपने आप को जबरदस्ती रोक लेती है। उसका मन हमेशा मुझमें ही लगा रहता। प्रणाम करने पर ढेरों आशीस देती। लेकिन यहाँ प्रिया के मन में उसके प्रति विष बेल बढ़ता ही जा रहा था। मेरा बेटा अभिनव भी अपने माँ के सिखाए शब्दों से दादी को सम्बोधित करता "पगली दादी कुत्ती दादी दुष्ट दादी।" मैं उसे डाँटता तो मुझे भी वह बुरा दुष्ट गंदा बोलता। कहीं न कहीं माँ से आया विष उसमें फल रहा था।

एक दिन कॉलेज से आया ही था कि प्रिया ने कहा "बड़ी दीदी का फोन आया था, बता रही थींकि आपकी माँ ने गाँव का सब खेत बेच दिया और रुपयें पियक्कड़ दामाद को दे दिया।"

"घर के जमीन का लफड़ा चल रहा था चलो अच्छा हुआ कि न जमीन बेच दिया नहीं तो जमीन किए चक्कर में मर मुकदमा करना लड़ना पड़ता।" मैंने ठंढ़ी साँस लेते हुए कहा।

"लेकिन ये तो देखिए बाप दादे की सम्पत्ति पर आने वाली पीढ़ियों का हक होता है हमारा हक है हमारा पैसा है और दे दिया पियक्कड़ दामाद को वाह भाई–वाह गजब।" प्रिया का चेहरा रोष से तमतमाया हुआ था।

तभी बीच में बेटा अभिनव बोल उठा "दुष्ट दादी पगली दादी कुत्ती दादी मैं उसे आने नहीं दूँगा।"

मैंने कहा "चुप रहो तुम लोग पिताजी की सम्पत्ति थी, उसको जो मन में आए करे।"

लेकिन इस बात का मेरे मन में भी कहीं न कहीं पहुँचा था। माँ को मुझे बताना चाहिए था पैसा मुझे देना चाहिए था खैर।


वक्त गुजरता गया। जनवरी का महीना था। ठण्ढ अपने चरम पर था। एक दिन कल्पना का फोन आया "माँ की स्थिति बहुत खराब है। जल्दी आओ।"

मैं प्रिया और अभिनव के साथ घर पहुँचा। प्रिया के मन का रोष अभी भी कम नहीं हुआ था। घर पहुँचने पर मैंने देखा कि माँ बिछवन पर मरणासन्न पड़ी है। जाते ही कल्पना मुझे पकड़कर रोने लगी। मैंने उसे ढाढ़स दिया और माँ का सिर गोद में लेकर बैठ गया। टोले मुहल्ले की महिलायें आई हुई थीं। सब कहने लगी "तुम्हारा ही नाम रटती थी बार-बार बबुआ बबुआ करती थी तुम आ गए हो अपने हाथ से गंगाजल पिला दो।"

मैं माँ के चेहरे को ध्यान से देख रहा था उसका चेहरा झुर्रियों का झोला बन चुका था। शरीर में मात्र हड्डी चमड़ी ही बचा था। आँखें बंद थी। कभी-कभी पलकों में हलचल–सी होती। शायद माँ आँखें खोलकर मुझे देखना चाहती थी। उसने एक बार आँखें खोली और धीरे से कहा "बबुआ।"

मैंने कहा "हाँ अम्मा मैं तुम्हारा बबुआ।"

उसने हाथ से कुछ पिलाने का इशारा किया। मैंने उसके मुँह में गंगाजल डाल दिया। एक हिचकी आई और वह एकदम शांत हो गई।

माँ के श्राद्ध के बाद भाई का भोज होना था। सभी रिश्तेदार मौजुद थे। सभी बहनें भी आई थीं। कल परसो में सब चली जायेंगी। सबने कहा कि माँ का बक्सा खोला जाए, जिसको वह हमेशा बंद रखती थी। मँझली दीदी ने बक्सा खोला बक्सा में साड़ी साया ब्लाऊज का एक सेट था जो कि बहुत पुराना लग रहा था। शायद माँ के शादी का जोड़ा था। साथ में कंधावर भी था। शायद पिता जी ने शादी के समय कंधे पर रखा होगा। इन सबके बीच एक फोटो मिला था जिसमें मैं नंगा बैठा था और पीछे से पिता जी पकड़े हुए थे। बक्से के एक कोने में पुरानी लाल रंग की गांधी डायरी पड़ी थी। डायरी को खोला गया। उसके अंदर पड़ोस के गाँव तरैया के स्टेट बैंक का पासबुक था जिसके बीच में एक फिक्स डिपोजिट का कागज था फिक्स एमाउण्ट पाँच लाख नोमिनी आनंद सहय। एक कोने में पुराने कपड़े का एक गोला पड़ा था। शायद कोई

चीज हिफाजत के लिए लपेट कर रखी हुई हो। कपड़े को-को हटाया गया। उसमें से एक डिब्बा था जिसमे पुराने ढंग का सोने का भारी भरकम माँगटीका था जो तीन तोले से ज्यादा ही वजन का था। उसमे एक धागा बँधा था जिसमें कागज लगा हुआ था जिसपर लिखा था बहू के लिए। लिखावट माँ की थी।