माँ / चंद्र रेखा ढडवाल

Gadya Kosh से
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“जानती हो मां, अपने घर को लेकर मुझे क्या लगता है ?” “क्या?” “लगता है, यह ईंट पत्थर से नहीं बना है।” “अब इतना भी छोटा नहीं तू ! देखता नहीं आस पास क्या हो रहा है ? कैसे खड़ी हो रही है इमारतें।“ ”मैं अपने घर की बात कर रहा हूं। जो इस से पहले कुछ ओर था ही नहीं। मेरी कल्पना में ...।“

”बावला हो गया है। अनोखा तू और अनोखी तेरी कल्पना। जो सोचना है, सोच।“ बीरेन ने कुछ सोचा कि नहीं, पर वह सोचने लगी थी। अतीत की धुन्द में कुछ टटोलती और कुछ पा जाती आंखे उसने मूंद ली।... काम से लौट कर देर रात तक, कभी-कभी घोड़ों व खच्चरों द्वारा ढोया गया सामान गिनते-गिनवाते रहते पति। सुबह काम पर निकलने से पहले कुछ मिस्त्री-मजदूरों को, पर उससे भी अधिक पत्नि को समझा जाते। उन दिनों पाँव से नहीं, जैसे परों से चलती थी वह। फुरसत में ही नहीं, चौका बरतन निब टाने के दौरान भी आ खड़ी होती। रेत-पत्थर को दीवार होते देखती। हर बार पहले से थोड़ा बड़ा आकार रोज़मर्रा की ऊब और थकान को छा लेता। सांझ के समय चाय पीते-पिलाते, पूरा का पूरा दिन पति के वही-खाते में उडे़ल देती। किसी किसी दिन बहुत-बहुत खुष तो किसी रोज़ नाराज़ हो जाते वह। हर औसतन पति की तरह खुष हो पाने का श्रेय स्वयं लेकर नाज़गी के लिए कटघरे में खड़ा कर देते उसी का। छोटे बेटे बीरेन के होष संभालने से पहले ही मकान रसा-बसा, सुन्दर सा घर हो चुका था। षायद इसीलिए अजीब रूमानी ढंग से सोचता है वह इसे लेकर। बड़े ने बनने की प्रक्रिया के क्षणों में उपजा सब कुछ देखा और महसूस किया है। सदा से मेहनत करने वालों के समर्थन में खड़े होन वाले उसके पिता उन दिनों उनकी सुस्ती और मक्कारी की बात करते करते गालियाँ देने लगते थे। फेरी वाले से दो सूती साड़ियाँ खरीद लेने पर इतना बिगड़े कि वह घबराई सी पड़ोस में उन्हें बेचने चली गई थी।

”मां, जिन्दगी में और सब कर लूंगा पर मकान नहीं बनाऊंगा।“ बड़े ने एक नहीं कई बार कहा और जितनी बार कहा, बेटे को आलसी कहते हुए हंस कर लताड़ दिया उसने। ”अच्छा है, नहीं बनायेगां अपनी जरूरत के लिए ठीक से संभाल करेगा फिर इसी घर की।“ पति के मुख से यह वाक्य और षब्द-षब्द से झरती आष्वस्ति उसे हैरान कर गई। इतना और इस तरह रचा-रमा है रेत-पत्थर का यह ढांचा उनके मन में कि अपने बाद भी इसकी इतनी चिन्ता। ... कलकत्ता में नौकरी कर रहे बड़े बेटे ने वहीं की लड़की से षादी करने की इच्छा ज़ाहिर की तो उसे ज़रा भी बुरा नहीं लगा था। बचपन से ही इस दूरस्थ षहर के प्रति आकर्शण रहा है उसके मन में। दसवीं पास करते-करते, कॉपी-किताबों में छुपा-छुपा कर लगभग सारा का सारा षरत्-साहित्य पढ़ लिया था। षरत-चन्द्र की नायिकाओं की मेधा व उनका वाक-चातुर्य उसे प्रभावित कर गया था इतना कि वह अपनी बहू को लेकर ज़्यादा ही उत्साहित हो गई। ...बहु निकली भी वैसी ही। सुन्दर सलोनी ही नहीं स्नेही भी। छुट्टियों में आती तो घर-भर में चहकती फिरती। खूब बातें करती मात्र बातें नहीं चिन्ता व सरोकार भी जताती। कभी बाबूजी की सेहत को लेकर तो कभी दीवारों को सालती सीलन को लेकर ...।

पर जिस चिट्ठी में फ्लैट ख़रीद लेने की ख़बर बड़े बेटे ने दी उसे ऊंचे-ऊंचे पढ़े बगैर (जैसा कि वह हर बार करते थे) चिट्ठी पति ने उसके हाथ में रखी और भीतर चले गये। उसने बेषक सारी औपचारिकताएं निभाईं। मन्दिर गई, मिठाई खरीद कर लाई। पास-पड़ोस के घरों में बाँटी। पर जब निढाल सी बरामदे में पड़ी आराम-कुर्सी पर आकर बैठी तो खुष दिखने के उपक्रम के बावजूद उसके अन्दर के सच्च पर वीरेन ने अंगुली रख दी - “तुम्हें बुरा लग रहा है मां, पर क्यों ? हमसे अलग कहां हो रहा है भाई। वह यहां आता जाता रहेगा। तुम्हीं सोचो, सालों वहां नौकरी करनी है। क्या किराये के मकानों में ही रहता रहेगा ?”

“और यहां जो हमने अपना सब लगा दिया। इस इतने बड़े ढांचे की देखभाल कौन ...।”

बीच में ही बोल पड़ा था बीरेन - “मैं जो हूं।” कानों में आज भी बताषा घुलता है। इतना मीठा बोला था। “खाना खा लो मां, कब से पुकार रही है सुम्मी। पिता जी चादर लपेटे सोये पड़े हैं और तुम बैठे-बैठे सपने देख रही हो।” आवाज़ में ऐसी बेलौस तल्ख़ी थी कि वह एक बारगी उठ कर खड़ी हो गई। फ़र्ष पर पैर फोड़-फोड़ कर रखते बेटे के पीछे चलते उसने चाहा कि वह आंखें मूंद ले और वहीं जा पहुंचे जहां अभी-अभी यह कह रहा था - “मैं जो हूं।” साथ होने की न जाने ऐसी कितनी-कितनी और किस किसकी आष्वस्तियाँ संजो रखी हैं उसने। फिर भी नितान्त अकेली होती जा रही है वह इन दिनों। बहु-बेटे के संसार का प्रवेष-द्वार अत्यन्त संकरा होता जा रहा है और पति ने अचानक ही ऐसी अजीब रूखी सी तटस्थता दिखानी षुरू कर दी है आजकल, कि वह मन की बात उनसे छेड़ ही नहीं पाती। किसी खास समस्या या विशय पर ही नहीं, धीरे-धीरे वह हर बात पर चुप होते जा रहे हैं। पर कौन जानता था कि बाहिर से ऐसा षान्त व निर्विकार सा दिखता आदमी भीतर किस भयानक झंझावत् से जूझ रहा था। पहला ही हृदयाघात आखिरी भी हो गया। पति नहीं रहे तो उसमें भी नहीं रहा हौंसला जीने का। अपनों के सुख के लिए ईष्वर के प्रति निरन्तर झुकी हुई एक प्रार्थना हो गई मात्र। बेटों के फलते-फूलते परिवारों के लिए दुआएं रोपती, दुआएं बटोरती और दुआएं बुदबुदाती, हस्ताक्षेप व सरोकार से परे होती जा रही है। पर टूटा हुआ काँच या उखड़ता फर्ष देखने पर झुंझलाती है अब भी। घर की हालत को लेकर दूसरे-चौथे दिन धीमी व अस्पश्ट बड़बड़ाहट थमी नहीं है अभी भी। बीरेन दिखा तो खीझ छुपाने की चेश्टा में अतिरिक्त मुनहार भरे षब्दों में बोली - “देख तो बेटा बड़े की तरफ का दरवाज़ा मिट्टी कर दिया सींक ने।”

“तो।” बीरेन का उत्तर अब इससे ज़्यादा होता ही नहीं। दफ्तर से लौट कर उसे चाहिये गर्म खाना व भरपूर आराम। वह स्वजातीय बहु की ओर पलटी - “दरवाजा तो दरवाजा बड़े के गुसलखाने का फ़र्ष भी बुरी तरह उखड़ गया है बहु।”

“मां, भाई साहिब ने अपना हिस्सा ले लिया है। अब वह संभालेंगे। आप क्यों चिन्ता करती हैं।” बच्चे को पुचकारने जैसे स्वर में कहा बहु ने। वह चुप रह गई तो समझी कि बात असर कर रही है।

“मां, अब यह उम्र घर परिवार से मोह-ममता की नहीं है। परलोक की सुधि लीजिये।”

उपेक्षा और अपमान के विशधर एक साथ डसने लगे तो अपने को बरबस समेट कर ठाकुर जी के सामने आ बैठी वह। धूप-दीप इस मनोयोग से करने लगीं कि बहु बीरेन को खींच लाई यह सब दिखाने के लिए बहु का विजयोन्माद व बेटे की आष्वस्त मुस्कान वह बन्द आंखों से भी भांप सकी। दीवार से पीठ सटा कर घण्टों बैठी रही पर ठाकुर जी का ओर-छोर भी उसके मन में नहीं था। वह तो निषब्द दोहरा रही थी स्वयं से रत्ती-रत्ती विस्तार कि किस खिड़की में कैल की लकड़ी लगी है और किस छत के लिए उसके पति अंग्रेज़ों द्वारा नीलाम की गई बैरकों की मजबूत लकड़ी खरीद कर लाये थे। कौन से बेटे की अंगुली पकड़ कर वह देखती थी कौन से कमरे में डलता फ़र्ष। दूसरे तल्ले के कमरों में बनी अल्मारियों पर नक्काषी करवाते, कितने में बेची थी पति ने पिता से मिली ज़मीन और कब निकाल कर दिये थे उसके मायके से मिले जड़ाऊ कंगन। ... एकाएक आंखे खोल दी उसने। बाहें भरी-भरी थीं। साल भर बाद ही लगभग वैसे के वैसे कंगन बनवा दिये थे उन्होंने। बरसाती बिजली की तरह कुछ कौंध गया मन-चेतना में। कंगन उतार कर सूती दुपट्टे के छोर में बाँध लिए। पल भर बाद गाँठ खोली और गले में पड़ी, भारी मटर माला भी उसी में डाल दी। बरामदे के ग़मलों में पानी डालती बहू को अनदेखा करती वह बाहिर निकल गई। सामने के घर में मित्तल को गहने दिये और अभी के अभी सराफा बाज़ार में बेच आने को कहा। मित्तल की पत्नी हैरान सी देखती रह गई फिर कंधों से घेर कर भीतर ले गई। चाय बना लाने के लिए उठी तो पति से कुछ खुसर-पुसर भी कर गई। पल भर बाद वह भी कमरे से निकल गया ...। चाय का खाली गिलास तत्परता से उठ कर उसके हाथों से थाम लिया मित्तल की पत्नी ने तो भर-आई वह। बड़ी बहू रखती है ऐसा ध्यान। छोटी तो ...। मित्तल ने आकर बिना उससे नज़रे मिलाए गहनों की पोटली उसके सामने रखी तिपाई पर धर दी और कमरे से निकल गया। बाहिर से पत्नी को पुकारा, जो उसकी पुकार की प्रतीक्षा में ही थी जैसे। क्षण भर बाद ही बीरेन और बहू उसके सामने थे। “पैसों की ऐसी क्या ज़रूरत पड़ गई जो गहने बेचने की नौबत आ पड़ी।” बिना किसी भूमिका के बीरेन, धीमी परन्तु रूखी आवाज़ में बोला। उसे अनदेखा करते हुए मां ने ऊपर से नीचे तक बहू को घूरा और देखते हुए बोली - “घर की मुरम्मत करवानी है।” बहू नज़रे झेल नहीं पाई। सरक कर पति के पीछे हो गई। दबे और झिझकते स्वर में बीरेन ने कहा - “मुझे कहती या भाई को चिट्ठी लिखती, गहने क्यों ? “क्यों कहती तुम्हें और क्यों किसी को चिट्ठी लिखती ? गहने मेरे हैं और घर भी मेरा ...।” तड़प कर चुप हो गई। लगा जैसे ‘मेरा’ नहीं कह रही, तालू के भीतर तक स्वयं को हलाल कर रही है और अब अगर बोली तो षब्द-षब्द से लहू झरेगा। नहीं, कुछ नहीं कहना है किसी से। एकाएक बिना घुटनों पर हाथ धरे उठी। गहनों की पोटली पल्लू में सहेजी और कमरे से बाहिर निकल गई। “मां जी ज़रा संभाल कर ...“कहती बहू उनके पीछे हो गई पर बेटे से यह नहीं हो पाया। बरामदे में खड़े मित्तल दम्पत्ति के सामने पहुंच कर खिसियाया सा खड़ा रह गया बस ...।