माँ / पद्मजा शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'अरे तू खुशकिस्मत है। तेरी माँ है। माँ की डांट-फटकार, घुड़की सब सुन ले। उसमें प्यार छिपा होता है। मेरी माँ दिन भर टोकती रहती थी। बेटा आज सर्दी है, बाहर मत निकलना। गर्म कपड़े और पहन। गर्मी है लू लग जाएगी। बरसात में मत नहा। बीमार हो जाएगा। बाहर का खाना मत खा। पेट खराब हो जाएगा। दोस्तों से लड़ाई मत कर। बड़ों की इज्जत कर। पूरी बात सुनकर जवाब दे। धैर्य मत खो। ना ही नहीं, कभी-कभी हाँ भी बोल। ज़रा जरा-सी बात पर चिढ़ मत। खुश रह। खूब खेल पर एग्जाम के समय पढ़ाई का भी ध्यान रख। इतना भी मत खेल कि थक के चूर हो जाए और स्कूल का होमवर्क अधूरा रह जाए. टी.वी. कम देख। कंप्यूटर कुछ कम कर। वीडियो गेम ज़्यादा मत खेल। आँखें खराब हो जाएँगी। नींद पूरी ले चिड़चिड़ा हो रहा है।'

'वो टोकती रहती थीं। मैं एक नहीं सुनता था उनकी। आज माँ नहीं हैं। थीं तब मैं उनकी सुनता नहीं था। समझता नहीं था। अब समझता हूँ पर समझाने वाली नहीं रही, दोस्त। माँ बहुत याद आती है। तू एक काम कर। आज जब तेरी माँ तुझे डांटें तो उनके गले में बाँहें डालकर कहना-' ठीक है माँ। जैसे आप कहेंगी वैसे ही करूंगा। 'देखना उस समय माँ के हृदय और आँखों के समन्दर में डूबकर तू जिस शांति का अनुभव करेगा वह कहीं और कभी नहीं मिल सकती।'

दोस्त की माँ ने ये सब सुन लिया। वह दोनों बच्चों को बांहों में भरकर ऐसे चूम रही थी जैसे सालों के बिछड़े दो बेटे आज मिले हों। उसकी आँखों से गंगा जमना बह रही थी। वह जैसे आंसुओं के माध्यम से आंसू ही कह रही थी।