माँ / प्रेम गुप्ता 'मानी'
रात का गहरा काला अंधेरा आकाश से उतरकर पूरी तरह नीचे आ गया था, पर तेज रफ्तार से अपने गंतव्य की ओर जा रही ट्रेन के यात्री थे कि चारो ओर से बेखबर हो सुख की नींद ले रहे थे।
अचानक "धाप" की आवाज़ हुई तो सब हड़बड़ाकर उठ बैठे। आसपास आँखें फाड़कर देखा, आवाज़ कहाँ से आई? कोई चोर-डकैत तो नहीं आ गया? आशंका से सारी बत्तियाँ जल गई तो सभी की आँखें भी जैसे गुस्से से जल उठी।
ऊपर की बर्थ से एक नन्हा-सा बच्चा पता नहीं कैसे नींद के झोंके में नीचे गिर गया था। उसका कोमल शरीर फ़र्श से टकराया, तभी "धाप" की आवाज़ हुई थी। पता नही चोट लगने से या सदमे से बच्चा एकदम शान्त हो गया था पर नीचे चारो ओर शोर मच गया था, "अरे देखो, मर तो नहीं गया?"
"अरे, कैसी बेवकूफ औरत है...बच्चे को पीछे सुलाना चाहिए और यह है कि..."
"गंवार औरत...पालना नहीं आता था तो पैदा क्यों कर लिया?"
"क्यों री करमजली...बेहोशी में थी क्या...? नन्हे को कुछ हो गया तो यहीं चीर कर फेंक दूँगा...।"
चारो तरफ शोर का एक अजीब-सा गुबार उठ रहा था पर ऊपर की बर्थ पर अवाक, गुमसुम-सी बैठी बेहद काली, पर मासूम-सी चेहरे वाली षोडसी अपनी गँवई कुर्ती को बार-बार उठाकर बच्चे का सिर सहलाती हुई उसे दूध पिलाने की कोशिश में जुटी थी। इसी कोशिश में दूध की हल्की-सी धार फूटी तो बच्चा कुनमुनाया।
बच्चे की कुनमुनाहट के साथ षोडसी माँ भी कुनमुनाई, "मेरो लाल ज़िन्दो है...।"
थोड़ी देर बाद बच्चा छाती से लगकर दूध पीने लगा तो सबकी नज़र बचाकर उसने अपनी गीली आँखें पोंछ ली...।