माँ / भैरवप्रसाद गुप्त
आखिर बड़े भैया चल बसे। माँ की कोई कोशिश उन्हें बचा न सकी। मृत्यु के सामने किसकी कोशिश कारगर हुई है, जो माँ की होती? किन्तु माँ को जानने वालों का कहना है, कि यदि प्रत्यक्ष रूप से मृत्यु माँ से लडक़र उनके आँचल के साये में पड़े बेटे के प्राण अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी लेने का प्रयत्न करती, तो माँ के सामने उसे मुँह की खानी पड़ती। लोगों की यह धारणा ऐसे ही नहीं बनी थी। इसका एक ज़बरदस्त कारण था! यों तो कोई भी माँ अपने बेटे के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती है, किन्तु बड़े भैया की माँ ने अपने बेटे के लिए जो किया, वह कितनी माँएँ कर सकती हैं, कहना मुश्किल है।
बड़े भैया तीन भाई थे। पिता साधारण रोज़गारी थे और माँ साधारण स्त्री थीं। किसी में किसी तरह की कोई असाधारणता या विशेषता न थी। माता-पिता अपने बेटों को क्रमश: बड़े भैया, मँझले भैया और छोटे भैया कहकर पुकारते थे। यों उनके एक-एक नाम और थे, किन्तु माता-पिता के दिये प्यार के नामों से ही इन्हें सारा गाँव पुकारता था।
कुछ साधारण पढऩे-लिखने के बाद ही बड़े भैया पिता के रोज़गार में सहायता देने लगे। बड़े बेटे होने के कारण पैतृक व्यवसाय का भार उन्हीं के कन्धों पर पडऩे वाला था, इसलिए पिता ने जल्द-से-जल्द उन्हें काम पर लगा देना ही उचित समझा। बड़े भैया भी जी-जान से काम करने लगे। चारों ओर से अपने ख्यालों को समेटकर, वह अपने व्यवसाय में ऐसे जुट गये, कि बस उसी के होकर रह गये। उन्हीं के अध्यवसाय के कारण घर की आमदनी भी बढ़ गयी, जिससे शेष दोनों भाइयों को खूब पढ़ाने का हौसला पिता को हुआ। बड़े भैया ने भी भाइयों को पढ़ाने में खूब जोश दिखाया। अब वह अपनी जि़म्मेदारी भी खूब समझने लगे थे। अधिक-से अधिक कमाने की चेष्टा में ही वह रात-दिन लगे रहते थे, ताकि भाइयों की पढ़ाई में किसी प्रकार की अड़चन न पड़े। एक तरह से यही उनके जीवन का ध्येय बन गया।
सच कहा जाए, तो पढऩे-लिखने का दिमाग़ छोटे भैया को ही मिला था। इसका सबसे बड़ा सबूत यह था, कि उम्र में मँझले भैया से तीन साल छोटे होने पर भी वह मँझले भैया के दर्जे में ही पढ़ता था। हर विषय में वह इतना तेज़ था कि अध्यापक उसकी तारीफ़ करते न थकते थे। मँझले भैया के लिए यह लज्जा का विषय ही हो सकता था। और कभी-कभी तो अध्यापक और दूसरे लोग भी उन्हें छोटे भैया के सामने ही लज्जित करने का प्रयत्न करते थे। पर मँझले भैया इसे कभी बुरा न मानते थे। कोशिश कर अपने को आगे बढ़ाने का प्रयत्न वह अवश्य करते थे, किन्तु वह अपने ज़ेहन के बोदेपन से मजबूर थे। अक्सर उन्हें अपने छोटे भैया से भी पढऩे में सहायता लेनी पड़ती थी। ऐसा करते वक्त उनके मन में क्या उठता था, यह तो नहीं मालूम, किन्तु इतना तो अवश्य है, कि धीरे-धीरे उनका मन पढऩे-लिखने से उचटने लगा। सचमुच उनके लिए यह एक बड़ी विकट परिस्थिति थी। यों, वे छोटे भैया को घर के सब लोगों की ही तरह खूब मानते थे, प्यार करते थे, किन्तु रोज़-रोज़ अपने छोटे भाई के सामने नीचा देखना उन्हें बुरी तरह खलता न हो, यह कैसे कहा जा सकता है? कई बार दबे-दबे उन्होंने पिताजी और बड़े भैया से कहा भी, कि उन्हें भी घर के कारोबार में ही लगा लिया जाए, पर उन्होंने यही कहकर हर बार टाल दिया, कि कम-से-कम तुम हाई स्कूल तो पास कर लो। विवश होकर उन्हें अपनी पढ़ाई जारी रखनी पड़ी। यों साथ-साथ दो भाइयों के पढऩे से एक फ़ायदा यह भी था कि एक की फ़ीस माफ़ थी। पिताजी सोचते थे कि एक ही फ़ीस से दोनों पढ़ते हैं, फिर क्यों एक की पढ़ाई छुड़ा दी जाए।
यों, मँझले भैया की पढ़ाई का क्रम तो जारी रहा, पर वह हरदम इसी कोशिश में रहते, कि उनकी पढ़ाई किसी-न-किसी तरह छूट जाए और वह रोज़-रोज़ की एक जिल्लत से छुटकारा पा जाएँ।
आखिर बिल्ली के भाग से छींका टूटा। देश में असहयोग का आन्दोलन छिड़ा। उस समय दोनों भाई हाई स्कूल के आठवें दर्जे में पढ़ रहे थे। उस समय मँझले भैया की उम्र सोलह साल और छोटे की उम्र तेरह साल थी। असहयोग का आन्दोलन जब चला, तो स्कूल के विद्यार्थियों ने भी एक सभा की। बड़े-बड़े लडक़ों की एक समिति पिकेटिंग की योजना को कार्यान्वित करने के लिए बनायी गयी। उस समिति में मँझले भैया भी चुन लिये गये। समिति के सदस्य पिकेटिंग करने के लिए स्कूलों के विद्यार्थियों की सूची बनाने लगे। छोटे भैया भी इस दल में शामिल होना चाहता था, किन्तु मँझले भैया ने उसे रोक दिया। पढऩे-लिखने में वह ज़रूर मँझले भैया से तेज़ था, किन्तु जहाँ तक समझ और दुनियादारी का सम्बन्ध है, मँझले भैया उससे कहीं आगे थे। उत्साही विद्यार्थियों ने नाम लिखाने में खूब जोश दिखाया। सूची तैयारी हो जाने पर दस-दस विद्यार्थियों का जत्था समिति के एक-एक सदस्य के साथ पिकेटिंग करने के लिए बना दिया गया। चूँकि इस काम में मँझले भैया ने सबसे अधिक उत्साह और तत्परता दिखाई थी, इसलिए यह तय हुआ कि पिकेटिंग करने के लिए उन्हीं का जत्था सबसे पहले जाएगा।
दूसरे दिन नारे लगाते हुए सैकड़ों विद्यार्थियों से घिरे हुए, फूलों की मालाओं से लदे, अपने जत्थे के आगे-आगे शहर की विदेशी कपड़े बेचने वाली एक बड़ी दूकान की ओर पिकेटिंग करने मँझले भैया चले, तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। नायक बनने से भी अधिक खुशी उन्हें इस बात की थी कि आज से उन्हें उस पढ़ाई-लिखाई से सदा के लिए मुक्ति मिल जाएगी, जो उनके लिए वबाले-जान बन गयी थी। स्कूल के हेडमास्टर का हुक्मनामा उन्हें उस वक़्त बार-बार याद आ रहा था, कि जो भी विद्यार्थी पिकेटिंग में शामिल होगा, वह स्कूल से निकाल दिया जाएगा और उसका दाखिला फिर प्रान्त के बावनों जिलों में कही भी न होगा। किसी ओर से उन्हें शंका थी, तो वह पिताजी और बड़े भैया की ओर से थी। वे जरूर गुस्सा होंगे। उनके गुस्से को झेल लेना उन्हें उस वक़्त कहीं आसान मालूम हुआ। सदा की एक हीन भावना के अपमान के आगे थोड़े दिन के गुस्से की परवाह करने की मन:स्थिति में उस समय वे थे ही कहाँ?
दूकान पर जत्था पहुँचने के पहले ही वहाँ पुलिस की लारी पहुँच गयी थी। सामने पुलिसमैनों को देखकर एक बार उनका कलेजा धडक़ गया। लेकिन अब मौका बगलें झाँकने का न था। सैकड़ों साथियों के बीच किसी तरह की कमजोरी या बुज़दिली दिखाना उनकी नज़र से सदा के लिए अपने को गिरा देना था। मँझले भैया ने दूने जोश से नारा दिया। मजमा भडक़ उठा। पुलिसमैनों की आँखों की पुतलियाँ काँपीं। जत्था दूकान के सामने जा डटा। नारे लगने लगे। मँझले भैया की दशा उस समय कुछ अजीब हो गयी थी। बस, यन्त्र की तरह वह डटे हुए नारे लगा रहे थे। उन्हें आँखें खोले हुए रहने पर भी जैसे कुछ दिखाई न दे रहा था। स्वस्थ रहते हुए भी जैसे उनका मस्तिष्क, उनका हृदय अपना कार्य न कर रहा था। कैसे क्या हो रहा था, इसका उन्हें कुछ भी पता न था।
उन्हें नहीं मालूम कि किस तरह पुलिसमैनों ने उन्हें जत्थे के साथियों के साथ लारी में बैठाया और किस तरह वे हवालात की काली कोठरी में ले जाकर बन्द कर दिये गये। उनके हृदय और मस्तिष्क पर वह अनजानी, महत्वपूर्ण, बड़ी घटना कुछ इस तरह छा गयी कि थी कि उसके भार के नीचे दबकर उनकी सारी चेतना ही लुप्त हो गयी थी।
उन्हें होश उस समय हुआ, जब पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट ने आकर उन्हें और उनके साथियों को समझाना शुरू किया—पढ़ाई रुक जाने से सारा जीवन नष्ट हो जाएगा। तुम लोगों को अभी माँ-बाप की आज्ञानुसार पढऩा-लिखना है। राजनीतिक कार्यों में भाग लेना बड़े लोगों का काम है। लडक़ों को इस पचड़े में पडक़र अपना भविष्य बरबाद नहीं करना चाहिए। सज़ाएँ, जेल-जीवन की यातनाएँ उनके मान की नहीं हैं। गुमराह होकर किसी के बहकावे में न पडऩा चाहिए। उन्हें माफ़ी माँगकर अपनी भूल को सुधार लेना चाहिए। अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। वर्ना फिर तो हमारे हाथ से यह मामला निकल जाएगा और फिर कुछ भी न हो सकेगा। फिर कौन जाने, तुम लोगों की इस भूल के कारण तुम लोगों के घरवालों को भी किन-किन मुसीबतों का सामना करना पड़े।
कुछ डर, कुछ बुज़दिली, कुछ जेल-यातना की आशंका, कुछ माँ-बाप के बिगडऩे की बात, कुछ अज्ञानता का भ्रम, आदि भावनाओं ने मिलकर कुछ भोले-भाले लडक़ों को माफ़ी माँगने के लिए विवश कर दिया। मान-अपमान की भावना का विचार उन्हें अभी क्या था? जिम्मेदारी, इज़्ज़त, स्वाभिमान क्या होते हैं, उन्हें क्या मालूम? उनके इस कार्य से आन्दोलन पर क्या असर पड़ेगा, इसका उन्हें क्या ज्ञान था? जोश में आकर वे अनजाने ही जिस महत्वपूर्ण कार्य के लिए चल पड़े थे, जोश ठण्डा हो जाने पर उस कार्य का अर्थ उनके लेखे रह ही क्या गया था?
उनमें कुछ स्वभावत: ऐसे भी थे, जो जिद्दी थे, स्वाभिमानी थे। उन्होंने एक बार जो न की, तो फिर सुपरिण्टेण्डेण्ट की चिकनी-चुपड़ी बातों, धमकियों, कोड़ों की फटकारों और दूसरी यातनाओं से भी अपना निश्चय न बदला। उन्होंने ऐसा अपना कर्तव्य सोचकर न किया। कर्तव्य-ज्ञान अभी उन्हें था कहाँ? देश, देश-प्रेम, स्वतन्त्रता की गूढ़ बातें उनकी समझ के बाहर की बातें थीं। ऐसा वे अपने स्वभाव के कारण ही कर गये। उन्हीं में मँझले भैया भी एक थे। स्वभाव के साथ ही उनके अन्दर पढ़ाई छोडऩे की बात भी काम कर रही थी। इस हाथ आये हुए सुअवसर को अब वे किसी भी हालत में छोडऩा न चाहते थे।
माफ़ी माँगनेवाले छोड़ दिये गये। बाकी जेल की हवालात में भेज दिये गये। छोटे भैया ने जब यह सुना तो वह रो पड़ा। उसे क्या मालूम था, कि मँझले भैया सचमुच जेल भेज दिये जाएँगे? बोॢडंग के कमरे में अब अकेला रह गया। सूनापन उसे खाये जा रहा था।
२
नियमानुसार हेडमास्टर ने मँझले भैया के घरवालों को उनके पिकेटिंग कर, कैद हो जाने की सूचना दी। घर में सबने सिर पीट लिया। उन्हें क्या मालूम था, मँझले भैया बिना कुछ पूछे-ताँछे ऐसा कर बैठेंगे? माँ को किसी तरह शान्त कर, बड़े भैया और पिता तुरन्त जि़ले को चल पड़े, जहाँ कि हाई स्कूल में उनके लडक़े पढ़ते थे। छोटे भैया उन्हें देखकर और भी बिलख-बिलखकर रो पड़ा। उसे किसी तरह समझा-बुझाकर, उसे साथ ले, वे हेडमास्टर से मिले, तो उन्होंने बताया कि माफ़ी माँग लेने के सिवा कोई चारा नहीं है। लडक़ा अभी नाबालिग़ है। उसकी ओर से पिता भी माफ़ी माँग लें, तो काम चल जाएगा। वह तो माफ़ी माँगता नहीं। सुपरिण्टेण्डेण्ट सब-कुछ करके हार मान गये।
हेडमास्टर की राय और सहायता से माफ़ी माँगने का यह कार्य कुछ इस तरह रहस्यमय ढंग से किया गया, कि दूसरों की तो बात ही क्या, स्वयं मँझले भैया को मालूम न हुआ, कि आखिर वे क्यों एक-ब-एक बिना किसी कारण के छोड़ दिये गये? जेल के फाटक पर विद्यार्थियों की भीड़ माफ़ी माँगने की बात का ज्ञान न होने के कारण उनका स्वागत करने के लिए खड़ी थी। बाहर निकलते ही, उनका गला फूलों के हारों से भर गया। नारों के बीच गर्व और हर्ष की जो एक लहर उनकी नस-नस में दौड़ गयी, वह उनके जीवन में एक ऐसी अभूतपूर्व घटना थी, कि उनकी आत्मा उल्लास के नशे में झूम-सी उठी।
सहसा छोटे भैया एक ओर से आ उनके गले से लिपट गया। भरी-भरी आँखें उनकी ओर उठाये, वह बार-बार कहे जा रहा था—मँझले भैया, अब तो जेल न जाओगे न? ...देखो, तुम्हारे बिना मुझे कुछ भी अच्छा न लगता था। मैं रात-दिन तुमसे जुदा होकर रोता रहा हूँ। भैया, बोलो, बोलो अब तो जेल न जाओगे न?
जोशीले विद्यार्थियों की आँखें उसकी बातें सुनकर नफ़रत से भर गयीं। मँझले भैया को जो अभी-अभी एक अभूतपूर्व उल्लास एवं गर्व के नशे की अनुभूति हुई थी, वह टूटती-सी लगी। मन-ही-मन छोटे भैया की नादानी पर वह झुँझला उठे, पर ऊपर से कहा—छोटे भैया, इतने नादान न बनो। अपने इन साथियों के सामने मेरे उठे हुए सिर को यों न झुकाओ। इनसे जो आज मुझे प्रतिष्ठा मिली है, उस पर तुम्हें भी गर्व होना चाहिए। मैं आज ही फिर एक जत्थे का नेतृत्व करूँगा और पिकेटिंग करके फिर... —सहसा उनकी नज़र जो एक ओर मुड़ी, तो उन्होंने देखा, कि पिता और बड़े भैया खड़े-खड़े उनकी ओर क्षोभ-भरी आँखों से देख रहे हैं। अब तक मसलहतन वे एक ओर छिपे हुए खड़े थे। अब जो उन्होंने फिर उन्हें बहकते देखा था तो वहीं उन्हें टोक देना उचित समझकर वे उनके पास आ खड़े हुए थे। पिता ने शासन-भरे स्वर में कहा—मँझले भैया, चलो, मेरे साथ चलो!
उस समय पता नहीं मँझले भैया की क्या हालत हुई कि सन्नाटे में आये-से वे यन्त्र की तरह पिता के पीछे-पीछे क़दम उठाकर चल पड़े।
विद्यार्थियों की भीड़ में बहादुर बेटे के कायर पिता की यह हरकत देख, क्षोभ और घृणा की एक लहर दौड़ गयी। दबी-दबी ज़बान से वे पिता को बुरा-भला कहते वहाँ से हट गये।
हेडमास्टर, पिता, बड़े भैया, उन्हें सभी समझाते-समझाते हार गये, पर मँझले भैया पर अब जो एक नशा चढ़ गया था, वह उतरता नजर न आया। वे हर बार पिता और बड़े भैया से यही कहते—मैं आप लोगों की सब बात मानने के लिए तैयार हूँ, किन्तु यह बात मुझसे न कहिए।
मँझले भैया सचमुच अब देश-प्रेम के रंग में रँग गये थे। जिस भावना से प्रेरित होकर, उन्होंने यह क़दम उठाया था, अब उसका उन्हें ख्याल भी न था। अब तो सचमुच उन्हें लग रहा था कि जो काम मैंने किया है, वह इतना महान, इतना पवित्र, इतना प्रशंसनीय और इतना महत्वपूर्ण है, कि उसके लिए पढ़ाई-लिखाई क्या, जीवन का भविष्य क्या, ऐसे-ऐसे अनेक जीवन भी न्यौछावर कर दिये जाएँ, तो थोड़ा है। जेल की हवालात में जिले के बड़े-बड़े नेताओं ने जो उनके साहस, समझ और दृढ़ता की प्रशंसा कर, उनकी पीठ ठोंककर शाबाशी दी थी, उसकी अनुभूति अभी क्या, जीवन-भर उन्हें प्रेरणा देती रहेगी। वहीं, उन्हीं की जबानी देश, गुलामी, स्वतन्त्रता और आन्दोलन के विषय में कुछ बातें भी मालूम हुई थीं। उस समय उनके मस्तिष्क की दशा कुछ ऐसी थी कि वे अधूरी बातें भी जैसे पूर्ण बनकर उनकी आत्मा में प्रकाश की अनन्त किरणें बनकर भर गयी थीं। एक बार उस आलोक में खुली हुई आँखों को फिर बन्द करके अँधेरे पथ के यात्री बनना अब वे कैसे पसन्द कर सकते थे? जेल की यातनाओं का भय भी अब उनके हृदय से उसी तरह हट गया था, जैसे चाबुक देखकर घोड़े के अन्दर समाया भय एक बार चाबुक पड़ जाने पर हट जाता है।
विवश होकर, पिता ने यही उचित समझा कि उन्हें वे साथ ही घर लिवाते जाएँ। अभी नया-नया जोश है। थोड़े दिन में आप ही ठण्डा हो जाएगा। माँ समझाएगी तो शायद मान जायँगे। मँझले भैया इस मौके को छोडक़र, घर नहीं जाना चाहते थे। पर पिता ने जब माँ का हवाला देकर कहा, कि जब से उन्होंने तुम्हारे जेल जाने की बात सुनी है, उनका दाना-पानी तक छूट गया है, और जब तक वह तुम्हें देख न लेंगी, उन्हें सब्र न होगा, तो विवश हो वह घर जाने को तैयार हो गये।
सचमुच माँ का हाल बेहाल था। जब से उन्होंने मँझले भैया के जेल जाने की बात सुनी थी, उनका कलेजा फट रहा था। जो ममता, स्नेह और वात्सल्य तीनों पुत्रों में बँटा हुआ था, वह अब जैसे एक स्रोत में सिमटकर मँझले भैया पर ही उमड़ रहा था। बड़े भैया और छोटे भैया का जैसे उन्हें उस वक़्त कोई ख्याल ही न था। यह बात कुछ उसी तरह की थी जैसे आदमी का कोई अंग चोट खा जाता है, तो उसका सारा ध्यान और अंगों से हटकर एकाग्र हो उसी अंग पर सिमट जाता है।
मँझले भैया को सही-सलामत आँखों के सामने देख उनकी सारी चिन्ता, सारा दुख एक क्षण में दूर हो गया। उस दिन उन्होंने उन्हें ऐसे खिलाया-पिलाया, उन पर ऐसे स्नेह की वर्षा की जैसे कोई माँ खोये पुत्र को पाकर उसके साथ करती है।
जैसा पिता का ख्याल था कि थोड़े दिनों में मँझले भैया का पागलपन दूर हो जाएगा, वैसा नहीं हुआ। सब समझाकर हार गये, पर वे टस-से-मस न हुए। अब उनका दिमाग़ जैसे खुल गया था, जिह्वा पर जैसे सरस्वती आ बसी थीं। लोगों की बातों को वे ऐसे काट देते थे, कि सुनकर आश्चर्य होता था, कि क्या वही बोदे मँझले भैया बोल रहे हैं? माँ ने भी समझाया—बेटा, ये पढऩे-लिखने के दिन हैं, पढ़-लिख लो। फिर जो जी में आये करना। काम करने के लिए तो सारी जि़न्दगी पड़ी है। वक़्त पर ही सब-कुछ अच्छा लगता है। लडक़ों को कभी भी ऐसे कामों में नहीं पडऩा चाहिए।
उन्होंने उत्तर दिया—माँ, मैं तुम्हें किस तरह समझाऊँ कि यह काम सिर्फ़ बड़े लोगों के ही करने से नहीं होने का? इस काम के लिए देश के बूढ़े, जवान, बच्चे सबकी ज़रूरत है। जब तक सब मिलकर कोशिश नहीं करते, तब तक कोई ग़ुलाम देश आज़ाद नहीं होता। आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेना देश के हर व्यक्ति का कर्तव्य है। कोई पढ़ाई का खयाल कर इससे अलग रहे, कोई अपने काम का खयाल कर इसमें हिस्सा न ले, कोई और किसी कारण से इसमें हाथ न बँटा सके, तो आखिर देश का यह बड़ा काम कौन करेगा? देश की आज़ादी के लिए देश के हर व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ छोडक़र, संगठित होकर, दुश्मनों से मोर्चा लेना पड़ेगा। यह महत्वपूर्ण कार्य किसी भी कारण से एक क्षण को भी स्थगित नहीं किया जा सकता।
अपढ़ माँ ने बेटे को इस बार अपरिचित भाषा में बात करते हुए पाया। उनकी समझ में ही जब कुछ न आया, तो वे क्या जवाब देतीं? मँझले भैया ने ही फिर कहा—माँ, तुम किसी बात की चिन्ता मत करो। हम तीन भाई हैं। समझ लो कि तुमने एक बेटे को देश पर कुरबान कर दिया। देश पर कुरबान होने वाले किसी-न-किसी माँ के बेटे ही तो होंगे। तुम भी उन्हीं माँओं में से अपने को भी एक समझो, माँ! —कहकर, आँखों में एक ऐसी पवित्र साध का भाव ला उन्होंने माँ की आँखों में देखा, कि भोली माँ की ममतामयी आत्मा बेटे की उस जीवन की एक साध पर स्वयं को भी कुरबान कर देने को मचल पड़ी। उन्होंने उन्हें अपनी गोद में खींच लिया। फिर स्नेहभरी उँगलियाँ उनके माथे पर फेरती हुई-भरी आँखों में हृदय का सारा रस ला बोलीं—बेटा, मैं माँ हूँ। माँ बेटे की हर साध पूरी कर उसे खुश देखने के सिवा दुनिया में और कुछ नहीं चाहती। अगर तुम्हारी यही साध है—कहते-कहते उनका हृदय उमड़ आया। आँखें बरस पड़ीं। भीगे हुए काँपते होंठों पर किसी तरह वश पा, उन्होंने कहा—मैं अपना कलेजा पत्थर का बना लूँगी, बेटा। भगवान तेरी साध पूरी करे! —कहकर, फफक-फफककर वह एक बच्चे की तरह रो पड़ीं।
मँझले भैया ही जैसे उस समय उनकी माँ बनकर उनके आँसुओं को पोंछने लगे। उस वक़्त उन्हें लग रहा था, जैसे दुनिया में किसी की माँ भी हमारी माँ की तरह अच्छी न होगी! उनका शीश उस समय माँ के पुनीत चरणों में जिस तरह की एक श्रद्धा की भावना को लिये झुक रहा था, वैसा पहले कभी न हुआ था।
३
मँझले भैया ने हर राष्ट्रीय आन्दोलन में खुलकर हिस्सा लिया। कभी छ: महीने, कभी दो साल, कभी पाँच साल तक की उन्होंने सजाएँ भोंगीं। जेल की जो-जो यातनाएँ उन्होंने उठायीं, पुलिस की जिन-जिन सख्तियों से वे गुज़रे, सरकार के जिन-जिन काले जुल्मों के वे शिकार हुए, उनका कोई हिसाब नहीं। जुर्माने देते-देते पिता तबाह हो गये, पर मुँह से उफ़ तक न की। बड़े भैया ने जैसे इसे भी और कामों की तरह अपना एक काम ही समझ लिया। पहले की ही तरह वे अब भी अपना व्यापार पूरे जोश से चलाते रहे। कभी भी मँझले भैया के प्रति एक शब्द शिकायत का उनके मुँह से न निकला।
छोटे भैया बी.ए. करके साहित्यिक बन बैठा। लिखते-लिखाते किसी पत्र का वह सम्पादक बन गया। उसकी अलग एक दुनिया बस गयी, जिसमें माता-पिता, भाइयों और भाभियों के लिए स्नेह, सहानुभूति के सिवा किसी प्रकार के आॢथक सम्बन्ध का प्रश्न ही न उठ सका, क्योंकि उसका पेट जब देखो, खाली ही रहता था। बल्कि कभी-कभी माँ-बाप को ही उसकी सहायता करनी पड़ती। किन्तु उसके हृदय में मँझले भैया के लिए बड़ा ही ऊँचा स्थान था। उन्हीं के ख़ याल से वह किसी सरकारी नौकरी में न गया, वर्ना उसके-जैसे तेज़, योग्य युवक को कोई नौकरी मिल जाना कोई असम्भव बात न थी। और माँ! माँ ने तो सचमुच अपना कलेजा पत्थर का बना लिया! अपने तीनों पुत्रों को लेकर, उन्होंने अपने भावी जीवन की जो सुखद कल्पनाएँ की थीं, वे बेटों के होश सँभालते ही टूट गयी थीं। छोटे भैया, जो ‘पेट-पोंछुआ’ होने के नाते उनकी आँखों का तारा था, अब उनसे दूर-ही-दूर रहने लगा। कभी-कभी छुट्टियों में दो-चार रोज के लिए एक मेहमान की तरह घर पर ठहरकर वह चला जाता। शादी की बात उठती तो उन अपढ़ों की समझ में न आने वाली बातें करता। आप ही उसने समझ लिया था, कि मेरा जीवन साधारण सांसारिक पचड़ों में खपा देने के लिए नहीं है। वह सदा साहित्य और कला के उच्च आकाश में विचरता। सर्वथा बौद्घिक जीवन व्यतीत करने के स्वप्न देखता। भला वैसे व्यक्ति को गृहस्थी में क्या दिलचस्पी होती? मँझले भैया को अपनी राजनीति से ही फुरसत न थी। आन्दोलन हो या न हो, उनका एक पैर हमेशा जेल में ही रहता। अब वह स्थानीय नेता बन चुके थे। उनकी गिरफ्तारी के वारण्ट की ख़ बर पाकर जवार के अनगिनत लोग घर के सामने जमा हो जाते थे। गिरफ्तार होने के पहले वे भीड़ के सामने खड़े हो, मस्तक ऊँचा कर, गर्व से छाती फुला, आँखों में बलिदानी उमंग ला, जोश-भरी आवाज़ में भाषण देते थे। उनका गला फूलों के हारों से भर जाता था। उनकी जय-जयकार से गाँव गूँज उठता था। तब माँ आँखों में आँसू और काँपते होंठों पर बरबस मुस्कान ला, आरती के दीप सजा, उनकी आरती उतार उनके उन्नत, प्रकाशमान ललाट पर काँपते अँगूठे से तिलक लगाती थीं। भीड़ माँ के पैर छूती थी उनके साहस और त्याग की प्रशंसा करती थीं। और मँझले भैया पिता, बड़े भैया और भाभी के पैर छू, उन्हें रुलाकर विदा हो जाते थे। उस समय किवाड़ की आड़ से बरसती आँखों और फूटती रुलाई से फडक़ते होंठों पर आँचल का कोना दबाये कोई उनकी ओर देख रहा है, शायद इसका ख़ याल उनको न होता या होता तो शायद उसे मर्द की सबसे बड़ी दुर्बलता समझकर उसकी ओर देखने का वे साहस ही न करते।
उनके चले जाने के बाद माँ बैठी उनकी याद ले बिसूरती रहतीं, उनके लिए अपने भगवान से प्रार्थना करती रहतीं और पति-वियोग में तड़पती बहू को दिलासा दिया करतीं। उनके लिए सान्त्वना और सुख का कोई स्थल था, तो वह बड़े भैया और बड़ी बहू को लेकर था। मँझले भैया के कारण जो क्षति पहुँचती, उसे पूरा करना ही जैसे बड़े भैया का काम रह गया था। उन्हें अपने काम के सिवा दीन-दुनिया की कोई ख़ बर न रहती थी। यदि वह ऐसा न करते, तो कभी का उनका कुल भिखारियों की पंगत में जा बैठने को विवश हो जाता। ज़ालिम सरकार की शनि-दृष्टि जिस देश-प्रेमी कुल पर पड़ जाती, उसका पनपना कितना कठिन था, इसे कोई भी आसानी से समझ सकता है। जुर्मानों के अलावा उन्हें मँझले भैया के मुक़दमें में भी क़ाफी ख़ र्च करना पड़ता था। उन्हें छुड़ा लेने की आशा में वे हर बार हाई कोर्ट तक की खाक छानते थे। पर कोर्ट कोई हो, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे तो ठहरे। जहाँ देश-प्रेम ही जुर्म हो वहाँ आदमी का कोई भी कार्य कितना आसानी से जुर्म साबित किया जा सकता है, यह उस वक़्त के मुकदमें के काग़ज़ात देखने से कोई भी सहज ही समझ सकता है।
इतना सब तो था, पर साथ ही यह नहीं था कि कुल का कोई भी सदस्य मँझले भैया के इस कार्य से किसी प्रकार भी असन्तुष्ट या क्षुब्ध हो। बल्कि इसके उलटे उन्हें एक तरह से एक दबे-दबे गर्व का ही अनुभव होता था। उनके कुल की प्रतिष्ठा एक उन्हीं के कारण जितनी बढ़ गयी थी, उससे वे अनजान न थे। और सच तो यह है, कि एक तरह से सब-के-सब जैसे अपना-अपना कार्य किये जाना ही अपना कर्तव्य समझते थे। किसी का किसी से कोई विरोध न था। सब जैसे एक ही चक्र के हिस्से हों, जिनके मिलने से चक्र में घूमने की योग्यता आती है और वह कभी आगे, कभी पीछे घूमता जाता है। उसका कौन हिस्सा अधिक उपयोगी है, कौन कम, यह कौन कह सकता है?
व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भी मँझले भैया अग्रणी रहे। अपने जवार से क़ैद होने वालों में वह पहले व्यक्ति थे। इस सत्याग्रह में चुने हुए लोगों को ही भाग लेने की आज्ञा मिली थी। इन्हें सज़ा तो दो ही-चार साल के लिए होती थी, किन्तु जुर्माने की रक़में बहुत ज़्यादा होती थीं। शायद सरकार ने यह समझा हो कि चुने हुए लोग वही हैं, जो बड़े और धनी-मानी हैं। उनसे जितना वसूल किया जा सके, कर लेना चाहिए। लड़ाई के लिए सरकार को रुपयों की बहुत ज़रूरत भी थी। इस मौके से वह फ़ायदा न उठाये, यह कैसे हो सकता था? मँझले भैया को दो साल की सज़ा हुई और पाँच हज़ार रुपया उन पर जुर्माना लाद दिया गया। सज़ा की तो कोई बात न थी। वह उससे भी बड़ी-बड़ी सज़ाएँ काट चुके थे, पर जुर्माने की रक़म इतनी अधिक थी कि उनकी आँखों के सामने घर का उजड़ा रूप घूम गया। पिता और बड़े भैया को तो जैसे अपनी कमर ही टूटती हुई लगी। जुर्माने के बदले दो साल की और सज़ा भुगतनी थी। सब सोच-विचार कर उन्होंने यही निश्चय किया, कि मैं चार साल की सज़ा ही भुगत कर घर को बरबाद होने से बचा लूँगा। उन्होंने ऐसी सूचना कचहरी को दे भी दी। पर अभी उस पर कोई कार्रवाई भी न हुई थी, कि जुर्माने की रक़म वसूल करने के लिए कुर्कअमीन घर पर आ धमका। यह बिलकुल गैरक़ानूनी बात थी, क्योंकि अभी जुर्माना जमा करने का वक़्त भी पूरा न हुआ था। पर सरकार ने जुर्माना जल्द और जैसे भी हो वसूल करने के लिए ही लगाया था। क्या क़ानूनी है, क्या गैरक़ानूनी, इसकी परवाह करने की फुरसत अफसरों को नहीं थी। ऊपर से ताक़ीद थी, जुर्माने की रक़म जल्द-से-जल्द सख्ती के साथ वसूल कर ली जाए। नतीजा यह हुआ कि घर पर बोली बोल दी गयी। इतनी बड़ी रक़म पिता-जैसे छोटे रोज़गारी व्यक्ति के लिए देना सम्भव न था। जब पूरी रक़म घर के नीलाम से वसूल न हो सकी, तो बाज़ार के गोदाम में रखे चावल, दाल और चीनी के बोरे पुलिस बिना किसी हिसाब-किताब के उठा ले गयी। लोगों की अजीब विवशता थी कि पुलिस के इस अवैधानिक कार्य और जुल्म की सुनवाई किसी क़ानून की कचहरी में न हो सकती थी। राह के भिखारी होने में अब कसर ही क्या रह गयी थी? पर बड़े भैया की अक्ल इस वक्त भी काम कर गयी। उन्होंने अपने एक सम्बन्धी से ही घर पर बोली बुलवायी। मँझले भैया-जैसे राष्ट्रीय कार्यकर्ता से घर का वास्ता था, इसलिए किसी ने चढ़ा-ऊपरी करने का घृणित कार्य न किया। नतीजा यह हुआ कि बहुत कम दाम में ही डाक ख़ तम करने पर कुर्कअमीन को मजबूर होना पड़ा। यों घर तो बच गया, पर सारा रोज़गार चौपट हो गया। फिर भी पिता या बड़े भैया के माथे पर शिकन तक न पड़ी, मुँह से मँझले भैया के प्रति शिकायत का एक शब्द भी न निकला। भगवान पर भरोसा और अपने बाजुओं की शक्ति में उन्हें विश्वास था। बची-खुची पूँजी से उन्होंने फिर अपना रोज़गार शुरू कर दिया। मँझले भैया ने जेल में ये बातें सुनीं, तो सरकार के प्रति उनका क्षोभ और भी बढ़ गया। उनके इरादे और भी पक्के हो गये। ज़ालिम सरकार को मिटाये बिना चैन न लेने की अपनी प्रतिज्ञा को उन्होंने फिर दुहराया। ओह, गुलामी कितना बड़ा अभिशाप है!
४
घर की लडख़ड़ायी हालत अभी सँभल भी न पायी थी, कि अचानक एक ऐसा धक्का लगा, कि सब-कुछ स्वाहा होकर रह गया। अगस्त, १९४२ का जमाना आया। बड़े नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद जनता ने स्थिति की बागडोर अपने हाथों में ले ली। ज़माने की अपमानित, मज़लूम, सतायी हुई, कुचली हुई, नंगी, भूखी जनता आज पहली बार किसी का भी अनुशासन न होने के कारण आप ही दासता की ज़ंजीरें तोड़, मस्त हो, हुँकारती हुई, दुश्मनों के सिर तोडऩे को वैसे ही निकल पड़ी, जैसे मौका पा पिंजड़े से शेर हुँकारता हुआ निकल पड़ता है। चौकन्नी सरकार भी अबकी धोखा खा गयी। उसने सोचा था कि नेताओं की अनुपस्थिति में जनता अपंग चुपचाप पड़ी रहेगी। पर जनता अब पहले की जनता न रह गयी थी। लगातार कितने ही आन्दोलनों में हिस्सा लेते-लेते, वह समझ गयी थी कि उसे क्या करना है। नेताओं की उपस्थिति में जो होने की सम्भावना न थी, वही उनकी अनुपस्थिति में होकर रही। अबकी पहली बार जनता को खुल खेलने का मौका मिला। और वह ख़ूब खुल खेली।
जनता की जितनी बुद्घि थी, उनके पास जो भी साधन थे, उनका खुलकर उसने उपयोग किया। यह बुद्घि, यह साधन सरकार की बुद्घि और साधन के मुक़ाबिले में कुछ भी नहीं थे, किन्तु चोट ऐसे कुमौके और ऐसे कुघाते लगी, कि दिल्ली की सरकार क्या, उसके लन्दन में बैठे आक़ा भी तिलमिला उठे।
एक ही वक़्त, बिना किसी पूर्व सूचना या संगठन के देश के कोने-कोने में विद्रोह का जो विस्फोट हुआ, एक ही तरह की सरकार को नष्ट कर देने वाली जो विध्वंसकारी घटनाएँ घटीं, एक ही उद्देश्य के लिए, एक ही सन्देश से अनुप्राणित हो, एक ही तरह के कार्य-क्रम जनता के सामने रख, जो प्रलयकारी क़दम एक ही साथ उठाया, वह बरसों के संगठन, प्रयत्न और ट्रेनिंग के बाद भी सम्भव होता, ऐसा कहना कठिन है। सच तो यह है, कि देश के गर्भ में जो क्रान्ति बरसों से ज्वालामुखी की तरह पल रही थी, वह अवसर पाकर सहसा ही फूट पड़ी। जनता ने उसका स्वागत किया। सरकार की नींवें हिल उठीं।
मँझले भैया ने अपने जवार की जनता का नेतृत्व किया। अपने तपे हुए, वीर, त्यागी, प्रिय नेता की एक पुकार पर लोग प्राण देने और लेने को उनके सामने इकठ्ठे हो गये। नेताओं की गिरफ़्तारी का समाचार सुन मँझले भैया इतने क्षुब्ध थे, कि उनका होश ठिकाने न था। उनके हाथ और पैर क्रोध के मारे बेकाबू हो काँप रहे थे। छाती अन्तर में जैसे एक विस्फोट का अनुभव कर, धौंकनी की तरह उठ-बैठ रही थी। चेहरा तमतमा कर सुर्ख हो गया था। आँखें जैसे लपटें उगल रही थीं। उन्होंने उसी हालत में कुचले हुए सर्प की तरह फुफकार कर जनता से अनियन्त्रित आवाज़ और भाषा में थोड़े में ही सरकार की इस चुनौती के बारे में कहा। फिर इस चुनौती को स्वीकार करने को ललकारा। अपनी प्यारी संस्था काँग्रेस के नाम पर, अपने प्यारे नेता गाँधी और जवाहर के नाम पर, अपनी प्यारी जन्मभूमि भारत माता के नाम पर, अपने प्यारे उद्देश्य स्वराज्य के नाम पर, अपनी प्यारी माँओं और बहनों की इज़्ज़त के नाम पर, अपनी प्यारी जनता की भूख के नाम पर उन्होंने जनता को ललकारा। जनता जोश में पागल हो भडक़ उठी। हजारों मुठ्ठियाँ हवा में लहरा उठीं। इंक़लाब के नारों से वातावरण काँप उठा। जनता के जोश के माने मँझले भैया समझते थे। उन्होंने एक क्षण भी बरबाद न कर, चीख़ कर कहा—हमारा पहला निशाना सरकारी ज़ुल्मों का अड्डा थाना होगा! —कहकर, उन्होंने नारा लगाया, और कु्रद्घ शेरों की तरह गुर्राती हुई, बौखलायी जनता को पीछे-पीछे लिये थाने की ओर चल पड़े।
जनता और पुलिस का जितना सीधा और सर्वकालिक सम्बन्ध है, उतना सरकारी किसी और मुहकमे के कर्मचारियों का नहीं होता। पुलिस जनता के साथ आये दिन जो अत्याचार किया करती है, वह सरकारी किसी विभाग के आदमी के लिए सम्भव नहीं। यही कारण है, कि जनता पुलिस के लिए दिल में खार खाये बैठी रहती है। मँझले भैया ने थाने को जो पहला निशाना बनाया, उसके पीछे यही बात काम कर रही थी। एक ज़माने के बाद पासा पलटा था। जनता भी आज खुलकर पुलिस से उनके अब तक किये गये कुल अत्याचारों का बदला रत्ती-रत्ती चुका लेने के लिए उतावली हो रही थी।
दूर से ही क्षुब्ध सागर की तरह उमड़ती हुई क्रुद्घ जनता की अपार भीड़ को देख, दारोगा, मुंशी, नायब और कान्स्टेबिलों के होश फाख्ता हो गये। नारों की वह गरज सुनकर उन्हें समझते देर न लगी कि मजमा इस तरह थाने की ओर क्यों बढ़ता चला आ रहा है। थाने में एक दर्जन बन्दूकें और गिनती की कारतूसें और बिगड़ी हुई अपार जनता की पिलती हुई यह भीड़! मृत्यु उनकी आँखों के सामने, उनके सारे जुल्मों का भार सिर पर लिये, नाच उठी। नौकरी, राजभक्ति, तरक्की, इनाम, सब एक ही साथ उनके दिमाग़ में चक्कर लगा गये। पर एक दर्जन बन्दूकें और गिनती की कारतूसें और बिगड़ी हुई अपार जनता की यह समुद्र की तरह उमड़ती हुई भीड़! क्या किया जाए, क्या न किया जाए? पर सोचने का वक़्त ही कहाँ था? भीड़ पास, और पास आ गयी। नारों की आवाजें तेज़ और तेज़ होती जा रही थीं। ज़मीन जैसे धँसी जा रही थी। आसमान जैसे और ऊपर उड़ा जा रहा था। गले में जैसे फन्दे पड़ रहे हों। एक झटका लगेगा, फिर...फिर...
—भागो! भागो! —दारोगा चीख पड़ा।
किसी को किसी चीज़ का होश न रहा। जो जैसे था, वैसे ही भागा। बाल-बच्चों तक कि चिन्ता जिन्हें न रही, वे भगोड़े सर-सामान की फ्रिक क्या करते? दारोगा ने पिस्तौल और पुलिसों ने बन्दूकें ऐसे फेंक दीं, जैसे उनके हाथों में वे सर्प बन गयीं हों। उन्हें साथ लेकर भागना गोया जनता को मुकाबिले की चुनौती दे और भडक़ा देना था।
जनता कोई अन्धी तो थी नहीं। उन्हें भागते जो देखा, तो थाने की चिन्ता छोड़ वह उन्हीं की ओर लपक पड़ी। उसे थाने की दीवारों से नहीं थाने वालों से बदला लेना था। अवसर खो देना वह किसी भी हालत में बरदाश्त न कर सकती थी। दिल का बुखार निकाले बिना आज वह चैन लेने वाली न थी। मुठ्ठी-भर पुलिसमैनों को पकड़ लेना उनके लिए कोई मुश्किल बात न थी। उस वक़्त तो वे अनगिनत चींटियों को भी टप-टप बीन लेते।
सब-के-सब पकड़ लिये गये। उस वक़्त जनता के फ़ौलादी पंजों में जकड़े हुए उन ग़द्दारों की वही दशा थी, जो उस सर्प की होती है, जिसकी गर्दन बन्दर की मुठ्ठी में जकड़ जाती है। सर्प तो फुफकारता है, क्रोध दिखाता है, पूँछ से बन्दर के हाथ बाँध लेने की चेष्टा करता है, पर इनकी हालत तो मुर्दों-जैसी हो गयी थी। उनके शरीर का खून ही जैसे सर्द पड़ गया हो, रोम-रोम जैसे निष्प्राण हो गया हो। बस कहीं, जीवन का चिह्न था, तो केवल उनकी सफेद पड़ी आँखों की मृत्यु-भय से काँपती पुतलियों में।
मँझले भैया के आदेश की प्रतिष्ठा रखने के लिए जनता ने उनके प्राण तो नहीं लिये, उन नमकहराम बुजदिलों के प्राण लेना खुद अपने को शॢमन्दा करना था, पर उनकी जो-जो दुर्गति की गयी, उससे उनकी जो दशा देखने में आयी, वह कुछ वैसी ही थी, जैसे किसी चोर की रंगे-हाथों पकड़ जाने पर होता है। शर्म से गर्दन झुकाये, चारों ओर से जकड़े चोर को कौन क्या-क्या सुना जाता है, कौन लात जमा जाता है, कौन थप्पड़ लगा जाता है, कौन उसके मुँह पर थूक जाता है इसका हिसाब कौन रखता है? जनता के बहुत से सदस्यों ने अपने पर किये गये जुल्मों का उनसे हिसाब माँगा, फिर पूछा कि हमारी परिस्थिति में तुम लोग होते तो क्या करते? पर पुलिसमैनों के तो जैसे जुबान ही नहीं थी। उनके मुँह से एक शब्द भी न निकला। मृत्यु की आशंका उन्हें अब न थी, पर बिगड़ी हुई जनता कब क्या कर बैठेगी, इसका भय तो उन्हें था ही।
आखिर पकडक़र वे थाने के सामने लाये गये। मँझले भैया के आदेश पर सब बन्दूकें, कारतूसें, वॢदयाँ, काग़ज़ात, बेड़ियाँ और सब सामान उन्होंने उनके सामने लाकर रख दिया। फिर उन्हीं के हाथों उन्होंने वॢदयों और काग़ज़ात में आग लगवायी। फिर एक-एक गाँधी टोपी उनके सिर पर रख, उन्हें भीड़ के सामने लाइन में खड़े हो जनता को सलामी देने की आज्ञा दी। पुलिसमैनों ने इसे भी किया। फिर उनके हाथों में तिरंगे थमा, उन्हें भीड़ के आगे-आगे चलने का आदेश दिया गया। इतने में ही किसी ने याद दिलाया—मँझले भैया, जनता के खून से रंगी हुई ये थाने की लाल-लाल दीवारें क्या इसी तरह खड़ी रहेंगी?
मँझले भैया ने अपनी भूल सुधार ली। पुलिसमैनों से ही थाने में आग लगवा दी। हू-हू कर जब लपटें उठीं, तो उसकी ओर देखकर पुलिसमैनों की वही हालत हुई, जो उस बाज़ की होती है, जिसके सामने ही उसका खोंता जलता नज़र आता है।
फिर आगे-आगे नारे लगाते पुलिसमैन चले और उनके पीछे-पीछे जनता की भीड़ चली। एक घण्टे के अन्दर ही डाक-बंगला, पोस्ट-आफ़िस तथा चौकी फूँक दी गयी और बीज-गोदाम का अनाज बाँट दिया गया। सरकार के जितने जुल्म के अड्डे थे, उन्हें आग की लपटों ने अपने में आत्मसात कर लिया। सरकार के नाम पर एक कौवा भी बोलने वाला बाक़ी न रहा।
दूसरे दिन जि़ला-काँग्रेस के सभापति का आज्ञा-पत्र आया कि जि़ले में अँग्रेज़ी हुकूमत ख़ त्म हो गयी है। गाँव में पंचायत बनाकर सब इन्तज़ाम अपने हाथ में ले सारी व्यवस्था को ठीक-ठीक चलाने का प्रयत्न शुरू किया जाए।
इस अप्रत्याशित विजय के उल्लास से जनता पागल हो उठी। उसे सचमुच लगा कि सदियों से पैरों में जकड़ी हुई बेड़ियाँ टूट गयीं, गुलामी सदा के लिए खत्म हो गयी। अब वह आज़ाद है, आज़ाद!
सचमुच पुलिस की ताकत और हुकूमत यहाँ ख़ तम हो गयी थी। पुलिस के ऊपर उससे बढक़र सरकार की एक और ताक़त है, इसका ख़ याल उस वक़्त शायद विजय की खुशी में किसी को न था, या था भी, तो उनका ख़ याल था, कि रेल, तार कट जाने और पुल तोड़ दिये जाने से उसका ख़ तरा नहीं है। पर उन्हें क्या मालूम कि आसमान और हवा भी उनके दुश्मन हो सकते हैं, जो उस ताक़त को सहसा एक दिन उनके सिर पर ला पटकेंगे।
हुआ भी ऐसा ही। अभी एक हफ़्ता भी न बीता था, कि एक दिन आकाश हवाई जहाजों की विकराल चीखों से गूँज उठा। ज़मीन बमों के धड़ाकों से फट पड़ी। यह सेना का पेशखेमा था। जनता को अब होश आया। पर पहले भी होश आता, तो वह क्या कर लेती? थानों और लाइन से छिनी हुई कुछ बन्दूकों और कारतूसों के सिवा उनका मुकाबिला करने का साधन ही उनके पास क्या था? चारो ओर आतंक छा गया। अब क्या हो, क्या हो?
दूसरे दिन ही नदी-नाले पार करती सेना की जीपें गोलियाँ दागतीं, दनदनाती हुई पहुँच गयीं। सडक़ों पर जो दिखाई दिये, गोली से उड़ा दिये गये। यों भी हवा में हज़ारों निशाने लगा, सेना ने शहर को दहला दिया। फिर सेना के जत्थे गाँवों की ओर जीपों में उसी तरह गोलियाँ दागते हुए चल पड़े। पीछे आदमियों और जानवरों की छटपटाती हुई लाशें और सडक़ के दोनों ओर के गाँवों में जलते हुए अनगिनत घर और मुर्दे छोड़ती, मृत्यु, आग और चीख-पुकार का हाहाकार उत्पन्न करती जीपें बढ़ती गयीं, बढ़ती गयीं।
सेना की दृष्टि में वहाँ का हर आदमी बाग़ी था। किसी के साथ कोई दूसरा व्यवहार करना उन्होंने सीखा न था। इसलिए क्या नेता, क्या जनता, जिसने भी जहाँ सेना की इस हरकत की ख़ बर सुनी, वहीं से चम्पत हो गया। गाँव उजड़ गये। उजड़े हुए गाँवों के घरों को लूटकर, उन्हें जलाकर, आदमियों के बदले वहाँ छूटे हुए हाथी, घोड़ों, गधों, बैलों, गायें, कुत्तों और बकरियों को ही गोली का निशाना बनाकर सेना को अपना क्रोध शान्त करना पड़ा।
थोड़े ही दिनों बाद फिर आन्दोलन के पहले का पुलिसराज स्थापित हो गया। थानों पर विशेष रूप से सेना की टुकड़ियाँ बैठा दी गयीं।
५
मँझले भैया भी फ़रार थे। उनके घर के लोग भी जो बना, लेकर कहीं छिप गये थे। उनके घर की जली-अधजली दीवारें बता रही थीं कि मालिकों की अनुपस्थिति में उस अनाथ पर क्या-क्या गुज़री थी। ज़ेवरों और नक़द के सिवा वे कुछ भी बचा न पाये थे। बिस्तर-तकिये तक का पता न था। फिर उनके मालगोदाम के चावल, दाल और चीनी के बोरों का क्या पूछना?
धीरे-धीरे हालत बदलती गयी। सरकारी अफ़सरों ने ऐलान किया, कि पुलिस शान्त रहने वाली जनता के साथ अत्याचार न करेगी। जनता को पहले ही की तरह गाँवों को आबाद कर, पुलिस को उन सरगनों को पकड़ाने में मदद देनी चाहिए, जिनके कारण जनता को इतने दु:ख उठाने पड़े हैं।
लोग अपने-अपने घरों को लौटने लगे। गाँवों में फिर जि़न्दगी के चिह्न नज़र आने लगे।
पिता, माँ और बड़े भैया ने वापस आकर घर की जो हालत देखी, तो उनकी दशा उस पंछी की तरह हो गयी, जिसका बरसों से जमाया आशियाना जल गया हो। माँ बिलख-बिलखकर रो पड़ीं। पिता और बड़े भैया के दु:ख की सीमा न रही।
जब तक रहने-सहने का कोई उचित प्रबन्ध न हो जाए, बहुओं को बुलाना ठीक नहीं समझा गया। बड़े भैया किसी तरह एक दो कमरों को ठीक करने में जुट गये। पर सिर पर अभी खपरैल का साया भी न हुआ था, कि एक और आफ़त सामने आ खड़ी हुई। उस गाँव पर दस हज़ार का ताजीराती कर सरकार ने लगा दिया, जिसका बड़ा हिस्सा मँझले भैया के पिता को ही चुकाना था। चोट-पर-चोट इसी को कहते हैं। कर की नोटिस को देख, जिस बेबसी और पीड़ा से माँ-बाप और बड़े भैया छटपटा उठे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
इतनी बड़ी रकम उनके पास थी ही कहाँ जो वे देते? बची खुची रकम दे भी देते, तो उससे छुटकारा कहाँ मिलता? और फिर तब तो रोटियों के भी लाले पड़ जाते। यह रकम कड़ी-से-कड़ी सख्ती करके जल्द-से-जल्द वसूल करने को पुलिस को हिदायत थी। मियाद पूरी होने के पहले ही गाँव के लीगी मुखिया के यहाँ पुलिस आ बैठी और लोगों को वहीं बुला-बुलाकर हर तरह से उन्हें अपमानित कर, कर वसूल करने लगी। माँ-बाप और बड़े भैया फिर कहीं भाग जाने की सोच ही रहे थे, कि पुलिस का आदमी दरवाज़े पर आ धमका। उस समय उनकी हालत कुछ वैसी ही हुई, जैसे किसी बँधे आदमी पर खूँखार बाघ छोड़ देने पर उसकी होती है।
छुटकारे की कोई राह न थी। बूढ़े पिता को पुलिस के साथ जाना ही पड़ा। रुपया होता तो वे दारोग़ा के सामने उँड़ेल देते, पर यहाँ तो कुछ था ही नहीं। उस हालत में किन यातनाओं की आशा लिये हुए वे दारोग़ा के सामने जा खड़े हुए, यह सहज ही समझा जा सकता है। गाली-गलौज, मार-पीट, जेल की धमकियों से भी जब दारोग़ा उनसे कुछ न निकाल सका, तो घर की तलाशी का उसने हुक्म दे दिया।
तलाशी हुई। खँडहर की ज़मीन का चप्पा-चप्पा खोद डाला गया, पर वहाँ था ही क्या, जो मिलता? बड़े भैया इतने बेवक़ूफ न थे, जो इस दशा में अपना बचा-खुचा माल-मता लेकर खँडहर में वापस आये होते। विवश हो, पुलिस दो-चार चाँटे माँ और बड़े भैया को भी लगा, बूढ़े पिता के हाथों में हथकड़ियाँ डाल, उन्हें लेकर चली गयी
मँझले भैया फ़रार थे। छोटे भैया की कोई ख़ बर महीनों से न मिली थी। घर जल गया था। रोज़गार खत्म हो चुका था। फिर भी उन्हें इतना दु:ख न हुआ था जितना आज हुआ। पिता के हाथों में हथकड़ियाँ देख, माँ और बड़े भैया ने बिलखकर, अपनी भरी आँखें फेर लीं। ओह, भाग्य में अभी और क्या-क्या देखना बदा है?
पिता अभी हवालात में ही पड़े तड़प रहे थे, कि एक दिन उनके दरवाज़े पर एक पुलिस ने एक नोटिस टाँग दी, जिसमें लिखा था—राधामोहन उर्फ़ मँझले भैया अगर इस नोटिस के पन्द्रह दिन के अन्दर हाजि़र न हुआ तो उसका सब-कुछ सरकार ज़ब्त कर लेगी।
अन्दर जाते, बाहर आते बड़े भैया की दृष्टि उस नोटिस पर पड़ती और एक भावी आशंका से उनका रोम-रोम कण्टकित हो जाता।
लीगी मुखिया और गाँव के कुछ लोगों ने माँ और बड़े भैया को समझाया कि वे मँझले भैया को हाजि़र करा दें, तो अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है। पर उनके मुँह से जो एक बार निकल गया कि हमें क्या मालूम कि कहाँ है, तो फिर कोई दूसरी बात न निकली। बिगडऩे से अब रह ही क्या गया था, जिसे बचाने के प्रयत्न में वे अपने कलेजे के टुकड़े को आग में झोंक देते?
पन्द्रह दिन और पन्द्रह रातें माँ और बड़े भैया ने आँखों में ही काट दीं।
आज सोलहवाँ दिन था। मँझले भैया हाजि़र न हुए। अब क्या होगा? एक तरह की आशंका उनके दिलों को जलाये डाल रही थी, पर क्या होगा की कोई कल्पना करने में भी असमर्थ थे। नुचे-खुचे का अब कोई नोचेगा ही क्या? धन-जन, इज़्ज़त-आबरू, घर-बार, रोज़ी-रोज़गार कुछ भी तो शेष न रह गया था, जिससे वंचित हो जाने का भय उन्हें होता। उन्हें क्या मालूम, कि उनके लिए अदृश्य ने अपनी झोली में क्या-क्या जुल्म रख छोड़े थे?
माघ का महीना था। वर्षा हो रही थी। बर्फीली हवा ने जैसे सर्दी की रग-रग में बर्फ की सुइयाँ लगा दी थीं। जमीन ठिठुर रही थी। वातावरण जम-सा रहा था—हाँथ-पाँव गले जा रहे थे। दुबके-दुबकाये लोग आग के पास बैठे सर्दी से बचने का असफल प्रयत्न कर रहे थे।
अचानक शाम को पुलिस की एक टुकड़ी घर के खँडहर के सामने आ खड़ी हुई। बड़े भैया और माँ ने आहट पा, झाँककर जो ओवर-कोटों के ऊपर लाल-लाल पगड़ियाँ देखीं, तो उनकी और माँ की हालत कुछ वैसी ही हो गयी, जैसे एक आदमी की उस दिन हो जाती है, जिस दिन उसकी मृत्यु हो जाने की भविष्यवाणी ज्योतिषी ने की होती है और सचमुच उसके सामने यमदूत दिखाई देने लगते हैं। भागने का कोई रास्ता न था, वरना वे भाग भी जाते।
पुलिसमैन धड़धड़ाते अन्दर घुस गये। कुछ बड़े भैया और माँ के सामने खड़े हो गये और कुछ खँडहर की ऐसी तलाशी लेने लगे, जैसे मँझले भैया कोई आदमी न हों, सुई हों और किसी ताक के कोने में छिपे बैठें हों। मँझले भैया वहाँ थे ही कहाँ, जो उनके हाथ आते? झुँझलाकर, सब-के-सब विवशता की बेजान मूर्ति बनी खड़ी माँ और बड़े भैया के सामने आ, चिल्ला-चिल्लाकर गाली देते हुए पूछ बैठे—बता, मँझले भैया कहाँ हैं, नहीं तो आज तुम लोगों की ख़ैरियत नहीं!
बूटों की ठोकरें उठने को तड़पने लगीं। हाथ के कोड़े पडऩे को हिलने लगे। मुँह तो जो जी में आ रहा था, बके ही जा रहे थे। पर माँ और बड़े भैया के मुँह से जो एक बार निकला कि हमें क्या मालूम कि वह कहाँ हैं, तो वही शब्द बार-बार निकलते रहे। पुलिस की कोई ज्यादती उनके मुँह से और कोई बात न निकाल सकी।
आखिर तंग आकर, नायक ने कहा—ऐसे यह हरामज़ादी राह पर न आएगी। घसीटकर इसे ले चलो तालाब पर!
तालाब! तालाब का ठण्ड से जमता हुआ-सा पानी! उफ़, ये क्या करना चाहते हैं बूढ़ी माँ को वहाँ ले जाकर? बड़े भैया का कलेजा मुँह को आ गया। उन्होंने चीखकर कहा—नहीं-नहीं, ऐसा न करो! इस सर्दी, इस बारिश में इन्हें बाहर न ले जाओ।
पर उनकी सुनता कौन? एक पुलिसमैन के एक जोरदार थप्पड़ ने उनके सफ़ेद गाल पर पडक़र उनका मुँह ही नहीं फेर दिया, बोलती तक बन्द कर दी। वह धड़ाम से मुँह से खून उगलते हुए फर्श पर गिर पड़े। ऊपर से दो-एक बूटों की ठोकरें उनके कूल्हों पर उभरी हुई हड्डियों पर चटाख-चटाख बोल उठीं।
माँ कुछ भी कहना, किसी तरह भी गिड़गिड़ाना उन हैवानों के सामने व्यर्थ समझ, चुपचाप असह्य सर्दी से काँपती, उनकी असह्य बातें सुनती, उनके हाथों, कोड़ों और बूटों की असह्य चोटें खातीं, मूर्ति की तरह खिसकती चली जा रही थीं।
वर्षा हो रही थी। सामने तालाब के जमे-से पानी में टप-टप बूँदें पड़ती थीं, तो ऐसा लगता था, जैसे आग के तालाब में जगह-जगह चिनगारियाँ चिटख रही हों। गरम पानी से जैसे शरीर जल उठता है, ठीक वैसे ही ठण्डे पानी से भी। और तालाब का पानी कोई मामूली ठण्डा भी तो न था।
नायक ने माँ की कमर में बूट की एक ठोकर दी। माँ आह कर पानी में लुढक़ गयीं। पुलिसमैनों ने ठहाका लगाया। नायक बोला—देखो, अब भूत सिर पर चढक़र बोलेगा!
पर माँ के अन्दर कोई भूत न था, जो बोलता। उनके अन्दर तो एक माँ का हृदय था, जिसकी ममता, स्नेह, वात्सल्य की गहराई को दुनिया में न कोई अब तक नाप सका और न आगे ही नाप सकेगा। सारी यातनाओं का अन्त मृत्यु है। माँ के लिए बेटे की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण करना कोई असम्भावित घटना नहीं। माँ ने एक बार इसे सोचा। फिर आँखें मूॅँदकर, जो वह खड़ी हो गयीं, तो फिर कहाँ क्या हो रहा है, इसका भी ज्ञान जैसे उन्हें न रह गया।
कुछ-कुछ देर के बाद एक या दूसरा पुलिसमैन माँ को टकोह कर, कहता—बोल, अब भी बता दे, नहीं, तो गल जाएगी इस बर्फ के पानी में।
पर माँ सुन ही कहाँ रही थीं, जो कुछ बोलतीं?
रात गल रही थी। शीत की तीव्रता सहने की सीमा को लाँघने लगी थी। पुलिसमैन ओवरकोट में भी ठिठुरे जा रहे थे। पर माँ? उनका शरीर तो जैसे हाड़-माँस का ही न हो। वह तो बिल्कुल पत्थर की मूर्ति की तरह अडिग, शान्त अप्रभावित खड़ी थीं यन्त्रवत्!
आखिर थककर नायक ने कहा—यह बुढ़िया तो बला की हिम्मत और इस्पात की शरीर वाली मालूम होती है! —उसकी झुँझलाहट की कोई सीमा न थी। वह उन्हें उसी वक़्त मार डालता, अगर उनसे मँझले भैया का पता उगलवा लेने की ज़रूरत न रहती।
सहसा छपाक की आवाज़ हुई। मुडक़र देखा, तो माँ लकड़ी के एक कुन्दे की तरह पानी में डूब-उतरा रही थीं। वह सहसा चीख पड़ा—नहीं, नहीं, इसे मरना नहीं चाहिए! इससे अभी हमें काम लेना है।
उसके ऐसा कहते ही दो पुलिसमैनों ने लपककर माँ के ठण्ड से अकड़े शरीर को पानी से बाहर निकाला।
नायक ने झुककर देखा, साँस चल रही थी। उसने कहा—इसे अभी इसके घर पहुँचा दो। बच गयी तो एक बार और कोशिश करके देखेंगे। आज की इतनी परेशानी बेकार ही साबित हुई।
६
बुढ़िया के बच जाने की ख़ बर सुन, पुलिसवालों को वैसे ही खुशी हुई, जैसे शिकारगाह में आग लग जाने पर जानवरों के बच जाने की ख़ बर पा, शिकारियों को होती है। दारोगा ने एक क्रूर मुस्कान होंठों पर लाकर कहा—अभी उसे चंगी होने का मौक़ा दो। इस बार मैं खुद चलूँगा। ज़रा देखूँगा उसका दम-खम!
बेचारे बड़े भैया को क्या ख़ बर थी कि वे माँ की सेवा-शुश्रूषा कर जो उन्हें स्वस्थ कर रहे हैं, वह कुछ वैसे ही है, जैसे कोई रैयत अपने बकरे को मोटा करता है, जिस पर जमींदार की नज़र लग चुकी हो।
जरायम पेशावालों से आये दिन साबिका पडऩे के कारण मामूली पढ़े-लिखे दारोग़ा भी मानव-मनोविज्ञान के अच्छे ज्ञाता हो जाते हैं। दारोग़ा, बुढ़िया के साथ जो कुछ किया गया था, उसकी पूरी कहानी अपने आदमियों से सुन चुका था। इससे भी अधिक सख्तियाँ किसी के साथ की जा सकती हैं, इसकी कल्पना भी वह करने में असमर्थ था। फिर भी बुढ़िया के मुँह से कुछ भी न निकाला जा सका, यह बात उसके चिन्तन का विषय बन गयी। बहुत सोच-विचार करने के बाद आखिर वह इस नतीजे पर पहुँचा, कि बुढ़िया के साथ कोई भी सख्ती कारगर नहीं होने की। मुझे किसी दूसरे उपाय से काम लेना होगा। माँ अपने पर सब-कुछ बेटे के लिए सह सकती है, पर अगर उसी के सामने उसके बेटे पर सख्तियाँ की जाएँ, तो शायद... शायद और सहसा उसकी आँखें चमक उठीं। एक ही क्षण में प्रशंसा, इनाम, तरक़्की और न जाने कैसी-कैसी बातें उसके दिमाग़ में चक्कर लगा गयीं। वह उठा और हुक्म दिया, कि पाँच तगड़े सिपाही तैयार हो जायँ, और दो मजबूत कोड़े भी स्टोर रूम से निकाल लिये जायँ। साहब आज ‘शिकार’ पर जाएगा। थानों में कोड़े नहीं रहते। पर वह जमाना और था। जहाँ मशीनगनों का इन्तज़ाम किया गया था, वहाँ कोड़ों की क्या गिनती? उन दिनों पुलिस को बड़े लाट से भी कहीं अधिक अधिकार सरकार ने दे रखे थे! वे जो चाहते कर जाते। कहीं कोई टोकने वाला न था।
दिन के दो बज रहे थे। बीमार माँ फर्श पर पड़ी हुई थीं। बड़े भैया सिरहाने बैठे, उनके सिर में तेल लगा रहे थे, कि बाहर से किसी की कडक़ीली आवाज़ आयी—श्रीकृष्ण! श्रीकृष्ण, बाहर आओ!
आवाज़ में जो अधिकार और अत्याचार का पुट लगा हुआ था, उसी का ख़ याल कर, बड़े भैया का माथा ठनका। तो कहीं वे दोज़खी कुत्ते फिर तो नहीं आ धमके? पर उन्हें अन्दर आने से रोकता ही कौन? वह तो सीधे धड़धड़ाते हुए पहुँच जाते हैं। शायद कोई और हो।
बाहर आ, उन्होंने अभी कुछ देखा भी न था, कि पूर्व योजनानुसार दो सिपाहियों ने उन्हें पकडक़र पटक दिया, और देखते-ही-देखते रस्सियों से उनके अंग-अंग चौंड़-चौंड़ कर बाँधकर जमीन पर छोड़ दिया। फिर दो ओर से दो पुलिस हुमक-हुमक लगे बिना कुछ देखे उन पर कोड़ों की बौछार करने। बड़े भैया चीख पड़े।
बिस्तर पर पड़ी माँ ने बड़े भैया की चीख सुनी, तो हड़बड़ाकर उठ, बेतहाशा बाहर दौड़ पड़ी। अभी वह दरवाज़े पर भी न आयी थीं कि दो पुलिसमैनों ने लपककर, उनके दोनों बाजुओं को पकडक़र, करीब-करीब उन्हें उठाकर, बड़े भैया के सामने ला खड़ा कर दिया। माँ ने अपनी ही आँखों के सामने बेटे की जो दुर्गति देखी, तो उनके मुँह से भी एक चीख निकल गयी—नहीं-नहीं, इसे मत मारो! इसने सरकार का कभी कुछ नहीं बिगाड़ा!
दारोग़ा के होंठों पर सफलता की एक मुसकान दौड़ गयी। जादू ने अपना काम शुरू कर दिया है। उसने हुक्म दिया—और जोर से! और जोर से!
सट-सट-सटाक! सट-सट-सटाक! कोड़ों में और भी जोर आ गया। बड़े भैया के शरीर के जिस हिस्से पर भी कोड़े पड़ते, चमड़ी उधेडक़र रख देते, खून की धारें छर्र-छर्र फव्वारों की तरह फट पड़तीं। वह चीखते, प्राणों का ज़ोर लगा चीख़ ते। जैसे उनकी चीख सुनकर, उनकी रक्षा के लिए कोई आ जाएगा। बड़े भैया का इस तरह के जुल्म से यह पहली बार साबिका पड़ा था। यों भी वह बड़े सीधे, कोमल और निरीह स्वभाव के थे। उन पर ऐसे जुल्म करना गोया गाय पर अत्याचार करना था। मूक, भोली गाय के पास अत्याचार के विरुद्घ चीखने के सिवा चारा ही क्या होता है? उसमें इतनी सहन-शक्ति कहाँ होती है, कि वह चुपचाप अपने पर किये गये अत्याचार को सह ले?
—मेरे बेटे को छोड़ दो! इसके बदले मुझे मार डालो! —बार-बार माँ प्राणों का ज़ोर लगा, बेहाल हो, चीखतीं, और अपने को पुलिसमैनों की जकड़ से छुड़ा, अपने बेटे पर सुरक्षा की देवी की तरह पंख फैला उसे अपनी गोद में छिपा लेना चाहतीं। पर हाय री विवशता!
दारोगा की एक आँख माँ पर और दूसरी बड़े भैया पर टिकी थी, ठीक उसी तरह जैसे चिड़ीमार की एक आँख कम्पे पर और दूसरी चिड़िया पर होती है।
सट-सट-सटाक! सट-सट-सटाक! कोड़े अन्धाधुन्ध पड़ते जा रहे थे। चमड़ी के बदले अब माँस के जि़न्दा टुकड़े कोड़ों से लिपट जाते।
फिर तो वे कोड़ों को फटकारते, तो वे जि़न्दा टुकड़े हवा में तड़पते नज़र आते। जगह-जगह उनके शरीर की हड्डियाँ नंगी हो गयीं। उनकी चीखें भी जैसे अब थककर मन्द पडऩे लगीं।
माँ ने एक बार फिर अपने को छुड़ाने को ज़ोर लगाया, पर दो मुस्टण्डों के आगे एक बूढ़ी, बीमार की क्या चलती?
दारोगा ने फिर रद्दा जमाया—और जोर से! और जोर से! —फिर माँ की ओर मुडक़र पहली बार कहा—अब बता दो मझले भैया का पता, वरना...वरना...
एक बेटे को बचाने के लिए दूसरे बेटे का बलिदान! मूर्ख दारोगा के दिमाग़ में इस क्रूर व्यापार का यह पहलू शायद नहीं आया था।
तो यह बात है! बड़े भैया के साथ यह अमानुषिक अत्याचार कर, दारोगा मँझले भैया का पता जानना चाहता है! एक बेटे के बच जाने का लोभ दिखा, वह दूसरे बेटे को फाँसी पर चढ़ा देने के लिए माँ से उसका पता पूछना चाहता है! एक आँख के बच जाने का भरोसा दिला, वह दूसरी आँख फोड़ देना चाहता है! माँ के कलेजे के दो टुकड़ों में से एक को छेदकर, दारोगा चाहता है कि माँ दूसरे टुकड़े को निकाल, उसे कबाब बनाने के लिए दे दे। माँ अट्टहास कर उठीं। उनकी दीवानों-जैसी हालत देख, दारोग़ा हकबकाया-सा उनका मुँह देखने लगा। पर दूसरे ही क्षण जैसे फिर होश में आ बेहद बौखलाकर चीखा—और ज़ोर से! और ज़ोर से!
सट-सट-सटाक! सट-सट-सटाक!
माँ ने दाँतों को ज़ोर से भींचा। उनका चेहरा तमतमाकर सुर्ख हो गया। कनपटियों की बूढ़ी रगें मोटी हो-हो उभर आयीं। आँखों में एक अदम्य निश्चय की चमक कौंध उठीं। शरीर फूल-सा गया। एक दैवी शक्ति से उनकी रग-रग जैसे फडक़ने लगी। और दूसरे क्षण सहसा जो उन्होंने ज़ोर लगा झटका दिया, तो दोनों पुलिसमैन दो ओर भहराकर गिर पड़े और वह बड़े भैया पर जा ऐसे हाथ-पाँव फैलाकर पड़ गयीं, जैसे पंछी अपने अण्डे पर पंख फैलाकर बैठ जाता है। फिर मुँह ऊपर कर, उन्होंने चीखकर कहा—मारो! अब जितना चाहो, मारो! पर याद रखना, कि तुम भी किसी के बेटे हो, तुम्हारी भी कोई माँ है। भगवान न करे, कि तुम पर भी कोई ऐसी मुसीबत तुम्हारी माँओं की आँखों के सामने ही आ टूटे! —कहकर उन्होंने बेटे के मुँह पर अपना मुँह रख दिया। अब तक उन पर कितने कोड़े बरस चुके थे, यह कोड़े चलाने वालों को भी नहीं मालूम।
दारोग़ा की रूह काँप उठी। माँ की आवाज़ जैसे उसी की माँ की नहीं, बल्कि दुनिया की सारी माँओं की चीख़ बन, उसकी आत्मा में गूँज उठी। बेसाख्ता वह चीख पड़ा—छोड़ दो! माँ जीत गयी! जुल्म हार गया!
ऐसी बात दारोग़ा के मुह से कैसे निकल गयी, इसका जवाब उसने उसी समय थाने में जा, अपना इस्तीफ़ा दाखिल करके दिया।
बड़े भैया, निरीह बड़े भैया के लिए तो एक चाबुक ही उनके प्राण ले लेने के लिए काफ़ी था। कोड़ों की बौछार की ताव वह कहाँ से ला सकते थे? उस दिन माँ उन्हें कोड़ों की बौछार के नीचे से बचा तो लायीं, पर अदृश्य मृत्यु से लडऩे की शक्ति वह मानवी कहाँ से लाती?
कोई कोशिश कारगर न हुई। आखिर बड़े भैया चल ही बसे।