माँ / यश मालवीय
माँ को सब-कुछ धुंधला-सा नजर आता है, उनकी आँखों में गहरा मोतियाबिंद है. माँ कायदे से कुछ भी खा नहीं पातीं. उनका दाँतों का सेट पुराना पड़ गया है. माँ ऊँचा सुनने लगी हैं, उनके लिए कान की मशीन भी जरुरी हो गई है.
माँ का लायक बेटा परेशान है. माँ से कहता है कि इन सर्दियों में आँख का आपरेशन करा लें, डाक्टर के पास चली चलें, दाँतों का नया सेट लगवा लें, एक अच्छी-सी कान की मशीन भी लेती आएँ. यह सब-कुछ हो जाए तो वह आराम से टी.वी. देख-सुन सकती हैं, अच्छे-से- अच्छा खाना चबा-चबाकर खा सकती हैं. बावजूद बहुत-बहुत समझाने के वह टालमटोल करती हैं, किसी तरह डाक्टर के पास चलने को तैयार ही नहीं होतीं.
एक दिन बेटा जिद पर अड़ जाता है. मां को जब बचने का कोई चारा समझ नहीं आता तो बुझी-बुझी मगर वत्सलता में भीगी आँखों से बेटे की ओर देखती हैं और बोल पड़ती हैं, “बेटा, मेरा मोतियाबिंद कट भी गया तो क्या मैं सपना हो गए तेरे पिता को फिर से देख पाऊँगी और फिर अगर तू ले ही चलना चाहता है तो मुझे डाक्टर के पास नहीं, किसी ज्योतिषी के पास ले चल और पता कर कि कितनी बची है मेरी जिंदगी? फ़ालतू में दो-चार बरस के लिए मैं तेरे ढेर सारे पैसे खर्च करवाऊँ, यह मुझसे नहीं होगा.”
माँ का तर्क सुनकर बेटा छटपटाता हुआ-सा माँ को देखता रह जाता है.