मांग भरो सजना / प्रमोद यादव
‘मांग भरो सजना...’
और सजना ने मांग भर दी...
सजनी की मांग क्या भरी – मांगों की झड़ी-सी लग गयी..कभी ये..तो कभी वो...कभी ऐसे...तो कभी वैसे....कभी यहाँ...तो कभी वहाँ...’तारीख पर तारीख.... तारीख पर तारीख ‘ की तरह ‘ मांग पर मांग .... मांग पर मांग ‘ और एक दिन मांगें पूरी न कर पाने का तोहमत लगाते ‘तलाक’ की मांग...
सजना ने हमेशा की तरह यह मांग भी ‘तथास्तु’ कह ओ.के. कर दिया..मांग की आपूर्ति करने में मर्द हमेशा महिलाओं से अव्वल रहा...इतिहास गवाह है..जो माँगा दिया..और दिल खोलकर दिया..इसलिए तो मर्द के दिल के साथ सौ-सौ अफ़साने जुड़े होते हैं..औरतें तो स्वभावतः तंग -दिल ,संग दिल , कंजूस-मक्खीचूस होती हैं..एक दिल और एक अफ़साने ( कभी-कभार दो ) पर ही जिंदगी गुजार पिचक कर बुड्ढी हो जाती हैं..फिलहाल सजना की मांग को नजरअंदाज कर उन मांगों पर चर्चा करूँ जो इनसे इतर है और जो स्वाभाविक,प्राकृतिक,जन्मजात हैं. आदिकाल से, छुटपन से आदमी याचक रहा है..जन्म से लेकर मृत्यु तक वह कुछ न कुछ मांगते ही रहता है… कभी अपनों से तो कभी गैरों से ...कभी सरकार से तो कभी उनके नुमाईन्दों से..कभी अल्लाह से तो कभी ईश्वर से...
बचपन की मांग की बात करें तो बचपन सबका एक सा होता है- राजा हो या रंक , अमीर हो या गरीब , हिंदू हो या मुस्लिम.. सबकी मांगे लगभग एक-सी होती है...मिठाई, चाकलेट, टाफी, खिलौना और थोडा सा प्यार ..समझदार होते ही ( जवानी की देहलीज पर कदम रखते ही ) इनकी मांगों में अंतर आ जाता है. लड़के मे दिल में एक अदद ‘प्रेयसी’ की मांग बलवती होती है तो वहीँ लड़की के दिल में एक अदद ‘पति’ की ...लड़की एक अदद पति पा पूर्ण विराम ले लेती है,वहीँ लड़का फिर ’तारीख पर तारीख.... तारीख पर तारीख’ की तरह ‘प्रेयसी पर प्रेयसी’... ‘प्रेयसी पर प्रेयसी’ करते अनलिमिटेड हो जाता है पर भूले से भी कभी पत्नी नहीं मांगता, वो तो माँ-बाप हैं जो बिला वजह ,बिना मागे घोड़ी पर बिठा देते हैं वर्ना किस कमबख्त को शादी करने का दिल करता है...
पैदा होते ही मनुष्य में मांगने की प्रवृत्ति आ जाती है.एक तरह से यह ‘इन-बिल्ट’ प्रवृत्ति है..छोटा बच्चा दूध मांगता है..बड़ा बच्चा रोटी..उससे बड़ा खिलौना तो उससे भी बड़ा पैसा...बचपन की एक घटना आज तलक मुझे याद है...हम छः भाई-बहनों में मेरा क्रम तीसरा था. एक दिन मेरे बाबूजी ने गुस्से में मेरी जमकर पिटाई कर दी..वजह थी- ‘अप्रत्याशित और अपूरणीय मांग ‘..दशहरे का दिन था. बाबूजी सब बच्चों को पैसे बाँट रहे थे- सबसे बड़े को चवन्नी..दूसरे को दुअन्नी ..मैं तीसरे क्रम पर था तो इकन्नी...मैंने इकन्नी लेने का विरोध कर चवन्नी की मांग कर दी.. वो समझाते रहे, मैं रोता रहा. अंततः दुअन्नी पर वे राजी हुए,लेकिन मैं चवन्नी पर अड़ा रहा नतीजन वे कुपित हो मुझे कूट कर मेरी इकन्नी भी छीन लिए. तब समझदारी नहीं थी..थोडा रोया-धोया और नार्मल होने पर इकन्नी मांग कुल्फी खा ‘भूल गया सब कुछ,याद नहीं अब कुछ ’ वाली स्थिति में आ गया. लेकिन आज वो घटना याद आती है तो सोचता हूँ कि क्या ही बढ़िया सीख देती है यह घटना – कि किसी से कुछ मांगो तो अपनी हैसियत के अनुसार ही मांगो ..
वैसे तो अपनों से कुछ माँगना –मांग की श्रेणी में नहीं आता. दूसरों से माँगना ही मांग कहलाता है. हम किसी दूसरे से मांगे या कोई दूसरा हमसे, बात एक ही है. जिंदगी में सबसे पहले जिसे मांगते देखा,वे भिखारी थे,उनका तो धर्म-ईमान और जन्म सिद्ध अधिकार ही है मांगना..ना मांगे तो जिए कैसे? रोजाना बंधे-बंधाए भिखारी ही आते मांगने...आज की तरह नए - नए चहरे नहीं..सबका टाइम बंधा होता....एक निश्चित समय पर आते और मुट्ठी भर चांवल ले, ढेरों आशीष दे चले जाते.. बंधा-बंधाया रूटीन था.. घर का कोई भी सदस्य इस नेक काम को अंजाम दे पुण्य कमाने का हकदार होता ...उन्ही दिनों एक ब्राह्मण भी हरेक पन्द्रह दिनों में एकादशी के दूसरे दिन मांगने आता...मम्मी उन्हें ढेर सारा चांवल,दाल,नमक,आलू और एकाध सिक्के के साथ चरण स्पर्श कर बिदा करती..उसके मरने के बाद ही ये सिलसिला बंद हुआ..उन दिनों मांगनेवाले भी घर के सदस्य जैसे होते..घर के हर सुख-दुःख के वे भागीदार होते...हमेशा घर-परिवार का वे भी पूछ-परख रखते ....
बचपन में दूसरी बार जिसे मांगते देखा, वह बगल वाली पड़ोसन थी जो रोज दोपहर , तीन-चार- बजे के बीच बिला नागा एक हाथ में एक बेडौल थालीनुमा कंडा ले ‘आग’ मांगने आती और मेरी मम्मी पूरी सदाशयता और तत्परता के साथ चूल्हे से जलती लकड़ी खींच कुछ कोयले के टुकड़े उसमे धर ऐसे सौंपती जैसे कोई जागीर सौंप रही हो..तब अमीरी-गरीबी का मुझे इल्म नहीं था..आज सोचता हूँ तो ताज्जुब होता है- क्या माचिस भी उन दिनों टी.वी. फ्रिज की तरह था? नित्य ही मैं यह दृश्य देखता..न पड़ोसन कभी मांगते शर्माती और न मम्मी कभी देते अघाती..बहुत ही बेशर्मी का ज़माना था..आज के लोग मांगने में थोडा सकुचाते हैं.. और किसी तरह मांग भी लिया तो सामने वाली पार्टी ( दाता ) देने में हिचकिचाता है... किसी तरह दे भी दिया तो उसका मन बार-बार कहता है-‘जो चला गया उसे भूल जा..’ उसका लौट कर आना मुमकिन नहीं .केवल दुआ मांगो – ‘ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना ’ उन दिनों पडोसी बहुत ही सहज तरीके से चायपत्ती, शक्कर,दूध आदि आपात स्थितियों में मांगकर ले जाते ..लेकिन बड़ी ईमानदारी से दो-चार दिनों में लौटा भी देते... कभी –कभी कोई गरम-गरम सब्जी भी मांगने आ जाता पर सब्जी लौट कर नहीं आता . आज की तारीख में कोई यूँ टुकड़े-टुकड़े शक्कर,चायपत्ती, दूध मांगने नहीं आता बल्कि सीधे-सीधे चाय ही मांगकर सुडक जाता है.
स्कूल के दिनों में कापी-पुस्तक माँगने वालों से पाला पड़ा. कोई न कोई हर दो-चार दिन में होमवर्क कम्प्लीट करने के नाम पर कापी मांग ले जाता. कोई-कोई यह कहकर पुस्तक मांगता कि उसकावाला पुराने एडिशन का है , उसमे वो लेशन नहीं है जो टीचर पढ़ा रहे...मांगना बुरी बात नहीं पर समय पर नहीं लौटाना बुरी बात है..यह सीख उन्हीं दिनों मिली.. कालेज पंहुचा तो हलकी-हलकी-दाढ़ी-मूंछ के साथ ‘दिल’ भी बाहर निकलने लगा. ..अमूमन सब के साथ यही हो रहा था..और लड़कियां भी स्वयंबर के मूड में दिखने लगीं..’ देता है दिल दे,बदले में दिल के ’ का दौर शुरू होने लगा..और मन में दुनियादारी से विरक्ति का भाव जागने लगा- ‘ना मांगू सोना चांदी , ना मांगूं हीरे मोती..ये मेरे किस काम के ‘ जैसा स्वाभाव होने लगा.. . मैंने पहली बार किसी नाजनीं से कुछ ( दिल ) माँगा...एक-दो महीने उसने गोपनीय तरीके से मेरे ‘चरित्रावली’ को चेक करने के बाद एक दिन अप्रत्याशित ही अपना दिल निकाल दे दिया..पांच साल तक उसका दिल मेरे पास ‘रहन ’ की तरह रहा और एक दिन वह एकाएक उसे छुडा ले गयी..वो चाहती तो जरुर थी कि उसका दिल परमानेंट मेरे पास रहे पर मेरे साथ एक तकनीकी खामी थी- मैं नौकरी पर न था..अपने दिल के साथ वह मेरा दिल भी ले गयी-ब्याज के बतौर...मैं बेदिल हो गया.
.घरवालों को पता चला तो उन्होंने मेरा दिल (वापस) रखने एक करीबी रिश्तेदार की लड़की का हाथ मेरे लिए माँगा लड़कीवाले तैयार हो गए पर उनकी भी एक माग थी कि पहले लड़का कुछ कमाए-धमाए...तब मम्मी मंदिरों में माथा टेक ईश्वर से मन्नत मांगने लगी और बाबूजी इधर-उधर मेरे लिए काम मांगने लगे. काम मिला तो बाबूजी लड़कीवालों से दहेज मांगने लगे...दहेज के साथ दुल्हन आई तो सुहागरात को कैकेयी की तरह दो की जगह दस ‘वर’ मांगने लगी कि मेरी खातिर गुटका मत खाईये.. सिगरेट मत पीजिए... दारू मत पीजिए...ताश मत खेलिए ..देर रात तक न घूमिये...आदि आदि अब सुहागरात को ‘तथास्तु’ कहने के अलावा कोई और क्या कह सकता है?.मैंने भी कह दिया. .
नौकरी और छोकरी जब एक साथ गले पड़ जाए तो फांसी की तरह वह प्रतिदिन कसता ही चला जाता है. .नौकरी लगते ही आदमी अपनी छोटी-छोटी मांगे जरुर पूरी कर लेता है पर अनेक बड़ी-बड़ी और नई-नई मांगे पैदा हो जाती हैं मसलन- वेतन वृद्धि की मांग,एरियर्स की मांग, बोनस की मांग, प्रमोशन की मांग,ट्रांसफर की मांग आदि...आदि...आदि. इधर बीबी की मांगें भी हनुमान की पूंछ की तरह बढती जाती है..गहने-गूंठे ,रुपये-पैसे, बंगला-कार और एक-दो फूल की तरह बच्चे.. इतना सब मेंटेन करने कभी यार-दोस्तों से उधारी मांगी जाती है..तो कभी बैंकों से सहयोग ( पर्सनल लोन ) की मांग की जाती है..कई-कई लोग उधार मांगने में सकुचाते हैं तो वे सीधे रिश्वत की मांग कर बीबी-बच्चे मेंटेन करते हैं.. वैसे आजकल ए.सी.बी. जिस तरह रिश्वतखोरों के पीछे हाथ धोकर उनका हाथ धुलवा ‘रेड’ कर रहे हैं, वे लाल-पीले हो इस ‘आप्शन’ पर कम जा रहे हैं
नौकरी-छोकरी , घर-परिवार, काम-धंधा से कभी छुटकारा पा बाहर झांको तो उधर भी कोहराम मचा है. हर कोई किसी न किसी से कुछ न कुछ मांग रहा है..कोई चंदा तो कोई धंधा, कोई वोट तो कोई नोट, कोई क्षमा तो कोई रहम,.कोई इंसाफ तो कोई इस्तीफा, कोई साथ तो कोई हाथ, कोई हिस्सा तो कोई बंटवारा, कोई नगद तो कोई उधार.....सब मांग-मांग कर जी रहे हैं...लेकिन अब जमाने ने नयी करवट ली तो आज की मांगे भी बदल गयी - आरक्ष ण की मांग, छोटे राज्य की मांग, राष्ट्रपति शासन की मांग, समान अधिकारों की मांग,सी.बी.आई की मांग,. जांच आयोग की मांग...आदि..आदि पर हद कर दी आपने- अजीब-गरीब मांग कर-इच्छा-मृत्यु मांगकर.. नोबल पुरस्कार लौटाने की मांग कर. क्या ज़माना आ गया.. फांसी चढ़ने वाले को पूछ लेते हैं- ‘बता...तेरी अंतिम इच्छा क्या?’और जिसकी पहली इच्छा ही फांसी चढ़ने की ( मरने की ) है , उसे कहते हैं- अभी नहीं... पुरस्कार लौटाने की मांग पर व्यथित हूँ और बहुत हद तक मन ही मन खुश भी कि मुझे आज तक ‘नोबल’ नहीं मिला अन्यथा लौटाने की मांग पर मैं काफी दुखी होता...कम से कम एक भारी दुःख से तो निजात पाया...