मांझी न बजाओ वंशी / ओम निश्चल
केदारनाथ अग्रवाल की कविता का स्थापत्य
लगभग तीस बरस के पहले के दौर को याद करता हूँ तो पाता हूँ कि जब से गाने गुनगुनाने का शौक पैदा हुआ, कुछ गीतों से मन का ऐसा अटूट नाता बना कि आज भी वे गीत या उनके मुखड़े गाहेबगाहे याद हो आते हैं। इन गीतों में बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु तथा आज मन पावन हुआ है (निराला), जैसे गीत थे तो महुआ के नीचे मोती झरे, महुआ के (बच्चन), मन का आकाश उड़ा जा रहा, पुरवैया धीरे बहो (शम्भुनाथ सिंह), पिया आया बसंत फूल रस के भरे(गिरिजा कुमार माथुर), झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की (केदारनाथ सिंह) तथा अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुबेला (धर्मवीर भारती) जैसे सुमधुर गीतों की छटा भी कुछ कम न थी। वंशी और मादल (ठाकुर प्रसाद सिंह) के बहुतेरे गीत एक दौर में खासा चर्चित रहे। लोक जीवनचर्या के उल्लास और उदासियों से भरे ये गीत आज भी अपने चाक्षुष बिम्बों के कारण चित्त को आकर्षित करते हैं। पाँच जोड़ बाँसुरी गीत का स्मरण होते ही लगता है, सचमुच कोई पर्वत के पार से बाँसुरी बजा रहा है और बासंती रात के आखिरी पल अत्यंत बेसुध, विह्वल और निर्मल हो उठे हैं। बाद के दिनों में गीतों की इस विकल खोज यात्रा में रात न माने सपने मैंने बहुत उन्हें समझाया (राजेन्द्र किशोर), एक पेड़ चॉदनी लगाया है आंगने,फूले तो आ जाना एक फूल माँगने (देवेन्द्र कुमार), मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था (शिवमंगल सिंह सुमन), जैसे गीत मिले। एक दौर नीरज, रामावतार त्यागी और रामानंद दोषी के गीतों का भी रहा है और उमाकांत मालवीय के ताजे टटके बिम्बों वाले नवगीतों का भी, किन्तु नवगीत विधा का कोई ऐसा संपूर्ण कवि याद नहीं आता जिसमें जीवन की सभी हलचलों की आमद हो। वीरेन्द्र मिश्र गीत के होकर ही रह गए तथा आखिरी वर्षों में उन्होंने नदी की धार कटेगी तो नदी रोएगी जैसा मर्म स्पर्शी गीत हिंदी को दिया रोमान और अवसाद की गलियों में ले जाने वाले किशन सरोज के कुछ गीत भी भले लगे और हाल ही में प्रकाशित सूर्यभानु गुप्त का गीतशाम के वक्त कभी घर में अकेले न रहो भी, जो हर अकेले शख्स का जैसे अपना गीत बन गया। गीत की इस लंबी परम्परा में एक ऐसा कवि भी हमारे बीच रहा है जिसने एकाधिक गीत लिख कर ही संतोष नहीं किया, बल्कि अपने पूरे जीवन को ही छंदमय बना दिया और एक सम्पूर्ण कवि की प्रतिष्ठा पाई। माझी न बजाओ वंशी मेरा मन डोलता, ऐसे अनेक प्रिय गीत रच कर केदारनाथ अग्रवाल हमारे बीच से चले गए पर उनका यह गीत जब भी होठों की नमी पाकर अठखेलियॉ करता गुनगुनाहट की बंदिशों में तद्बील होता है, एक मद्घिम नीली सुरीली आंच समूचे वातावरण को अपने सांगीतिक लालित्य में अन्तर्भुक्त कर लेती है। कविता में ऐसे गोचर और मूर्त बिम्बों का सृजन करने वाले कवि कम होंगे जो देखते ही देखते अपने शद्बों, पदावलियों और अंदाजेबयाँ से जीवन की हलचलों का ताना बाना बुन दें।
केदारनाथ अग्रवाल ऐसे ही कवियों में है जो उत्तर प्रदेश के बॉदा जनपद के कमासिन गाँव में जन्मे और जीवन भर बॉदा से बाहर नहीं गए। इलाहाबाद और कानपुर से शिक्षा ग्रहण कर लौटे तो जीविका के लिए अथवा कविता में यश पाने के लिए साहित्य और कला के सत्ता केंद्रों की ओर रुख नहीं किया, दुनियावी प्रलोभन उन्हें खींच न सके। वे बाँदा में वकालत करते रहे और अपने कस्बाई मिजाज के होने के बावजूद साहित्य की धुरी पर प्रतिष्ठित कवियों की ढ़िवादी,कलावादी और सौंदर्यवादी प्रवृत्तियों से लोहा लेते रहे। ये वही केदार हैं जिन्होंने कभी तार सप्तक में सम्मिलित होने का अज्ञेय का प्रस्ताव ठुकराया और भरसक उनकी जमात से अलग होते हुए भी कविता माधुरी के सृजनसंवर्धन में संलग्न रहे। निराला से नैकटा के कारण रामविलास शर्मा के भी प्रिय बने और जीवनपर्यन्त मैत्री का निर्वाह किया। यह कहना अतिशय नहीं कि रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज से उनकी मैत्री न होती तो केदार के कवि का श्रेय और प्रेय प्रायः अलक्षित ही रह जाता। जिस दौर में किसी भी युवा कवि के लिए अज्ञेय के प्रस्ताव की अनदेखी कर पाना संभव न था, यहॉ तक कि रामविलास शर्मा, मुक्तिबोध और शमशेर तक सप्तक में शामिल थे, अपरिग्रह की मिसाल बन कर उससे अलग रहना अपने आप में सत्ता केंद्रों को चुनौती देना है। सप्तक में न शामिल होकर नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और त्रिलोचन ने अपनी प्रगतिशीलता के चरित्र पर आंच नहीं आने दी, स्वयं को किसी भी सत्ता के प्रति भवदीय नहीं बनने दिया। यही नहीं, बार बार उन्होंने दुहराया भी कि मैं कतई प्रयोगवादी नहीं हूँ।
केदारनाथ अग्रवाल को पढ़ते हुए अक्सर यह बोध मन में जाग्रत होता है कि चाहे जैसे भी हो, केदार ने अपना कविकद स्वयं निर्मित किया है। किसी का दिया हुआ नही है। हजार ग़म सही दिल में मगर खुशी ये है/ हमारे होठों पे माँगी हुई हँसी तो नहीं। केदार का कवि बुंदेलखंडी ज़मीन और मिजाज का कवि है। बुंदेलखंड की धरती की छाती पानी के लिए दरक जाती है, बादल निहारते जनता के कंठ सूख जाते हैं, स्त्रियाँ गहरे कुँओं और जल के स्रोतों की तलाश में मीलों लंबा सफर कर सिर पर पानी ढोकर लाती हैं फिर भी उफ नहीं करतीं। केन नदी, जिसका सबसे ज्यादा वर्णन केदार ने अपनी कविताओं में किया है, उससे उनका इतना सख्य भाव है कि उसकी तनिक भी उदासी उन्हें विचलित कर देती है। वे केन किनारे उसका सौंदर्य, उसकी चपलता, उसकी लहरें निहारते घंटों बैठे रह सकते थे।
केदार और नागार्जुन ने एक दूसरे पर कविता लिख कर अपने नैकट्य का परिचय दिया है। केदार पर लिखते हुए नागार्जुन ने अपने को बड़भागी और आभारी माना है कि उन्हें केदार जैसा मित्र मिला। आज संपर्कवाद का युग है, मैत्री का मान रखने वाला समाज नहीं रहा। अतिशय स्वार्थ ने मैत्री की बलि चढ़ा दी है और कवियों में मैत्री तो आज लगभग असंभव सी है। एक कवि दूसरे की सराहना तो कर ही नहीं सकता। औफ द रिकार्ड और औन द रिकार्ड में काफी अंतर आ गया है। अक्सर कवि अपने समकालीनों पर लिखने या कुछ कहने से बचना चाहते हैं, बेशक पीठ पीछे की ट्रिपणियों से बाज नहीं आएँ। ऐसे दौर में नागार्जुन केदार और रामविलास केदार मैत्री अचरज में डाल देती है। मात्र चार दिनों के बाँदा प्रवास में नागार्जुन ने वह सब देख लिया जो केदार और उनके इर्द गिर्द व्याप्त था। परिवेश, फौलादी पत्थर, बुंदेलखंड की रसप्रसविनी भूमि, गंधर्व नगर जैसा दिपदिपाता बाँदा, मुस्कानों से बरसती गरीबी, केन का प्रवाह, भिखमंगों का चिर अधिवेशन, धूल भरी राहें, प्रशस्त आंगन, पपीतों की बगिया, चितकबरी चॉदनी, नीम की छतनार डालें और केदार के गेहुएँ मुख मंडल पर फैली फैली आंखों में दमकता युग। बाँदा से लौट कर नागार्जुन लिखते हैं
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदा वाले
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे जिला अदालत के वे हाकिम
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए है जो कि मुलाजिम
प्यारे भाई, मैने तुमको पहचाना है
समझा-बूझा है, जाना है.....
केनकूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो
कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो
खड़ी सुनहली फसलों की छवि छटा निराली, वह भी तुम हो
लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली
वह भी तुम हो।
(जागो जन मन के सजग चितेरे/नागार्जुन)
केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और त्रिलोचन लगभग एक ही भावधारा के कवि हैं। कविता कला में कौन कितना गहरा है,यह बात अलग है, किन्तु मिजाज तीनों कवियों का लगभग यकसाँ है। केदार कहते हैं-मर जाऊँगा तब भी तुमसे दूर नहीं हो पाऊँगा/ मेरे देश तुम्हारी छाती की मिट्टी हो जाऊँगा। नागार्जुन भी अपने आखिरी दौर में अपने खेत को याद करते हैं। अपने खेत में शीर्षक उनका संग्रह उनके आखिरी दिनों में ही आया था, जो अपनी ज़मीन से जुड़ने के इसी भावबोध से भरा है। अपने अंतिम दिनों में त्रिलोचन के भी दो संग्रह आए। जीने की कला और उससे पहले मेरा घर। जीने की कला में वे प्रकृति और खेती किसानी से जुड़ कर लिखी कविता में जैसे लोगों को जीने की कला सिखा रहे हों। किन्तु मेरा घर में उनका यह कहना कि मुझे अपने मरने का थोड़ा भी दुख नहीं/ मेरे मर जाने पर शब्दों से मेरा संबंध छूट जाएगा जैसे कवि की आत्मिक कचोट का परिचायक है। कवियों का शब्दों से अटूट नाता होता है। ध्यान से देखें तो शद्ब त्रिलोचन की कविता का बीज शब्द है-श्लेष से भरा। इस शीर्षक से उनका एक संग्रह भी है। उनके शद्ब लोक के, समाज के, जनपद के बोले-बरते हुए शद्ब हैं-उस धरती से उपजे हैं जो ताप से ताई हुई है, जो चैती और अमोला की धरती है।
इस तरह तीनों ही कवि अपनी धरती, अपने समाज, परिवेश और प्रकृति से गहरा नाता रखने वाले कवि हैं, शब्दो के मर्म, कनय और उस जनसंस्कृति के सद्भावी कवियों में हैं। उन्होंने अपनी कवितायात्रा में लोक के मिजाज को, गँवई गॉव की धूल मिट्टी से जन्मी भाखा को आंतरिकता से सहेजा है। नागार्जुन बाँषला, मैथिली, संस्कृत, पालि और हिंदी के ज्ञाता व छंदों के मर्मज्ञ थे तो त्रिलोचन अवधी, हिंदी और उर्दू के निष्णात रसिक, रचनाकार, वाषगेयकार व छंदों के सम्यक साधक। केदारनाथ अग्रवाल में बुंदेलखंड की धरती का सत्व, तत्व बोलता है, उनका निर्झर जैसा मन केन के जल की उत्ताल तरंगों सा प्रवाहित होता है। वे धुर देहात, गॉव और कस्बे की संवेदना के कवि तो हैं ही, औपनिवेशिक भारत में जनता की बदहाली से परिचित कवि भी जिन्होंने अपने कवित्व को कला की कारीगरी में न बदल कर उसे जनता की बोली बानी के साँचे में ही ढाला, जिससे वह वक्त जरूरत कविता के साथ साथ निर्बल मनुष्य के जीने का संबल बन सके, नारों और रोजमर्रा के काम आने वाले मुहावरे में भी ढल सके और जीवन के आड़े वक्त काम आए। कहना न होगा कि जन जीवन में सबसे ज्यादा उद्घृत और मौके पर काम आने वाले तुलसी और कबीर के बाद कदाचित निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार जैसे कवि ही हैं जिनकी रचनाओं में जीवन की बहुवस्तुस्पर्शी गतिविधियों के चित्रण और सुभाषित मिलते हैं, निराशाओं और हताशओं से लड़ने-जूझने की प्रेरणा भी। हिंदी भाषी समाज ऐसे कवियों की तरफ उम्मीद से देखता है।
जन्मशती के अवसर पर चर्चा में बराबर बने हुए केदारनाथ अग्रवाल हिंदी की प्रगतिशील काव्यधारा के उन चुनिंदा कवियों में हैं जिन्होंने औपनिवेशिक और स्वातंत्र्योत्तर भारत में शोषण और वर्चस्व के पाटों में पिसती आम जनता के हक में आवाज उठायी है। प्रगतिशील हल्के के कवियों में उनसे कोई तुलनीय हो सकता है तो वह नागार्जुन हैं। निराला के बाद कविता को एक तरफ शिल्पसजग और प्रयोगवादी कविता की राह पर ले जाने वाले अज्ञेय जैसे आधुनिकतावादी और शमशेर जैसे ऐंद्रिय बोध के सौंदर्यग्राही कवि थे तो दूसरी तरफ जनता के बीचोबीच रह कर उनके शोषण, पीड़ा, गरीबी और गुलामी की जंजीरों में जकड़े देश के स्वाभिमान को स्वर देने वाले प्रकृति के अनुगायक केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन तथा त्रिलोचन जैसे कवि थे जिनकी रचनाएँ आत्मनिमषन और निज के रागरंजन में दत्तचित्त होकर नहीं रह जातीं बल्कि जनता से सीधा संवाद करती हैं। उनकी कविताओं में वैसा ही आवेग है जैसा आम जनता के भीतर पाया जाता है। खरी खरी और दोटूक लहजे में कहने वाले केदार की अनगढ़ कविता काव्यरसिकों को तो लुभाती ही है, वक्त जरूरत उसे नारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
केदारनाथ अग्रवाल पेशे से वकील होने के कारण जैसे जनता के हितों के पैरोकार नजर आते हैं। अकारण नहीं कि अपनी इसी साफगोई और सामाजिक प्रतिबद्घता के कारण रामविलास शर्मा जैसे दिग्गज आलोचक ने निराला के बाद यदि किसी को अपनी आलोचना में ॐचा आसन दिया है तो वह केदारनाथ अग्रवाल ही हैं। यों उन्होंने शमशेर के गद्य की भी भूरि भूरि सराहना की है। पर उनके पद्य के प्रति कदाचित संशयी थे। उनके लेखे, शमशेर के लेखन में जो पद्य में नहीं है, वही सबसे महत्वपूर्ण है। चाहे वह गद्य उनके निबंधों में हो, चाहे उनकी कविताओं में। (शमशेर बहादुर सिंह की कुछ गद्य रचनाएँ,भूमिका)
प्रगतिशील कवियों में उनसे अग्रतर स्थिति में नागार्जुन और त्रिलोचन थे किन्तु राम विलास शर्मा ने केदारनाथ अग्रवाल पर केंद्रित पुस्तक प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल लिख कर जताया कि प्रगतिशील साहित्य और वामपक्ष, जनवादी क्रांति, पूर्ण स्वाधीनता, यथार्थवाद और नई प्रगतिशीलता तथा कविता की सामाजिक प्रासंगिकता के आईने में केदार का अपना महत्व है। उन्होंने घन गरजे जन गरजे, आग लगे इस रामराज में, एक हथौड़े वाला घर में और हुआ, दीन दुखी यह कुनबा, धूप धरा पर उतरी, मैं घूमूँगा केन-किनारे, मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला, जिन्दगी की भीड़ में, रेत मैं हूँ जमुनजल तुम, तथा मैं लड़ाई लड़ रहा हूँ-इन दस शीर्षकों में केदार की प्रिय कविताओं का अपना चयन भी प्रस्तुत किया और कहना न होगा कि केदार की कविताओं का विषयवस्तुवार इतना सटीक और समावेशी चयन कोई दूसरा नही हो सकता । इस चयन से केदारनाथ अग्रवाल के कवि की शख्सियत और कृतित्व के वे सभी पहलू रोशन होते हैं जिनसे प्रगतिशील कविता की चारित्रिक पहचान की जा सकती है।
केदारनाथ अग्रवाल उस धरती के कवि हैं जो त्रिलोचन की धरती से थोड़ा अलग है-लगभग पठारी क्षेत्र, जहाँ वर्षा के अभाव में धरती का सीना दरक उठता है, किसानों का श्रम नियति के भाग्यलेख के आगे निष्प्रभ हो उठता है। ऐसे परिवेश से होकर निकले केदार के यहाँ बादलों की तनिक भी गरज कवि की संवेदना को प्राणवायु से भर देती है। जलाभाव से ग्रस्त इस इलाके में कदाचित नदी के लिए कवि के मन में इसीलिए इतना प्रेम भरा है ( मैं घूमूँगा केन किनारे) कि उसे नदी की उदासी ( आज नदी बेहद उदास थी) और तेज धार का कर्मठ पानी विचलित करता है तो केन के तड़पने और काल के कगार पर खड़े पेडों की पीड़ा कचोटती है। रामविलास शर्मा जी भारत में प्रगतिशील साहित्य के संगठित आंदोलन की शुरुवात १९३६ के लखनऊ के प्रगतिशील लेखक सम्मेलन से मानते हैं। क्योंकि लंदन में १९३५ में मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर द्वारा स्थापित भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खात्मे या पूर्ण स्वाधीनता का कही कोई जिक्र नहीं था। विडंबना यह कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों के पोषण में लगी शक्तियाँ हिदुस्तान की पूर्ण स्वाधीनता में बाधक थीं। रामविलास जी ने भारत में प्रगतिशील आंदोलन के विकास में बाधक वजहों की सम्यक् मीमांसा की है और यह बताया है कि ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध जनवादी चेतना का पहला बड़ा आह्वाहन केदार के संग्रह युग की गंगा में मिलता है जो मार्च ४७ में प्रकाशित हुआ था। क्या संयोग है कि १९५३ में आया नागार्जुन का संग्रह युगधारा स्वाधीनता की स्वातंत्र्योत्तर परिणति पर प्रहार करते हुए केदार की परम्परा को ही आगे बढ़ाता है। निराला के नए पत्ते पर भी इस युगीन विक्षोभ की छाया है। बेशक अज्ञेय की प्रयोगवादी धारा ने प्रगतिशीलता के पाले में खड़े कुछ लेखकों, कवियों को अपनी ओर आकर्षित किया किन्तु अंततः जनाकांक्षाओं के बलबूते प्रगतिशील कविता धारा को व्यापक जन समर्थन मिला । यहाँ तक कि शमशेर जैसे महीन संवेदना के कवि तक अज्ञेय की सुचि के कायल होते हुए भी यही कहते रहे कि कविदृष्टि उन्हें नागार्जुन और त्रिलोचन से ही मिली। । केदारनाथ अग्रवाल शहरी आधुनिकता के कवि नहीं हैं। बेशक, उनके यहॉ कला की बारीक बीनाई न हो, भाषा की भंगिमा नई न हो, पर जनकवि होने के नाते वे काव्यभाषा के लिए कोशीय कवायद नहीं करते, अनावश्यक बेल बूटे नहीं टाँकते लोक के पास जाते हैं, सानीपानी और गाँव के गलियारों की धूलधक्कड़ के बीच से भाषा उठाते और बरतते है। इसीलिए वे इस विश्वास से कह पाते हैं-जरामरण से हार न सकते मेरे अक्षर/ मेरी कविताएँ गाएगी जनता सस्वर।
किसानों, मजदूरों के लिए गीत लिखने वाले, उनके संघर्षों के चित्र उकेरने वाले केदार को कविवर राजेश जोशी ने नगरीय संवेदना का कवि माना है। एक कवि की नोट बुक में उन्होने केदार पर लिखते हुए कहा है कि मुझे लगता है केदार मूलतः नागरीय संस्कार के ही कवि हैं। उनकी संवेदना किसानी नहीं है, वह नागरीय है। उनका कहना है कि केदार जी ने लोकगीतों का जो स्वाद ग्रहण किया है, वह लोकजीवन या लोक साहित्य से प्राप्त नहीं है। वह वस्तुतः साहित्य या कला न होकर मात्र मनुष्य की गतिविधि, एक जीवन प्रक्रिया का हिस्सा है। मुझे राजेश जोशी का यह कथन मान्य नहीं लगता। कौन कहेगा कि इन धनहा खेतों के ऊपर जैसा खेती किसानी में रमा गीत लिखने वाला कवि नगरीय होगा। इस कविता की पंक्तियाँ देखें और निर्णय करें कि केदार की कवि संवेदना गँवई है या नगरीय,वे किसानी चेतना के कवि हैं या शहराती भावबोध के
आये हो तो उमड़ घुमड़ कर, नीचे आकर
और निकट से इन धनहा खेतों के ऊपर
अनुकंपा का झला मार कर जी उँड़ेल कर
झम झम झम झम बरसो,
गिरे दौंगरा गद गद गद गद
लिये हौसला झड़ी न टूटे,
भरे खेत, उफनायें, लहरें
हरसें, हहरें,
रोपे धान बढ़ें बल पायें, पौष पाएँ
हरी भरी खेती हो जाए, सुख सरसाए।
(प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल,पृष्ठ २६३)
कहना न होगा कि उनके इसी तेवर को देख कर शमशेर ने एक बिल्कुल पर्सनल एसे में अपने संम्प्रेशन्स दर्ज करते हुए लिखा है-किसान और मजदूर के हाथ और रगपुट्ठे कहीं हमारे हाथों और रगपुट्ठो को रगड़ते हुए से लगते हैं और अपना वेग और सहज शक्ति बरबस ही हमें महसूस कराते हैं। उनके यथार्थ वातावरण की गृहिणी, उनके किसान, युवक और युवती और खेतो की सजीव हरियाली और भोली भाली रंगीनी अपना परिचय हमेशा के लिए हमसे दृढ़ कर लेती है।(कुछ और गद्य रचनाएँ/ शमशेर बहादुर सिंह,पृष्ठ २०) कोई किसानी चेतना का कवि ही आषाढ़ की पहली झमाझम बारिश के लिए दौंगरा का इस्तेमाल कर सकता है, नगरीय कवि नहीं। शमशेर ने अपने उक्त संम्प्रेशन्स के अलावा, फूल नहीं रंग बोलते हैं पर विस्तृत समीक्षा लिखी है।
कदाचित रामविलास शर्मा के बाद उस दौर में शमशेर ने ही केदार की कविता की मौलिक रंगतों को बारीकी से पकड़ा है। शमशेर का उनके बारे में यह कहना उनका सटीक मूल्यांकन है कि उसकी वाणी में एक कसबल है जो बुंदेलखंड का ही नहीं, उसका तो है ही, हर स्वस्थ मेहनतकश नौजवान का भी है। उसके शिल्प में बारीकियॉ न होते हुए भी, उसके अंदाज में जोर और असर है और एक अजीबसी ताजगी। इधर की उसकी कविताएँ प्रेम और प्रकृति से संबंधित, अपने ढले हुए सौंदर्य में हजार शिल्पगत बारीकियों को शर्माती हैं। (वही, पृष्ठ २१३) इस मूल्यांकन में उनकी सीमाएँ भी बताई गयी हैं। ताजगी तो है पर अजीबसी ताजगी। दूसरे, शिल्प में बारीकियॉ न होते हुए भी अंदाज में जोर और असर। और फिर जैसा भी उनकी प्रेम और प्रकृति की कविताओं का ढला हुआ सौंदर्य है, वह हजार शिल्पगत बारीकियों पर भारी पड़ता है। कहने का अर्थ यह कि केदार उस कवि परंपरा के कवि हैं जिनकी वाणी में ओज है, तेज है, शिल्प की बारीक बीनाई न होते हुए भी उसमें एक ताजगी है और सच तो यह कि सादगी में रची बसी उनकी कविताएँ शिल्पसज्जा की कमी के बावजूद असर करती हैं।
याद रहे, रामविलास शर्मा ने ही अच्छे गद्य की पहचान शीर्षक भूमिका में लिखा है कि कविता केवल जनगान नहीं, उसमें जनसंघर्षों की गूँज के अलावा और बहुत कुछ है। उसमें व्यक्तित्व की उलझनों के लिए जगह है, लेकिन सामाजिक दायित्व और जन आंदोलनों से कट कर कविता केवल व्यक्तिगत कुंठाओं के दायरे में घुमड़ती रहे, यह भी एक अस्वाभाविक क्रिया है। हमें यह देखने की जरूरत है कि केदार अपनी कविताओं में कहॉ तक इन अपेक्षाओं पर खरे उतरते हैं। क्या उनकी कविताएँ केवल जनगान हैं या वे कविताकला की दूसरी कसौटियों पर भी खरी उतरती हैं। कितनी विडम्बना है कि कभी केदार जी ने भरोसे और आशावादी तेवर के साथ लिखा था-वह जन मारे नहीं मरेगा। आज राज्य व्यवस्था का सबसे ज्यादा प्रहार इसी जनता पर है। करों के बोझ से दबी, दैवी आपदाओं, लालफीताशाही से ग्रस्त, पानी, बिजली और मूलभूत सुविधाओं के लिए त्राहि त्राहि करती जनता आज भी किस तर्क से जीवित है, यह अचरज का विषय है। प्रकृति के दृश्य और सुनहरी फसलों की मुस्कान पर किसान थोड़ी देर को भले ही खुश हो ले, उसकी कमाई आढ़तियों और पूँजीपतियों की जेब में जानी है। ऐसा न होता तो विदर्भ के किसान आत्महत्या को अपना अंतिम शरण्य क्यों मानते।
केदार के भीतर एक क्रांतिकारी कवि का तेवर है, लोक कवि का अंदाजेबयाँ हैं, रोमानी अनुभूति से भीगी संवेदना है और समाज के शोषित, दलित तबके से गहरी सहानुभूति भी तथा मेहनतकशों, किसानों से हार्दिक संवेदना भी।वे प्रकृति से गहरा संपर्क रखने वाले कवियों में हैं। कविताओं में कल्पना में उड़ान भरने वाली तितलियों के चित्र उन्होंने नहीं आँके हैं बल्कि धरती की सोंधी महक, उसके रंग बिरंगे फूलों, पशु पक्षियों, हल बैल, दीन दुखियों के बीच गुजरबसर करने वाली जनता की व्यथा दर्ज की है। लोग उन्हें कचहरी में ढूढ़ते, पर केदार तो लुटी पिटी जनता की लड़ाई कचहरी में नहीं, कविताओं में लड़ते थे। लिहाजा, कचहरी के फुलस्केप वाटरमार्क पेपर में हलफनामे के बजाय उनकी कविताएँ दर्ज होतीं, जैसे प्रसाद रसीद बहियों में कविताएँ टाँकते। मानो, वे जनता जनार्दन से कबीर के लहजे में कहना चाहते हों- मोको कहाँ ढूढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में। केदार की कविताओं से गुजरते हुए लगता है, हाँ ! यह कवि सच्चे अर्थों में भारत का कवि है, भारत की जनता का कवि है, जनता जो निरक्षर है, अल्प साक्षर है, निम्नवर्गीय है-दो जून की रोटी के लिए जिसका सारा संघर्ष है, और वही मुहाल है, जो लालफीताशाही, राजनीतिक चालों, किसानमजदूर विरोधी नीतियाँ बनाने वाली सरकारों और जनता की कमाई हड़पने वाले पूँजीपतियों, नवधनाढ्यों, बहुराष्ट्रीय निगमों की मिली भगत से त्रस्त है जो न्याय पाने की क्रूर और कुटिल प्रक्रियाओं की भुक्तभोगी है, जो जंगली जनतंत्र में लोकतंत्र की पवित्र आस्था की पोटली सम्हाले गरबीली गरीबी में दिन गुजार रही है। केदार जीवन भर इसी जनता को जागरूक बनाने का काम करते रहे।
उनमें गँवई अक्खड़ता थी तो कवि सुलभ मस्ती भी। केन के किनारे बैठकर उन्हें मछलियों की उछलकूद और बगुलों की श्वेतपंक्ति निहारते हुए देखा जा सकता था तो यह अनुनय करते हुए भी कि माझी न बजाओ वंशी, मेरा मन डोलता। परकीया प्रेम से आच्छादित हिंदी कविता में उन्होंने दाम्पत्य प्रेम की विरल दुनिया रची और हे मेरी तुम, जमुन जल तुम तथा मार प्यार की थापें जैसे उदात्त प्रणय में भीगे संग्रह हिंदी को दिए। कमीज की बटन टूटती तो उन्हें पत्नी याद आतीं। खुद को रेत और पत्नी को जमुनजल बताते तो सजल संवेदना में स्नात स्त्री की बाँकी छवि आँखों में तिर उठती। प्रिय पत्नी को रेत पर बैठने का आमंत्रण देते, हाथो में हाथ लिए जीवनभर साथ निभाने का संकल्प लेते, अपनी हार, अपनी व्यथा-कथा सुनाते, एक दूसरे को निहार कर सुख पाते, लोचनों, कुन्तलों, बाहुओं में वैसे ही डूबा महसूस करते जैसे सदियों से पहाड़ सिंधु में डूबे हैं मगर आवाज तक नहीं उबरे। रागानुराग की जैसी अनूठी संवेदना उन्होंने उकेरी है, वैसी शाश्वत सनातन संवेदना कदाचित अन्यत्र न दिखे। दाम्पत्य में ही प्रेम के अलौकिक सुखों की अनुभूति पाने वाले केदार ने अनुराग और स्नेह की जैसी निर्झरिणी बहाई है, वैसी अन्यत्र नही दिखती। पत्नी प्रेम तो सभी विवाहितों को सुलभ है। लोग प्रेम भी करते हैं पर दाम्पत्य को वह गौरव नहीं देते जो गौरव केदार ने दिया है। मैं जानता हूँ कि दुनिया भर की अमर प्रेम कथाओं के पीछे किसी दाम्पत्य का बड़ा आधार नही है। प्रेमियों ने तो सदैव दाम्पत्य को जैसे बंधन ही माना है। प्रेम निर्बन्ध, स्वझछंद क्रिया व्यापार है। इसकी कोई सीमाबद्घता नहीं है, यहॉ नैतिक-अनैतिक का कोई द्वंद्व नही है। फिर भी केदार ने प्रेम की उत्ताल तरंगों में जीवन के चरम सुख की अनुभूति की है जो उन्हें काम्य और प्राप्त रहा है। उनके प्रेम में देह की उत्सवधर्मिता भी है, देह से पार जाने का प्रयत्न भी। संभवतः रामविलास जी जैसे सुहृद उन्हें न टोकते तो प्रेम की और भी कितनी दिव्य झाँकियाँ वे प्रस्तुत करते। उन्हें पता भी होता कि प्रेम एक गोपन क्रिया व्यापार है, विज्ञापन की वस्तु नहीं,तो भी उनका नेह-निर्झर कहॉ थमने वाला था। फिर भी केदार जी का एक चिर रम्य प्रेमगीत द्रष्टव्य है
डाल दे दो मुझे अपनी
जहॉ छोटी लगी पत्ती की तरह हिलता रहूँ मैं
और जीवित बॉह में हिलता रहूँ मैं
हर हवा के हौसले में होश में जीता रहूँ मैं
धूप सूरज की गरम से भी गरम पीता रहूँ मैं
जुगनुओं की आग पतले ओठ से छूता रहूँ मै
डाल दे दो मुझे अपनी
बाँह दे दो मुझ अपनी।
(प्रगतिशील काव्यधारा और केदारनाथ अग्रवाल,पृष्ठ २९२)
केदार की कविता स्वाधीनता की पुकार है। वह भारत में ब्रिटिश पूँजी के हितुआ कांग्रेसी नेताओं की नीयत पर प्रहार करती है। समाजवाद नहीं, जनवाद का सपना देखती है। पसीना बहाकर शिलाएँ तोड़ते श्रमिकों का यह कह कर स्तवन करती है कि जिन्दगी को वह गढ़ेंगे जो शिलाएँ तोड़तें हैं/ जो भगीरथ नीर की निर्भय शिराएँ मोड़ते हैं। निराला ने कभी इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोडती युवती का एक मार्मिक चित्र आँका था। निराला के लिए यह दृश्य सह पाना कठिन था। केदार पत्थर तोड़ने को कोई हेय काम नहीं मानते, बल्कि इसके विपरीत इसे मजदूर के भाग्य की सौगात मानते हुए सरकार को सुनाते हुए कहते हैं-सुन ले री सरकार/ कयामत ढाने वाला और हुआ/ एक हथौड़े वाला घर में और हुआ। केदार उस रामराज की मुखालफत करते हैं जिसमें गरीबों की चमड़ी से अमीरों की ढोलक मढ़ी जाती हो। ठीक ही तो कहते हैं वे, जहॉ गरीबों की रोटी रूठे, कौर छिने, थाली अन्न बिना सूनी रहे, ऐसे रामराज को आग लगे। याद आता है एक लोक कवि का यह कथन कि तोहरे सोने कै तिलरिया हमरे काहे लागै हो।
रामविलास शर्मा ने केदार जी को किसानी चेतना का कवि कहा है। कविता में राजनीतिक पत्रकारिता की छवि प्रस्तुत करने वाले कवि के रूप में स्मरण किया है। भारतीय जनता की अस्मिता का कवि माना है, आस्था और प्रतिश्रुति का कवि माना है, जनजागरण का कवि माना है तथा इस बात से वे आश्वस्त हैं कि केदार का जीवन वाक्यसंसार को व््रि़ाᆬया, कर्ता, कर्म से भर रहा है। रामविलास शर्मा का कहना है कि केदार की कविता में उदात्तता और सादगी का साहचर्य है-विद्घों के सामंजस्य जैसा। यहाँ तक कि उन्होंने उनकी प्रेम कविताओं का भी सामाजिक महत्व कम नहीं माना है। उनकी प्रेम कविताओं में रीतिवादियों का-सा उद्दीपन विभाव नहीं, जीवन की परस्परता और समरसता है। बसंती हवा जैसी अल्हड़ कविता लिखने वाले केदारनाथ अग्रवाल के लिए छंद कविता के स्थापत्य का जरूरी तत्व है, किन्तु वे छंद के बंदी नहीं दिखते,गद्य की गति और यति का कविता में अन्तर्भाव करते हुए लोक की समस्त जानी पहचानी भंगिमाओं का रूपांतरण करते हैं। इस हद तक कि उसका गुस्सा, उसका प्रेम, उसकी कणा, उसकी त्रासदी, उसका शोषण, उसकी अस्मिता, उसकी गरबीली गरीबी(दैन्य नहीं) सब कुछ कविता की शिराओं और धड़कनों में प्रतिबिम्बित हो। केदार से रामविलास जी की गहरी मैत्री थी। इसलिए अचरज नहीं कि रामविलास शर्मा के केदार अनुशीलन में उनका सवयभाव प्रकट है।
संयोग से यह चार चार बड़े कवियों का शताद्बि वर्ष हैः अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल। नेपाली जी को भी सौ वर्ष हो गए। इनके काव्यगुणों से साहित्यिक समाज परिचित है। इस बात को लेकर अवश्य नुक्ताचीनी हुई है कि कुछ लोग केवल अज्ञेय और शमशेर की ही जन्मशती मना रहे हैं, शेष कवियों को कदाचित वे इस योग्य नहीं मानते। अव्वल तो कवियों को पसंद नापसंद करने का एक लोकतांत्रिक अधिकार सबको है और इसी तरह यह भी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि कोई किस कवि को उसकी जन्मशती पर याद करता है या नहीं करता है। सौभाग्य से अज्ञेय कवियों में एक विराट शख्सियत रहे हैं,उनकी औपन्यासिक क्षमताएँ जानी पहचानी हैं, उनके निबंधों का अपना अर्थ गौरव है, उनके मूल्यांकन के लिए कसौटियाँ छोटी हैं। पर उनका भी विरोध कम नहीं हुआ। उन पर अतार्किक रूप से फोर्ड फाउंडेशन से संबंध रखने एवं कांग्रेस फार कल्चरल फ्रीडम से जुड़ने के आरोप भी लगाए जाते हैं। उनकी जन्मशती पर उनके चलताऊ गौरवगान के अलावा क्या कुछ सार्थक हो सकेगा, कहना मुश्किल है। कवि अपने लिए तो लिखता ही है, आने वाली पीढ़ियों के लिए भी लिखता है। यदि उसका लिखा आज के साथ साथ कल भी प्रासंगिक है तो पीढ़ियाँ खुद उसे तलाश कर पढेंगी। शमशेर एक कवि के रूप में अज्ञेय की ही तरह शिक्षित समाज के कवि हैं। अपनी संवेदना, तराश, संश्लिष्टता और शिल्प में अपने समकालीनों से अलग और अनूठे। उन्हें समझने के लिए पाठक का एक बौद्घिक और संवेदी स्तर होना चाहिए। जैसे जे कृष्णमूर्ति को हृदयंगम करने के लिए उस चिंतन के स्वीकार्य स्तर पर व्यक्ति का होना लाजिमी है। तभी अंतःसंप्रेषण और पारस्परिक संवाद संभव है। शमशेर को समझनेसराहने वाला समाज कितना कम है। अभी भी उपलब्ध टीकाओं के बावजूद उन्हें कितना समझा जा सका है, कहना कठिन है। हिंदी के अध्यापकों की समझ पर तो अज्ञेय भी तरस खाते थे। पर इससे उनकी महत्ता कम नही होती। नागार्जुन राजनीतिक सामाजिक चेतना के बडे कवियों में हैं। मैथिली और हिंदी भाषी समाज दोनों पर गहरी पकड़ रही है उनकी। उनकी कविता आजादी के बाद भारतीय राज्य व्यवस्था की विडंबनाओं का आलोचनात्मक जायज़ा लेती है। लोकतांत्रिक प्रहसन पर प्रहार करती है। उनकी कविता से जनता का गुस्सा, उल्लास और उसका आत्मगौरव प्रकट होता है। बोलीबानी, छंद, रूप, भाषा और अंदाजे बयाँ के जितने प्रयोग और स्तर उनके यहॉ मिलते हैं, उतने औरों के यहॉ नहीं। सच कहें तो कबीर सी अक्खड़ता आधुनिक कवियों में पहली बार नागार्जुन के यहॉ ही चरितार्थ होती है। वे एक ऐसे कवि है जिनके व्यंग्य और कटाक्ष से न इजारेदार बच पाए हैं न हाकिम हुक्काम और न राजनीतिक सत्ता की पारिवारिक फसल उगाने वाले। उनके उपन्यासों के चरित्रों को देखें तो हिंदुस्तान की आधी से ज्यादा आबादी का कच्चा चिट्ठा सामने आ जाता है। नागार्जुन की सरणि पर चलने वाले केदारनाथ अग्रवाल कवि तो उम्दा हैं। छोटेछोटे गीत और कविताएँ लिखने में उन्हें महारत हासिल है। पर उन्होंने न तो ऐसी दुनिया देखी जैसी नागार्जुन ने, न ऐसे आत्मसंघर्ष से गुजरे जहाँ चार दिनों तक चूल्हे के रोने और चक्की की उदासी का सन्नाटा व्याप्त हो। केदार को वह परिदृश्य भी सुलभ न हुआ, जिस परिदृश्य से गुजर कर हरिजनगाथा जैसी कालांकित कविताएँ जन्म लेती हैं या निराला की सरोज स्मृति जैसी शोकगीतिका का उद्भव होता है। नागार्जुन किसी दल या विचारधारा के पिछलग्गू न थे, हालाँकि वे शतप्रतिशत आम आदमी के दुखदर्द के कवि हैं। हर इल्म और फन के उस्ताद। लिहाजा केदारनाथ अग्रवाल के प्रति उपेक्षा का जो आलम है, वह इसलिए नही है कि उनकी जन्मशती मनाने में लोगो की रुचि नहीं है या कुछ ही लोग हैं जो मना रहे हैं। आखिर ऐसा क्यो है जबकि केंद्रीय साहित्य अकादेमी के अलावा हर प्रदेश के अपने हिंदी संस्थान/हिंदी अकादमियाँ हैं। आज भी निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन और केदार से प्रेरणा लेने वाली पीढी का कविता में वर्चस्व है। कितनी विडंबना है कि जन्मशती के पीछे भी खासी राजनीति है। सचाई यह है कि जनता में वाकई कवियों की पैठ नही रही। मीडिया चैनलों पर इसकी कोई न्यूज या व्यूज़ वैल्यू नहीं है। साहित्य के पाठक कम हो रहे हैं। अज्ञेय तो मानते ही थे कि उनकी कविताएँ आम आदमी के लिए नही हैं, लेकिन जिनकी कविताएँ आम आदमी के लिए हैं, मजदूर किसानों के लिए हैं, उनकी कविताओं को ही जनता क्यों भुला बैठी है। दर असल ऐसा समाज ही हम बनाने में अब तक कामयाब नहीं हो पाए है जिसमें कवियों, कलाकारों के प्रति लोगों में दीवानगी पैदा हो। एक जमाना था, बच्चन ने इलाहाबाद में साइकिल पर चलते हुए मधुशाला की प्रतियाँ बेची। लोगों में कविता के लिए बेचैनी पैदा की। उसके प्रति लोगों में आज भी क्रेज है। गॉवकस्बे के मेलोंठेलों में लोक कवि आज भी ऐसा ही करते हैं। मजदूरों, किसानों के एक अन्य प्रगतिशील कवि शील की कुछ कविताओं की प्रशंसा शमशेर ने भी की है। पर आज क्या स्थति है ? हमने कविता मंचों को अपाठा कवियों के हवाले कर दिया है। कविता मंचों पर या तो वीर रस के कवियों का चीत्कार है, या हास्यरस के कवियों का हा ! हा! कार। सच्ची कविता तो पाठापुस्तकों में दब कर रह गयी है या कुछ गुणग्राहकों के अंतःकरण में विराजती है। भूमंडलीकरण और भौतिकतावाद ने सांस्कृतिक अनुष्ठानों को भी उत्पाद में बदल दिया है। ऐसी स्थिति में किसानों, मजदूरों के सुखदुख, प्रकृति के उल्लास और आत्मप्रेम की गाथा गाने वाले कवि केदार की उपेक्षा हो रही हो तो अचरज नहीं।
एक बात और। केदारनाथ अग्रवाल की कविता में वाचिक कविता के अनन्य गुण हैं। चाहे वे औपनिवेशिक सत्ता के विरोध में लिखी कविताएँ हों, या आजादी के बाद के परिदृश्य पर, प्रकृति पर या किसानों, मजदूरों को लेकर उनकी कविताओं में गेयता है। वाचिक सरसता है। कविताओं गीतों के शीर्षक भी सुगठित और लुभावने हैं। इस तरह हम उन्हें वाचिक परम्परा का कवि भी मान सकते हैं। इसीलिए उनकी कविता के पाठा रूप में आते ही जब हम उसे कविता की अन्य कसौटियों पर कसते हैं, तब लगता है, यह कविता तो है, पर शमशेर कहीं उससे आगे के कवि हैं, या अज्ञेय की बात कुछ और ही है और नागार्जुन, त्रिलोचन की कविताओं का पाठा संसार ज्यादा समृद्घ और बहुवस्तुस्पर्शी वक्रताओं और वर्तनियों से लैस है। केदार की कविता में सरलता को भी गुणधर्म के रूप में देखा जाता रहा है। पर हर सरल सहज कवि अच्छा भी हो, यह जरूरी नहीं। अजय तिवारी भी सरलता की बात करते हुए मानते हैं, सरलता गुण है तो दोष भी। सरलता यदि इस अर्थ में है कि सहज हूँ अति कठिन नहीं तो और बात है। किन्तु सरलता सपाटबयानी में बदल जाए तो काव्य मूल्यों की कसौटी पर कविता कमतर मालूम होती है। केदार की कविता युगीन आवश्यकताओं की उपज है। उस समय ऐसी ही जुझा, सरल, सहज और दो टूक कहने लिखने वाले कवियों की जरूरत थी, जिनकी कविता, भाषा जनता की जबान पर उतर सके। वक्त जरूरत उसकी लाठी, उसका संबल, उसका नारा बन सके, जीवन में मुहावरे की तरह काम आए। केदार की कविता ये सब काम करती है। वह साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की मुखालफत तो करती है, किसानों, मजदूरों में हिम्मत भी जगाती है, वह जीवन के उल्लास और उत्सवता की कविता है। वह पूँजीपतियों, शोषकों के धिक्कार की कविता भी है। वह जनवाद के आह्वान की भी कविता है। वह प्रेम, रोमान और एकांतिक विलास की कविता भी है। वह अपनी खूराक भारतेन्दु हरिश्चंद, बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन, पद्माकर, मतिराम,बिहारी, रत्नाकर, हरिओध सभी से लेती है। किन्तु वह फार्मलिस्ट होने से बचती है और अपने को सर्वथा मौलिक और ऋजु रूप में सामने रखती है। विचारधारा के मोर्चे पर कहीं समझौते नहीं करती और एक आलोचक की तरह व्यवस्था की खामियों पर उँगली भी रखती है। वह प्रगल्भ और स्वाभिमानी जनता के मन की बात कहती है।
कविता में शमशेरियत की चर्चा काफी हुई है। शमशेर के दीवानों को उनकी प्रेम कविताओं के आगे अज्ञेय, केदार, नागार्जुन सबकी कविताएँ फीकी लगती हैं। तब भी केदार की सरलता और वक्रता को देखते हुए उनके स्वाभिमानी कविमिजाज की बानगी मिल जाती है। उनकी कविता आम आदमी की कविता है, इससे उसकी महत्ता कम नहीं होती। उनसे नारे बनाने का काम लिया जा सकता है, इससे भी उनका महत्व कम नही होता। उसने अपने होने की चरितार्थता सिद्घ की है। आज प्रकृति का जैसा दोहन चल रहा है, खनिजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है, पानी, बिजली और जीवन के बुनियादी संसाधनों के अधिकार निजी कंपनियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौपे जा रहे हैं-जीवन निरन्तर जटिल होता जा रहा है। ऐसे में हमें केदार की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले कवियों की ज्यादा जरूरत है। सारे जनान्दोलन जिस तरह एक पड़ाव पर आकर ठहर से गए लगते हैं, मनुष्य,पारिस्थितिकी और जीवन के पक्ष में आवाज़ उठाने वाली कविता की मुहिम को अबाध रूप से आगे बढ़ाने की जरूरत है। केदार की कविता की सच्ची प्रासंगिकता यही है कि कविता में उनकी साहसिकता को सलीके से रखने वाली कवि पीढ़ी उनसे प्रेरणा ले, मौलिक रूप से आगे बढ़े और शमशेरियत की तरह ही केदारियत को अपना पाथेय बनाए।