माजिद मजीदी : मजबूरी का मुखबिर / जयप्रकाश चौकसे

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माजिद मजीदी : मजबूरी का मुखबिर
प्रकाशन तिथि :31 जनवरी 2018


ईरान के फिल्मकार माजिद मजीदी ने हिंदुस्तानी भाषा में बनी अपनी फिल्म 'बियॉन्ड द क्लाउड' पूरी कर ली है और 23 मार्च को उसका प्रदर्शन होने जा रहा है। उन्होंने भारतीय तकनीशियनों एवं कलाकारों को लेकर फिल्म बनाई है। उनके संगीतकार एआर रहमान चेन्नई के निवासी हैं, चरित्र अभिनेता गौतम घोष बंगाल के हैं और मुंबई में रहने वाले विशाल भारद्वाज ने संवाद लिखे हैं। सारी शूटिंग भारत में हुई है। निर्माता हैं शरीन मंत्री केडिया। भारत अपनी अपार प्रतिभा और पूरी विविधता के साथ फिल्म में उजागर हो रहा है। एक मायने में संकीर्णता व क्षेत्रीयता की ताकतों को शिकस्त देता है यह प्रयास। ईरानी भाषा में मजीद का अर्थ होता है पवित्र। भाषाविद पंडित डॉ. शिवदत्त शुक्ला का कहा है कि ईरानी भाषा में देवता को अहूर कहते हैं और माजिद शब्द का जन्म इससे भी जुड़ा है। बहरहाल ईरान का अवाम माज़िद मज़ीदी को अपने मुल्क की शान मानता है। उनके समकालीन जाफर पनाही भी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं।

1951 में तेहरान में जन्मे माजिद मजीदी की फिल्में जैसे 'चिल्ड्रन ऑफ हैवन,' 'कलर ऑफ पैराडाइज,विलो किंग,' 'सॉन्ग्स ऑफ स्पेरो' 'बारा' इत्यादि विदेशों में भी पुरस्कारों से नवाजी गई हैं। ईरानी भाषा के शब्द 'बारा' का अर्थ होता है बारिश या बरसात। शब्दों का सफर अत्यंत सारगर्भित व मनोरंजक होता है। सारे महान कलाकार अपनी जमीन से जुड़े होते हैं परंतु उनकी कलाकृति में प्रस्तुत होने वाली भावनाएं सार्वभौमिक और सर्वकालिक होती हैं। हमारे सत्यजीत रे की फिल्में बंगाल की जमीन से जुड़ी होकर पूरे विश्व को अपनी करुणा से प्रभावित करती रही हैं। माजिद की फिल्में दुनिया के अनेक देशों में प्रदर्शित होती हैं, इसलिए फिल्मों के नाम अंग्रेजी भाषा में रखे गए हैं। उनकी 'सॉन्ग ऑफ स्पेरो' उनके अपने वतन में 'आवाज-ए-गुन्जिशक' के नाम से प्रदर्शित हुई थी।

उनकी फिल्म 'सॉन्ग ऑफ स्पेरो' में पंछियों का सरहदों के पार उड़ना और मनुष्य की राजनीतिक सरहदों में बंधे रहने की मजबूरी को बखूबी बयां किया गया था। जंग के हादसों और अमन की इच्छा को एक अनाम शायर ने इस तरह बयां किया है 'एक तोप के दहाने पर नन्ही गौरैया ने अपना घोंसला बनाया है।' इसी दर्द को जेपी दत्ता की फिल्म 'रेफ्यूजी' के लिए लिखे एक गीत में जावेद अख्तर ने यूं बयां किया था 'पंछी पवन हवा के झोंके, इन्हें न कोई रोके, जरा सोचो हमने क्या पाया इन्सां होके।'

माजिद मजीदी की 2008 में प्रदर्शित एक फिल्म में गरीब करीम और उसके परिवार के जीवन संघर्ष की कथा है। करीम की नौकरी शुतुरमुर्ग की देखभाल करने की है। उसकी बेटी को कम सुनाई पड़ता है और ठीक से सुन पाने का छोटा-सा यंत्र गुम हो जाता है। बच्ची के इम्तहान सिर पर हैं और इलाज के लिए इस कस्बाई व्यक्ति को बच्ची को तेहरान ले जाना है। उसी दौर में एक शुतुरमुर्ग गायब हो जाता है अौर मालिक उसे नौकरी से निकाल देता है। वह एक पुरानी मोटरसाइकिल पर यात्रियों को बैठाकर उनके गंतव्य तक छोड़ने की मजदूरी करने लगता है। पुरानी मोटरसाइकिल प्राय: रिपेयर करनी पड़ती है और घिसे हुए पुर्जों का अम्बार लग जाता है। नित नई टेक्नोलॉजी के कारण ऐसे अम्बार हर घर में लगे हैं। करीम के जीवन में मुसीबतों का सिलसिला जारी रहता है और कई बार वह शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन रेत में गाड़ देता है कि तूफान गुजर जाएगा। सभी देशों के साधनहीन लोगों का जीवन संघर्ष समान रहता है। ऐसे ही हालात को दुष्यंत कुमार ने कुछ यूं बयां किया था 'बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं और नदियों के किनारे घर बने हैं। चीड़-वन में अांधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाजुक तने हैं।'

बहरहाल, करीम के जीवन में राहत उस समय मिलती है, जब वह अपने छोटे बेटे की बात मानकर मछली पालन का धंधा करता है और यथेष्ठ धन कमाकर एक शुतुरमुर्ग खरीदकर अपने पुराने मालिक को लौटाता है। इस कर्ज अदाएगी के साथ ही उसे अमन से ज़िंदगी बसर करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

माजिद मजीदी की फिल्मों के पात्र साधनहीन लोग हैं और ज़िंदगी कई तरह से उनका इम्तहान लेती है परंतु वे टूटे-फूटे, आधे-अधूरे इंसान बड़े हौसलों से ज़िंदगी के असमान युद्ध में डटे रहते हैं। आज के कुरुक्षेत्र में दोनों पक्ष के पास शस्त्र नहीं है। 'हाथों में हैं टूटी तलवारों की मूठ।'