माटी-मजूर / शेखर मल्लिक
उस रात को बहुत दिन हुए जब, मानवेंद्र हँसकर बोल रहा था, 'अब हम लक्कड-फक्कड तो रहे नहीं... शादी हो गई, एक और चाप पड़ गया... सबका पेट पोसना है। अब एको पेट और जुड़ गया ना... अब ई सब कोई ठेक वाली नौकरी तो है नहीं... सब ठीकेदार, बाबुओं के सामने अपनी औकात हथेली की खैनी है! ...मन किया तो मसल के दाढ़ में दबा लिए... इहाँ भी कुछो काम नहीं, नरेगा कि मनरेगा! ई सब स्कीम भी बड़-बाबुओं के लिए है... हमको कौन कहाँ पूछता है?'
और अश्विनी आँचल का किनारा मुँह में दिए उसको देखती-सुनती रही... वह कहता रहा, 'अबकी जो काम मिला है, ढेर कमाई हो जाएगी...' दिन भर तरह-तरह की रस्मों और भीड़ से जूझ चुकी थककर चूर अश्विनी सुनती रही थी चुपचाप... बिस्तर के पायताने की ओर बैठकर बोलते हुए मानवेंद्र को। नाक का बड़ा-सा नथ होंठों पर झुलता रहा...
मानवेंद्र राजमिस्त्री था। यानी कस्बे में कभी-कभार किसी का मकान-दुकान बना या मरम्मती, एक्सटेंशन का काम हुआ सो काम मिला। चार रुपए पल्ले पड़े। मगर 'बाहर' झारखंडी और बिहारी मजदूरों की भारी माँग है। ठीकेदार लोग गोंठ-के-गोंठ आदमी बाहर लिए जाते हैं। 'देश तरक्किए न कर रहा है!' आए दिन कहीं न कहीं गगनचुंबी अट्टालिकाएँ, ओवरब्रिज, कोठियाँ, शॉपिंग माल खड़े हो रहे हैं... बाहर काम का क्या कमी...!
मानवेंद्र का एक लंगोटिया दोस्त गोपी, यों तो था उससे उम्र में दो साल बड़ा, दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों के दौरान मजदूरी करने दिल्ली हो आया था... शरीर से आधा हो गया था, मगर गाँठ में जाने कैसे कितना जोड़-जुड़ा आया था! इधर इसी का झौंस दिया करता था... कि वहाँ हेन देखा कि तेन...!
शादी की बात तभी चली जब मानवेंद्र मुंबई के किसी भावी पाश इलाके की नई साईट पर बन रहे मॉल की बिल्डिंग उठाने के काम पर लगा था। यह काम भी उसे कस्बे के एक ठीकेदार के जरिए पाया था। 'बाहर काम' ऐसे ही मिलता है!
शादी के तुरंत बाद जैसे, पुरानी दंत-कथाओं या फ़िल्मों में होता है... वह कोरी, नई-नकोरी दुल्हन को छोड़कर 'परदेस' निकल गया था! हावड़ा से खुलने वाली लोकमान्य टर्मिनल ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस पकडनी थी उसे... इस कस्बे में यह गाड़ी ठहरती थी।
यह वैशाख की दोपहरों का समय था। दोपहरी धूप में पाटा पड़ी रहती थी और पेडों पर पतझड़ के बाद आए नए पत्ते और कोमल डालियाँ इस गर्मी में बुझे मन से काँप भर जाए करते दीखते थे। ब्याह तो फाल्गुन लगने से पहले ही हुआ था। अश्विनी इंटर में पढ़ ही रही थी कि दूर के मुँहबोले मामा ने माँ को कोंचना शुरु कर दिया 'अरे बिना नाथ की अगियारी है, जितना जल्दी हो सके, खूँटा से बाँध के निश्चित हो तुम। बुझ न रही हो कि दीन दुनिया कैसा है? तुम्हारे पास पड़ोस का रंग ढंग भी दीख ही रहा होगा। आशु के लिए हमारा देखे का एक लड़का है। एकलौता है। यानी लड़का एके है, एक गो बहनिया। बहन तो आज नै तSS कल ब्याहेगी... जाएगी अपने घर। तो लड़का एकलौते हुआ और खुद कमाता-खाता है। अरे आज के जुग में नौकरी वाला लइका सब बिकता है और ई लड़का राजमिसतरी है। भूखा नहीं मारेगा। बूझी?' और अश्विनी की विधवा माँ बूझ गई... जोर जबर करके अश्विनी को भी समझा दिया... 'ठौर ठिकाना हो जाए तो बाद का बाद में सोचते रहना...'
'माँ, पढ़ रहे हैं हम... कम से कम ग्रेजुएशन तो कर लेने दो।' वह मिनमिनाई थी।
'आदमी बूढ़ा होने तक पढ़ता रहता है। ई लड़किया त कुच्छो बुझबे नहीं करती है! तुझे दिखता-सूझता नहीं क्या, हमसे नहीं हो रहा कि रखी-रखाई दू गो पईसा से तेरा खाता-किताब, कलम का खर्च उठाती रहें और देन-दहेजो के लिए जो रखा है, उसको भी लुटा दें...!'
'माँ, क्यों सोच रही कि तुमसे लेंगे... हम ट्यूशन पढ़ा रहे हैं ना, कर लेंगे अपनी पढ़ाई का खर्च...'
'देखिए रहे हैं न तुम्हारा टियुसन... जवान जहान लईका सब के साथ हा...हा...ही...ही... पढ़ने आते हैं कि...'
'माँ' ... उसने आगे कुछ कहने से रोका था माँ को।
मगर शादी हो गई... जैसे कि होता आया है... इस परिपाटी का पूर्ण निषिद्ध अभी कहाँ हुआ है हमारे यहाँ! उम्मीद थी कि ससुराल में पढ़ाई पूरी करेगी... मगर, ससुर का कहना था 'अपना आदमी से पूछ, खरच करेगा तो जा कर... हमारे इहाँ त हालत... अपनी लड़की को मेट्रिक तक पढ़ा के हाथ बाँध लिए! और क्या कहें...'
खत्म हो गई एक उम्मीद। उम्मीदों का खत्म होना कितना भयानक होता है!
मानवेंद्र अपने ही कस्बे से आए रघु उर्फ भुआ के साथ एक ही टीन की शेड में रह रहा था। जिसे वे 'रूम' और एक दूसरे को 'रूम पार्टनर' कहते और हँस देते। रघु मानवेंद्र से साल-डेढ़ साल पहले से यहाँ आया हुआ था और किसी हद तक जम गया था। मुंबई में, चाहे किसी भी धंधे-रोजगार का मैदान हो, 'जमना' आसान नहीं होता। इसके लिए कुछ ट्रिक्स की ज़रूरत होती है। रघु ने ये ट्रिक्सें यहीं आने के बाद के दो तीन महीनों में सीखी थीं। लोकमान्य टर्मिनल टर्मिनस पर ही बोला-'अरे, साला कोई माँ के पेट से थोड़ी भाग लिखके आता है और ये तो मुंबई है महाराज! यहाँ हिट होने से पहले तेंदुलकर गुरु का चाँटा खाए और शारूख प्रोडयूसर सब का आफिस से धक्का खाए... अक्ल की एको बात है बबुआ कि आदमी को इहाँ अपना भागरेखा खुदै से सैट करनी पडती है।'
सैटिंग, गोटी फिट करना, बॉस, उस्ताद, महाराज... और तमाम तरह की शब्दावलियाँ रघु उर्फ भुआ की जैसे पहली जुबान बन गई थी। यह अलग बात है कि अभी तक वह अपनी सैटिंग के सारे पैतरों को आजमाने के बावजूद है 'पुरबिया मजदूर, झारखंडी' या जो उसकी ओरिजिन नहीं जानते, उनके लिए एक और 'बिहारी भैया' है! और इसी टीन की शेड के नीचे बसर कर रहा है। यह भी गौरतलब है कि वह इस ठेका कंपनी में एक हैसियत हासिल कर चुका है... अब वह 'हरप्रीत एंड संस कंस्ट्रक्शन' के मजदूरों में किसी का बड़का दादा है और किसी का भाऊ!
'भैया, तुम तो यहाँ आकर बहुत बदल गए हो।' मानवेंद्र ने रघु की बढ़ी हुई हथेली पर से सिगरेट लेते हुए कहा। 'पड़ता है।' रघु सिगरेट का कश मारते हुए बोला। उसकी आवाज में बेफिक्रियाना आत्मविश्वास था, जिससे शब्दों का उच्चारण कुछ अधिक खिंच-सा गया था। मानवेंद्र को सोच आई, यह जब वहाँ था, तो क्या कभी ऐसे बेफिक्री से बात किया? उसे अपनी ज़िन्दगी के अट्ठाइस सालों में पहली बार रघु उर्फ भुआ में 'रघु' नहीं कोई और आदमी दिख रहा था और यह 'आदमी' उस कस्बाई भुआ से कई गुना ताकतवर था, या उसमें कम से कम इस ताकत का झूठा या सच्चा एक भ्रम या आत्मविश्वास था।
'तुमको क्या बुझा रहा है, काम आगे कितने दिन?' रघु धुआँ छोड़कर कह रहा था।
'हमसे तो चार महीने और ठहरने की बात कही है पॉल सर ने।' मानवेंद्र ने सड़क की दूसरी ओर एक मरियल-सी काली कुतिया को देखते हुए कहा जो अपने छह पिल्लों के साथ जा रही थी। उसे लगा क्या इस मौसम में भी कुतिया जनती है? हो सकता है। कुछ भी हो सकता है... अगर प्यार हो तो... हलकी-सी गुदगुदी हुई उसे, फिर उसे अश्विनी की एकाएक याद आई और फिर एक झुँझलाहट...
वह और लोग होते होंगे जो रोजाना छ से चार की ड्यूटी के बाद पूरी शाम बीवी के साथ हाथों में हाथ डाले सड़कों-बाजारों में घूमते हैं। उसके कस्बे में इतना तो नहीं, हाँ शाम नदी किनारे पुल पर जोड़ों की तरह बैठने की कल्पना की है उसने। आह, क्या ज़िन्दगी वह होती है!
'चार महीने! रिटेन में कुछ दिया है कि मुँहा-मुँही बात है?' रघु की आवाज ने मानवेंद्र की चेतना को वापस उस टीन की शेड में ले आई, जिसमें सामने कुछ ही फासले पर सड़क की चौड़ी पट्टी थी और पटरी पर वह मरियल कुतिया पिल्लों के साथ अभी गुजरी थी।
'अरे हम मिस्तरी-मजूर से कोई लिखा-पढ़ी में बात करता है भैया!' मानवेंद्र बोला और एक उदासी की लौ-सी उसकी आवाज में उभरी। वह अपनी उदासी से खुद ही थोड़ा चिहुँक पड़ा। यह तो वह ज़िन्दगी भर झेलता आया है, अब क्यों ऐसी बात पर मन में गड्ढे पड़ रहे है...!
रघु की सिगरेट खत्म हो चुकी थी। वह पैर फैलाकर चित लेट गया और टीन की शेड को आँख सिकोड़कर घूरने लगा... शेड की छत पर लटका उषा कंपनी का मैला पुराना पंखा खटर-खटर घूम रहा था...
मानवेंद्र ने अपना बक्सा उठाकर गोद में रख लिया और ताला खोलने लगा, होंठों पर एक चालू फ़िल्मी गीत लगातार बना हुआ था उसके...
इसी छोटे से बक्से में उसकी जमा पूँजी है, कुछ कपड़े और पिछले महीने की कमाई... हाड़तोड़ मेहनत की कमाई... उसने दोबारा गिना, हर रात सोने से पहले वह ज़रूर गिन लेता है इन्हें। तीन हजार इकतालीस रुपए। हर महीने वह पास बैंक में जाकर अपने खाते में, अपना खर्चा काट कर बाकी का रुपया जमा करा देता है... जिसे घरवाले यहाँ 'उठा' लिया करते हैं, कोर बैंकिंग होने से यह सुविधा हुई है कि तुरंत रुपए अपने खाते में भेजे जा सकते हैं। पहले जैसा मनीआर्डर का झमेला नहीं रहा। इस बार वह पैसे घर नहीं भेजेगा, बल्कि जब घर लौटेगा तो उसके लिए एक जोड़ी साड़ी, नकली मगर उम्दा सफेद मोतियों की माला और माँ-पिताजी और बहन के लिए भी के लिए कुछ ना कुछ लेता जाएगा... बाकी नकद रुपए उनके हाथ में धर देगा... यह सोचकर उसे रोमांच होता रहता था, कैसा होगा उन सबका चेहरा ऐसा 'सरप्राइज' पाकर!
करेंसी नोटों पर घरवालों की शक्लें छपी हुई थीं... हँसती हुई, खिलखिलाती शक्लें... माँ का बलैया लेना, बहन की चुहल, बाप के बूढ़े चेहरे का दर्प भरा संतोष और अश्विनी की लज्जालु मगर चंचल आँखें... कोई पूछे तो, वह इतनी दूर किसी दूसरे प्रांत में क्यों आया है? किसके लिए शरीर का नमक गलाता है? इन्हीं के लिए ही तो। अपना और इनका पेट... पेट के बाद परिवार का संतोष! और काहे के लिए कोई मरता है?
'बनिया के माफिक डेली क्या गिनता रहता है...?' मानवेंद्र रघु की आवाज से चौंका... 'कुछ नहीं भैया। अपने को तस्सली देते हैं और क्या।' वह ऐसे हँसा मानो पहली बार उसकी कोई चोरी पकड़ी गई हो।
'रात बहुत जल्दी बीत जाएगी बबुआ। सुबह तेरे को जल्दी न निकलना है, सो ले अब।' रघु बड़े भाई की तरह चेताकर बोला। रघु उर्फ भुआ को मानवेंद्र बचपन से जानता है... मगर आज वह दो व्यक्तित्व वाला बुझाता है उसको... कभी लोहे की छेनी-हथोड़े के माफिक कठोर, निर्दय तो कभी पके केले के गूदे की तरह नरम मीठा!
दीवार पर झूल रहे चालीस वाट के बल्ब को, जो पीली-धुँधली रोशनी से शेड को पोत रहा था, 'खट' से स्विच दबाकर बंद कर दिया मानवेंद्र ने। वह अपना बक्सा ताला लगाकर, सहेज कर सिरहाने रख चुका था...
सोने से पहले उसे फिर अश्विन याद आई... ट्रेन के छुटते ही उसने सबके पीछे से हाथ उठाकर हिलाया था तो, नई दुल्हन के हाथों की मेहँदी का गाढ़ा चितकबरा रंग उन गोरी हथेलियों पर चमका था, वही चमक, वही रंग, वही हथेली-मानवेंद्र की स्मृति में हमेशा उभर आती है... रोज जब वह इसी तरह अपने-आप से बतियाता होता है। 'तुम भी याद आती है रे, हमको, क्या करें हम... भूलिए नहीं पाते हैं...'
मानवेंद्र आज शाम को मुक्त था। दिन भर की थकन उतरने के लिए यों ही सड़क के किनारे के एक मॉल के पास छोटी-सी पार्कनुमा जगह पर वह जा बैठता था। बड़ी-बड़ी, देशी-अंतर्देशीय-बहुदेशी कंपनियों के जगमगाते होर्डिंग्स, साइन्बोर्डस की झिलमिलाहट खौफ पैदा करने की हद तक उसे बेचैन करते। लेकिन इसके सिवा वह इतने बड़े शहर में और कहाँ जा सकता था? और वह जगह उसके ठिकाने के नजदीक पड़ती थी। यहाँ लोगों की शामें रात के नौ बजे से शुरू होती थी और देर रात तक चलती थी। शहरी संस्कृति के अनुसार, 'वीकेंड' पर आधिक भीड़ होती। तरह-तरह के मॉडलों के कार और मोटरबाईकों का बिखराब रहता और रंग-बिरंगे कपड़ो में अभिज्यात्य बच्चे, औरतें... उनके पति... कार से उतरते और स्वचालित प्रकिया से कार का दरवाजा 'लोक' करते, वे मानवेंद्र किसी और जगत के प्राणी सरीखे लगते... या किसी अत्याधुनिक लोककथा के किरदार...!
आज रघु के साथ राजू को देखकर उसे कुछ खुशी कुछ आश्चर्य भी हुआ। रघु पास आते न आते वहीं से मानो ऐलान करता हुआ बोला, 'ई देख साला, अपन यार आ गया है वापस... शाम सेलीब्रेट करेंगे अपुन...'
राजू उत्तर प्रदेश के किसी छोटे से कस्बे से महाराष्ट्र में यानी मुंबई आया था। रोजगार की तलाश में इधर-उधर 'बहुत' करने के बाद किसी मोबाइल कंपनी के कॉल-सेंटर में नौकरी मिली... मगर थोड़े दिनों में छिन भी गई, अपनी बेवकूफाना आदतों और लापरवाह 'एटीट्यूड' के कारण...! रघु उर्फ भुआ की शब्दावली में 'पादने के वास्ते टेढ़ा होने को मिला तो हगना चालू' ... महानगर में ऐसी नौकरियाँ आज की तारीख में कौड़ी के भाव मिलती है और कौड़ी से कम के भाव में छीन भी जाती है! फिर भी आदमी के जाल में दूसरी नौकरी या नौकरी के जाल में आदमी... काँटे की तरह फँसता ही है...
राजू ने फिर तिकडम लगाया... नौकरी छूटना और फिर नौकरी की तलाश ही उसका इस शहर में एक मात्र नौकरी बन गई. रात देर से लौटता और सुबह ग्यारह-बारह बजे तक सोता... फिर 'फ्रेश' होकर नौकरी के लिए काँख में प्रमाण पत्रों की फाईल दबा कर निकल पड़ता। उसके जैसे और भी थे, जो इसी तरह नौकरियों के लिए काँटा डाले फिरते थे... असंख्य, अनगिनत नौजवान-अधेड़, बूढ़े!
सो शाम को कोल्ड ड्रिंक में मिलाकर या कहें, पुलिस से छिपाकर शराब पी जाती, इसी मॉल के किसी कोने, निर्माणाधीन या अनबिकी दुकानों की आड़ में। पीने से पहले वे मानवेंद्र को कोल्ड ड्रिंक का कुछ हिस्सा सदाशयतावश पी लेने को कहते, चूँकि वह शराब के मामले में पूरा वैष्णव था...!
पीकर दुनिया-जहान को कोसा जाता... कंपनियों, जिनके यहाँ इंटरव्यू में इन्हें छाँट दिया गया होता, को माँ-बहन की गाली निकाली जाती... और विशेषकर रिसेप्शन पर या फ्रन्ट ऑफिस पर बैठी खूबसूरत लड़की का मौखिक शील भंग किया जाता। ये सब कोई अलहदा दर्जे और जोर की फिलासफी थी, जो बड़ी नफासत से रोज की असफलता, आवारगी से पैदा हुई थी। मानवेंद्र को इनकी सोहबत में पैठ कर इस बात का इल्म हुआ!
यह कुंठाएँ थी। असफलता का अवसाद था, जो उनके भीतर धधकता, मवाद की मानिंद रिसता... उन्हें महानगर की सड़कों पर आवारागर्दी करने को मजबूर करता था। मगर कुछ कसूर खुद शायद उनका भी था, जो जल्द से जल्द किसी ऐसी लकदक वाली नौकरी फाँसना चाहते थे कि उन्हें जैकपॉट लग जाए या फिर उन्हें ईमानदारी से कोई काम करना और धैर्यपूर्वक अपना रास्ता बनाना आता नहीं था। इन्हीं सबसे टकराते-छीलते राजू, जो अक्सर कहता था कि अपने कस्बे में वह 'स्टार न्यूज' का रिपोर्टर था, पखवाड़े भर पहले अपने कस्बे लौट गया था, यह जुमला गुनगुनाते हुए कि 'दिल्ली अभी दूर है मेरे दोस्त'। पास के पैसे खत्म हो गए थे और घर से रुपयों की आक्सीजन आपूर्ति नहीं हो रही थी।
लेकिन इस समय, इतनी जल्दी उसे लौट आया देख कर विशवास नहीं हो रहा था...
'क्यों यार, बड़ी जल्दी आ गए? कहके गए थे कि बस बहुत देख लिया, यह शहर कुछ नहीं देगा! क्या डायलाग मारा था यार,' ये शहर वह शहर तो नहीं! 'मानवेंद्र ने पाँव सरकाकर उनके बैठने की जगह बनाते हुए कहा। चौड़े से सीमेंट के चबूतरे पर बैठ गए वे। राजू की जगह रघु बोला,' अरे इस बार तगड़ा बंदोबस्त करके आया है पट्ठा! अपना चूल्हा भी साथ ले आया है और...'
राजू बोलने लगा, 'भाई लोगों इस बार जमके दिखाना है। इस शहर को दिखा देंगे कि अपन भी कोई चीज है। कुछ बनेंगे बॉस...'
...बोतल उन दोनों के बीच रखी हुई थी, खुली... रघु अगर ड्रम भर कर भी ले, तो भी बहकता नहीं था। मगर राजू पर दो-तीन पैग बाद ही चढ़ गई, तो एक ही बात वह दोहराने लगा-'बाबूजी बोले बेटा, इस दफे पेट काट-काटकर जमाया पैसा दे रहे हैं... शहर इतनों का पेट पालता है! वहाँ लोग क्या से क्या बन गए... तरक्की किए... शहर बहुतों को बहुत कुछ बना देता है... कुछ करो बेटा, जम जाओ... शराब को हाथ मत लगाना।' राजू नशे में बक रहा था, 'मेरे बाबूजी का चेहरा याद है...' रोने-रोने को हो आए ओठ, विरूप होता चेहरा... 'बाबूजी बोले बेटा पेट काट-काटकर पैसा जमाया था ...कुछ करना इस बार... बेटा शराब को हाथ मत लगाना...'
गिलास के बाद बोतल में बची शराब को मुँह से लगाकर पीने की नौबत आ गई तो मुँह से पीने लगे। मानवेंद्र ने थोड़ी देर बाद उसे सीमेंट के उस स्लैब पर लुढ़कते देखा... वह तब भी बुदबुदा रहा था 'बाबूजी बोले, बेटा पेट कट काटकर...'
उससे और बैठा नहीं जा सका... मन में जाने कैसा खारापन भर आया था! राजू के दयनीय बूढ़े किसान पिता का चेहरा, जिन्हें कभी उसने देखा नहीं था और न कभी देखने की कोई गुंजाइश थी, मानवेंद्र की आँखों के सामने मूर्त होने लगा था... खालिस बेटे तो सूद पर नहीं चढ़ाए जाते... और ब्याज ऐसा निकले तो...! पेट काटना क्या होता है...?
रघु चुपचाप पी रहा था... वह पीते समय काफी कम बोलता था...
...उस रात बारह बजे राजू को लगभग ढोते हुए रघु शेड में आया था... 'इसकी हालत...' मुझे जागते देख बोला था रघु, 'आज अपन लोग के साथ यहीं पर... तुम खा लिए हो क्या...? अपन नहीं खाएँगे।'
मानवेंद्र कुछ नहीं बोला। रात साढ़े बारह से एक के बीच राजू ने भरपूर उल्टी की थी... पेट में गई शराब की मात्रा के अनुपात में। रघु भुनभुनाता हुआ फर्श साफ करता रहा।
रघु ने सिगरेट का कश लिए और धुँआ मुँह से फेकता हुआ उछलकर पीछे की नाटी-सी दीवार पर बैठ गया। मानवेंद्र अखबार हाथ में लिए खड़ा रहा... आँखें उस खबर पर फिर रही थी। जिसमें पिछली रोज स्थानीय दबंग और जातीय विद्वेष की राजनीति करने वाली एक तथाकथित धर्मांध, राष्ट्रवादी पार्टी के निरंकुश कार्यकर्ताओं द्वारा पूर्वी प्रांत से आए एक अपने से पनवाड़ी की गुमटी जलाने और उससे मारपीट का जिक्र था... खबर दो कोलम की ही छोटी-सी थी... मगर मानवेंद्र के लिए बहुत ज़रूरी अलार्म जैसी थी।
...पढ़ने के बाद उसने उस खबर को दुबारा पढ़ा। जिस पत्रकार ने वह रिपोर्ट लिखी थी, उसका नजरिया और रवैया भी उन्ही उजड्ड कार्यकर्ताओं सरीखा लग रहा था। पत्रकारीय निरपेक्षता, निंदा और भुक्तभोगी से सहानुभूति की जगह, खबर में एक तरह इस कृत्य को तर्कसंगत बनाने की कोशिश-सी लग रही थी... उसने रघु को देखा, वह बेफिक्री से सिगरेट फूँकता बहुत दूर सरसराती हुई भीड़ में कहीं देख रहा था, या फिर कुछ भी नहीं देख रहा था...!
'भैया, यह सब क्यूँ कर रहे हैं ये लोग...' मानवेंद्र ने पूछा था रघु उर्फ भुआ से...
'क्या...? कौन लोग...?' रघु ने नजर उसकी ओर डाली। मानवेंद्र ने अखबार की उस रिपोर्ट पर उँगली रख उसे दिखा दिया।
अश्विनी ने कुहनी के बल तकिए पर टेक लगाकर करवट ली और खिड़की के बाहर गुलमोहर को ताकने लगी... धीमी हवा से उसकी डालियाँ काँप-काँप जा रही थीं। आज की तारीख को मानवेंद्र को गए ठीक पाँच महीने हुए... अश्विनी ने सिरहाने के आले की तरफ नजर उठाई, जहाँ इतने ही दिन पुरानी फ्रेम में उनकी शादी की तस्वीर तिरछी रखी हुई थी। शादी के बाद यूँ तो शुरू के कुछ दिन मौज के रहते हैं, फिर तो चूल्हा चौका बच्चे वगैरह में खप जाते है लोग... 'नया जोड़ा!' कितना गुदगुदी है, इस सम्बोधन में!
मानवेंद्र का फोन था, उसी के बारे में बतिया रहे हैं घर के लोग... अश्विनी सास को बतला रही थी, 'सप्ताह भर पहले से हुआ है कि टीन की छप्पर के नीचे लगभग खुले में पड़े रहते है... छुट्टी का दिन हुआ तो सड़कों पर और ऐसे दिन ढलाई के लिए गिट्टियाँ और सीमेंट सानते मशीन के घर्र-घर्र में कट जाता है और...' अश्विनी के भीतर मानवेंद्र के शब्द बज रहे हैं, '...रात में भीतर सन्नाटा बजता है, खालिस! आशु, जिस बखत पेट और छाती के बीच चुनना पड़ता है, तो पेट की आग छाती की आँच पर हमेशा भारी होती है।'
महाराष्ट्र खासकर मुंबई में हालात खराब से खराब होते जा रहे थे... रेलवे की परीक्षा देने आए उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के लड़कों को बुरी तरह दौड़ा-दौड़ाकर खदेड़कर पीटा गया था। स्टेशन पर ही... वे कहते थे-किसी बाहरी को यहाँ नहीं रहने देंगे, ना काम करने देंगे... वे लोग निरंकुश थे, ताकतवर थे या बना दिए गए थे, राजनीति उनकी जागीरदारी थी और प्रशासन बपौती... उनका प्रधान परिवारवाद की उपज था! वे कुछ भी कर सकते थे... वे कभी भी, कुछ भी घोषित कर सकते थे... वे घनघोर राष्ट्रवादी थे और सिर्फ़ अपनी नस्ल को श्रेष्ठ मानते थे! वे प्रत्येक विदेशी त्योहारों, चलनों और संस्कारों के सख्त विरोधी थे... प्रेम-दिवस पर 'रक्षाबंधन' लेकर सड़कों, पार्कों या बाजारों में फैल जाते थे...
वे 'प्रांत का नवनिर्माण करने वाले सैनिक' घोषित करते थे खुद को और दिन-दहाड़े किसी को भी, विशेषकर जो उनके समुदाय भाषा या प्रदेश का नहीं था, कत्ल कर सकते थे!
हवा में गर्मी सिर्फ़ मौसम की नहीं थी... राजनीति के इन जरायम पेशादारों की मेहरबानी थी और ये सब सिर्फ़ अफवाहें भी नहीं थी...
बिहार के एक नौजवान लड़के, जो इन लोगों के सरगना को कथित रूप से मारने गया था, को एक नगर-बस के भीतर इनकाउंटर कर दिया गया था... उसकी मौत मीडिया में मसाला थी... फोरेंसिक जाँच में मिले तथ्यों ने प्रशासन को भकुआ दिया था। प्वाइंट ब्लैंक से माथे में गोली...!
इन दिनों की सब खबरें अश्विनी को बेचैन करती थीं। इन खबरों के बीच कहीं, क्या ऐसा होगा कि मानवेंद्र का नाम... सास अपने ईश्वर के कैलेंडरों के पास खड़ी 'मनु की रक्षा करब हे भोलेनाथ' बड़बड़ाती सारा दिन...
'संविधान में लिखा है, ई देस का सब लोग देश के किसी भी कोने में जा सकता है, रह सकता है, रोजगार कर सकता है! ...तो ई लोग साले संविधान से उपर हुए?' रघु उर्फ 'भुआ' किसी की सुनी हुई तकरीर को दोहराता मिला था मानवेंद्र को, यह दोहराई जाती तकरीर सिर्फ़ टीन की शेड और मानवेंद्र सुन सकते थे...!
अश्विनी को गुस्सा आ रहा था। असम में कितने 'बाहरियों' के नरसंहार हुए. वह सब पढ़ती-सुनती रही थी। आखिर अपने ही देश में कोई 'बाहरी' कैसे हो सकता है? आप गैर-प्रांतियों को कह लो 'बाहरी' मगर ये बाहरी भी कोई अपनी राजी-खुशी से तो नहीं आए हैं! अपनी जगह पर पेट पोसने भर को ही मजूरी मिल जाय तो बहुत...! पेट पालने की मजबूरी, अपने आश्रितों को सहारा देने की ज़रूरत ही लाती है, इन्हें उन महानगरों में। यह उससे बड़ा सच है कि ये अपनी ज़रूरतें से ज़्यादा महानगर की ज़रूरतें पूरी करने जाते हैं! 'बडलोगों' का विलास इन्हीं सस्ते मजदूरों की कुहनी और घुटने के जोड़ पर टिका है! ...फिर महानगर में अपना या बाहरी रहता क्या है... देश के हर बड़े शहर में पिचहत्तर-पिचासी फीसदी आबादी दूसरे प्रांतों से ही आई होती है। यही मिश्रित संस्कृति 'कंपोजिट कल्चर' है!
इंटर में मानवशास्त्र की छात्रा थी, अश्विनी। समाज की संरचना को, अर्थव्यवस्था को, संस्कृति को सोलह आने समझती थी। खुद ही तो परेशान थी, फिर भी वह सास ससुर को सांत्वना देती और जो एक जिम्मेदारी उसे मानवेंद्र ने दी थी। माँ-बाबूजी का ख्याल रखना...
हालातों के साथ आदमी भी बिखर जाए तो... कैसे होगा?
अश्विनी कुर्सी खींच कर ससुर को देती हुई बोली, 'बैठिए बाबूजी, उनका दोस्त का मोबाइल नंबर...'
'कौन भुआ... माने रघुए का ना?' सास जल्दी से बोली।
'हाँ माँ, उन्हीं का... नंबर दिए थे, हम बात करते हैं। कल से ही लगा रहे हैं, बंद आ रहा है...'
'एगो बार और देख, अभी शायद...'
...इस बार कॉल लग गया... 'हेलो...' उस तरफ रघु था।
'आप रघु जी?' अश्विनी पूछ बैठी।
'हाँ, कौन हैं, मानवे के घर से क्या?'
'जी... हम... ये कहाँ हैं?'
'आप लोग ज्यादे फिकर मत करो।' अश्विनी की आवाज में हड़बड़ाहट को भाँप गया था रघु, 'वो अभी सामने रेहड़ी पर गया है, कुछ सामान के वास्ते...इधर सब ठीकिच है!' दिल में उफनती आशंकाओं के बुलबुले फूट गए. अश्विनी ने हाथ के इशारे से घरवालों को बता दिया कि सब ठीक है।
'...बात करा देंगे। तो हम थोड़ी देर में वापस कॉल करें?'
'हाँ... हाँ... वह दुए मिनट में आ जाएगा।'
...थोड़ी देर में रघु उर्फ भुआ के नंबर से कॉल आया... इस बार आवाज मानवेंद्र की थी, मानवेंद्र वापस डेरे पर आ गया था, 'हाँ बोल रहे हैं, ठीके हैं अभी...' मानवेंद्र की आवाज में रघु जैसी तेजी नहीं थी। आवाज की बोझिलता और थकावट-सी अश्विनी भाँप गई.
'आप सचमुच ठीक हैं?' अश्विनी को लगा जैसे उधर मानवेंद्र ने माथे का पसीना पोंछा हो!
'ठीक हैं... मगर ज़्यादा दिन रह सकेंगे इसकी गारंटी नहीं...' वही उदासी...
'आप आ जाइए...' वह छटपटा उठी थी...
'आशु, हम हड्डी गला कर तुम लोगों के वास्ते जो पैसे जोड़े थे... साढ़े तीन हजार हुए थे... सब ले गए। हमारा जमा, सब कुछ लूट... तुमको काहे से बताते, कल राते में तs...' उधर की आवाज में नमी आ गई थी, वह चौंकी...
अश्विनी ने इसके बाद रुलाई सुनती रही... मर्द आदमी तो कभी इतनी आसानी से ऐसे रोता नहीं! मानवेंद्र का दर्द इस वक्त की एक बड़ी आबादी का दर्द था! वह भूल गई कि मानवेंद्र इस समय सामने नहीं मीलों दूर किसी दूसरे प्रांत में है। उसे लग रहा था कि जैसे मानवेंद्र सामने खड़ा हिचकियाँ ले रहा है...
थोड़ी देर बाद मानवेंद्र शांत हुआ, 'एक गो हकीकत बात कहते हैं, आशु वे लोग हमसे नफरत करते हैं। काहे...? ई बताने वाला कोई नहीं... उन्होंने हमको मारा... हम सब इनके जबड़े में हैं... कोई कुछ नहीं कर सकता... क्या यह हमारा ही देश है? आशु, हमसे कहा गया है कि हम दो दिन में ई जगह छोड़ दें, वरना हमारी लोथ यहाँ से पार्सल कर देंगे...'
अश्विनी ने देखा था डबडबाई आँखों से, दीवार पर के पास एक छिपकली बार-बार एक फतिंगे को जबड़े में लेने का प्रयास कर रही थी... आखिरकार कामयाब हो गई...
'आप ऐसा कुछ मत सोचिए... आ जाइए वापस। आपके पास टिकट के पैसे...'
'नहीं जो भुआ को दिए थे, वह हैं... रघुआ बाहर निकला था ऊ समय, वह बच गए...'
कॉल कटने के बाद अश्विनी के भीतर भी उतना ही गहरा सन्नाटा पसर गया, जितना बाहर था... पिछले कई दिनों से था ऐसा। सास दरवाजे पर आकर खड़ी हुई थी, सो पता नहीं... अश्विनी ने उनकी बूढ़ारी कलाइयों में झूलती चूड़ियों की खनक सुनी तो देखा। उसकी ओर तके जा रही हैं। उनकी आँखों में सवाल था, अश्विनी ने उस सवाल का जवाब दिया, 'हम कह दिए हैं माँ, वे आ जाएँगे...'
सास पलंग की पट्टी पर बैठ गई, 'ऊ सब अपना देस में अपने राजा... कुत्ता भी अपने मोहल्ले में बाहरी कुतवा बरदाश्त नहीं करता...!'
'हम अपने देश में' बाहरी'कब से हो गए माँ?'
'उहे लोग ऐसा सोच रहे हैं... हमारे बच्चों की जान पर बने हैं, निपूते... आग लगे ऐसे देस में...'
मानवेंद्र ने ठेले खोमचे वालों की कतार से होते हुए पटरी की तरफ कदम बढ़ाया ही था कि पीछे कहीं से छनाक की तेज आवाज आई... ऑटोरिक्शा वाला उनकी मजबूत पकड़ में बिलबिला रहा था, उसके गले से रोने जैसी, बल्कि कुछ-कुछ रिरियाने की तरह अस्फुट आवाजें निकल रही थीं, जिसे मानवेंद्र दूरी की वजह से साफ सुन नहीं सकता था, पर समझ ज़रूर सकता था... हथियारों की गरज और उनके सामने बेबसी की भाषा सब जगह एक ही होती है। लाठी और दूसरे धारदार हथियारों से जैसे उनका पूरा गिरोह स्थानीय भाषा की, स्थानीय मनुष्य की, स्थानीयता की जयकार में तेज नारे लगाता हुआ, उस ऑटो वाले को और ठेले वालों में से जो पहचान में आ गए और पकड़ में भी, उनको बेदर्दी से सड़क पर पीट रहे थे... गंदी गालियों के नीचे कराहें दबती जा रही थी... जो पिट रहे थे, वे कौन थे और जो पीट रहे थे वे कौन लोग थे? एक ही देश के...
मानवेंद्र माजरा समझ कर सिहर-सा उठा था... उसे लगता ये सब लोग, जो स्थानीयता की अश्लील परिभाषा के दर्प में चूर हैं... जो 'बाहरी' का नामानिशान मिटाकर, इस प्रदेश को... देश को स्वच्छ-साफ और 'अपने लोगों' , जो समभाषा, पैदाईश और रक्त के आधार पर 'अपने' मान लिए गए हैं, या जा रहे हैं, को आगे बढ़ाने, तरक्की की किसी अदृश्य सीमा तक विकसित कर देने और पूरे विश्व के मानचित्र में एक कल्पित सम्मान का दर्जा दिला देने के प्रचंड भावावेश और उत्तेजना से भरे हैं, ने कहीं उसे पहचान लिया तो...? ऑटो वाले के सिर से खून बहता हुआ गर्दन और छाती पर फैलता जा रहा था, उसकी कमीज का कॉलर, कंधा, सीना रक्त से निचुड़ चुका था... वे उसे सूखी टहनी की तरह झकझोर रहे थे, शायद वह बेहोश हो चुका था पिटाई से...
'हर बाहरी का यही होगा अंजाम...!' कुछ इसी आशय के नारे लगाते वे लोग, जिनकी औसत उम्र बीस से तीस-बत्तीस तक होगी, सड़क पर फैलते जा रहे थे। ठेले वालों के ठेले और ठेले पर बिकने वाली तमाम चीजें सड़क पर बिखरी, रौंदी हुई पड़ी थी। एक गुमटीवाला शायद मर चुका था, सड़क पर उसके बदन में कोई हरकत नहीं थी... पटरी के पास टेंपो वाला पडा था, जिसकी आधी देह पटरी और आधी सड़क पर पसरी थी, रक्तरंजित... जिसे उठाकर अस्पताल ले जाने वाला तो दूर, सूँघने के लिए सड़क के किसी कुत्ते की भी हिम्मत नहीं हो रही थी...
मानवेंद्र भाग कर डेरे पहुँचा था... टीन की शेड तप रही थी। रघु शराब की बोतल खोले आराम से देशी पी रहा था...
मानवेंद्र की हंफाई कम होने तक रघु पीता हुआ चुपचाप उसे देखता रहा, मानवेंद्र ही फँसी-फँसी और हडबडाई आवाज में बोला था, 'रघु! भाग भईया, ऊ लोग हमलोग को खतम कर देगा...' रघु उर्फ भुआ ने फिर भी कुछ नहीं कहा... चुपचाप बोतल को मुँह पर उलटाता रहा...
'रघु... होश नहीं क्या भाई? यहाँ से निकलो, जो भी ट्रेन मिलेगी, निकल लेंगे... ई जगह से...'
रघु हँसा, 'डर गया...? बच्चा है तुम...! कौन मारेगा अपुन लोग को? ई अपनी माटी बा, आ हम सब मजूर बानी...!' अब उसकी जुबान बदल गई... जोर-जोर से बकने लगा, स्थानीयों से अनुकूलन में, सोहबत में, अर्जित की गई स्थानीय मुंबइया और चलती अंग्रेज़ी में, 'अपन का अपनाईच कंटरी है ये, आमची मुंबई...! अपुन बाहर से नय आया, एकीच कंट्री, ओन संविधान... हू केन से, आई आउटसेडर...?' उसके कर्कश ठहाके गूँजने लगे '...हु केन से... आई आउटसेडर...?'
रघु उर्फ भुआ हँसता जा रहा था, उसकी हँसी टीन की शेड में प्रतिध्वनित होने के लिए टकरा रही थी... बाहर 'मारो सालों को... मार...' की डरावनी आवाजें करीब आ रही थीं...
रघु हँसते-हँसते वही लुढ़क गया और बोतल की बची दारू कुहनी की ठोकर से लुढ़क कर जमीन पर फैल गई... वह लेटे हुए हाथ पैर छिटक कर हँसने लगा...
बाहर बाकी मजदूरों के शेड से अजीब-सा शोर बढ़ता जा रहा था...