माटी का दीया, जीवन-सा जिया / संतलाल करुण
आज धनतेरस है, कल छोटी दिवाली और परसों दीपावली। हमारे यहाँ कहीं तीन दिन और कहीं-कहीं लगातार पाँच दिनों अर्थात् धनतेरस से भैयादूज तक दीया जलाने का प्रचलन है। शरद ऋतु के आगमन पर दीपावली हर्षोल्लास का पर्व है, मंगलता का पर्व है। कहते हैं कि चौदह वर्षों के वनवास के बाद राम, लक्ष्मण और सीता के अयोध्या वापस आने पर नगरवासियों ने उनका स्वागत तोरण-बंदनवार की उल्लसित सज्जा तथा सघन ज्योतित दीप-मालाओं से किया था। उसी दिन की स्मृति हर साल लौट कर आती है और हर साल पूरा भारत उसी तरह दीप-मालाओं से सज उठता है।
दीप की जगह भले ही विद्युत-प्रकाश ने ले लिया हो, पर दीपावली पर माटी का दीया अपनी ज्योति और ज्योतित सौन्दर्य के साथ हर साल हमें सन्देश देने आ जाता है। जैसे कहता हो कि तुम हमसे भिन्न नहीं; तुम्हारा अस्तित्व मेरी माटी की काया, मेरे तेल और बाती, मेरे जलते-बलते रूप-रंग और मेरी ज्योति के अवसान से कितना मेल खाता है। कदाचित्, वही अभिन्नता हमें माटी के दीये से जोड़े हुए है और हम माटी का दीया जला-जलाकर जैसे अपने जीवन का आलोक-पथ निर्धारित कर लेते हैं, अपना एक साल और आलोकित कर लेते हैं। तभी तो माटी का दीया अपने थोड़े से तेल, अपनी छोटी-सी बाती के साथ हर साल जलता-बुझता है, हर साल टूट कर मिट्टी में मिल जाता है; किन्तु फिर भी हार नहीं मानता, जैसे कि हमारी जीवन-ज्योति, हमारी जिजीविषा, हमारी संघर्ष-गाथा आदिम युग से आज तक पराजित होने को तैयार नहीं।
अपने अंतिम समय में तथागत को आभास हो गया था कि जर्जर शरीर अब और साथ नहीं देगा। भिक्षुकों ने जब अंतिम सन्देश की याचना की तो वे बोले कि मेरे पास ऐसा कुछ भी नहीं है कि अंतिम रूप से तुम्हें दे सकूँ— “अप्प दीपो भव” अर्थात् स्वयं दीपक बनो। आज ज्योति पर्व पर मैं सोचता हूँ कि तथागत ने भिक्षुकों से और कुछ बनने के लिए क्यों नहीं कहा। उन्होंने न तो ब्रह्माण्ड के विस्तार की बात की, न ही गगन की ऊचाँई की और न ही समुद्र की गहराई की। उन्हें सार्थक मनुष्य-जीवन के समानांतर छोटा-सा दीपक ही क्यों दिखाई दिया ? क्या अनायास वे अपना अंतिम सन्देश मनुष्य के लिए छोड़ नहीं गए ? मेरा मन कहता है कि हठात् उनके मुख से निकला स्वयं दीपक बनने का अनुभूत सत्य ही उनका अंतिम सन्देश है, मानव-जीवन का महासूत्र, जिसमें उनकी जीवन-दृष्टि का सार निहित है।
इसलिए जलता हुआ माटी का दीया मुझे जीवन की ज्योति-सा लगता है; ठीक जीवन-सा प्रकाशमान, वैसा ही लघु अस्तित्व, वैसा ही संघर्षशील, वैसा ही स्वाभिमानी और वैसा ही क्षणभंगुर। जीवन की क्षणभंगुरता पर पंत ने लिखा है– “मोतियाँ जड़ी ओस की डार, हिला जाता चुपचाप बयार;” अर्थात् ओस की बूँदों से सजी हुई डाल की अप्रतिम शोभा बस अचानक हवा के हल्के झोंके से बिखर जाती है। यही हाल हमारे जीवन का भी है; मृत्यु का तनिक भर झटका सहसा जीवन की हरी-भरी डाल को बिखेर कर रख देता है। पर पन्त ने जिन मोतियों की बात की है, वे ऐश्वर्य और महार्घता का संकेत करती हैं। जबकि दीपक तो ज्योति का ऐश्वर्य और ज्योति की महार्घता लिए होता है। उसकी ज्योति का अवसान अनोखे अतीत और अविस्मरणीय इतिवृत्त के साथ होता है। इसलिए मानव-जीवन को जितने भी उदहारणों से समझाया गया है, उसके लिए जितने भी उपमान जुटाए गए हैं, उनमें सबसे उपयुक्त मुझे मिट्टी का जलता हुआ दीपक ही लगता है। तिल-तिल संघर्ष करता हुआ, हिलती हुई लहर के साथ जलता हुआ, बुझते–बुझते हाथ की ओट से बच जाता हुआ और फिर-फिर जलता हुआ माटी का दीया।
मानव-जीवन में भी माटी के दीये की तरह नेह की बाती, स्नेह का तेल और हाड़–मांस की क्षणभंगुर काया होती है। उसमें भी दीये की ऊपर उठती लहर के समान अँधेरे से लड़ने का उर्ध्मुखी स्वाभिमान होता है। तभी तो हृदय में प्रज्ज्वलित दीप का स्वाभिमान समय-असमय राम तक को धिक्कारता है कि मेरे इस विरोध ही पाते आये जीवन को धिक्कार है ! जिसकी शोध में बराबर लगा रहा उस साधन को धिक्कार है ! (जानकी की स्मृति तथा व्यथित उच्छ्वास के साथ) .. हाय ! प्रिया का उद्धार न हो सका—
“धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन जिसके लिए सदा ही किया शोध !
जानकी ! हाय उद्धार प्रिया का न हो सका !”
( राम की शक्तिपूजा, निराला )
पर तत्क्षण ही जैसे बुझता हुआ दीप जल उठता है, राम की एक और स्मृति जाग उठती है और वे बोल पड़ते हैं कि माता मुझे सदा ‘राजीवनयन’ कहा करती थीं; इस तरह तो अभी भी मेरे पास दो नील कमल शेष हैं; माते ! उनमें से एक नयन देकर यह पुरश्चरण पूरा करता हूँ—
“कहती थीं माता मुझे सदा राजीवनयन !
दो नील-कमल हैं शेष अभी, यह पुरश्चरण
पूरा करता हूँ देकर मात: एक नयन।”
( राम की शक्तिपूजा, निराला )
इसीलिए महादेवी “सब बुझे दीपक जला लूँ… …आज दीपक राग गा लूँ।” की बात करती हैं। दीपक-राग यानि कि उर्ध्व लौ से प्रकाश बिखेरने का राग, उजाले द्वारा अँधेरे का सामना करने का राग, बुराई पर अच्छाई के विजय-अभियान का राग। इस तरह देखें तो महादेवी की दीपक-रागमाला का ही दूसरा नाम ‘दीपावली’ है। जैसे ज्ञान, अस्मिता, सौहार्द आदि के विजयोत्सव पर हमारे घर-आँगन दीप-मालाएँ धारण कर जगमग हो उठते हों; अन्यथा दीया जलाने और दीपावली मनाने की कोई सार्थकता नहीं।
भौतिक रूप से दीपावली हर साल एक साँझ की रोशनी लेकर आती है और साल भर के लिए चली जाती है, किन्तु प्रतीकात्मक रूप से मानव-जीवन के लिए उसका सन्देश चिरकालिक है। जब तक अज्ञान रहेगा, अन्धकार रहेगा, तब तक दीपावली हमारे घर-बार आती–जाती रहेगी। किन्तु आज बाहर के अँधेरे से कहीं अधिक भीतर का अँधेरा मानव-जीवन को बाधित कर रहा है। इसलिए भीतर के दीये को और अधिक लम्बी नेह की बाती तथा और अधिक स्नेहिल तेल की आवश्कता है। दीपावली और दीया अब तो प्रतीक मात्र रह गए हैं। विज्ञान ने बाहर की दुनिया इतनी जगमग कर दी है, इतनी रोशनी फैला दी है कि चकाचौंध में माटी का दीया और उसकी बाती और उसकी लौ सब-के-सब हीन से हीनतर हो रहे हैं। जबकि भीतर का अँधेरा विज्ञान के बस का नहीं। अपने भीतर की कोठरी में और उसके अँधेरे में मनुष्य आज भी उतना ही बौना है, जितना आदिम युग में था। अंतर सिर्फ़ इतना है कि आज वह बड़े-बड़े नाखूनों से, पत्थरों से, तीर-कमान से और तेग-तलवार से हमला नहीं करता; बल्कि अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र उसके शस्त्रागार में सम्मिलित हो गए हैं।
भीतर के अँधेरे से मानव-जीवन की लड़ाई अब भी बड़ी लम्बी है। न जाने कितनी दीपावलियाँ आईं और चली गईं; किन्तु अब भी मनुष्य के भीतर का दीया कमज़ोर बाती, छीजते तेल और काँपती लहर के साथ कम संकटग्रस्त नहीं है। जैसे-जैसे भौतिकता ने अपने पाँव पसारे, वैसे-वैसे मनुष्य-जीवन के बहिरंग में शिक्षा, विज्ञान, ऐश्वर्य आदि का प्रसार बढ़ा, किन्तु उसके अन्तरंग में उजाले का क्षेत्र संकुचित होता गया और अँधेरे ने अपना साम्राज्य बढ़ा लिया। तभी तो बड़ी-बड़ी डिग्रियों का बोझ सिर पर लादे उच्च शिक्षित वर्ग अपेक्षाकृत धनी मानी, सुखी-समृद्ध होने के उपरान्त भी सर्वाधिक विकल, अनिद्र और अन्धता-ग्रस्त है। महँगी दीपावली, महँगी आतिशबाज़ी और अपने जगमगाते परिवेश में भी उसके भीतर का अँधेरा छट नहीं रहा। आज देश-दुनिया में जो कुछ भी अनर्थ घट रहा है, उस सब का कारण अशिक्षा-कुशिक्षा ही नहीं है, अज्ञान-विज्ञान ही नहीं, बल्कि अतिशय ज्ञान, बाहरी चकाचौंध और दिग्भ्रम भी है।
वस्तुत: आज के चकाचौंध में जी रहे अभिनव मनुष्य को हजारों-लाखों की आतिशबाजी छोड़ सिर्फ़ एक मिट्टी के जलते हुए दीपक को ध्यान से निहारने की आवश्यकता है। उसे अपने भीतर भी एक दीया जलाने की आवश्यकता है। एक ऐसा दीया जो उसके भीतर के अँधेरे को दूर कर सके। एक ऐसा दीया जो उसके ह्रदय में आत्मबोध तथा तत्वज्ञान का निरभ्र आलोक फैला सके। और ऐसा ही दीया जलाने की बात नीरज ने की है– “जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।” क्योंकि धरा का अँधेरा सिर्फ़ बाहरी रोशनी से नहीं मिट सकता। उसका अंत तो भीतरी अँधेरे को भगाने से ही हो सकता है। जब भीतर का अंधकार छटता है, तो बाहर का प्रकाश भी श्रेय और प्रेय होकर अपना निरामय रूप प्रसारित करता है। नहीं तो घोर प्रकाश भी छल-दंभ, अनीति-अनाचार तथा बुद्धिनाश का अमानवीय इतिहास रचता रहा है और दुनिया ऐसे प्रकाश से आज बहुत अधिक पीड़ित है। इसलिए मनुष्य का जीवन माटी के दीये की तरह जलना है। जो स्वयं के लिए नहीं, दूसरों के लिए जलता है। चिराग तले अँधेरा इसीलिये होता है कि वह स्वार्थ के लिए नहीं, बल्कि परार्थ-परमार्थ के लिए जीता है। जीवन स्वयं एक ज्योति है, ज्योतित लौ-लहर है, आलोक-यात्रा है और आलोक-पथ निर्धारित करना, उस पर अनवरत चलते जाना ही मानव-जीवन का धर्म है।
जीवन के ज्वलंत रूप-स्वरुप को देखना हो, उसके सार्थक संकल्प-विकल्प को बूझना हो, उसकी जीवन-गाथा में अवगाहन करना हो और उसके प्रेरक स्मरणीय ज्योति की दिवाली जगानी हो, तो निश्चित ही हमें ऐसे महान दीयों को स्मरण करना होगा, जो आज भी मानव-ह्रदय में प्रदीप्त हैं। कभी वे राम के रूप में जले, तो कभी कृष्ण के रूप में और कभी गौतम-महावीर के रूप-स्वरुप में उजागर हुए। उनका ईसा मसीह का रूप अपने-आप में एक दिवाली है, तो उनकी पैगम्बर मोहम्मद की ज्योतिर्मयता मानव-जीवन का स्वर्णिम ज्योति-पर्व। ऐसे माटी के दीये माटी की दुनिया में जब तक जले, तब तक जले; उनकी ज्योति से आज भी ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का मार्ग प्रशस्त है। इतना ही नहीं धरती से उठने के बाद वे हमें अपना अपार्थिव झलक दिखाते जैसे आज भी ज्वाजल्यमान नक्षत्रों में प्रभाषित हो रहे हैं। तभी तो आँखों को लगती मँहगी विद्युत-रोशनियों, ज्योति पर्व की शांति भंग करते शोर-शराबे वाले पटाकों और आतिशबाज़ियो की भीड़ में माटी का दीया ही पूजित है। क्योंकि तमाम रोशनियों में सच्चे अर्थों में वही मनुष्य-जीवन का प्रतिनिधित्व करता है और अविद्या के विरुद्ध उसकी प्रज्वलित, मौन मुद्रा जैसे मुखरित हो कहती हो– माटी का दीया, जीवन-सा जिया।