माटी का दोहरा चरित्र / जयप्रकाश चौकसे
माटी का दोहरा चरित्र
प्रकाशन तिथि : 15 फरवरी 2011
निखिल आडवाणी की फिल्म 'पटियाला हाउस' में भारत से आकर लंदन में बसा एक पिता अपने लंदन में पैदा हुए पुत्र को इंग्लैंड की ओर से क्रिकेट खेलने देना नहीं चाहता, क्योंकि जब वह रोजी-रोटी की तलाश में परदेस आया था, तब उसे बहुत अपमानित किया गया था। उसके पुत्र के मन में इंग्लैंड के लिए कोई दुर्भावना नहीं है। अगर पिता भारत में जन्म लेने के कारण भारत को प्यार करने का हक रखता है, तब पुत्र को उस देश से प्यार करने का हक है जहां वह जन्मा, पला और जवान हुआ है। इस पिता के आत्म-सम्मान और देशप्रेम को क्या कहें, जो इतने दशकों तक रोजी-रोटी कमाकर खुशहाल रहा। वह उसी समय भारत क्यों नहीं लौटा? क्या शरण देने वाले देश के प्रति उसका कोई दायित्व नहीं है?
दरअसल भारत से जाकर विदेशों में बसने वाले अपनी जमीन की याद लिए विदेशी जीवन की आधुनिकता के सैटेलाइट को पकडऩे की कोशिश करते हैं। यह मूल्यों का द्वंद्व उन्हें हमेशा तंग करता है। दूसरी बात यह है कि वे रोजी-रोटी देने वाले लोगों के साथ केवल काम के संबंध रखते हैं और अपनाए हुए देश की संस्कृति को समझने का प्रयास नहीं करते। यहां तक कि विदेश में भी अपनी जाति, क्षेत्र, धर्म और भाषा वालों के साथ मेल-जोल रखते हैं। गोयाकि विदेश में भी हम अपना विभाजन साथ लिए जाते हैं। तीसरी बात यह है कि वे हमेशा भारतीय बहू चाहते हैं, परंतु बेटी को धनवान विदेशी से ब्याहने में उन्हें कोई एतराज नहीं है। विदेश में जन्मे अनेक युवा भारतीय पत्नी इसलिए चाहते हैं कि समानता और स्वतंत्रता मांगने वाली विदेशी लड़की मनोरंजक मित्र और प्रेमिका हो सकती है, परंतु आज्ञाकारी पत्नी उन्हें भारत से ही चाहिए।
चौथी बात यह है कि भारतीय संस्कृति का उनका नजरिया विक्टोरियन दृष्टिकोण के करीब होते हुए काफी विकृत भी हो चुका है। भारतीय फिल्मों में प्रस्तुत रीति-रिवाज और मूल्यों को ही वे संस्कृति समझते हैं। पांचवीं बात यह है कि सारा समय भारत जपते हुए भी आज के भारत को वे उतना ही जानते हैं, जितने फिल्मकार मनोज कुमार के नायक। विदेश में कमाए हुए डॉलर उनका चश्मा बन जाते हैं। उनमें एक अजीब किस्म की हिकारत का भाव आ जाता है और कट्टरवाद के प्रति उनमें स्वाभाविक ललक होती है। इनसे अलग हैं वे भारतीय जो उच्च शिक्षा लेकर विदेश शोध के लिए गए हैं। विगत 15-17 वर्षों में इन आप्रवासी भारतीय लोगों के फिल्मों से अतिप्रेम के कारण भारत में डॉलर सिनेमा जन्मा और अनेक फिल्मकारों ने सगर्व घोषणा की कि वे भारत के अपेक्षाकृत पिछड़े प्रांतों के दर्शकों के लिए फिल्में नहीं बनाएंगे। विदेशों में बसे कुछ भारतीय अपनी प्रतिभा और मेहनत से वहां की राजनीति में अपना स्थान बनाने में सफल होते हैं और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं असीमित हैं, परंतु वे जन्म के आधार पर सोनिया गांधी का विरोध करते हैं। इस तरह के दोहरे मानदंड उनके जीवन में नजर आते हैं। भारत में सदियों से अनेक देशों के लोग आकर पूरी तरह भारतीय हो जाते हैं, परंतु भारत से विदेश जाकर बसे लोग कभी पूरी तरह वहां के नहीं हो पाते।
भारत की मिट्टी की अजब तासीर है कि हर आगंतुक को आत्मसात कर लेती है, परंतु इसी मिट्टी के कुछ लोग विदेश जाकर वहां की मिट्टी में पूरी तरह नहीं मिल पाते। मन में प्रश्न उठता है कि पूरे विश्व को एक कुटुंब मानने वाली संस्कृति के ये वारिस इतने संकीर्ण विचारों के कैसे हो गए?