माटी की नाव-जीवन का ककहरा / सुधा गुप्ता
साहित्यकार की महत्ता कथ्य और शिल्प के सौन्दर्य में तो होती ही है, उसका एक महत् पक्ष इस तथ्य में निहित है कि उसका रचना-संसार कितना बहुआयामी है, उसने अपने सृजन-फलक पर कितने रंग समेटे हैं! यह वैविध्य उसकी सृजन-सीमाओं को रेखांकित करता है।
'निराला' इसलिए 'निराला' नहीं थे कि उन्होंने अपना उपनाम 'निराला' रख लिया था या स्वयं को सबसे विशिष्ट- 'निराला' मानते थे, वरन् उनका लेखन-सृजन अपने अनन्त विस्तार में स्वयं उद्घोष करता था कि वह सचमुच अनुपमेय हैं। एक ओर यदि 'जूही की कली' और 'सन्ध्या-सुन्दरी' जैसी विलक्षण काल्पनिक उड़ान है, तो वहीं 'अबे! सुन बे गुलाब' और 'कुक्कुरमुत्ता' जैसा कठोर यथार्थ (प्रतीकपूर्ण) भी मौजूद है। क्या यह चकित-विस्मित नहीं करता कि 'राम की शक्ति-पूजा' जैसी महती, उदात्त प्रलम्ब कविता, जिसमें जीवन के सम्पूर्ण दर्शन, साधना, विफलता की अनुभूति और दृढ़ संकल्प के रहस्य उद्घाटित कर दिये गए हैं। इसका रचयिता जब एक वात्सल्यमय पिता की भूमिका में आता है तो 'सरोज-स्मृति' जैसी करुणा-विगलित अश्रुधारा बहा देता है! जो लेखनी भक्ति साहित्य के शिरोमणि सन्त तुलसीदास के जीवन, अन्तर्द्वन्द्व एवं आशा-निराशा का अंकन करती है, वही लेखनी उतने ही कौशल से 'बिल्लेसुर बकरिहा' तथा ऐसे ही अन्य चित्रें का सर्जन करती है-यही 'विराटत्व' उस निस्सीम आकाश में उड़ान भरता है, जिसकी थाह पाना कठिन ही नहीं प्रायः दुर्लभ है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के दूसरे हाइकु-संग्रह 'माटी की नाव' की पाण्डुलिपि मेरे समक्ष है। प्रथम संग्रह 'मेरे सात जनम' (हाइकु-संग्रह, प्रकाशन वर्ष 2011) , मिले किनारे (ताँका और चोका-संग्रह-2011, डॉ-हरदीप सन्धु के साथ संयुक्त रूप से) , झरे हर सिंगार (ताँका-संग्रह-2012) के साथ जापानी विधाओं (हाइकु, ताँका, सेदोका, चोका) में 5 पुस्तकों (चन्दनमन-2011, भावकलश-2012, यादों के पाखी-2012, अलसाई चाँदनी-2012 और 'उजास साथ रखना'-2013) का सम्पादन भी कर चुके हैं। हाइकु-लेखन अप्रैल 1982 से आरम्भ किया था। इस संग्रह में 1982 के 7 हाइकु के साथ फरवरी 2011 से जून 2013 के बीच रचे गए हाइकु संगृहीत हैं। वैसे इनका लेखन क्षेत्र भी विस्तृत है। लघुकथा के लिए इनका समर्पण-सेवा भाव सुविख्यात है। ये अनेक रचना-विधाओं में सक्रिय हैं, किन्तु अन्तर्जाल पर 'हिन्दी हाइकु' तथा त्रिवेणी के सहयोगी सम्पादक (डॉ-हरदीप कौर सन्धु के साथ) के रूप में आने के पश्चात् हाइकु, ताँका, चोका, सेदोका, हाइगा और माहिया ने ऐसा विमुग्ध कर लिया कि काव्य-साधना की बहुत-सी ऊर्जा, समय, श्रम इसी ओर लग गया, जिसका परिणाम अत्यन्त सुखद है।
प्रस्तुत हाइकु संग्रह 'माटी की नाव' में 653 हाइकु हैं। इस संग्रह की सबसे बड़ी विशेषता जो मुझे प्रभावित करती है, वह इसका विषय-वैविध्य है। संग्रह के पन्ने खुलते जाते हैं और जीवन का नाना रंगों-भरा संसार भी। 'हिमांशु' जी को निश्चय ही प्रकृति-प्रेमी कवि कहा जाएगा। इनके सर्जन में प्रकृति के प्रति एक अटूट लगाव दृष्टिगत होता है-प्रकृति के सभी रूपों ने इनको लुभाया है-मनोहारी, सौम्य, सहज स्वाभाविक ने भी, विध्वंसकारी रौद्र रूप ने भी। वैश्विक समस्या पर्यावरण प्रदूषण एवं क्षति ने भी कवि को विचलित किया है_ लेखनी उठाने को विवश भी।
1- 'दादा' का साभिप्राय प्रयोग देखिए—पलाश दादा! / लगा रहा तू आग / जंगल राज! (6)
2-झील में साँझ का मनोहारी दृश्य- -झील में साँझ- / डबडबाई आँख / सूरज की ज्यों। (87)
3-भोर का विमुग्ध करने वाला सौन्दर्य-
-भोर के होंठ / खुले, तो ऐसा लगा- / तुम मुस्काए। (100)
4-प्रदूषण का लगातार बढ़ता प्रकोप जो धरती की उर्वरा शक्ति छीन ले रहा है-
-बाँझ धरती / यहाँ दम तोड़ती, / रोज मरती। (37)
जीवन का सबसे अमूल्य अनुभव है 'प्रेम' । जिसके जीवन में प्रेम का प्रवेश नहीं हुआ, उससे अभागा और कौन? वह दरिद्र है! कंगाल है! हिमांशु जी की प्रेम कविता भी रंग-बिरंगे पुष्पों की सुरभित माला है, वहाँ एक अकृतिम सहजता है, सामान्य भावनाओं, इच्छाओं-अभिलाषाओं का एक ऐसा जगत्, जिसमें हर सहृदय सुगम प्रवेश पा सकता है_ किन्तु यह प्रेम एकांगी नहीं, एक पक्षीय भी नहीं। स्वस्थ पारिवारिक जीवन जीते रिश्तों का एक ऐसा विस्तृत संसार है _ जिसमें हर इकाई जुड़ी है, जन्म से लेकर सम्पूर्ण जीवन भर बने-बिगड़े, मिले-बिछुरे रिश्तों की सर्वांगीण कथा है! मित्रता की मिठास है तो दग़ाबाजी, भितरघात की कटुता भी, वंचित होने की व्यथा भी। 'अनुरागी मन' में इसे देखा जा सकता है—छोटा आँचल / तेरी लाखों दुआएँ / कैसे समाएँ! (115)
कवि के भ्रातृ-वियोग के ये हाइकु बहुत मार्मिक हैं-
-जनम हुआ / तब ढोल बजे थे / गाए सोहर। (148)
-उड़ा है पाखी / छोड़ तन-पिंजरा / खाली है घर। (149)
और 'सुधियों की ज्योति' में यादों को लेकर रचे हाइकु—तुम्हारी याद / बाढ़ में बहकर / हुए आबाद। (1) -छुआ तो झरी / नाजुक पाँखुरी-सी / यादें पुरानी। (55) -सींचे लहू से / लहू का घूँट पीके / रिश्ते लहू के। (61)
जैसे-जैसे जीवन परिपक्वता की ओर बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे अनुभव भी। एक समय ऐसा आता है, जब संसार की निस्सारता और थकान का भाव प्रबल हो उठता है। अरे! हम 'माटी की नाव' में सवार होकर प्रवाह में उतर तो पड़े, पर परिणाम? जब सांसारिक सम्बन्धों की निस्सारता कचोट उठती है, जब लगता है कि जीवन की छलना ने हमें बुरी तरह छला, हम ठगे गए। जिनके लिए मर-मर के जिए, उनसे क्या पाया? और तब जीवन कठिन हो उठता है! ऐसे में थकान का हावी हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक है। 'माटी की नाव' स्वयं में अत्यन्त व्यंजक है और इस शीर्षक के अन्तर्गत सभी हाइकु प्रभावशाली हैं। -यार तो मिले / बघनखे पहने / बचते कैसे? (33) -दूर है गाँव / तैरनी है नदिया / माटी की नाव। (69)
फिर एक ठहराव—विश्रान्ति—तटस्थ दृष्टिकोण—एक ऐसा सुलझाव, जिसने मुट्ठी में बन्द कर दिए हैं कुछ अनमोल रत्न। यही है 'मन-आँगन' , जब निष्कर्ष रूप में कुछ तात्त्विक-सात्त्विक, सनातन सत्य हाथ आ जाते हैं-सदा सबको प्यार बाँटते चलना, बच्चों की तुतली भाषा, सोंधी रोटी की खुशबू, नेह की बौछार-सभी कुछ 'अच्छा' ग्रहण करने की भावना हाथ आ जाती है, जिससे एक मनोहारी, सुन्दर संसार की रचना में हम अपना सहयोग दे सकें। सुख-दुःख में समत्व भाव आने और जीवन को समग्र रूप में स्वीकार करने की क्षमता आते ही फिर से जीवन सरल हो उठता है। -सुख है मिला, / तो दुःख भी आएगा, / जाएगा कहाँ? (1) -बच्चे की भाषा / जिस दिन भूलेंगे / सब खो देंगे। (12)
कवि एक सामाजिक प्राणी तो है ही, एक कर्त्तव्यशील उत्तरदायी नागरिक भी है। समाज और राजनीति के संसार में घटित होती घटनाएँ उसे आन्दोलित करती हैं। 'शोषण' चाहे किसी भी स्तर पर क्यों न हो, कवि को व्यथित करता है, आक्रोशित भी। सर्वहारा के प्रति विशेष संवेदनशीलता अनेक हाइकु में निखरी है। बु़झी उमंग में कलम का आलंकारिक प्रयोग देखिए—छीनी कलम / कटारों ने करके / सर कलम। (15)
समापन में यही कि जीवन के चौंसठ वसन्त देखे, एक खुशहाल पर साथ ही गमों से जूझती भरपूर िज़न्दगी जिए, परिपक्व मस्तिष्क हाइकुकार की लेखनी से सृजित 'माटी की नाव' (हाइकु-संग्रह) जीवन का 'ककहरा' है, जिसमें 'अ' से 'ह' तक सभी वर्ण हैं। इस ककहरे को पढ़-सीख लेने के पश्चात् फिर कोई पोथी / ग्रन्थ पढ़ने में कठिनाई नहीं आएगी। सब कुछ स्पष्ट, सरल और सुगम हो जाता है।
हाइकुकार रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' को संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई! हिन्दी हाइकु-संसार इसका भरपूर स्वागत करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
(निर्जला एकादशी, 19 जून 2013)