माटी के खिलौने / सुशील कुमार फुल्ल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


``डॉक्टर,कुछ तो बोलो’’....वह गिगिड़ाया। डॉक्टर ने गाउन उतारते हुए सहज भाव से कहा, ‘‘उस पर, केवल उस पर विश्वास रखो।’’ डॉक्टर के चेहरे पर कोई भाव नहीं था। परमात्मा को याद करवाना भी शायद उनकी आदत का हिस्सा बन गया था।

‘‘सर, उनचास दिन हो गए हैं...।’’ ‘‘देखिए मै। बहुत थक गया हूँ...अब कल बात करेंगे।’’

चम-चम करते बहुमंजिला वातानुकूलित अस्पताल की महल मंजिल पर आई.सी.यू. स्थित था...विक्की को बिस्तर नंबर पाँच पर पड़े हुए उनचास दिन हो गए, लेकिन अभी तक होश नहीं आया। मानों सब धँधला गया है। अपने पर मुसीबत पड़ती है, तो लगता है संसार दुखों का घर है।

सुख मृगतृष्णा है...वह आत्मबोध की इस अनुभूति से पहले क्यों अनभिज्ञ था...अब एकाएक सिर पर मृत्यु की तलवार लटकने लगी तो सब गड़बड़ा गया लगता है...और जीवन की गाड़ी कब पटरी से उखड़ जाए...कौन जानता है। इतने दिनों बाद डॉक्टर ने भी ‘उसे’ याद करने की सलाह दी है...शायद विक्की की हालत में सुधार नहीं हो रहा...ओह!

मालेरकोटला से उसकी बदली चंडीगढ़ हो गई थी और उसने सुख की साँस ली थी। जहाँ बच्चों के लिए हर प्रकार की शिक्षा उपलब्ध थी। विक्की तो अभी बारहवीं में पढ़ता है। फिर उसकी भी इच्छा है कि वह इंजीनियरिंग कॉलेज में चला जाए। बड़े को तो पिछले साल ही दाखिला मिल गया था। लेकिन विषय बदलने के लिए उसने पुनः प्रवेश परीक्षा दे डाली और इच्छानुसार पटियाला के थापर इंस्टीच्यूट में चला गया है। हरिहर ने समझाया भी था....बेटा एक वर्ष पीछे चले जाओगे और फिर हर ट्रेड में उतरा-चढ़ाव आता रहता है। लेकिन वह नहीं माना था। प्रत्युत्तर में बोला था-दस बीच हजार रूपए की हो तो बात है। मनपसंद ट्रेड में चला जाऊँगा, तो पैसा ही पैसा कर दूँगा।

हरिहर को नई पीढ़ी में पैसे की ललक देखकर आश्चर्य होता है। ग्यारहवीं-बारहवीं में ही योजनाएँ बनाने लगते हैं...ऐसा करेंगे...वैसा करेंगे...इतना पैसा आएगा और फिर ठाठ ही ठाठ क्या क्रेज है। इंजीनियर बनो...डॉक्टर बनों और विदेश चले जाओ। प्रवेश न मिले तो पैसा लगाओ...उससे कई गुना कमाओ। शिक्षा भी व्यापार हो गया है, उसने सोचा। लेकिन मेरे बेटे तो मेहनत के बल पर दाखिल हो जाएँगे। एक तो हो ही गया है-सोचकर वह प्रफुल्लित हो गया। तभी भगदड़ मच गई ।कि सी डॉक्टर ने जहर खा लिया था। उसे आई.सी.यू. में लाया जा रहा था। डॉक्टर भी जहर खा लेते हैं। जो दूसरों को जीवन दान देते हैं उनमें भी ऐसे लोग हो सकते हैं, जो जरा-सी बात पर अपने आप हो खत्म कर दें। परमात्मा की रचना को खत्म करना अपराध ही तो है....तभी हरिहर को लगा कि हमस ब तो खिलौने हैं......परमात्मा जैसा रूप् देना चाहता है, दे देता है और जब उसकी इच्छा होती है तो पटक देता है। कुछ देर में उस डॉक्अर के बारे में सभी भूल गए। पुलिस कुत्ते लेकर आई.सी.यू. के बाहर आ गई थी। बी.आई.पी. दरवाजा भी आज खुल गया था। संध्या उतरते ही हरिहर ने अपना बिस्तर फर्श पर डाल दिया था। और लोगों ने भी अपने-अपने कपड़े बिछा लिए थे। सब एक-दूसरे से सट कर अपने बिस्तर लगा लेते है। पूरा भाईचारा...कोई कहीं से आया हो......किसी भी जाति अथवा संप्रदाय का हो...सब एक-दूसरे के प्रति सहायक एवं सहानुभूतिपूर्ण हैं। ‘‘उठो, उठो। अीाी से लेटर गए।’’ एक सुरक्षा-गार्ड ने डंडे लहराते हुए कहा। ‘‘क्यों?’’ ‘‘क्यों क्या! उठो...साहब आ रहे हैं.....।’’ ‘‘साहब!’’ ‘‘हाँ, गवर्नर साहब...।’’ सभी लोग उठ गए। फिर हुक्म हुआ-‘‘यह हाल खाली कर दो। एक घंटे बाद फिर आ जाना।’’ सब सामान उठा कर इमरजेंसी की तरफ चल दिए। राज्यपाल अपने किसी रिश्तेदार का हालचाल पूछने आ रहे थे। आस-पास, इधर-उधर पुलिस ही पुलिस। जो लोग वहाँ थे......उनके क्रिया-कलाप में व्यवधान उत्पन्न हो गया था। थोड़ी देर बाद पुलिस वाले चले गए। राज्यपाल नहीं आए थे...अब शायद कल आएँगे। फिर सभी लौट आए थे। वी.आई.पी. गेट बंद हो गया था।

अस्पतालों में भी राजशाही चलती है....हरिहर को विश्वास नहीं हुआ। दोपहर ढल चली। वह अकेला ही बैठा था। जब विक्की को अभी अस्पताल दाखिल करवाया ही था...तो सभी रिश्तेदार आ पहुँचे थे और सारा-सारा दिन बैठे रहते थे। सबको उम्मीद थी की जल्दी ही विक्की को हाश आ जाएगा और उसे वार्ड में शिफ्ट कर देंगे। परंतु वह डर गया था। आई.सी.यू. का अर्थ है आर या पार...और ज्यादातर लोग पार ही पहुँचते...पता नहीं क्यूँ इमरजेंसी में डॉक्टर देर लगा देते हैं...वहाँ समय पर जाँच हो जाती...दवाई मिल जाती तो यह नौबत नहीं आती।

वह अभी कॉलेज से लौटा था। आते ही चाय की फरमाइश हुई और फिर अचानक बोला, ‘‘माता जी, मेरी दाईं टाँग में गड़बड़ है।’’ ‘‘क्या गड़बड़ है!’’ माँ ने पूछा था। ‘‘लगता है इसमें हरकत बंद हो गई है।’’ ‘‘हरकत बंद हो दुश्मनों की।’’ सब टेलीविजन देखने में व्यस्त थे। विक्की लेट गया था। तभी उसने महसूस किया...उसकी दूरी टाँग से भी कोई खराबी थी। वह चिल्लाया, ‘‘माता जी, मेरी दूसरी टाँग भी गई। टीवी ही देखते रहोगे या मेरा...।’’ वह आज पहली बार रो पड़ा था।

हरिहर ने टीवी बंद किया और उठ खड़ा हुआ। चलो डॉक्टर के पास चलते ळैं, कहकर वह कपड़े पहनने लगा। विक्की उठ नहीं पाया। उसे सहारा देकर उठाना पड़ा। वैन तक बड़ी मुश्किल से पहुँचाया। हरिहर को लगा...विक्की को अधरंग हो गया है। वह काँप् गया, परंतु हौसला जुटाकर विक्की को सँभालतु हुए एक प्राइवेट डॉक्टर के पास ले गया...जिसने प्रारंभिक जाँच के बाद ही सलाह दी कि बड़े अस्पताल ले जाओ, देर न करो।

और वह हकबकाया-सा सीधा चमचम करते बहुमंजिला अस्पताल में ले गया था विक्की को। इमरजेंसी में इतनी लंबी कतार। फर्श पर लेटे हुए लोग...अपने ही हाथ में ग्लूकोस की बोतल पकड़े हुए लोग...सहमें डरे हुए लोग...एंबुलेंस पर एंबुलेंस आ रही थी। एक गाड़ी तो देहरादून में पहुँची थी और एक सहारनपुर से...दुर्घटनाओं में कुचले गए लोग...जल हुई महिलाएँ।

विक्की पूरे होश में था। उसे एक स्ट्रेचर पर लिटा दिया गया था। घर के लोग उसके हाथों-पाँवों की मालिश कर रहे थे और वह पुकार रहा था-पानी...पानी।

हरिहर ने डॉक्टर से पूछा...‘‘पानी दे दें?’’

‘‘नहीं! पहले टेस्ट होने दो।’’ डॉक्टर ने फिर पूछा, ‘‘कभी कुत्ते ने तो नहीं काटा था इसे?’’ ‘‘नहीं! मुझे तो याद नहीं...पानी दे दूँ...।’’

‘‘डॉक्टर जा चुका था। हरिहर ने पानी नहीं दिया था...अब उसे पश्चाताप हो रहा है...विक्की ने उनचास दिन पहले पानी माँगा था...बस फिर कँपकँपाकर उसने हाथ ढीले कर दिए थे और बेओश हो गया था। अब डॉक्टर दौड़कर आए थे....ऊपर ले चलो.....इसकी धड़कन तो बंद हो गई....चलो। फिर आई.सी.यू. में प्रवेश डॉक्टरों ने तुरंत वेंटीलेटर लगाया था...दिल फिर धड़कने लगा था...परंतु अब निश्चेष्ट पड़ा था...ऑक्सीजन से उसकी साँस चलने लगी थी।

दस घंटे.....बिना उपचार के वह कसाईबाड़े में पड़ा रहा...डॉक्टरों के पत्ािर दिल और पथराई आँखें उनके लिए हर आने वाला मरीज एक खिलौना है...जब तक होश है....मत देखो...जब बेहोश हा जाए तो वेंटीलेटर लगा दो। पहले मृत्यु के द्वार पर पहुँचा दो...फिर उपचार करो...कसाईबाड़ा। हरिहर ने सोचा इससे तो वह उसे कहीं और ही ले गया होता, परंतु अपने हाथर में तो है ही नहीं यह सब।

तभ नर्स ने पुकारा-‘विवेक।’’ उसकी तंद्रा टूटी और वह तुरंत दरवाजे पर पहुँचा। ‘‘जी, मैं हूँ विवेक के साथ।’’ ‘‘तुम्हें डॉक्टर साहब ने अंदर बुलाया है।’’ कह क रवह दरवाजा पटकती अंदर चली गई। यह डॉक्टर ने सामने खड़ा था। डॉक्टर ने कुछ सोचते हुए कहा-‘‘आप चाहें तो मै। विवेक की खोपड़ी खोल कर देख लूँ? शायद कोई बात बन जाए। वैसे भी वह लोथ ही है।’’


‘‘जी.....।’’ उसके शरीर में बिजली दौड़ गई। लोथ ही है....वाक्य ने उसे बींध लिया । खोपड़ी खोपड़ी तो जोखिम को आमंत्रण है। इतने दिनों में तो ये लोग रोग को भी नहीं पकड़ पाए......और जब खोपड़ी खोलकर कहीं और उलझ गया केस तो। नहींे, ‘‘डॉक्टर साहब, आप ही तो पहले इस स्थिति से मना कर रहे थे।’’


‘‘पहले कर रहा था, क्येांकि कोई संभावना लगती थी। परंतु अब इसमें कुछ है नहीं......बाकी आपकी इच्छा।’’ फिर बोला-अच्छा, अभी देखते हैं कि इसमें कोई स्पंदन है या नहीं। तभी डॉक्टर ने रबड़ की हथौड़ी जैसे औजार को विक्की के माथे परटक से मारा। हरिहर काँप गया। पत्थर दिल डॉक्टर। लेकिन विक्की के चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया.......कोई हलचल नहीं थी। प्रातः पाँच बजे वह विक्की को देखने गया। उसे लगा विक्की के सिर के निचले भाग में टाँके लगे हुए थे। शायद डॉक्टर ने खोपड़ी खोली होगी। लेकिन मेरी सहमति के बिना वह भला ऐसा क्यों करेगा। पास ही घूमती नर्स ने कहा, ‘‘इसे आप ऐसे ही कब तक रखोगे?’’

‘‘क्या मतलब?’’ ‘‘मतलब तो साफ है। इसके दिमाग में सूजन है, दो महीने में भी यदि इसके मस्तिष्क में स्पंदन नहीं लौट सकता...तो अब कोई संभावना नहीं।’’ ‘‘जी...ऐसे केस आते तो कभी-कभार हैं लेकिन आज तक कोई ठीकर होकर नहीं गया।’’ ‘परमात्मा के वास्ते ऐसा मत कहो।’’ ‘‘न कहने से कोई यह उठ कर चलने तो नहीं लगेगा...मैं तो मुँहफट हूँ। अब भी सलाह देती हूँ कि वेंटीलेटर हटा दो और इसे चैन से मरने दो। व्यर्थ में एक दिन में दो-दो हजार क्यों खर्च करते हो।’’

हरिहर की आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। वेंटीलेटर हटा दो-ससुरो, वेंटीलेटर तो तुम लोगों की वजह से लगा। यदि इमरजेंसी में दवाई मिल जाती, तो बेहोशी में ही क्यों जाता। सारे अस्पताल में हाहाकार मच गया था। पूरे अस्पताल की बिजली चली गई थी। सारे उपकरण क्षण भर के लिए निस्पंद हो गए थे। एक मरीज तो साँस की तकलीफ के कारण ही यहाँ आया था...। बिजली बंद होने से उसको पसीने पर पसीना आ रहा था और उसकी साँस उखड़ने लगी थी......लेकिन क्या किया जा सकता था...उसकी साँस उखड़ती ही चली गई और डॉक्टर अपने-अपने कमरों में सोए हुए थे।

विक्की की ऑक्सीजन भी तो रूकी होगी...लेकिन फिलहाल तो उसकी छाती धौंकनी की तरह चल रही है। वह आश्वस्त हो गया था।

पौधा रोपना कितना सुखद होता है। परंतु उसकी परवरिश कितनी कठिन। जरा-सी चूक हो जाए तो असमय ही मुरझा जाए। जो जंगली पेड़-पौधे हैं.......वह किस प्रकार अपना अस्तित्व बनाए रखते हु।। उन्हें कोई कष्ट नहीं होता, कोई रोग असमय नहीं धर दबोचता। जीव-जंतु जिनका कोई घर घाट नहीं होता......बच्चों को जन्म देते हैं.....पालते हुए भी कई बार मुरझा जाती है। हरिहर अस्पताल में बैठा यही ताना-बाना बुनता रहता है।

महेंद्र ने एक पहुँचे हुए साधु से पूछा था, ‘‘वह ठीक हो जाएगा?’’

ध्यान लगाकर महात्मा जाी ने कहा था, ‘‘बच्चा, कर्मों का फल है। लेकिन इसके माँ-बाप ने कोई भूल अवश्य की है। ‘‘करके देख लो। पंद्रह दिन देसी घी की अखंड ज्योति जलाओ....व्यवधान पड़ा तो अनिष्ट होगा, यह ध्यान रहे।’’ और एक रात उसकी आँख लग गई। हकबकाई-सी उठी तो देखा ज्योति बुझ गई थी.....इतना घी......इतनी बड़ी बाती.....फिर भी अखंड ज्योति बुझ गई थी। ‘माँ-बाप सिर धुन कर रह गए। समय की तलवार काल बन कर लटक गई। कभी पीर की दरगाह पर कभी ज्योतिषियों के दरबार में......जो भी सुझाता हरिहर चुपचाप वैसा ही उपाय करता। जब कसाईबाड़े में लौटकर आता तो कोई न कोई डॉक्टर पूछ बैठता ‘‘खोपड़ी खोल कर देख लें?’’

‘‘नही.....नहीं’’ उसका एक ही जवाब होता। आज ज बवह घर से निकला था तो सुराही उठाए सामने से निकला। जरा-सा ध्यान इधर-उधर हुयआ। पाँव अटका और सुराही जमीन पर गिर कर चकनाचूर हो गई। उसके शरीर में दहशत व्याप गई, मानो उसे ही सरसाम हो गया हो। मुँह से निकला-आह, माटी के खिलौने...बनना, गिरना और टूटना...निर्माण और विध्वंस...फिर पुनर्निर्माण...जीवात्मा का विछोह।

वह जल्दी डग भरने लगा था। आज वह निर्णय कर ही लेगा। आखिर कब तक! वह इंतजार करके-करते थक गया था। उसके रिश्तेदार जो शुरू-शुरू में जमघट लगाए रखते थे...अब धीरे-धीरे खिसकने लगे थे। वेंटीलेटर...साँस के एिल सारा प्रपंच...वह पहली मंजिल पर पहुँचते ही आई.सी.यू. में चला गया, बोला, ‘‘डॉक्टर...आप हर रोज मुझसे पूछते हैं कि...!’’ ‘‘हाँ...मैं। पूछता था...लेकिन हर काम का कोई समय होता है...एक बार समय निकल जाए फिर सब व्यर्थ हो जाता है।’’ ‘‘तो सब कुछ नहीं हो सकता!’’ ‘‘माटी के खिलौने!’’ हरिहर ने दोहराया और भयभीत मुद्रा में अपने बेटे को देखने वह सहमे कदमों से आगे बढ़ा। वेंटीलेटर हटाया जा चुका था।