माटी रही पुकार / बिशन टंडन
मुख्य पड़ाव था। इतिहास की बात छोड़ भी दें तो आज भी नए राष्ट्रीय मार्ग पर चौमुहा एक बड़ा गाँव है। वृन्दावन से जो सड़क आकर इस राजमार्ग पर मिलती है, वहाँ से 10 कि।मी। दूर कोसी की ओर। यहाँ लगभग ढाई सौ परिवार हैं मुख्यत: ब्राह्मणों, ठाकुरों, मुसलमानों और हरिजनों के। गेहँ, बाजरा और गन्ने की अच्छी खेती होती है। खेती-बारी के लिए ही नहीं; रहन-सहन, मेल-मिलाप, आपसी भाई-चारे के लिए भी चौमुहा की चर्चा आसपास के गाँवों में होती रहती है। इसी गाँव में बशीर का जन्म हुआ था।
जिस परिवार में बशीर ने जन्म लिया वह अपेक्षाकृत खुशहाल था। उसके पिता नजीर अहमद दो भाई थे। बड़े नेक आदमी थे। उनकी धार्मिक प्रवृत्ति प्रबल थी और उनका काफी समय नमांज-रोंजे में जाता था। पर तअस्सुब छू तक नहीं गया था। गाँव की भलाई के हर काम में आगे रहते थे; सबके दुख-दर्द में सदा अपने को जोड़े रहते थे। गाँववाले भी उनकी बहुत इंज्ंजत करते थे। बरसों से गाँव के मुखिया थे। उनके छोटे भाई शरींफ अहमद घर के काम-काज में लगे रहते थे। अपने बड़े भाई के प्रति उन्हें बड़ी श्रध्दा थी और उनका स्वभाव जानते हुए खेती-बाड़ी, दौड़-धूप आदि का सारा काम उन्होंने स्वत: अपने ऊपर ले लिया था। यह उनकी मेहनत-मजूरी का ही परिणाम था कि दोनों भाइयों की ंजमीन धीरे-धीरे करके पाँच एकड़ हो गयी थी। बशीर अपने पिता का इकलौता बेटा था पर शरींफ अहमद के दो लड़के व एक लड़की थी। अल्लाह का दिया बहुत कुछ था घर में।
घर में भाई-बहन और घर के बाहर रामकुमार, शंकर सिंह, अनीस, रामचन्ना आदि के पास बशीर का बचपन बीता। ये सब समवयस्क थे और साथ-ही-साथ बड़े हुए। स्कूल में एकाध कक्षा आगे-पीछे, पर स्कूल के बाहर पूरा-साथ। पर रामकुमार से बशीर की खास दोस्ती थी। रामकुमार के पिता पंडित रामेश्वर प्रसाद भी गाँव के प्रतिष्ठित लोगों में से थे। उनके पास भी अच्छी-खासी जमीन थी और ऊपर से वह वैद्यक भी करते थे। आसपास के गाँवों में दवा-दारू के मामले में उनकी काफी साख थी। पंडित रामेश्वर प्रसाद और नजीर अहमद के परिवारों में काफी घनिष्ठता थी।
यह बाल मंडली स्कूल के बाहर सक्रिय थी। आठवीं, नवीं कक्षा तक आते-आते ये सब बालक आसपास के नाटक-नौटंकी में काफी रुचि रखने लगे थे। चाहे पास के फतेहपुर गाँव में पीर साहब का उर्स हो, चाहे निधिवन में हरिदास संकीर्तन, इनका झुंड हर जगह मौजूद रहता था। बरसाने और नन्दगाँव की होली, फालेन का अंगारों पर चलने का कौतुक व चौरासी कोस की यात्रा, सब कुछ इनका देखा-भाला था। अपने गाँव में भी इस प्रकार के उत्सवों के आयोजन में यही मंडली आगे रहती थी। ब्रज क्षेत्र में रासलीला और भक्तमाल नाटकों का हमेशा ंजोर रहा है। रामकुमार और बशीर के प्रयत्नों से चौमुहा में भी कई नाटक और रासलीलाएँ खेली गयीं। जब ये दोनों स्कूल की आंखिरी कक्षा में थे तो इनकी इच्छा हुई कि गाँव में स्वामी कुँवरपाल की उध्दवलीला हो। कुँवरपाल उस समय के जाने-माने रासधारी थे। चौमुहा से 14 किलोमीटर दूर छाता उनका केन्द्र था। चौमासा खत्म होते ही वह अहमदाबाद, सूरत, बम्बई आदि चले जाते थे, जहाँ उनकी बहुत माँग थी। पर दौड़-धूप करके रामकुमार और बशीर ने स्वामी जी को चौमुहा आने के लिए तैयार करा लिया। पाँच-छह दिन चौमुहा में बड़ी धूम-धाम रही। रात के आठ बजते-बजते चौमुहा और आसपास के गाँवों के लोग इकट्ठा हो जाते और तीन-चार घंटे रसालीला की तन्मयता में डूबे रहते। पता नहीं क्यों, जब गोपी 'अनाथन की सुध लेहु' समाप्त करते हुए गाती कि 'सूर श्याम तुम सौह नन्द की, एक बार ब्रज आवन कीजैं' तो बशीर रस-विभोर हो उठता। सोचता कि घर आने की कल्पना मात्र ही कितनी सुखद और भावभीनी होतीहै।
रासलीला के अन्तिम दिन जब यह मंडली घर लौट रही थी तो बशीर ने एक प्रश्न उठाया। वह बोला, “रामकुमार, यह बताओ कि जब किशन जी को ब्रजवासियों से इतनी मोहब्बत दी, तो वह ब्रज छोड़ कर गये क्यों? और अगर चले गये थे तो जब उन्हें खुद यह महसूस हुआ कि वे मथुरा में दु:खी हैं तो वापस क्यों नहीं आये?”
“बशीर बाबू कहते हैं कि...” और इससे पहले कि रामकुमार अपनी बात कहता, बशीर फिर बोला, “क्या जहाँ किशन जी को पाला-पोसा गया, जहाँ उनका बचपन बीता, जहाँ उन्हें अपने सखा, ग्वाल-बाल व सखियों का प्यार मिला, उस ब्रजभूमि से उन्हें कोई मोह नहीं रहा?”
“मैं बता रहा था कि बाबू कहते हैं कि उध्दवलीला में सभी रासलीलाओं के सार का सन्देश है। इसमें हिन्दुओं के दर्शन का सन्देश है और आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध समझाया गया है। बाबू से कहँगा कि एक दिन हम सबको पूरी कथा समझाएँ...।”
रामकुमार फिर अपनी बात पूरी नहीं कर पाया था कि इस बार शंकर सिंह ने उसे टोक दिया, “भई दर्शन वगैरह तो हम क्या समझें, बशीर का सवाल बड़ा सीधाहै।”
“सुनो इसका उत्तर; मुझे तो यही लगता है कि कृष्ण अवतार थे और अपनी लीला दिखाने संसार में आये थे। वृन्दावन से उन्हें मथुरा तो जाना ही था,पर वह केवल दिखावा था, असलियत में वे ब्रजवासियों से दूर हुए ही नहीं।”
“भई, क्या कह रहे हो? तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी,” बशीर ने अपना आश्चर्य व्यक्त किया।
“देखो बशीर, याद करो, लीला के अन्त में उध्दव राधा की दशा का वर्णन करता है तो कृष्ण कहते हैं कि मैंने तो 'ब्रजवासिन के संग में सौगन्ध खायी है, मैं वहीं हँ। ब्रजवासी और मैं, अरे भैया, ऐसे हैं जैसे जल और जल की लहर, दोनों एक हैं। इस पर उद्धव ने कहा, “महाराज, आप झूठ बोलो हो। मैं ब्रजवासिन कूँ रोयते छोड़ि आयो हँ। इस पर भगवान ने कहा कि 'तो तोकूँ साँच नहीं आवै, तो तू अपनी आँख मूँद ले, मैं तोकूँ अवहि ब्रजवासिन के संग में दरसन कराऊँ।' और इसके बाद तुमने रासमंडल में देखा कि भगवान ने उध्दव को गोपियों के साथ दर्शन दिया। बशीर, कृष्ण और ब्रजभूमि का सम्बन्ध अटूट है,” यह कहते हुए जब रामकुमार ने बशीर की ओर देखा तो उसे लगा कि उसकी बात का उस पर प्रभाव पड़ा है।
बशीर कुछ देर चुप रहा, जैसे कुछ सोच रहा हो। फिर एकाएक बोला, “रामकुमार ठीक ही कहते हो, किशन जी की बात छोड़ो। हम सब का भी अपनी मिट्टी से कितना गहरा रिश्ता होता है। इसी से बनते हैं और इसी में मिल जाते हैं। बच्चों की बात यहीं समाप्त हो गयी। गाँव आ गया था।
उसी साल दोनों ने हाईस्कूल पास किया। पढ़ने में दोनों ही अच्छे थे इसलिए घरवालों ने उन्हें आगे पढ़ने के लिए आगरा भेज दिया। एक ही कॉलेज और होस्टल में साथ रहने के कारण उमर के साथ-साथ उनकी मित्रता और भी प्रगाढ़ होती गयी। कॉलेज के अन्तिम वर्ष में बशीर के पिता का देहान्त हो गया। घर में और विशेषकर बशीर के लिए, एक बड़े का साया उठ गया, पर धीरे-धीरे दबे पाँव ही सही, जीवन अपनी पुरानी गति पर आने लगा। बचपन में ही माँ की मृत्यु हो जाने के कारण बशीर अपनी चाची को ही माँ मानता था। उन्होंने ही उसे पाल-पोस कर बड़ा किया था। चाचा का स्नेह भी उसे पूरा मिला था। इस कारण घर की ओर से उसे कोई चिन्ता नहीं थी। कॉलेज में ही दोनों मित्र नौकरियों के लिए कई परीक्षाओं में बैठे और एक-दो प्रयत्नों के बाद रामकुमार डिप्टी-कलेक्टर बन कर आर।के। शर्मा कहलाने लगा और बशीर अहमद आयकर अधिकारी नियुक्त हो गया।
जीवन में पहली बार दोनों का गाँव ही नहीं छूटा, दोनों एक-दूसरे से दूर हो गये। पर सम्पर्क उनका बना रहा। शुरू-शुरू में दोनों साथ छुट्टी का कार्यक्रम बनाकर गाँव आते, यदि दोनों की नियुक्ति आसपास होती तो एक-दूसरे के यहाँ आते-जाते रहते। पहले जैसा साथ न होते हुए भी दोनों कि मित्रता और स्नेह में कमी नहीं आयी। यही नहीं, यह मित्रता उनके अपने परिवारों में भी पनप गयी।
बशीर और रामकुमार के नौकरी में आने के कुछ साल बाद देश का घटनाचक्र बड़ी तेंजी से बढ़ा। एक ओर गाँधी जी का सत्याग्रह, 'भारत छोड़ो'आन्दोलन, राष्ट्र नेताओं की लम्बी गिरंफ्तारी के बाद उनके और ऍंग्रेंज साम्राज्य के प्रतिनिधियों के बीच वार्ता के दौर और दूसरी ओर जिन्ना और मुस्लिम लीग की पाकिस्तान बनाने की माँग। जैसे-जैसे देश-स्वाधीनता की ओर बढ़ रहा था, साम्प्रदायिकता का दानव अपना मुँह फैलाता जा रहा था। वातावरण में कटुता बढ़ रही थी और अच्छे-भले लोग भी अपने होश-हवाश खोते जा रहे थे। स्वाधीनता तो मिली पर देश के दो टुकड़े करके, साम्प्रदायिक घृणा में लिपटी हुई मिली।
स्वाधीनता से कुछ ही पहले रामकुमार आगरा में सिटी मजिस्टे्रट हो गया था और बशीर आयकर अधिकारी होकर दिल्ली आ गया था। दिल्ली में उन दिनों सरगर्मी का होना स्वाभाविक था। यह सरगर्मी केवल राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं थी, दिल्ली में नए इतिहास का निर्माण हो रहा था तो दिल्ली वाले अलग कैसे रह पाते? जीवन का कोई पहलू इससे अछूता नहीं था। सरकारी कर्मचारियों के लिए भी एक समस्या उठ खड़ी हुई थी। हर केन्द्रीय अधिकारी को यह छूट थी कि वह अपनी इच्छानुसार चाहे भारत में रहे, चाहे पाकिस्तान जाएे। पाकिस्तान के राजनेताओं का यह प्रयास था कि मुसलमान अधिकारी अधिक-से-अधिक संख्या में नए देश को सम्भालने के लिए आगे आएँ। वरिष्ठ मुसलमान अधिकारी जो पाकिस्तान जाने का निर्णय कर चुके थे, उन राजनेताओं की सहायता कर रहे थे। बशीर अहमद के सामने भी यह प्रश्न था पर इसे लेकर उसमें कोई बेचैनी नहीं थी। उसके मन की आवांज स्पष्ट थी। राजनेताओं ने भले ही धर्म के नाम पर देश को दो भागों में विभाजित कर दिया हो पर वह अपना धर-बार छोड़ कर नई जगह क्यों जाए? वह जानता था कि उसके चाचा और भाई चौमुहा नहीं छोड़ सकते; वह उनके जीवन का अभिन्न अंग था।
उन्हीं दिनों एक दिन उसके एक सहयोगी ने शाम को मोहम्मद अली के घर चलने को कहा। मोहम्मद अली वित्त विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी होने के नाते पिछले कुछ महीनों में पाकिस्तान के मनोनीत प्रधानमन्त्री लियाकत अली खाँ के काफी नजदीक हो गये थे। यह भी घोषणा हो चुकी थी कि वे नए देश की सरकार के सेक्रेटरी जनरल बनेंगे। उन्होंने मुसलमान अधिकारियों से पाकिस्तान चलने की अपील करने के लिए, उस शाम उन्हें अपने घर बुलाया था। बशीर अहमद के लिए उस मीटिंग का कोई विशेष महत्त्व नहीं था पर जब उनके सहयोगी ने उनसे आग्रह किया तो उन्होंने सोचा कि वे तो अपने बारे में निर्णय कर ही चुके हैं पर मीटिंग में जाने में क्या हर्ज है। कुछ शगल ही रहेगा और बशीर अहमद भी उस मीटिंग मेंपहुँचगये।
बहुत जोरदार मीटिंग रही। करीब सौ मुसलममान अधिकारी मोहम्मद अली के बँगले के पीछे लॉन पर एक शामियाने के नीचे इकट्ठा हुए थे। मोहम्मद अली बड़े योग्य व्यक्ति थे। अपने एक घंटे के भाषण में उन्होंने पाकिस्तान को मुसलमानों का एक बहुत बड़ा देश बनाने के सपने को शब्दबद्ध किया और मुसलमान अधिकारियों से वहाँ चलने की बड़ी भावभीनी अपील की। अपने भाषण में उन्होंने भावना और तर्क दोनों का पूरा उपयोग किया और यह भी इशारा किया कि भारत में मुसलमानों के भविष्य के बारे में कुछ कहना कठिन है। वहाँ एकत्रित अधिकांश अधिकारी तो पहले ही निश्चय कर चुके थे पर जो अनिश्चित थे या पाकिस्तान नहीं जाना चाहते थे उन पर मोहम्मद अली की बात का असर पड़ा।
बशीर अहमद बड़े अनमने से घर लौटे। उनके चेहरे से यह स्पष्ट था कि किसी दुविधा ने उन्हें घेर लिया है। घर में पहले उनकी सकीना ही मिली, दोनों बच्चे सो गये थे। सकीना ने अपने पति को काफी गम्भीर देखकर पूछा भी कि कहीं उनकी तबीयत तो ंखराब नहीं है। बशीर अहमद बात टाल गये और यह कहते हुए कि अत्यधिक काम के कारण वे थक गये हैं, अन्दर चले गये। खाने की मेज पर भी बशीर अहमद ने यह विषय नहीं छेड़ा और बड़े बेमन से इधर-उधर की बातें करते रहे। उस रात बशीर अहमद सकीना के सो जाने के बाद भी बहुत देर तक जागते रहे। पर वे कुछ सोच नहीं पा रहे थे। मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार एक साथ उठते थे और गड्ड-मड्ड हो जाते थे। पता नहीं इन विचारों की बाढ़ में कब उनकी आँख लग गयी। सपने में उन्हें चौगुहा का अपना मकान, पं। रामेश्वर प्रसाद की हवेली, लहलहाते गेहूँ और गन्ने के खेत दिखाई देते रहे। फिर उस गाँव का कब्रिस्तान दिखाई दिया जिसमें वे अपने बाबा और पिता की ंकब्रों को ढूँढ़ने लगे। जैसे ही उनकी नजर बराबर-बराबर बनी उन दो कब्रों पर आ कर रुकी, उनकी आँख खुल गयी। भोर हो गयी थी।
कई दिन तक बशीर अहमद का मन भारी रहा। धीरे-धीरे वे अन्दर से सहज होते जा रहे थे। उन्हें फिर लगने लगा था कि निर्णय क्या लेना है? मन की रुझान तो यही थी कि पाकिस्तान मुसलमानों का देश भले ही हो, उनके लिए पराया ही रहेगा। पर फिर एक-हल्का-सा धमाका हुआ; इस बार सकीना की ओर से। सकीना की पृष्ठभुमि कुछ भिन्न थी। उसके पिता डिप्टी-कलेक्टर थे। कभी गाँव के रहे थे पर इधर से पूरी तरह शहरवाले हो गये थे। गाँव से सम्बन्ध नाम मात्र का ही रह गया था। आपसी बँटवारे में गाँव की घर-जमीन उन्होंने अपने चचेरे भाइयों को दे दी थी। अपने लिए इलाहाबाद में एक कोठी बनवा ली थी। वहीं उनके साले अंफसर हुसैन हाईकोर्ट के जज हो कर आ गये थे। आई।सी।एस। अंफसर होने के अलावा अफसर हुसैन बड़े जमींदार भी थे। बहुत मजे की जिन्दगी थी, पर पाकिस्तान बनने पर उन्हें लगा कि नए मुल्क में उनकी बहुत तरक्की हो सकती है। उनकी वरिष्ठता के केवल एक-दो अधिकारी ही पाकिस्तान में होंगे। पाकिस्तान के राजनेताओं ने उन्हें नए देश में किसी ऊँचे पद पर नियुक्ति का आश्वसन भी दे दिया था।
अफसर हुसैन एक दिन दिल्ली आये। अपना काम निबटाने के बाद दोपहर को ही बशीर अहमद के घर चले आये। बशीर अहमद दफ्तर में थे, सकीना से ही पहले भेंट हुई। बड़ी देर तक दोनों में बातचीत होती रही। अंफसर हुसैन ने सकीना से अपने पाकिस्तान जाने की बात बतायी। यह भी बताया कि वे इस कोशिश में लगे हैं कि सकीना के पिता को भी पाकिस्तान में कलेक्टर बनवा दें और उम्मीद थी कि इसमें कामयाब हो जाएँगे। इसी सन्दर्भ में उन्होंने सकीना को भी यही सलाह दी कि बशीर अहमद को भी पाकिस्तान चला जाना चाहिए। उन्होंने बड़ी तंफसील से सकीना को समझाया कि क्यों मुसलमानों का पाकिस्तान जाने में ही भला है।
शाम को अंफसर हुसैन की बशीर से मुलाकात तो हुई पर उन्हें इलाहाबाद की गाड़ी पकड़नी थी इसलिए पाकिस्तान जाने के बारे में कोई बात नहीं हुई। पर उनके जाने के बाद रात में सकीना ने बशीर अहमद से यह बात छेड़ी। बशीर ने सकीना को पूरी स्थिति समझाते हुए यही सलाह दी कि अपना घर अपना ही होता है। पर सकीना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जैसे-जैसे तर्क बढ़ता गया, वह पाकिस्तान जाने की जिद पकड़ती गयी। उसने एक-एक करके बशीर के कई सहयोगियों के नाम गिनाये, जो अपने पाकिस्तान जाने के निश्चय से बहुत प्रसन्न थे।
उस रात तो खैर, यह प्रसंग 'अच्छा सोचेंगे' पर समाप्त हो गया, पर बात बढ़ती ही गयी। जैसे-जैसे बशीर अहमद का अन्तर्द्वन्द्व बढ़ा, सकीना की जिद भी बढ़ती गयी। बशीर के मन को झकझोरने का काम बाहर वालों ने शुरू किया था पर अब आक्रमण घर के अन्दर से ही हो रहा था। घर के वातावरण में तनाव आ गया। उनके लिए स्वाधीनता दिवस का उल्लास भी इस तनाव से दब गया था। शीघ्र ही दिल्ली साम्प्रदायिक हिंसा की लपटों से ढक गयी। इसने बशीर ओर सकीना के द्वन्द्व को और तीव्र कर दिया। सकीना ने अब एक और हथियार का उपयोग करना शुरू किया। पहले वह तर्क अधिक करती थी पर अब वह तर्क छोड़ कर भावना के क्षेत्र में कूद पड़ी थी। वह बशीर से अपने दोनों बच्चों, नसीर और सीमा का वास्ता दे कर कहती थी कि इनका भविष्य क्या होगा? और अन्त में बशीर अहमद को हथियार डालने पड़े। उन्होंने आंफिस में पाकिस्तान जाने वाले अधिकारियों में अपना नाम दे दिया। पाकिस्तान जाने से पहले वे गाँव जाकर अपने घरवालों से मिलना चाहते थे पर उनकी मनोदशा जानते हुए सकीना ने उन्हें चौमुहा नहीं जाने दिया। एक पत्र में शरींफ अहमद को ंखबर भेज दी कि पन्द्रह-बीस दिन बाद वे लोग पाकिस्तान चले जाएँगे।
शरींफ अहमद को जब यह ंखबर मिली तो उन्हें गहरा धक्का लगा। उनके छोटे-बेटे ने, जो आगरा में पढ़ रहा था, एक-दो बार पाकिस्तान जाने की बात उठायी थी, पर बशीर से उन्हें इस तरह की आशा नहीं थी। चौमुहा गाँव के दो-चार व्यक्तियों को छोड़कर कोई पाकिस्तान नहीं गया था। भीतर-ही-भीतर कोई शरींफ अहमद से कह रहा था कि बशीर अपने मन से ऐसा नहीं कर सकता, जरूर कोई भारी दबाव उस पर पड़ा है। वे दिल्ली जाएँगे, दंगे-फिसाद की उन्हें चिन्ता नहीं, बशीर को समझा-बुझा कर मना लेंगे। उन्होंने कभी बशीर और अपने बेटे में फर्क नहीं समझा था; उनके लिए बशीर ही उनका सबसे बड़ा बेटा था और बशीर भी तो उनके लड़कों को अपना सगा ही मानता था। उस बशीर को वे कैसे जाने दे सकते थे? दूसरे दिन सुबह ही दिल्ली जाने का कार्यक्रम बनाते हुए उन्हें रामकुमार की याद आयी। उन्होंने सोचा कि अच्छा हो यदि रामकुमार भी उनके साथ दिल्ली चले। बशीर और रामकुमार में आज भी बचपनवाला स्नेह था। अकेले बशीर को समझाने की जगह यदि रामकुमार भी उस समय हो तो बशीर पर असर अवश्य पड़ेगा।
दूसरे दिन सुबह दिल्ली न जा कर शरींफ अहमद आगरा गये। रास्ते में बस ंखराब हो जाने के कारण जब वे रामकुमार के घर पहुँचे तो झुटपुटा हो रहा था। रामकुमार घर पर नहीं था पर उसकी पत्नी ने शरीफ अहमद के ठहरने का सब प्रबन्ध मेहमानखाने में कर दिया। रामकुमार काफी देर से घर आया और शरीफ अहमद को देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ। पर यह प्रसन्नता बहुत देर तक नहीं रह सकी। साथ खाना खाते हुए जब शरीफ अहमद ने रामकुमार को अपने आने का कारण बताया तो रामकुमार बहुत दु:खी हो गया। पाँच-छह महीने पहले वह दो-तीन दिन के लिए दिल्ली गया था; बशीर के साथ ही ठहरा था, बशीर और सकीना की बातों से उसे तनिक भी आभास नहीं हुआ कि वे पाकिस्तान जाने की सोच सकते हैं। देश की स्थिति से दोनों ही दु:खी हो रहे थे, पर लौट-फेर कर वे बीते दिनों की सुखद यादों में डूब जाते थे, क्योंकि दोनों ही चौमुहा के निकट ही नियुक्त थे। इसलिए यह कार्यक्रम भी बना था कि दोनों अगले जाड़ों में कुछ दिन निकाल कर सपरिवार चौमुहा आ कर छुट्टी मनाएँगे। आगरा लौटने पर रामकुमार बुरी तरह व्यस्त हो गया। साम्प्रदायिक हिंसा और तनाव के कारण जिला प्रशासन का काम बहुत बढ़ गया था। इस बीच बशीर से सम्पर्क नहीं हुआ और जब आज शरींफ अहमद आये भी तो बशीर के बारे में ऐसी ंखबर ले कर! उन दिनों आगरा छोड़ना उसके लिए कठिन था, फिर भी वह शरींफ अहमद के साथ दूसरे दिन ही दिल्ली जाने को तैयार हो गया। फोन पर ही कलेक्टर से दिनभर के लिए आगरा से बाहर रहने की अनुमति माँग ली।
दिल्ली पहुँचकर शरींफ अहमद और रामकुमार ने बशीर और सकीना को समझाने की बहुत कोशिश की। वे दोनों जान गये कि समझाना बशीर को नहीं,सकीना को था। सकीना शरींफ अहमद से पर्दा करती थी। इसलिए उस से रामकुमार को ही बात करनी पड़ी। सकीना का एक ही तर्क था कि 'साम्प्रदायिकता के तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। देश का बँटवारा इसी साम्प्रदायिकता के आधार पर हुआ है; पाकिस्तान बनाने के बाद हिन्दुस्तान के मुसलमान बेसहारा हो गये हैं धीरे-धीरे उनका अलगाव बढ़ता जाएगा, उनका तो कुछ नहीं पर उनके बच्चों का क्या होगा?' सकीना का हर तर्क बच्चों पर आकर समाप्त होता था। बहुत रात गये तक बातचीत होती रही पर सकीना पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बशीर के उदास चेहरे और सूनी आँखों से यह स्पष्ट था कि वह अपने को कितना कमजोर और असहाय पा रहा था। दूसरे दिन सुबह शरींफ अहमद और रामकुमार वापस चले आये। बशीर का घर छोड़ते समय दोनों की आँखें डबडबा रही थीं और बशीर ने भी अपनी आँखों की नमी अपने चाचा और बालसखा से छिपाने का बिलकुल प्रयत्न नहीं किया था।
पाकिस्तान में बशीर अहमद की सबसे पहली नियुक्ति रावलपिंडी में असिस्टेंट कमिश्नर के पद पर हुई। सकीना सन्तुष्ट थी, उसके पति की पदोन्नति हो गयी थी। रहने को बड़ा बँगला मिला था, बच्चों का अच्छे स्कूल में बिना कठिनाई दांखिला हो गया था। धीरे-धीरे नया घर बस रहा था, पर बशीर अहमद बुझे-बुझे रहते। वे अपने को एक ऐसा पौधा समझते, जिसे जमीन में उखाड़ कर एक गुलदस्ते में लगा कर ड्राइंगरूम की सजावट के लिए रख लिया गया हो। उनकी जडें फ़िर से लग सकेंगी। यह सब सकीना से छिपा नहीं था। वह जानती थी कि इस नए वातावरण में बशीर अहमद का अन्तर कितना रीता था, पर वह यह भी जानती थी कि वक्त बहुत बड़ा मरहम होता है। समय से सब ठीक हो जाएेगा।
बशीर अहमद ने अपने को पूरी तरह काम में झोंक दिया था। दंफ्तर के काम के अलावा जैसे उनके जीवन में कुछ बचा ही न हो। जैसे-जैसे तरक्की होती जाती थी, वे अपने को और अधिक काम में लपेट लेते थें असिस्टेंट से डिप्टी और फिर कमिश्नर बनने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा। अपने विभाग में ही नहीं, सरकार में उनकी साख और पूछ थी। घर में भी अच्छी प्रगति हुई। लड़की की शादी हो गयी और लड़का भी अच्छी नौकरी में जम गया। लाहौर में उन्होंने एक कोठी भी बना ली। किसी को यह नहीं लग सकता था कि उन्होंने अपनी नई परिस्थितियों से पूरी तरह समझौता नहीं कर लिया है।
पिछले पन्द्रह सालों में वे हिन्दुस्तान नहीं आये थे, परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी बनती रहीं। हाँ, अपने परिवार से सम्पर्क बराबर बना रहा था। चाचा तो नहीं, पर उनके दोनों लड़के उनके घर आकर ठहर चुके थे। अपनी कोठी बनवाते समय उन्हें चौमुहा की याद बुरी तरह सताती रही। चाचा की याद खास तौर से बढ़ती जा रही थी। चाचा बहुत वृध्द हो गये थे। कभी भी कुछ हो सकता था। कुछ समय बाद परिस्थितियाँ ऐसी सुधरीं कि हिन्दुस्तान आने में उन्हें कोई कठिनाई न थी। अजमेर दरगाह की जियारत के लिए उन्होंने एक महीने की छुट्टी ले ली। अजमेर के अलावा दिल्ली, बुलन्दशहर व मथुरा का वीसा भी ले लिया। पहले तो सीधे अजमेर ही जाना पड़ा पर वहाँ से लौट कर दिल्ली आने पर वे अपने गाँव गये। इतने वर्षों बाद चौमुहा आने पर वह स्वाभाविक था कि वे और उनके परिवारवाले स्वयं ही नहीं, गाँव के और लोग भी भावविह्वल हो जाते। शरीफ अहमद का तो क्या, जैसे उनकी ंजिन्दगी में कुछ और वर्ष जुड़ गये हों। बस, उन्हें एक ही बात का दु:ख था कि बाल-बच्चे बशीर के साथ नहीं आये थे। बशीर को उन्होंने इस बात के लिए उलाहना भी दिया। बशीर ने वादा किया कि अगली बार वह सबको लेकर आएगा। छह-सा दिन चौमुहा में रहकर बशीर अहमद दिल्ली वापस आ गये। फिर प्राय: वहीं रहे, दो दिन के लिए बुलन्दशहर में रामकुमार के साथ रहे। वे अब वहाँ कलेक्टर थे।
उदास मन से बशीर अहमद पाकिस्तान लौटे। कुछ महीने बाद शरींफ अहमद की मृत्यु का समाचार मिला। बशीर अहमद के व्यक्तित्व का एक बड़ा अंश उनसे अलग हो गया, पर दफ्तर और घर के काम-काज में लिपटे वक्त कटता रहा। दो-तीन साल बाद वे रिटायर हो गये और लाहौर आ कर रहने लगे। नसीर तो पिछले कुछ सालों से वहीं था। सीमा और उसके पति कराची में थे उनके बच्चे बड़े हो रहे थे। कभी-कभी लाहौर आते रहते थे।
कुछ समय बाद बशीर अहमद ने फिर हिन्दुस्तान जाने का इरादा किया। दरगाह शरींफ पर जियारत के लिए जाने वाले जत्थे में शामिल हो गये; सोचा था कि जियारत के बाद चौमुहा जाएँगे। सीमा के सत्रह साल के लड़के शमीम को साथ कर लिया था। पर दुर्भाग्यवश इस बार अजमेर के अलावा किसी और जगह जाने की इंजाजत नहीं मिली। दु:ख हुआ; पर प्रोग्राम रद्द नहीं किया। चौमुहा में अपने भाइयों को लिख दिया कि दिल्ली या अजमेर आकर मिल लें।
अजमेर से दिल्ली लौटने पर जियारत वाले जत्थे को सख्त ताकीद कर दी गयी थी कि कोई भी दिल्ली शहर में न जाएे, अगले बीस-बाईस घंटे उन सबको स्टेशन पर ही बिताने थे, जिसके लिए थोड़ी-बहुत सुविधाएँ भी उपलब्ध करा दी गयी थीं, पर कुछ लोगों का मन नहीं माना। वे स्टेशन छोडक़र जामा मस्जिद चले गये। शमीम की जिद के कारण बशीर अहमद को भी जाना पड़ा। वहाँ इन सबको पुलिस ने पकड़ लिया।
उन दिनों जामा मस्जिद के इलाके में अशफाक हुसैन का काफी प्रभाव था। वे दिल्ली के जाने-माने नेता थे और राजनीति के अलावा इस इलांके की गतिविधियों में काफी दिलचस्पी रखते थे। पाकिस्तानियों की गिरंफ्तारी के बाद कुछ लोग अशंफाक साहब के पास मदद के लिए पहुँचे। अशफाक साहब ने दौड़-धूप करके इन सबकी जमानत करवा दी। पर बशीर अहमद की समस्या कुछ और भी थी। जब तक मुकदमा न हो जाएे, वे पाकिस्तान नहीं लौट सकते थे, और पाकिस्तान उन्हें जल्दी पहुँचना था; सीमा की लड़की की शादी थी। बशीर अहमद ने यह सारी बात जब अशंफाक साहब से बतायी तो उन्होंने कहा,डिप्टी कमिश्नर ही कुछ मदद कर सकते हैं। उनसे कल सुबह मिलने चलेंगे। दूसरे दिन डिप्टी कमिश्नर ने अशफाक साहब का बड़ी सद्भावना से स्वागत किया। अशंफाक साहब के साथियों पर इसका प्रभाव पड़ा। बशीर अहमद व शमीम का परिचय कराने के बाद अशंफाक साहब ने उनकी समस्या डिप्टी कमिश्नर के समाने रखते हुए कहा, “डी।सी। साहब, गलती तो इन लोगों ने की, पर अमूमन इन गलतियों पर यहाँ अदालतें जुर्माना करके छोड़ देती हैं। गालिबन, इस मामले में भी यही होगा। पर पता नहीं अदालत में कब मुकदमा आये। मेरी गुंजारिश यह है कि आप यह मुकदमा जल्दी लगवा दें।”
डिप्टी कमिश्नर संवेदनशील व्यक्ति थे। उन्हें लगा कि छोटी-सी बात है और अशफाक साहब का सुझाव अनुचित नहीं है। उन्होंने चेहरे पर हल्की मुस्कराहट लाते हुए कहा, “इसमें मुझे कोई कठिनाई नहीं लगती, मैं अभी इन्तजाम कराये देता हँ कि मुकदमे की सुनवाई दो-तीन दिन में ही हो जाएे।” और यह कहकर उन्होंने चपरासी से दरियागंज के एस।डी।एम। को बुलाने के लिए कहा। बशीर साहब अभी तक चुप बैठे थे। डिप्टी कमिश्नर उन्हें भले आदमी लगे। बजाय अशफाक साहब के वे खुद बोले, “क्या बताऊँ डी।सी। साहब गलती हो ही गयी वर्ना मैं भी बड़ी-बड़ी पोस्ट पर रहा हँ। मुझे लड़ना नहीं। सच बात मानने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। मैं मुकदमा जल्दी लगवाने की बात भी नहीं उठाता यदि इसके (शमीम की तरफ इशारा करते हुए) बहन की शादी नहीं होती। यह मेरा नवासा है।”
इतने में दरियागंज का मजिस्ट्रेट डिप्टी कमिश्नर के कमरे में आ गया था। डिप्टी कमिश्नर ने उनसे सलाह की और यह तय हुआ कि क्योंकि इकबाल का मामला है, पुलिस को तफतीश में वक्त नहीं लगाना चाहिए। दो दिन बाद मुकदमे की सुनवाई होना निश्चित हो गया। बशीर अहमद ने डिप्टी कमिश्नर को शुक्रिया और दुआ देते हुए वहाँ से विदा ली। लेकिन उसी सन्ध्या को बशीर अहमद को दिल का दौरा पड़ा और उन्हें इरविन अस्पताल में भरती कर लिया गया। अशंफाक साहब ने फोन पर ही डिप्टी कमिश्नर को स्थिति समझाते हुए यह कहा कि मुकदमे को कुछ दिन के लिए स्थगित करना पड़ेगा।
रात बीतते-बीतते बशीर अहमद जान गये कि उनकी हालत अच्छी नहीं है और उनका अन्त आ गया है। लाहौर भी खबर कर दी गयी। वे अपना मन अल्लाह में लगाने का प्रयत्न करते रहे और उनके मस्तिष्क-पटल पर चौमुहा ही घूमता रहा। एक-एक करके बहुत-सी घटनाओं की आकृतियाँ उनके अन्दर बन-बिगड़ रही थीं। बार-बार उन्हें चौमुहा का ंकब्रिस्तान दिखाई दे रहा था। जहाँ उनके बाबा, पिता और चाचा की ंकब्रें थीं। जब उनकी बेचैनी बढ़ी तो इशारे से उन्होंने शमीम को अपने पास बुला कर कहा, “बेटा, मेरा वंक्त पूरा हो रहा है।”
शमीम ने कुछ कहना चाहा पर उन्होंने उसे चुप कर दिया और अपनी बात ही करते रहे, “मेरी एक ही ख््वाहिश है और इसमें डी।सी। साहब ही मदद कर सकते हैं। बडे नेक आदमी हैं। अल्लाह उनकी ंखैर करे! तुम उनके पास जाओ और कहो कि मेरी मौत के बाद वे मेरी मिट्टी को चौमुहा ले जाने की इजांजत दे दें। चौमुहा की मिट्टी मुझे पुकार रही है, मुझे वहीं मेरे वालिद और चाचा की ंकब्रों के पास दंफनाया जाए। तुम उनके पास अभी जाओ।”
शमीम की आँखें भर आयीं। उसने उठकर जाने की कोई कोशिश नहीं की। जब उनके नाना ने उससे इशारे से फिर अपना आग्रह दोहराया तो उसे वहाँ से जाना ही पड़ा। शमीम अकेला ही तीस हजारी गया। डिप्टी कमिश्नर अपने चैम्बर में बैठे काम कर रहे थे। जैसे ही चपरासी से कहलवाया, उन्होंने बुलवा लिया। शमीम ने उन्हें पूरी बात बतायी तो उन्होंने कहा, “ऐसी घबराने की क्या बात है। भगवान ने चाहा तो आपके नाना ठीक हो जाएँगे। मैं मेडिकल सुपरिंटेंडेंट से कह देता हँ कि उनका ंखयाल रखें। यदि कोई जरूरत हो तो उनसे मिल लेना।” और शीघ्र ही उन्होंने मेडिकल सुपरिंटेंडेंट से फोन पर बात कर ली।
शमीम को इससे बड़ी तसल्ली हुई, पर उसने डिप्टी कमिश्नर से फिर पूछा कि “क्या कहँ नाना से जाकर?”
इस बार डिप्टी कमिश्नर को सीधा उत्तर देना ही पड़ा, “यदि पाकिस्तान हाईकमीशन को एतराज न हो तो हमारी तरफ से कोई दिक्कत नहीं होगी। हम'बॉडी' चौमुहा ले जाने की इजाजत दे देंगे। न करे भगवान कि इसकी जरूरत पड़े पर...” और डिप्टी कमिश्नर बीच में ही रूक गये।
शमीम और सहज हो गया। डिप्टी कमिश्नर के कमरे से ही उसने अपने हाईकमीशन से फोन पर बात की और बात खत्म होने पर उनको बता दिया कि हाईकमीशन को कोई एतराज नहीं है।
अस्पताल में बशीर अहमद की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। वे शमीम का इन्तंजार कर रहे थे। जैसे ही शमीम अस्पताल पहुँचा, उन्होंने पूछा, “क्या कहा डी।सी। साहब ने?” शमीम ने उन्हें डिप्टी कमिश्नर और हाईकमीशन से जो बात हुई थी, बता दी। उसकी बात सुनते ही बशीर अहमद की आँखों में एक चमक-सी आ गयी। सारा तनाव जाता रहा, मुखमुद्रा बिलकुल सहज हो गयी। मन जैसे बिल्कुल शान्त हो गया। शमीम को लगा कि नाना की तबीयत ठीक हो रही है। शमीम ने देखा कि नाना उसे बड़े प्यार से देखे जा रहे हैं। बशीर अहमद ने शमीम को अपने पास बुला कर बैठा लिया और धीरे-धीरे स्नेह से अपना हाथ उसके सिर पर फेरने लगे। उसे क्या मालूम कि नाना के अन्तर में उनके गाँव के अनेक चित्र उभर कर बिखर रहे थे। स्मृति-पटल पर चौमुहा ही छाया हुआ था।
पर कुछ ही क्षणों में बशीर अहमद की गरदन एक तरफ लुढ़क गयी और उनका हाथ शमीम के सिर से गिर कर नीचे आ गया।