मातृ-मन / कल्पना रामानी

Gadya Kosh से
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घर के तरह-तरह के कार्यों से थकी हारी विभा अपने अंतिम काम को अंजाम देने यानी छत से सूखे कपड़े उतारने पहुँची तो फिर वही कबूतर, पानी का भरा पात्र, बिखरे दाने और गंदगी का आलम देखकर आग बबूला हो गई। कल ही तो उसने पानी का पात्र खाली करके उल्टा करके रख दिया था और अपनी व्यस्तता का हवाला देकर सोनू को दाना-पानी रखने से मना कर दिया था। कपड़े उतारना छोड़ गुस्से में भरी हुई नीचे पहुँची और सोनू को चिल्ला-चिल्ला कर आवाज़ लगाने लगी। लेकिन सोनू था कहाँ? अपनी कारस्तानी को अंजाम देकर यानी छत पर पाखियों के लिए दाने और पानी की व्यवस्था करके भोजन किए बिना ही बाहर भाग गया था। वो माँ के स्वभाव से परिचित था और जानता था कि माँ गुस्से में भरी हुई हो तो उसकी पिटाई भी हो सकती है और अगर उस समय नज़रों से ओझल हो जाए तो वही माँ चिंतातुर होकर उसे खोजती हुई मुहल्ला छान मारती है। उसके मिल जाने पर सारा रंज भूलकर उसे गले लगा लेती है, लेकिन कुछ ही देर बाद उसे दुखी मन से छत पर ले जाकर दिखाती है कि पक्षियों द्वारा इतनी गंदगी फैलाने से उसका कितना काम बढ़ जाता है।

लेकिन बच्चे तो बच्चे ही होते हैं... आठ वर्षीय सोनू को दाने चुगते और नन्ही चोंच से पानी पीते हुए पक्षी देखना बहुत अच्छा लगता है। हर दिन माँ की बात मानने का वादा करके अगले दिन सारे उपदेश भूलकर फिर वही बात दोहराता रहता है। हारकर अर्चना ने पक्षियों के लिए दानों वाला डिब्बा गायब करने के साथ ही घर में दानों वाले अनाज- दाल, चावल आदि ऊँचाई पर रखने शुरू कर दिये और पानी रखने वाला बर्तन भी छत से हटाकर छिपा दिया। वो गंदगी से सख्त नफरत करती थी, फिर वो चाहे घर के किसी भी हिस्से में क्यों न हो। उसे स्वयं पर ही कोफ्त होने लगी कि क्यों उसने सोनू के प्यार भरे आग्रह पर पक्षियों के लिए दाना पानी छत पर रखना शुरू किया था?

अगले दिन वो विजयी मुस्कान लेकर जैसे ही कपड़े लेने छत पर पहुँची तो एक अलग ही नज़ारे पर उसकी नज़रें ठहर गईं। सोनू ने स्कूल से आते ही माँ की नज़र बचाकर अपनी खिलौने रखने वाली वाली प्लास्टिक की छोटी सी टोकरी खाली करके पानी भरकर रख दी थी और अपनी थाली की रोटी के टुकड़े वहाँ फैला दिये थे। पंछी अपना काम कर गए थे और सोनू भी बिना कुछ खाए नदारद! लेकिन आज अर्चना का मातृ-मन द्रवित हुए बिना नहीं रह सका। सोनू को मुहल्ले से खोजकर प्यार करके खाना खिलाया और उस बात का ज़िक्र तक नहीं किया। सोनू आश्चर्य चकित सोच में डूबा हुआ था कि यह जादू कैसे हुआ?

दूसरे दिन वो फिर अपने भोजन में से पूरियों के टुकड़े करके छत पर पहुँचा तो उसे यह देखकर आश्चर्य का एक और झटका लगा कि वहाँ एक बड़े से बर्तन में भरपूर पानी और ढेर सारे दाने बिखरे हुए थे। पाखियों की जैसे फौज एकत्र थी वहाँ। सोनू सब कुछ भूलकर यह अलौकिक नज़ारा निहारने में मग्न हो गया और समय का पता ही न चला। इस बार माँ बड़े इत्मीनान से कपड़े लेने छत पर पहुँची तो सोनू को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ गई। वो जानती थी कि अब सोनू को कहीं खोजने नहीं जाना पड़ेगा। वो मुहल्ले में नहीं बल्कि यहीं मिलेगा और समय के इस बचे हुए टुकड़े में उसने छत की सफाई करवाना अपनी दिनचर्या में शामिल कर लिया।