मात्रा-कलन / ओम नीरव
छंदबद्ध कविता पाठक के मन पर गहरा और चिरस्थाई प्रभाव डालती है। इसका कारण यह है कि छंदबद्ध कविता में गेयता होती है। कोई कुशल गायक छंदमुक्त कविता को भी गाकर दिखा सकता है लेकिन छंदबद्ध कविता को बिना गाये भी सामान्य उच्चारण के साथ प्रवाह में पढ़ने से पाठक के मन में लय की अनुभूति होने लगती है। ऐसा छंदबद्ध कविता कि स्वाभिक लयात्मकता के कारण होता है और इसे गाकर पढ़ने का आनंद कुछ अलग ही होता है। छंदबद्ध कविता में यह गेयता या लयात्मकता उसमें लघु और गुरु वर्णों की विशेष व्यवस्था के कारण उत्पन्न होती है। इसे बिना समझे भी कोई रचनाकार केवल अनुकरण द्वारा छंदबद्ध कविता कि रचना कर सकता है किन्तु उसमें कहीं न कहीं चूक होने की संभावना तो बनी ही रहती है जिससे बचने के लिए लघु-गुरु सम्बंधी मात्राभार का ज्ञान आवश्यक है।
मात्राभार दो प्रकार का होता है–वर्णिक भार और वाचिक भार। वर्णिक भार में प्रत्येक वर्ण का भार अलग-अलग यथावत लिया जाता है जैसे–अनिल का वर्णिक भार 111 है जबकि वाचिक भार में उच्चारण के अनुरूप वर्णों को मिलाकर भार की गणना कि जाती है जैसे अनिल का उच्चारण अ निल होता है, अनि ल नहीं, इसलिए अनिल का वाचिक भार 12 है। वर्णिक भार की गणना करने के लिए कुछ निश्चित नियम हैं जो पहले सीखना आवश्यक है क्योंकि इन्हीं के आधार पर वाचिक भार का भी निर्णय किया जाता है।
वर्णिक भार की गणना
(1) ह्रस्व स्वरों का मात्राभार 1 होता है जिसे लघु कहते हैं, जैसे-अ, इ, उ का मात्राभार 1 है। लघु को 1 या। या ल स व्यक्त किया जाता है।
(2) दीर्घ स्वरों का मात्राभार 2 होता है जिसे गुरु कहते हैं, जैसे-आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ का भार 2 है। गुरु को 2 या S या ला से व्यक्त किया जाता है।
(3) व्यंजनों का मात्राभार 1 होता है, जैसे-क, ख, ग, घ / च, छ, ज, झ / ट, ठ, ड, ढ, ण / त, थ, द, ध, न / प, फ, ब, भ, म / य, र, ल, व, श, ष, स, ह का भार 1 है।
वास्तव में व्यंजन का उच्चारण स्वर के साथ ही संभव है, इसलिए उसी रूप में यहाँ लिखा गया है। अन्यथा क्, ख्, ग् ... आदि को व्यंजन कहते हैं, इनमें अकार मिलाने से क, ख, ग ... आदि बनते हैं जो उच्चारण योग्य होते हैं।
(4) व्यंजन में ह्रस्व इ, उ, ऋ की मात्रा लगने पर उसका मात्राभार 1 ही रहता है जैसे कि कु, कृ का भार 1 है।
(5) व्यंजन में दीर्घ स्वर आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ की मात्रा लगने पर उसका मात्राभार 2 हो जाता है जैसे का, की, कू, के, कै, को, कौ का मात्राभार 2 है।
(6) किसी भी वर्ण में अनुनासिक लगने से मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है, जैसे–सँग = 11, रँग = 11, कँगना = 111, माँ = 2, आँगन = 211, गाँव = 21 आदि। इनमें सँ, रँ, कँ का भार 1 ज्यों का त्यों है तथा
(7) लघु वर्ण के ऊपर अनुस्वार लगने से उसका मात्राभार 2 हो जाता है, जैसे–रंग = 21, अंक = 21, कंचन = 211, घंटा = 22, पतंगा = 122 आदि। इनमें रं, अं, कं, घं, तं का भार 2 है। इसीप्रकार माँ, आँ, गाँ का भार 2 ही बना रहता है।
(8) गुरु वर्ण पर अनुस्वार लगने से उसके मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है, जैसे–नहीं = 12, भींच = 21, छींक = 21 आदि। इनमें हीं, भीं, छीं का भार 2 ही बना रहता है।
कुछ विद्वान इसे अनुनासिक मानते हैं लेकिन मात्राभार यही मानते हैं।
(9) संयुक्ताक्षर का मात्राभार 1 होता है, जैसे–स्वर = 11, प्रभा = 12, श्रम = 11, च्यवन = 111 आदि। इनमें स्व, प्र, श्र, च्य का भार 1 है।
(10) संयुक्ताक्षर में ह्रस्व मात्रा लगने से उसका मात्राभार 1 ही रहता है, जैसे–प्रिया = 12, क्रिया = 12, द्रुम = 11, च्युत = 11, श्रुति = 11 आदि। इनमें प्रि, क्रि, द्रु, च्यु, श्रु का भार 1 ही बना रहता है।
(11) संयुक्ताक्षर में दीर्घ मात्रा लगने से उसका मात्राभार 2 हो जाता है, जैसे–भ्राता = 22, श्याम = 21, स्नेह = 21, स्त्री = 2, स्थान = 21 आदि। इनमें
भ्रा, श्या, स्ने, स्त्री, स्था का भार 2 हो गया है।
(12) संयुक्ताक्षर से पहले वाले लघु वर्ण का मात्राभार गुरु अर्थात 2 हो जाता है, जैसे–नम्र = 21, सत्य = 21, विख्यात = 221 आदि। यहाँ पर नम्र में सन्यूताक्षर म्र से पहले वाले लघु न का भार 2 हो गया है। इसीप्रकार अन्य को समझा जा सकता है।
(13) संयुक्ताक्षर के पहले वाले गुरु वर्ण के मात्राभार में कोई अन्तर नहीं पडता है, जैसे–हास्य = 21, आत्मा = 22, सौम्या = 22, शाश्वत = 211, भास्कर = 211 आदि। हास्य में संयुक्ताक्षर स्य से पहले वाले गुरु के भार 2 में कोई अंतर नहीं पड़ा है। इसीप्रकार अन्य को समझा जा सकता है।
(14) संयुक्ताक्षर सम्बन्धी नियम (12) के कुछ अपवाद भी हैं, जिसका आधार पारंपरिक उच्चारण है। अशुद्ध उच्चारण के आधार पर ऐसा निर्णय ले लेना उचित नहीं होगा। उदाहरणार्थ-तुम्हें = 12, तुम्हारा / तुम्हारी / तुम्हारे = 122, जिन्हें = 12, जिन्होंने = 122, कुम्हार = 122, कन्हैया = 122, मल्हार = 121, कुल्हाड़ी = 122 आदि।
अपवाद की व्याख्या–इन अपवादों में संयुक्ताक्षर का पूर्ववर्ती अक्षर सदैव ऐसा व्यंजन होता है जिसका 'ह' के साथ योग करके कोई नया अक्षर हिन्दी वर्ण माला में नहीं बनाया गया है, इसलिए जब इस पूर्ववर्ती व्यंजन का 'ह' के साथ योग कर कोई संयुक्ताक्षर बनता हैं तो उसका व्यवहार संयुक्ताक्षर जैसा न होकर एक नए वर्ण जैसा हो जाता है और इसीलिए उसपर संयुक्ताक्षर के नियम लागू नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए न् म् ल् का 'ह' के साथ योग करने से बनने वाले संयुक्ताक्षर म्ह न्ह ल्ह 'एक वर्ण' जैसा व्यवहार करते है जिससे उनके पहले आने वाले लघु का भार 2 नहीं होता अपितु 1 ही रहता है। यहाँ पर यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी वर्णमाला के कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग और पवर्ग में पहले व्यंजन में 'ह' का योग करने से दूसरा व्यंजन तथा तीसरे व्यंजन में 'ह' का योग करने से चौथा व्यंजन बनता है। उदाहरणार्थ-
क् + ह = ख, ग् + ह = घ
च् + ह = छ, ज् + ह = झ
ट् + ह = ठ, ड् + ह = ढ
त् + ह = थ, द् + ह = ध
प् + ह = फ, ब् + ह = भ
किन्तु न्, म्, ल् में ह का योग होने से कोई नया वर्ण नहीं बनाता है, यथा-
न् + ह = न्ह, म् + ह = म्ह, ल् + ह = ल्ह
इसलिए इस योग से बनने वाले संयुक्ताक्षर का व्यवहार एक नये वर्ण जैसा ही होता है। कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जिनपर उपर्युक्त व्याख्या लागू नहीं होती है, जैसे नन्हा = 22, कुल्हड़ = 211, अल्हड़ = 211 आदि।
वाचिक भार की गणना
वाचिक भार की गणना भी वर्णिक भार के समान ही होती है किन्तु वाचिक भार की गणना करने में 'उच्चारण के अनुरूप' दो लघु वर्णों को मिलाकर एक गुरु मान लिया जाता है। उदहरणार्थ निम्न शब्दों के वाचिक भार और वर्णिक भार का अंतर दृष्टव्य है, वाचिक भार के बाद कोष्ठक () में वर्णिक भार दिया गया है-
यदि, लघु, क्षिति, कल, दिन, तुम, विभु, आदि = 2 (11)
मुकुल, मुदित, अमर, विकल, विविध आदि = 12 (111)
विचलित, अभिरुचि, उपवन, मघुकर आदि = 22 (1111)
शोधित, अंकुर, नीरज, औषधि, धूमिल आदि = 22 (211)
अवधी, विविधा, चलिए, सुविधा, कमला आदि = 22 (112)
जाह्नवी, माधुरी, स्वामिनी, उर्मिला, पालतू आदि = 212 (212)
सुपरिचित, अविकसित आदि =122 (11111)
मनचली, किरकिरी, मधुमिता = 212 (1112)
असुविधा, सरसता, मचलती आदि = 122 (1112)
कलन की कला
जब हम किसी काव्य पंक्ति के मात्राक्रम की गणना करते हैं तो इस क्रिया को कलन कहते हैं, उर्दू में इसे तख्तीअ कहा जाता है। कलन में मात्राभार को व्यक्त करने की कई प्रणाली हैं। ऊपर की विवेचना में अंकावली का प्रयोग किया है, अन्य प्राणियों के रूप में लगावली, स्वरावली और अरकान का भी प्रयोग किया जाता है। आगामी उदाहरणों में इनका भी उल्लेख किया जाएगा। किसी काव्य पंक्ति का कलन करने के पूर्व यह समझ लेना आवश्यक है वह पंक्ति मात्रिक छंद पर आधारित है या फिर वर्णिक छंद पर। यदि पंक्ति मात्रिक छंद पर आधारित है तो कलन में वाचिक भार का प्रयोग किया जाएगा और यदि पंक्ति वर्णिक छंद पर आधारित है तो कलन में वर्णिक भार का प्रयोग किया जाएगा। एक बात और काव्य पंक्ति का कलन करते समय मात्रापतन का ध्यान रखना भी आवश्यक है अर्थात जिस गुरु वर्ण में मात्रापतन है उसका भार लघु अर्थात 1 ही माना जाएगा। उदाहरणों से यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाएगी।
वर्णिक कलन
इसे समझने के लिए महाकवि रसखान की एक पंक्ति लेते हैं-
मानुस हौं तो'वही रसखान बसौं ब्रज गोकुल गाँव के' ग्वारन
यह पंक्ति वर्णिक छंद (किरीट सवैया) पर आधारित है, इसलिए हम इसका कलन करने में वर्णिक भार का ही प्रयोग करेंगे।
पहले हम सभी शब्दों का वर्णिक भार अलग-अलग देखते हैं-
मानुस (211) हौं (2) तो'(1) वही (12) रसखान (1121) बसौं (12) ब्रज (11) गोकुल (211) गाँव (21) के' (1) ग्वारन (211)
इस कलन में प्रत्येक वर्ण का अलग-अलग भार यथावत लिखा गया है, दबाकर पढ़ने के कारण 'तो' और 'के' का भार लघु 1 लिया गया है जिसे उद्धरण चिह्न (') से व्यक्त किया गया है। यह वर्णिक छंद गणों पर आधारित है, इसलिए-इसलिए इसके मात्राक्रम का विभाजन गणों के अनुरूप निम्नप्रकार कर सकते हैं और कलन को व्यक्त करने के लिए सुविधा कि दृष्टि से निम्न तीन प्रणालियों में से किसी एक का चयन किया जा सकता है-
मानुस / हौं तो'व / ही रस / खान ब / सौं ब्रज / गोकुल / गाँव के' / ग्वारन
211 / 211 / 211 / 211 / 211 / 211 / 211 / 211 (अंकावली)
गालल गालल-गालल गालल गालल-गालल गालल गालल (लगावली)
भानस भानस-भानस भानस भानस-भानस भानस भानस (गणावली)
यहाँ पर लगावली में लघु के स्थान पर 'ल' और गुरु के स्थान पर 'गा' का प्रयोग किया गया है। गणों की भाषा में 211 या गालल मात्राक्रम वाले वर्णों के समूह को भगण कहते हैं जिसका सूत्र भानस है। इसी प्रकार कुल मिलाकर आठ गण हैं। इनको समझने के लिए एक सूत्र है-यामाताराजभानसलगा। इस सूत्र में प्रत्येक वर्ण से प्रारम्भ कर तीन-तीन वर्ण लेने पर क्रमशः आठ गण बनते जाते हैं, यथा-यगण (यामाता, 122) , मगण (मातारा, 222) , तगण (ताराज, 221) , रगण (राजभा, 212) , जगण (जभान, 121) , भगण (भानस, 211) , नगण (नसल, 111) और सगण (सलगा, 112) । अंतिम वर्ण ल और गा क्रमशः लघु और गुरु को व्यक्त करते हैं। उल्लेखनीय है अंकावली या लगावली में व्यक्त की गयी उपर्युक्त वर्णिक मापनी द्वारा गणों पर आधारित सभी वर्णिक छंदों अर्थात वर्णवृत्तों को, गणों के ज्ञान के बिना ही, पूर्णतः समझा जा सकता है।
वाचिक कलन
इसे समझने के लिए डॉ. कुँवर बेचैन के गीत की पंक्ति का उदाहरण लेते हैं-
नदी बोली समंदर से मैं तेरे पास आयी हूँ
यह पंक्ति भी मात्रिक छंद (विधाता) पर आधारित है, इसलिए इसके कलाँ में हम वाचिक भार का ही प्रयोग करेंगे। पहले हम सभी शब्दों का वाचिक भार अलग-अलग देखते हैं-
नदी (12) बोली (22) समंदर (122) से (2) मैं (1) तेरे (22) पास (21) आयी (22) हूँ (2)
इस कलन में उच्चारण के अनुरूप 'समंदर' के अंतिम दो लघु 11 को मिलाकर एक गुरु 2 माना गया है (वाचिक भार) तथा दबाकर उच्चारण करने के कारण 'मैं' का भार गुरु न मानकर लघु असर्थत 1 माना गया है (मात्रापतन) । अब हम उक्त पंक्ति के कलन को प्रचलित स्वरकों (रुक्नो) में विभाजित करते हैं-
नदी बोली (1222) समंदर से (1222) मैं' तेरे पा (1222) स आयी हूँ (1222)
पारंपरिक रूप में हम इसे इसप्रकार भी लिख सकते हैं-
नदी बोली / समंदर से / मैं' तेरे पा / स आयी हूँ
1222 1222 1222 1222 (अंकावली)
लगागागा लगागागा-लगागागा लगागागा (लगावली)
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन-मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन (अरकान)
छंदबद्ध काव्य की रचना प्रायः लय के आधार पर ही जाती है। रचनाकार किसी मनभावन कविता को उन्मुक्त भाव से गाकर उसकी लय को आत्मसात करता है और फिर उसका अनुकरण करते हुए अपनी बात को अपने शब्दों में ढाल कर अपनी रचना का सर्जन करता है। बाद में मात्राभार की सहायता से अपने बनाये काव्य का कलन करने से त्रुटियाँ सामने आ जाती हैं और उनका परिमार्जन हो जाता है। दूसरे रचनाकार की रचना का निरीक्षण, परिमार्जन और मार्गदर्शन करने के लिए मात्रा-कलन का प्रयोग अनिवार्य है। सुंदर सटीक सर्जन के लिए मात्रा-कलन का ज्ञान अतीव आवश्यक है।