माधवन की 'खडूस' एक रोचक फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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माधवन की 'खडूस' एक रोचक फिल्म
प्रकाशन तिथि :28 जनवरी 2016


प्राय: अपने काम और आदर्श के प्रति समर्पण और समझौता नहीं करने वाले सख्त मिज़ाज़ लोगों को 'खड़ूस' कहते हैं। इस तरह संबोधित करने वाले लोग लचीले होते हैं और अपने आप को व्यावहारिक कहते हैं। शिक्षण संस्थाओं में अनुशासन प्रिय शिक्षकों को खड़ूस कहते हैं और जो शिक्षक कक्षा में अपने पढ़ाने के बदले लतीफे सुनाता हो, सबको रजिस्टर में हाजिर बताता हो, उसे आदर से देखा जाता है। कड़वी दवाएं लिखने वाले डॉक्टर को भी खड़ूस कहकर संबोधित करते हैं। मरीज के मर्ज नहीं, उनके मन की बात करने वाले को योग्य डॉक्टर मान लेते हैं। महान चिंतक एवं संपादक राजेंद्र माथुर का इलाज भी एक मिलनसार डॉक्टर ने किया, अन्यथा आज भी वे हमारे बीच होते और इस विरोधाभासी एवं विवादास्पद कालखंड को वे क्या खूब बयान करते। ये सारी बातें मिलनसारिता या सद्व्यवहार के खिलाफ नहीं है परंतु इसके आवरण में अपनी अयोग्यता छिपाने वालों के लिए है। काम में गुणवत्ता, प्रवीणता और अपनी सतह से ऊपर उठने का सतत प्रयास मनुष्य को योग्य बनाता है। कामचोरों, भ्रष्ट और प्रतिभाहीन लोगों ने मिलनसारिता व घुलनशीलता को इनका पर्याय बनाने की कोशिश की है।

माधवन ने '3 ईडियट्स,तनु वेड्स मनु' आदि में प्रभावोत्पादक अभिनय किया है और दक्षिण भारतीय भाषाओं की अनेक फिल्में अभिनीत की हैं। 'तनु वेड्स मनु' में ऑथर बैक्ड भूमिका कंगना की है परंतु आप माधवन को नज़रअंदाज नहीं कर सकते। याद कीजिए ऋषि कपूर किस तरह नायिका केंद्रित 'प्रेम रोग', 'चांदनी', 'दामिनी' इत्यादि फिल्मों में अपनी जमीन नहीं छोड़ते। वैसा ही कुछ माधवन भी कर रहे हैं। इसी सप्ताह में राजकुमार हीरानी द्वारा प्रस्तुत माधवन की फिल्म का प्रदर्शन होने वाला है। इस फिल्म के नायक पर झूठे आरोप का कलंक है और वह उसे धोने के लिए एक पैदाइशी लड़ाकू युवा को सफल महिला बॉक्सर बनाता है। यह फिल्म इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि विगत कुछ दशकों में छोटे शहरों और अंचलों में जन्मे लोगों ने जीवन में अपनी प्रतिभा का सिक्का जमाया है। स्वयं राजकुमार हीरानी नागपुर के निकट तुमसर के हैं और खुद नागपुर ही कहां महानगर है। उन्होंने पुणे फिल्म संस्थान से संपादन में प्रशिक्षित होकर 'मिशन कश्मीर' में विधु विनोद चोपड़ा के सहायक निर्देशक के रूप में काम किया। उनकी पहली पटकथा 'मुन्नाभाई' पर विधु विनोद चोपड़ा साहब ने फिल्म बनाई। 'लगे रहो मुन्नाभाई,' '3 इडियट्स' और 'पीके' बनाकर राजकुमार हीरानी ने लगातार चार सफल फिल्में रची हैं। राजकुमार हीरानी फूहड़ मसाला फिल्म नहीं बनाते और वे 'कला के लिए कला' के तहत कोई दुरूह फिल्म भी नहीं बनाते। उनका सार्थक मनोरंजन का सिनेमा हमारे फिल्म इतिहास के हर कालखंड में मौजूद रहा है। इतिहास से अनभिज्ञ लोग ऋषिकेश मुखर्जी को इस धारा का जनक समझते हैं। स्वयं मुुखर्जी मोशाय ने पहली फिल्म 'कला के लिए कला' की धारा में रची थी। 'मुसाफिर' की असफलता के बाद राज कपूर अभिनीत 'अनाड़ी' से 'बाबू मोशाय' की यात्रा सही पटरी पर आई है, इसीलिए 'आनंद' उन्होंने राज कपूर को समर्पित की है। महिला बॉक्सर पर बनी प्रियंका चोपड़ा अभिनीत 'मैरी कॉम' एक बायोपिक थी और मैरी कॉम ने विवाह तथा बच्चे के जन्म के बाद विजय हासिल करके इस मिथ को ध्वस्त किया कि गृहस्थी के भार के नीचे महिला की प्रतिभा दब जाती है। गृहस्थी का भार एक सुविधापूर्ण बहाना है और विरोधाभास यह है कि मातृत्व की शक्ति को यह कमतर आंकता है। जो एक जीवन की रचना करती है, वह कमजोर कैसे हुई? 'साला खड़ूस' सोलह वर्षीय गरीब कन्या के बॉक्सिंग सितारे बनने की कहानी है और उसके कोच के साहस की यशोगाथा है। 'चक दे इंडिया' में महिला टीम का इम्तिहान लेने के लिए चैंपियन पुरुष टीम से मैच कराते हैं, जिसमें बमुश्किल पुरुष टीम जीत तो जाती है परंतु वे महिला टीम के सम्मान में झुक जाते हैं।

दरअसल, शिकार युग में नारी का निशाना और चुस्ती देखकर पुरुष ने भांति-भांति के षड्यंत्र रचकर उसे दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। अभी सौ-पचास वर्ष पूर्व ही आखिरी चाल यह चली कि नारी और पुरुष समान हैं, जबकि नारी पुरुष के मुकाबले ज्यादा मजबूत है।