माधवराव सप्रे / परिचय
माधवराव सप्रे की रचनाएँ |
मध्य भारत में पत्रकारिता के जनक पं माधवराव सप्रे (जून 1871 - 26 अप्रैल 1926) के जन्म दमोह के पथरिया ग्राम में हुआ था। बिलासपुर में मिडिल तक की पढ़ाई के बाद मेट्रिक शासकीय विद्यालय रायपुर से उत्तीर्ण किया। 1899 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी ए करने के बाद उन्हें तहसीलदार के रुप में शासकीय नौकरी मिली लेकिन सप्रे जी ने भी देश भक्ति प्रदर्शित करते हए अँग्रेज़ों की शासकीय नौकरी की परवाह न की। सन 1900 में समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिग प्रेस नही था, तब उन्होने विलासपुर के छोटे से गांव पेड्रा से छत्तीसगढ़ मित्र नाम का मासिक पत्र प्रकाशित किया था। इसी से मध्य भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत होती है। सन १९०० में जब समूचे छत्तीसगढ़ में प्रिंटिंग प्रेस नही था तब इन्होंने बिलासपुर जिले के एक छोटे से गांव पेंड्रा से “छत्तीसगढ़ मित्र” नामक मासिक पत्रिका निकाली। हालांकि यह पत्रिका सिर्फ़ तीन साल ही चल पाई। सप्रे जी ने लोकमान्य तिलक के मराठी केसरी को यहाँ हिंदी केसरी के रुप में छापना प्रारंभ किया तथा साथ ही हिंदी साहित्यकारों व लेखकों को एक सूत्र में पिरोने के लिए नागपुर से हिंदी ग्रंथमाला भी प्रकाशित की। उन्होंने कर्मवीर के प्रकाशन में भी महती भूमिका निभाई।
उनकी कहानी एक टोकरी मिट्टी, को हिंदी की पहली कहानियों में से एक माना जाता है। सप्रे जी की कहानी "एक टोकरी मिट्टी" (जिसे बहुधा लोग “टोकनी भर मिट्टी” भी कहते हैं) को हिंदी की पहली कहानी होने का श्रेय प्राप्त है। सप्रे जी ने लेखन के साथ-साथ विख्यात संत समर्थ रामदास के मराठी दासबोध व महाभारत की मीमांसा, दत्त भार्गव, श्री राम चरित्र, एकनाथ चरित्र और आत्म विद्या जैसे मराठी ग्रंथों, पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद भी बखूबी किया। 1924 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के देहरादून अधिवेशन में सभापति रहे सप्रे जी ने 1921 में रायपुर में राष्ट्रीय विद्यालय की स्थापना की और साथ ही रायपुर में ही पहले कन्या विद्यालय जानकी देवी महिला पाठशाला की भी स्थापना की। यह दोनो विद्यालय आज भी चल रहे हैं।
माधवराव सप्रे के जीवन संघर्ष, उनकी साहित्य साधना, हिन्दी पत्रकारिता के विकास में उनके योगदान, उनकी राष्ट्रवादी चेतना, समाजसेवा और राजनीतिक सक्रियता को याद करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी ने 11 सितम्बर 1926 के कर्मवीर में लिखा था −
"पिछले पच्चीस वर्षों तक पं. माधवराव सप्रे जी हिन्दी के एक आधार स्तम्भ, साहित्य, समाज और राजनीति की संस्थाओं के सहायक उत्पादक तथा उनमें राष्ट्रीय तेज भरने वाले, प्रदेश के गाँवों में घूम घूम कर, अपनी कलम को राष्ट्र की जरूरत और विदेशी सत्ता से जकड़े हुए गरीबों का करुण क्रंदन बना डालने वाले, धर्म में धँस कर, उसे राष्ट्रीय सेवा के लिए विवश करने वाले तथा अपने अस्तित्व को सर्वथा मिटा कर, सर्वथा नगण्य बना कर अपने आसपास के व्यक्तियों और संस्थाओं के महत्व को बढ़ाने और चिरंजीवी बनाने वाले थे।"