माधवी / भाग 1 / खंड 5 / लमाबम कमल सिंह

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दावाग्नि

“कुछ कलियाँ

तोड़े जाने के भय से

घने पत्तें की ओट से

देख रही हैं टुकुर-टुकुर! “

पहाड़ पर चढ़ते समय वीरेन्द्र सिंह ने देखा-बड़े-बड़े कई पेड़ सूखकर गिरे पड़े थे; पूर्व की ओर लम्बी-लम्बी घनी घास खड़ी थी, घनी झाड़ियों के बीच एक सँकरा मार्ग था। उस मार्ग से थोड़ा हटकर ही पश्चिमी दिशा में एक पहाड़ी ढलान था। वह स्थांन दावाग्नि के कारण एकदम साफ ओर नंगा पड़ा था। वीरेन् अपने दल से बिछड़ जाने के कारण मन में व्याकुलता लिए पहाड़ की ऊँचाई से नीचे तराई की ओर देखने लगा-पीपल और आम के बड़े-बड़े पेड़ घने पत्तोंवाले तुलसी के पौधे जैसे दिखाई दे रहे थे, सीधी सड़कें ऐसी सुन्दर लग रही थीं, मानो कपड़े के थान बिछे पड़े हों, कभी-कभी वे सड़कें पेड़-पौधों के बीच गायब हो जाती थीं-किसी ओर पहाड़ी ढलान दृष्टि की सीमा बन जाता था। पहाड़ पर से कल-कल ध्वनि के साथ प्रवाहित नदियों की टेढ़ी-मेढ़ी धाराएँ ऐसी दिखाई दे रही थीं, मानो चीड्.लाइ (चीड्.लाइ : ड्रेगन जैसा काल्पनिक प्राणी, जो मंगोलियन सभ्यता से सम्बन्ध रखता है। मैतै लेक-विश्वास के अनुसार यह पर्वतीय गुफाओं में रहता है, इसीलिए इसे चीड्.लाइ (चीड्-पर्वत, लाइ-देवता) कहा जाता है। मैतै राजाओं के राज-चिन्ह के रूप में इसकी उपस्थिति रही है) पहाड़ी गुफा में से निकलकर नीचे समतल भूमि की ओर अपने शिकार की तलाश में भागे आ रहे हों। हरे-भरे पेड़-पौधों के बीच भवन और इमारतें चमक रही थीं, हरी घास से ढँकी झीलें ऐसी मनोरम दिखाई दे रही थीं, मानो हरा गलीचा बिछा दिया गया हो, मेड़ों से घिरे खेत ऐसे शोभायमान थे कि जैसे बिसात पर कै-यैन् (कै-येन् : लकीरें खींची हुई जमीन य कागज को बिसात के रूप में प्रयुक्त करके खेला जानेवाला एक स्थानीय खेल विशेष। यह दो व्यक्तियों द्वारा खेला जाता है। एक व्यक्ति के पास कै, अर्थात् बाघ मानी जानेवाली दो गाटियाँ रहती हैं अैर दूसरे व्यक्ति के पास येन्, अर्थात् मुर्गी मानी जाने वाली बीस गोटियाँ। कै वाली गोटी चाल और छलाँग के जरिए येन् वाली गोटी को मारती है ओर येन् वाली गोटियाँ यदि कै के चलने का मार्ग पूरी तरह रोक लेती हैं तो जीत येन् की मानी जाती है। और यदि कै वाली गोटियाँ येन् वाली गोटियों को मात देती रहती हैं तथा उनकी चाल को रोकने में येन् असमर्थ रहती हैं, तो कै की जीत मानी जाती है) की चाल के लिए लकीरें खींची हुई हों। जब इन सारे मनोहर दृश्यों को देखकर उसके मन में अनेक कल्पनाएँ जनम ले रही थीं, तब एकाएक एक कोने की घनी झाड़ियों में धू-धू की आवाज के साथ आग की लपटें उठने लगीं। हवा तेज चलने लगी, हवा के झोंकों से भड़की चिनगारियाँ उड़ने लगीं और आसपास के पेड़-पौधे, घास-तृण सब राख के ढेर में बदलने लगे। सारा आकाश धुएँ से भर गया-जो पशु-पक्षी आग से निकलकर नहीं भाग सके, वे सब जल गए-समस्त चिड़ियाँ चीं-चीं करके इधर-उधर उड़ने लगीं। शीघ्र ही वह दावाग्नि भीड़ की ओर लपकने लगी। सभी लोग अपनी जान हथेली पर रखकर भाग खड़े हुए; निर्बल और कमजोर लोग भी सबल और साहसी युवकों के सहारे उस पहाड़ी कन्दरा की ओर भागने लगे, जो बहुत पहले दावाग्नि के कारण साफ हो चुकी थी। उसी समय वीरेन् ने दूर से देखा कि पहाड़ी मार्ग की कष्टमय यात्रा से थकी-माँदी, तेज धूप के कारण नव विकसित गुलमेहँदी-सी कुम्हलाई एक यवुती कहीं कुछ आगे भागने पर ठोकर खाकर गिर पड़ती, तो कहीं लताओं में उलझती पीछे रह जाती,-पीछे की प्रचंड दावाग्नि भयंकर ध्वनि करती हुई आगे बढ़ी चली आ रही थी। उतने सारे लोगों में से किसी ने भी अपने को बचाने की चिन्ता में किसी और को बचाने का विचार तक नहीं किया। वीरेन् यह सोचकर कि कोई उपाय करके शायद उसे बचा सके, तुरन्त उस ओर दौड़ पड़ा।

पाठक! यह युवती और कोई नहीं, असहाय उरीरै ही थी। अपनी ओर भागकर आते वीरेन् को देख वह समझ बैठी कि भुवन उसका पीछा कर रहा है, पीछे शिकारी और सामने जाल के बीच फँसी हिरणी की भाँति हाँफते हुए वह चुपचाप खड़ी हो गई और दावाग्नि की ओर मुख करके तिल और चावल थामे कहने लगी, “लगता है, आज मेरा वह दिन आ गया; हे दावाग्नि, पीछे से तुम मेरा पीछा कर रही हो और सामने से दुष्ट भुवन मेरा रास्ता रोक रहा है; ठीक है, भुवन के हाथों पड़ने के बजाय दावाग्नि तुम ही मुझे जला दो, अगले जनम में मेरी इच्छा की पूर्ति हो।” यह कहते हुए आँखें बन्द कर लीं। वीरेन् के पहुँचने तक दावाग्नि उसके पास आ गई थी- अग्नि के ताप से दोनेां युवक-युवती पके फल-से हो गए। वीरेन “हाय! सर्वनाश हो गया” कहते हुए उस युवती को खींचकर भागा, तो उसका एक पैर कहीं धँस गया था| देखा तो एक-दूसरे से उलझे हुए घास-तृण आदि के बड़े ढेर से ढँकी एक पोखरी के बीच पानी साफ नजर आया। वीरेन् ने तुरन्त उस युवती को अपने बाहुपाश में लेकर उस ओर छलाँग मारी और डुबकी लगाई।

यह सब कुछ ही पलों में घटित हो गया। दावाग्नि भी दूसरी ओर खिसक गई। थोड़ी देर बाद दोनों युवक-युवती भी पानी से बाहर निकले। पहले तो कोई किसी को नहीं पहचान सका, किन्तु जब पानी से बाहर निकलर दोनों आमने-सामने हुए तो एक-दूसरे को पहचानने लगे। पहले उरीरै वीरेन् केा भुवन समझकर मरना चाहती थी, लेकिन अब नहीं चाहती; सोचने लगी कि अगर वह मर गई होती तो हाथ में आए मणि को व्यर्थ में गवाँ बैठती और पुष्प-डोली पर बैठने के अवसर को शत्रु का जाल समझ कर मर जाती तो...; वह लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगी। पल-भर भी विलम्ब होता तो उसके हृदय की सम्पत्ति जलकर खाक हो जाती, यह सोचकर वीरेन् भी लम्बी-लम्बी साँसें लेने लगा। थोड़ी देर तक बिना कुछ बोले एक-दूसरे को ताकते रहे। दोनेां की आँखों में आँसू छलकने लगे। दोनों मन में सोचने लगे कि जैसे यह पोखरी पहले से वर्तमान सामान्य पोखरी न होकर उन दोनों को बचाने के लिए वारुणी महादेव द्वारा अवतरित कोई आकस्मिक पोखरी हो। ईश्वर के प्रति उनकी भक्ति पहले से थी, अब और बढ़ गई और दोनों युवक-युवती पोखरी के किनारे पर घुटने टेककर बार-बार महादेव की स्तुति करने लगे। आगे चलकर यह स्थान एक पवित्र तीर्थ बन गया।

थोड़ी देर बाद वीरेन् बोला, “वारुणी-दर्शन की आकांक्षा से पिंजरे से छूटकर आए तोते की भाँति, अकेली आनेवाली! दावाग्नि में जलने का भी भय न करनेवाली प्रिये! अब उठो, कुछ देरन बाद हमारे जले हुए शरीर को ढूँढ़ने बहुत से लोग यहाँ आ जाएँगे। लोगों के आने से पहले यहाँ से निकल चलें, अपनी रक्षा करनेवाले महादेव के दर्शन करने जाएँ, पुष्प स्वरूप भक्ति उसके चरणों पर अर्पित करें। आँसू रूपी दूध उस पर चढ़ाएँ।” उरीरै ने उत्तर दिया, “अपने स्वार्थ की ही सोचने वाले इस संसार को पुनः अपना मुँह दिखाने से कोई लाभ नहीं। आज से मैं तुम्हारी अनुगामिनी बन जाऊँगी, निर्जन वन-वन में इधर-उधर फिरें, ईश्वर का नाम स्मरण कर यह जीवन व्यतीत करें, धूल-धूसर को ही अपना अलंकार बनाएँ। दावाग्नि से जलकर नष्ट होनेवाला अपना यह शरीर आज से तुम्हारे चरणों पर अर्पित करती हूँ।”

वीरेन् ने कहा, “प्रिये, तुम्हारे प्राण और शरीर को बचानेवाला मैं नहीं हूँ, वारुणी-महादेव ने हम दोनों को बचाया है; चलें, हम पर कृपा करनेवाले उस ईश्वर के चरणों में जाकर जीवन की सुख-शान्ति का वरदान माँगें।”

उरीरै, “मैं अपने स्वार्थ हेतु ईश्वर-दर्शन को नहीं आई हूँ, अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए ईश्वर की खुशामद करने भी नहीं आई, महादेव के चरणों में जाकर कोई विशेष वर नहीं माँगूँगी, सिर्फ दर्शन करने आई हूँ। अपना मनचाहा वरदान तो-हृदय के किसी कोने में अंकित करके रख लिया है, कहीं हाथ से खिसक भी गया तो हृदय में अंकित यह चित्र कभी नहीं मिट पाएगा।” इस प्रकार दो टूक बातें करते दोनेां युवक-युवती महादेव की ओर चल पड़े और उन्होंने देखा-वहाँ कोई मनिदर-मंडप नहीं था, केवल एक विशाल वृक्ष की फैली हुई शाखाएँ और मंडप की भँति घने पत्ते और उनमें इधर-उधर उलझी हुई बेलें मन्दिर की भाँति लग रही थीं और उस प्रकृति निर्मित मंडप-मन्दिर के नीचे ही प्रसन्नचित्त शिवलिंग विराजमान था। शायद वह, मनुष्य निर्मित मलिन अट्टालिका को न चाहने के कारण लोगों की पहुँच से परे उस सुनसान स्थान पर विराजमान हो। लेकिन कितनी देर तक निर्जन रहता? उसके अप्राप्य चरणों की टोह में वहाँ भीड़ लग गई।

दोनों युवक-युवती महादेव के चरणों में लोटकर प्रार्थना करने लगे, सिन्दूर लेकर माथे पर लगाया और उरीरै वर माँगने लगी-

“अगर जन्म लें पुष्प-जाति में

खिलें एक ही डंठल पर,

अगर जन्म लें पक्षी के रूप में

बैठें संग-संग हर डाली पर,

अगर उगें पौधों के रूप में

लिपट जाऊँ बनकर लता।"