माधुरी दीक्षित-नेने की दुविधा / जयप्रकाश चौकसे
माधुरी दीक्षित-नेने की दुविधा
प्रकाशन तिथि : 18 फरवरी 2011
विगत कई दिनों से माधुरी दीक्षित-नेने मुंबई में एक नृत्य प्रतियोगिता की जज के रूप में नजर आ रही हैं और कभी-कभी अपने मित्रों के सामाजिक कार्यक्रमों में भी हिस्सा लेती हैं। जैसे उत्तम झंवर के पुत्र के विवाह में शामिल हुईं। जहां उन्हें पुराने मित्र ऋषि कपूर, बोनी कपूर और श्रीदेवी से मुलाकात का अवसर मिला और अपने नायक सलमान खान के पिता सलीम खान के भी दीदार हुए। माधुरी अपने पुत्रों से रोज 'फेस टाइम' पर बतियाती हैं। उनके पुत्र अमेरिका में अपने पिता के साथ हैं, क्योंकि स्कू ल से उन्हें इतनी लंबी छुट्टी नहीं मिल सकती। ज्ञातव्य है कि उनके पति अमेरिका के डेनवर नामक शहर में सफल डॉक्टर हैं और अपनी प्रैक्टिस छोड़कर अपनी सितारा पत्नी के साथ लंबे समय के लिए भारत नहीं आ सकते।
बहरहाल माधुरी ने लंबी सफल पारी खेली है और वह एक दशक तक शिखर सितारा रही हैं। उनके असंख्य प्रशंसकों में से एक एमएफ हुसैन साहब भी रहे हैं। जिन्होंने माधुरी में आदर्श नारी देखी और उनकी पेंटिंग भी बनाई। वह उनकी 'गज गामिनी' भी रहीं। माधुरी के सद्व्यवहार की प्रशंसा हमेशा की जाती रही है और आज वह फिल्मकारों के मन में सुखद स्मृति की तरह बसी हैं। माधुरी मधुबाला और सुचित्रा सेन की परंपरा की वारिस रही हैं। अगर दर्शकों के मन में मधुबाला आधी रात के सपने की तरह रही हंै, तो माधुरी अलसभोर में देखे स्वप्न की तरह मौजूद रही हैं।
आजकल माधुरी को हर पल बार-बार अपने बेटों की याद आती है। अपने परिवार से दूर वह नृत्य प्रतियोगिता की जज बनी हैं, जो एक साधारण-सा कार्य है। यह सच है कि इसमें मोटा माल है परंतु माधुरी को माल की क्या कमी है। उन्होंने अपने शिखर दिनों में खूब कमाया है और पूंजी निवेश भी किया है। उनके पति भी सफल और समृद्ध हैं। अगर वे किसी महान फिल्म में महत्वपूर्ण भूमिका करने भारत आई होतीं तो समझा जा सकता था कि कला की प्यास के कारण पुत्रों से दूर हैं।
किसी 'मदर इंडिया' सी फिल्म के लिए बच्चों से कुछ समय दूर रहा जा सकता है, या किसी 'पाकीजा' के लिए पति से वियोग सहा जा सकता है। परंतु एक रियलिटी तमाशा जो देखते-देखते भी भुलाया जा सकता है, के लिए यह क्यों किया जा रहा है? अमेरिका में वे महज गृहिणी हैं और सड़क पर गुजरते हुए प्रशंसकों से नहीं घिरतीं। घर में भी वह एक मध्यमवर्गीय परिवार की बहू की तरह काम-काज करती हैं। क्या यथार्थ की इस भूमिका को निबाहते हुए उन्हें अपने सितारा दिन याद आते हैं? क्या किसी चमत्कारी 'फेस टाइम' पर वे अपने गौरव से बार-बार मुखातिब होती हैं? असाधारण और वीआईपी संस्कृति की चकाचौंध से साधारण गृहस्थ की भूमिका में आने के परिवर्तन को वह पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाईं हैं। उन दिनों की कसक आज भी उनके मन में कायम है।
यह समझ में नहीं आता कि ऐसे सफल समृद्ध लोग सेवानिवृत्त होकर भी उस दौर के मोह से कभी मुक्त क्यों नहीं हो पाते? चमक-दमक और धन अवचेतन में सांप की तरह कुंडली मारकर बैठ जाता है। यह सांप उस खजाने की रक्षा कर रहा है, जो कभी अमूल्य नहीं था। आज माधुरी को अपनी मातृभाषा मराठी में एक सशक्त सार्थक फिल्म में काम करना चाहिए और केवल ऐसी सार्थकता के लिए बच्चों से कुछ समय के लिए दूर रहा जा सकता है।